Friday, September 17, 2010

एशिया की सबसे बड़ी बनमनखी चीनी मिलः नीतीश वादा करके भूल गए

चौथी दुनिया के लिये कुमार सुशांत www.chauthiduniya.com

पूरे देश में महंगाई को लेकर जनता त्राहिमाम कर रही है. आम जनता को चीनी तक ख़रीदने के लिए अपनी जेब टटोलनी पड़ती है. कुछ महीने पहले देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने चीनी की बढ़ती क़ीमतों पर कहा था कि वह कोई ज्योतिषी नहीं हैं, जो यह बताएंगे कि चीनी के दाम कब तक घटेंगे. पवार के इस बयान पर ख़ूब हंगामा हुआ था. आज संसद में हर दिन महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष और सरकार एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं. दरअसल सरकार और विपक्ष को समझना होगा कि यह परेशानी देश में बंद पड़े बड़े-बड़े उद्योगों की वजह से है. अब बिहार के पूर्णिया ज़िले की बनमनखी चीनी मिल को ही लीजिए, जो कुछ समय पहले एशिया की सबसे बड़ी चीनी मिल हुआ करती थी. इस मिल से किसानों को बहुत फायदा होता था. उस समय कोसी और पूर्णिया प्रमंडल के किसान गन्ना उत्पादन में काफी दिलचस्पी लेते थे. नतीजतन, अच्छी पैदावार होती थी, लेकिन अब यह चीनी मिल दुर्भाग्यवश कई सालों से बंद पड़ी है. इसमें काम करने वाले सैकड़ों मज़दूर बेरोज़गार हो गए हैं और इलाके में अब पहले की तरह गन्ना उपजाना अधिक फायदेमंद नहीं रह गया है. इस वजह से यहां के किसान गन्ने की खेती को प्रमुखता से नहीं लेते. लालू यादव के शासनकाल के दौरान मिल की स्थिति बद से बदतर हो गई. नीतीश सरकार ने भी यहां के किसानों से चीनी मिल को फिर से खुलवाने को लेकर ढेरों वादे किए, लेकिन वे आज तक हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो पाए. इस मिल में काम कर चुके सुखदेव मंडल कहते हैं कि चीनी मिल बंद होने से उन्हें एवं उनके अन्य मज़दूर साथियों को काफी नुक़सान हुआ. मिल बंद होने से इलाक़े के किसानों की रुचि गन्ने की खेती में पहले के मुक़ाबले कम हो गई है. इलाक़े में कई छोटी-छोटी गुड़ मिलें तो खुल गई हैं, लेकिन किसानों को गन्ने की उचित क़ीमत नहीं मिल पाती. बड़ी-बड़ी गुड़ मिलों के मालिक छोटे किसानों का दोहन करते हैं.

2005 के विधानसभा चुनाव में बनमनखी से भाजपा नेता कृष्ण कुमार को मौक़ा दिया गया. कहीं न कहीं कृष्ण कुमार को जिताने के पीछे जनता का मक़सद यह था कि विधायक और सांसद एक ही पार्टी से हों तो इलाक़े का विकास होगा. ख़ासकर किसानों को भरोसा था कि सालों से बंद पड़ी चीनी मिल को खुलवाया जा सकेगा, लेकिन नतीजा ढाक के वही तीन पात वाला रहा. इलाक़ाई नेताओं की छोड़िए, नीतीश कुमार ने भी उन किसानों और मज़दूरों की अनदेखी कर दी, जो चीनी मिल पुन: खुल जाने के सपने देखते थे.

बनमनखी चीनी मिल की स्थापना 1970 में हुई थी. उस समय 55 एकड़ भूमि में स्थित यह मिल पूर्णिया कॉरपोरेशन सुगर फैक्ट्री लिमिटेड के अधीन थी, लेकिन बिहार सुगर एक्विजिशन एक्ट के तहत 1977 में इसे बिहार सरकार ने अपनी निगरानी में ले लिया, मगर पर्याप्त मात्रा में गन्ना, बिजली और पानी उपलब्ध न हो पाने की वजह से 1997 में यह चीनी मिल बंद हो गई. एसबीआई कैपिटल मार्केट्‌स लिमिटेड (एसबीआईसीएपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1980 में बिहार में 28 चीनी मिलें थीं, जिनकी क्रसिंग कैपेसिटी 34 हज़ार टन थी. इन सभी मिलों के यूनिट्‌स की प्रगति के लिए बिहार सरकार ने 1974 में बिहार स्टेट सुगर कॉरपोरेशन लिमिटेड का गठन किया. शुरू में कुछ सालों तक मिल से चीनी का अच्छा उत्पादन हुआ, लेकिन यह ज़्यादा समय तक बरक़रार नहीं रह सका. कम फायदा और अधिक ख़र्च का हवाला देते हुए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और 1996-97 तक कई चीनी मिलें एक के बाद एक करके बंद होती चली गईं. आज 28 में से केवल 9 चीनी मिलें ही चालू अवस्था में हैं. जहां 28 चीनी मिलों की क्रसिंग कैपेसिटी 34,000 टन हुआ करती थी, वहीं अब केवल 9 चीनी मिलों की कैपेसिटी 34,450 टन है. यानी अगर बाक़ी 19 मिलें दोबारा चालू हो जाएं तो बिहार के साथ-साथ पूरा देश चीनी की समस्या से निजात पा सकता है.

नीतीश सरकार ने बंद पड़े उद्योगों को खुलवाने का वादा किया था, लेकिन उल्टे कई उद्योग बंद हो गए.

- शकील अहमद खान

वर्तमान नीतीश सरकार ने इन चीनी मिलों को पुनर्जीवित करने के वादे कई बार किए, लेकिन बात स़िर्फ वादे तक ही सीमित रह गई. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 2006 के फरवरी महीने में गन्ना विकास आयुक्त के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाई गई, जिसने चीनी मिलों के पुनरुद्धार और बंद पड़ी यूनिट्‌स के मूल्यांकन के लिए वित्तीय सलाहकार बहाल करने की योजना बनाई, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार के उदासीन रवैए के चलते कोई भी नतीजा अब तक सामने नहीं आया. नीतीश सरकार का कार्यकाल भी पूरा होने वाला है. यह सरकार 5 सालों के दौरान एक भी चीनी मिल नहीं खुलवा सकी. नेहरू युवा केंद्र संगठन के पूर्व महानिदेशक एवं बिहार कांग्रेस के नेता शकील अहमद खां का कहना है कि नीतीश सरकार ने बंद पड़े उद्योगों को खुलवाने का वादा किया था, लेकिन उल्टे कई उद्योग बंद हो गए. पूर्णिया में न तो कोई निवेश हुआ और न यहां के बेरोज़गारों का पलायन रुक सका.

मिल बंद होने से इलाक़े के किसानों की रुचि गन्ने की खेती में पहले के मुक़ाबले कम हो गई है.

- सुखदेव मंडल

किसान गंगा प्रसाद यादव, जो पहले चीनी मिल में काम करते थे, बताते हैं कि लालू यादव के शासन में हमारी उम्मीदें ख़त्म हो गईं, लेकिन नीतीश कुमार से भी धोखा ही मिला. नीतीश जब भी पूर्णिया या इसके आसपास के इलाक़ों में दौरे पर आते थे, तब बनमनखी चीनी मिल खुलवाने का आश्वासन देते थे. पूर्णिया संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत 7 विधानसभा क्षेत्र आते हैं, जिनमें पूर्णिया, बनमनखी, बैसी, आमौर, रुपौली, धमधाहा एवं कसबा शामिल हैं. इनमें 2005 के विधानसभा चुनाव में तीन पर भाजपा के, दो पर राजद के और दो पर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी जीत दर्ज करा चुके हैं. 2004 में भाजपा नेता उदय सिंह को जनता ने पूर्णिया से लोकसभा चुनाव जिताया था. 2009 में भी जनता ने उदय सिंह पर ही भरोसा किया. 2005 के विधानसभा चुनाव में बनमनखी से भाजपा नेता कृष्ण कुमार को मौक़ा दिया गया. कहीं न कहीं कृष्ण कुमार को जिताने के पीछे जनता का मक़सद यह था कि विधायक और सांसद एक ही पार्टी से हों तो इलाक़े का विकास होगा. ख़ासकर किसानों को भरोसा था कि सालों से बंद पड़ी चीनी मिल को खुलवाया जा सकेगा, लेकिन नतीजा ढाक के वही तीन पात वाला रहा. इलाक़ाई नेताओं की छोड़िए, नीतीश कुमार ने भी उन किसानों और मज़दूरों की अनदेखी कर दी, जो चीनी मिल पुन: खुल जाने के सपने देखते थे.

लालू यादव के शासन में हमारी उम्मीदें ख़त्म हो गईं, लेकिन नीतीश कुमार से भी धोखा ही मिला.

- गंगा प्रसाद यादव

राज्य सरकार अपने वादे पर कहां तक खरी उतरी है, चीनी मिल की हालत देखकर इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है. नीतीश सरकार ने बिहार में उद्योग स्थापित करने के लिए निवेश के वादे किए थे. निवेश क्या होगा, उसके कार्यकाल में तो उद्योग बंद होते रहे. राज्य से बेरोज़गारों का पलायन जारी है, इसका उदाहरण ख़ुद बनमनखी इलाक़े के मज़दूर हैं, जो चीनी मिल में काम करते थे और आज बेरोज़गारी के चलते दूसरे शहरों की ओर भाग रहे हैं. सवाल यह है कि नीतीश सरकार ने एशिया की सबसे बड़ी चीनी मिल को पुनर्जीवित करना मुनासिब क्यों नहीं समझा. कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने बनमनखी चीनी मिल को 2010 के विधानसभा चुनाव के लिए बतौर मुद्दा अपनी सूची में शामिल कर रखा हो, ताकि एक बार फिर वादों का भ्रमजाल फैलाकर राजनीतिक रोटी सेकी जा सके.

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