Wednesday, April 30, 2014

वाम के समक्ष साख का संकट है या फिर नेतृत्व का?: अनंत विजय का प्रकाश करात के नाम पत्र

आदरणीय प्रकाश करात जी, 
लोकसभा की आधी से ज्यादा सीटों पर चुनाव संपन्न हो चुके हैं। लोकतंत्र का यह महापर्व अब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ चला है। यह चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक लग रहा है कि इस बार विचारधारा पर व्यक्ति हावी हो गया है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करनेवाले फासीवाद के आगमन की आशंका जता रहे हैं। इस चुनावी कोलाहल के बीच वामपंथी दलों का हाशिए पर चला जाना हमारे लोकतंत्र का एक ऐतिहासिक मोड़ है। उन्नीस सौ सड़सठ में आलोचना पत्रिका के एक अंक में हिंदी के मूर्धन्य आलोचक रामविलास शर्मा का एक साक्षात्कार छपा था। अपने उस साक्षात्कार में रामविलास शर्मा ने कहा था कि अगर देश में कभी फासीवाद आया तो उसकी जिम्मेदारी वामपंथी दलों की होगी। मुझे नहीं मालूम कि आपने हिंदी के इस महान लेखक का नाम आपने सुना है या उनके लेखन से आप परिचित हैं या नहीं लेकिन आपको याद दिला दें कि कमोबेश देश में इस वक्त भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं। तब भी विपक्षी दल बिखरे हुए थे और इस वक्त भी। अगर देश में फासीवाद आया, जिसकी आशंका आपकी जमात के लोग जता रहे हैं, तो सही में इसकी जिम्मेदारी वामपंथी दलों की ही होगी। हाल के वर्षों में जिस तरह से वामपंथी दल शिथिल पड़ गए वो हमारे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। लोकसभा चुनाव की गहमागहमी और नेताओं की जुबानी जंग और मीडिया में कयासों के शोरगुल में वामपंथी दलों की भूमिका पर चर्चा ही नहीं हो पा रही है। वामपंथी दल भी चुनाव के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में नाकाम हो रहे हैं। पूरे देश में राजनीति पंडित इस चुनाव में राजनीतिक दलों की आसन्न जीत और हार का कयास लगा रहे हैं। कुछ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लहर बता रहे हैं तो कईयों का मानना है कि दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी मोदी के कथित विजय रथ को रोक सकती है। सबके अपने अपने तर्क और कारण हैं। जीत हार के इन तर्कों, कारणों और दावों प्रतिदावों के बीच एक बात जो खामोश मजबूती के साथ दिखाई दे रही है वो है इन चुनावों में वामपंथी दलों का अप्रसांगिक होना। कुछ राजनीति विश्लेषकों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस और भाजपा भले ही जीत के दावों में उलझी हो लेकिन इस लोकसभा चुनाव में वामदलों की हार में किसी को संदेह नहीं है। इस लोकसभा चुनाव में वामपंथी समूह की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम, जिसके आप महासचिव हैं, निष्क्रिय दिखाई दे रही है। क्यों नहीं वामपंथी समूह गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों के बीच की धुरी बन पा रहे हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, नब्बे के दशक में कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपने राजनैतिक कौशल से कई बार गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस दलों को एकजुट किया था और सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। उसके बाद भी दो हजार चार में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गठन में वामदलों की बेहद अहम भूमिका थी। अब सिर्फ इतने दिनों में क्या हो गया कि तमिलनाडू में एआईएडीएमके के साथ गठबंधन के एलान के चंद दिनों बाद जयललिता उससे बाहर निकल आती हैं। गुजरात में प्रोग्रेसिव फ्रंट आकार भी नहीं ले पाता है। सांप्रदायिकता के नाम पर दिल्ली में गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों को एकजुट करने का उनका प्रयास परवान नहीं चढ पाता है। क्या साख का संकट है या फिर नेतृत्व का। आपको इस बात पर मंथन करना चाहिए कि उन्नसी सौ बावन में जब देश के पहले आमचुनाव का नतीजा आया था तो प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरने वाली पार्टी महज साठ साल में अप्रासंगिक होती क्यों दिख रही है। क्या वजह है कि पश्चिम बंगाल और केरल जैसे मजबूत गढ़ के अलावा बिहार और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मजबूत प्रदर्शन करनेवाली पार्टी अब वहां काफी कमजोर दिखाई देती है। बिहार के बेगूसराय को पूरब का लेनिनग्राद कहा जाता था लेकिन वहां भी पार्टी को नीतीश कुमार के सहारे की जरूरत है।
मान्यवर क्या आपको नहीं लगता कि वामदलों का समूह अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं। उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ था तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार करते हुए उसको बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण करा दिया था। भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है। जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था और नवजात गणतंत्र अपने पांव पर खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहा था तो आपकी विचारधारा ने गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत कर देश की जनता को एक गलत संदेश दिया था। उस वक्त रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इस विद्रोह को खत्म करने में भारत की मदद की थी। महात्मा गांधी को भी 1947 में कहना पड़ा था - कम्यूनिस्ट समझते हैं उनका सबसे बड़ा कर्तव्य, सबसे बड़ी सेवा (देश में ) मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना है। वे यह नहीं सोचते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएंगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है ....कुछ लोग ये ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते हैं। हमारे कम्युनिस्ट इसी हालत में जान पड़ते हैं ....ये लोग अब एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिसे अंग्रेज लगा गए थे। गांधी के इस कथन को वामदलों के समूह ने कई कई बार साबित किया। आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि सीपीआई के विभाजन के बाद वो रूस के इशारों पर चलती रही और अलग होकर बनी पार्टी सीपीएम की आस्था चेयरमैन माओ में थी। राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई। नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया। 
वामदलों के भारतीय जनमानस को नहीं समझने का एक और उदाहरण है इमरजेंसी का समर्थन। इंदिरा गांधी ने जब देश में नागरिक अधिकारों को मुअत्तल कर आपातकाल लगाने का फैसला हुआ था तो चेयरमैन एस ए डांगे ने इंदिरा गांधी के इस तानाशाही फैसले का समर्थन किया था। उसका ही अनुसरण करते हुए दिल्ली की एक सभा में प्रगतिशील लेखक संघ ने भी भीष्म साहनी की अगुवाई में इमरजेंसी के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था। ऐसे फैसले तभी होते हैं जब आप जनता का मूड नहीं भांप पाते हैं या फिर अपने निर्णयों के लिए रूस या चीन की ओर ताकते हैं। पार्टी कैडर की नाराजगी को भी डांगे ने रूस के इशारे पर नजरअंदाज किया और आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के सभी फैसलों का समर्थन करने लगे। इससे पार्टी और चेयरमैन डांगे दोनों का नुकसान हुआ था। इमरजेंसी के फैसले के समर्थन के बाद लाख कोशिशों के बावजूद एस ए डांगे मुख्यधारा में नहीं लौट पाए और सीपीआई भी मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई। यूपीए वन के दौर में जिस तरह से आपने न्यूक्लियर डील पर सरकार से समर्थन वापस लिया और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ कार्रवाई की वो भी गलत आकलन के आधार पर फैसले का सर्वोत्तम उदाहरण है। उस वक्त भी आपके नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए थे। अपनी किताब कीपिंग द फेथ-मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटिरियन में सोमनाथ चटर्जी ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग पर लिखकर आपको कठघरे में खड़ा किया है। उन्होंने आपके तानाशाही मिजाज पर भी तंज कसते हुए लिखा है कि उनको पार्टी से निकालने का फैसला पोलित ब्यूरो के पांच सदस्यों ने ही ले लिया जबकि सत्रह लोग इसके सदस्य थे। उन्होंने आप पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की राय की अनदेखी का आरोप भी लगाया है। करात साहब जिस तरह से आपने केरल के आपकी पार्टी के मजबूत नेता पिनयारी विजयन का समर्थन किया, विजयन की छवि पूरे देश में जगजाहिर है, उससे भी पार्टी की नैतिक आभा कम हुई है।  करात साहब मुझे लगता है कि वामदलों के समूह में आपकी पार्टी सबसे बड़ी है इस नाते आपकी जिम्मेदारी है कि आप देश की राजनीति को व्यक्ति केंद्रित होने से रोकें। 
करात साहब आप इस तथ्य की ओर भी गंभीरता से विचार करें कि दिल्ली में गैर सरकारी संगठन के माध्यम से काम करनेवाला एक शख्स किस तरह से पूरे देश की राजनीति को हिला रहा है। अरविंद केजरीवाल नाम के इस शख्स की राजनीति से हो सकता है आपका मतभेद हो लेकिन उसने एक साथ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को चुनौती दी। आज हालत यह है कि वामपंथी दलों से जुड़े लोग आम आदमी पार्टी में अपना ठौर ढूंढ रहे हैं। अरविंद केजरीवाल ने अपनी नैतिक आभा और जनता के मुद्दों से जुड़कर खुद को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बना लिया। करात साहब आपकी पार्टी और आपके लाल समूह का तो आधार ही लोक है लेकिन अगर आप गंभीरता से विचार करेंगे तो पाएंगे कि आपलोग जन और लोक से दूर होते चले गए। जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को उठाना और उन समस्याओं पर जनांदोलन करना आपलोगों ने छोड़ दिया। बाजारवाद और नवउदारवाद के इस दौर का सबसे ज्यादा असर देश के श्रमिकों पर पड़ा है। पूंजी के आगमन और पूंजीवाद के जोर ने श्रमिकों के हितों के रखवाले संगठनों को कमजोर कर दिया। ये आपके दलों के अनुषांगिक संगठन थे। बाजार के खुलने के बाद जिस तरह से भारत में अथाह पूंजी का आगमन हुआ उसने देश के कई हिस्सों के इंडस्ट्रियल एरिया को तबाह कर दिया। लेकिन आपलोग कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए। एसईजेड जैसे क्षेत्रों का चलन शुरू हुआ जहां श्रमिकों के अधिकारों की बातें बेमानी होने लगी। लेकिन आपलोग खामोश रहे या विरोध की रस्म अदायगी की। करात साहब किसी भी संगठन या पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने की जिम्मेदारी उसके नेता पर होती है उसका एहसास आपको होगा। जरूरत इस बात की है कि आप गंभीरता से मंथन करें और वामदलों को एक बार फिर से देश की राजनीति की परिधि से उठाकर केंद्र में स्थापित करें।

अनंत विजय
 
लेखक-पत्रकार अनंत विजय का सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात के नाम यह पत्र 'जनसत्ता' में छपा.
 

है दुनिया जिसका नाम -नज़ीर अकबराबादी

है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है
जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है
याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

        जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले
        जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले
        नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले
        जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले
        कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
        इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे
जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे
जो याँ कारहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे
ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

        जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है
        जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है
        शम्शीर तीर बन्दूक़ सिना और नश्तर तीर नहरनी है
        याँ जैसी जैसी करनी है, फिर वैसी वैसी भरनी है
        कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
        इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो ऊँचा ऊपर बोल करे तो उसका बोल भी बाला है
और दे पटके तो उसको भी, कोई और पटकने वाला है
बेज़ुल्म ख़ता जिस ज़ालिम ने मज़लूम ज़िबह करडाला है
उस ज़ालिम के भी लूहू का फिर बहता नद्दी नाला है
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

        जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
        और कोई ग़रीब और बेचारा नाहक़ में लुट जाता है
        वो आप भी लूटा जाता है औए लाठी-पाठी खाता है
        जो जैसा जैसा करता है, वो वैसा वैसा पाता है
        कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
        इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

है खटका उसके हाथ लगा, जो और किसी को दे खटका
और ग़ैब से झटका खाता है, जो और किसी को दे झटका
चीरे के बीच में चीरा है, और टपके बीच जो है टपका
क्या कहिए और 'नज़ीर' आगे, है रोज़ तमाशा झटपट का
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

महफ़िल उनकी, साक़ी उनका आंखे मेरी, बाक़ी उनका

औज़-ए-वक़्त मुलकी उनका, चर्ख-ए-हफ्त तबकी उनका

महफ़िल उनकी, साक़ी उनका, आंखे मेरी, बाक़ी उनका


अकबर इलाहाबादी 

 

Time is on their side, the heavens dote on them

The tavern is theirs and so is the barmaid, I only have eyes to behold the spectacle

Akbar Allahabadi

 

 

भ्रष्टाचार के मजबूत स्तंभों पर टिकी भारतीय शासन व न्याय व्यवस्था:मणि राम शर्मा

भारत का सरकारी तंत्र तो सदा से भी भ्रष्ट और निकम्मा रहा है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए| भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा प्रेषण प्रक्रिया में प्रारंभ में पुलिस की सीधी सेवाएं ली जाती थी किन्तु पुलिस स्वयं पेटियों  को तोडकर धन चुरा लेती और किसी की भी जिम्मेदारी  तय नहीं हो पाती थी | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर अपनी नीति में परिवर्तन करना पडा  और अब मुद्रा प्रेषण को मात्र पुलिस का संरक्षण ही होता है मुद्रा स्वयं बैंक स्टाफ के कब्जे में ही रहती है| इससे सम्पूर्ण पुलिस तंत्र की विश्वसनीयता का अनुमान लगाया जा सकता है| ठीक इसी प्रकार राजकोष का कार्य- नोटों सिक्कों आदि का लेनदेन,विनिमय  आदि मुख्यतया सरकारी कोषागारों का कार्य है| राजकोष का अंतिम नियंत्रण  रिजर्व बैंक करता रहा है किन्तु सरकारी राजकोषों के कार्य में भारी अनियमितताएं रही और वे समय पर रिजर्व बैंक को लेनदेन की कोई रिपोर्ट भी नहीं भेजते थे  क्योंकि रिपोर्ट भेजने में कोषागार स्टाफ का कोई हित निहित नहीं था और बिना हित साधे सरकारी  स्टाफ की कोई कार्य करने की परिपाटी  नहीं रही है | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर यह कार्य भी सरकारी कोषागारों से लेकर  बैंकों को सौंपना  पडा और आज निजी क्षेत्र के बैंक भी यह कार्य कर रहे हैं | अर्थात निजी बैंकों का स्टाफ सरकारी स्टाफ से ज्यादा जिम्मेदार और विश्वसनीय है | अत: यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि
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राज्य तंत्र  अब भ्रष्ट हो गया है अपरिपक्व होगा, यह तो सदा से ही भ्रष्ट रहा है किन्तु  आजादी के साथ इसके पोषण में तेजी अवश्य आई है |
भारत में कानून बनाते समय देश की विधायिकाएं उसमें कई छिद्र छोड़ देती हैं जिनमें से शक्ति प्रयोग करने वाले अधिकारियों के पास रिसरिस कर रिश्वत आती रहती है और दोषी लोग स्वतंत्र विचरण करते व आम जनता का खून चूसते रहते हैं| देश में शासन द्वारा आज भी एकतरफा कानून बनाए जाते हैं व जनता से कोई फीडबैक नहीं लिया जाता| आम जनता से प्राप्त सुझाव और शिकायतें रद्दी की टोकरी की विषय वस्तु  बनते हैं और देश के शासन के संचालन की शैली  तानाशाही ने मेल खाती है जहां कानून थोपने का एक तरफा संवाद  ही सरकार की आधारशीला होती है| जनता को भारत में तो पांच वर्ष में मात्र एक दिन मत देने का अधिकार है जबकि लोकतंत्र जनमत पर आधारित शासन प्रणाली का नाम है|  भारत भूमि पर सख्त कानून बनाने का भी तब तक कोई शुद्ध लाभ नहीं होगा जब तक कानून लागू करने वाले लोगों को इसके प्रति जवाबदेय नहीं बनाया जाता| सख्त कानून बनाए जाने से भी लागू  करने वाली एजेंसी के हाथ और उसकी दोषी के साथ मोलभाव करने की क्षमता में वृद्धि होगी और भ्रष्टाचार  की गंगोत्री अधितेज गति से बहेगी| जब भी कोई नया सरकारी कार्यालय खोला जाता है तो वह सार्वजनिक धन की बर्बादी, जन यातना और भ्रष्टाचार का नया केंद्र साबित होता है, इससे अधिक कुछ नहीं|   एक मामला जिसमें पुलिस 1000 रूपये में काम निकाल सकती है , वही मामला अपराध शाखा के पास होने पर 5000 और सी बी आई के पास होने पर 10000 लागत आ सकती है किन्तु अंतिम परिणाम में कोई ज्यादा अंतर पड़ने की संभावना नहीं है| जहां जेल में अवैध  सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए साधारण जेल में 1000-2000 रूपये सुविधा शुल्क लिया जाता है वही सुविधा तिहाड़ जैसी सख्त कही जाने वाली जेल में 10000 रूपये में मिल जायेगी|           
सरकार को भी ज्ञान है कि उसका तंत्र भ्रष्टाचार  में आकंठ डूबा हुआ है अत: कर्मचारियों को वेतन के अतिरिक्त कुछ देकर ही काम करवाया जा सकता है फलत: सरकार भी काम करवाने के लिए कर्मचारियों को विभिन्न प्रलोभन देती है | डाकघरों में बुकिंग क्लर्क और डाकिये को डाक बुक करने व बांटने के लिए वेतन के अतिरिक्त प्रति नग अलग से प्रोत्साहन  राशि दी जाती है| गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में भी चेक आदि बनाने के लिए सरकार अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहन राशि देती हैं| जहां इस प्रकार कोई लाभ देने का कोई रास्ता नहीं बचा हो वहां कर्मचारियों के  विपरीत व आपसे में ट्रांसफर और प्रतिनियुक्ति दोनों एक साथ अर्थात  ए को बी के स्थान पर और बी को ए के स्थान पर अनावश्यक ट्रान्सफर व प्रतिनियुक्त करके दोनों को भत्तों का भुगतान कर उन्हें उपकृत किया जाता है| तब जनता को ऐसी अविश्वसनीय न्याय और शासन व्यवस्था में क्यों धकेला जाए

देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोग संविधान में रिट याचिका के प्रावधान को  बढ़ा चढ़ाकर  गुणगान कर रहे हैं जबकि रिट याचिका तो किसी के अधिकारों के अनुचित व विधिविरुद्ध अतिक्रमण के विरुद्ध दायर की जाती है और कानून को लागू करवाने की प्रार्थना की जाती है | क्या न्यायालय के आदेश के बिना कानून लागू नहीं किया जा सकता या उल्लंघन करने वाले लोक सेवकों ( वास्तव में राजपुरुषों) को कानून का उल्लंघन करने का कोई विशेषाधिकार या लाइसेंस प्राप्त है ? भारतीय दंड संहिता की धारा 166 में किसी लोक सेवक द्वारा कानून के निर्देशों का उल्लंघन कर अवैध रूप से हानि पहुंचाने के लिए दंड का प्रावधान है किन्तु खेद का विषय है कि इतिहास में आज तक किसी भी संवैधानिक न्यायालय द्वारा  रिट याचिका में किसी लोक सेवक के अभियोजन के आदेश मिलना कठिन  हैं | जब तक दोषी को दंड नहीं दिया जाता तब तक यह उल्लंघन का सिलसिला किस प्रकार रुक सकता है और इसे किस प्रकार पूर्ण न्याय माना जा सकता है जब दोषी को कोई दंड दिया ही नहीं जाय क्योंकि वह राजपुरुष है | किन्तु सकार को भी ज्ञान है कि यदि दोषी राजपुरुषों को दण्डित किया जाने लगा तो उसके लिए शासन संचालन ही कठिन हो जाएगा क्योंकि सत्ता में शामिल बहुसंख्य  राजपुरुष अपराधी हैं|  इस प्रकार रिट याचिका द्वारा मात्र पीड़ित के घावों पर मरहम तो लगाया जा  सकता  है किन्तु दोषी को दंड नहीं दिया जाता| क्या यह राजपुरुषों का पक्षपोषण नहीं है? यह स्थिति भी न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि पर एक यक्ष प्रश्न उपस्थित करती है हमारे  संविधान निर्माताओं ने रिट क्षेत्राधिकार को सर्वसुलभ बनाने के लिए अनुच्छेद 32(3) में यह शक्ति जिला न्यायालयों के स्तर पर देने  का प्रावधान किया था किन्तु आज तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है अर्थात रिट याचिका को संवैधानिक न्यायालयों का एक मात्र विशेषाधिकार तक सीमित कर दिया गया हैहमारे पडौसी राष्ट्र पकिस्तान में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का अधिकार सत्र न्यायालयों को प्राप्त है जबकि उत्तरप्रदेश में  तो सत्र न्यायालयों से अग्रिम जमानत का अधिकार भी 1965 में ही छीन लिया गया था| अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में लोकतंत्र किस सीमा तक प्रभावी हैभारत में तो आज भी शक्ति का विकेंद्रीकरण नहीं हुआ है और एक व्यक्ति या आनुवंशिक शासन का आभास होता है |

यदि देश के कानून को निष्ठापूर्वक लागू किया जाए तो लोक सेवकों के अवैध कृत्यों और अकृत्यों  से निपटने के लिए अवमान कानून व भारतीय दंड संहिता की धारा 166 अपने आप में पर्याप्त हैं और रिट याचिका की कोई मूलभूत आवश्यकता महसूस नहीं होती | किन्तु देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोगों ने तो मुकदमेबाजी को द्रोपदी के चीर की भांति बढ़ाना है अत: वे सुगम और सरल रास्ता कैसे अपना सकते हैं| मुकदमेबाजी को घटना वे आत्मघाती समझते हैं| देश के न्यायाधीशों का तर्क होता है कि देश में मुक़दमे  बढ़ रहे हैं किन्तु यह भी तो दोषियों के प्रति उनकी अनावश्यक उदारता का ही परिणाम है और कानून का उल्लंघन करनेवालों में दण्डित होने का कोई भय शेष ही नहीं रह गया है| जब मध्य प्रदेश राज्य का बलात्कार का एक मुकदमा मात्र 7 माह में सुप्रीम कोर्ट तक के स्तर को पार कर गया और दोषियों को अन्तिमत: सजा हो गयी तो ऐसे ही अन्य मुक़दमे क्यों बकाया रह जाते हैं|
भारत में पुलिस संगठन का गठन जनता को कोई सुरक्षा  व संरक्षण देने के लिए नहीं किया गया था अपितु यह तो शाही लोगों की शान के प्रदर्शन के लिए गठित, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा है, देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह हैपुलिस बलों में से मात्र 25 प्रतिशत  स्टाफ ही थानों में तैनात  है व शेष बल तो इन शाही लोगों को वैध और अवैध सुरक्षा देने व बेगार के लिए कार्यरत है| कई मामलों में तो नेताजी के घर भेंट  की रकम भी पुलिस की गाडी में  पहुंचाई  जाती है जिससे कि रकम को मार्ग में कोई ख़तरा नहीं हो| लोकतंत्र की रक्षा के लिए इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों को सुरक्षा देने के स्थान  पर वास्तव में तो इनकी गतिविधियों की गुप्तचरी कर इन पर चौकसी रखना ज्यादा आवश्यक हैअभी हाल ही में उतरप्रदेश राज्य में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है जहां सरकार ने एक विधायक और उसकी पुत्री को  सुरक्षा के लिए 2-2 गनमेन निशुल्क उपलब्ध करवा रखे थे व इन  विधायक महोदय पर 60 से अधिक आपराधिक मुकदमे चल रहे थेइनके परिवार में 5-6 शास्त्र लाइसेंस अलग से थे | इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार के व्यक्तियों को निशुल्क राज्य सुरक्षा उपलब्ध करवाई जाती है और जनता के धन का एक ओर किस प्रकार दुरूपयोग होता है व दूसरी ओर पुलिस बलों की कमी बताकर आम जन की कार्यवाही में विलम्ब किया जाता है | चुनावों के समय आचार संहिता के कारण इस आरक्षित स्टाफ को महीने भर के लिए मैदानों में लगा दिया जाता है | जब महीने भर इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा में कटौती  से इन्हें कोई जोखिम नहीं है तो फिर अन्य समय कैसा और क्यों जोखिम हो सकता है| किन्तु पुलिस जनता से वसूली करती है और संरक्षण प्राप्त करने के लिए ऊपर तक भेंट पहुंचाती है अत: यदि कार्यक्षेत्र में स्टाफ बढ़ा दिया गया तो इससे यह वसूली राशि बंट जायेगी और ऊपर पहुँचने वाली राशि में कटौती होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता| इस कारण पुलिस थानों में स्टाफ की हमेशा कृत्रिम कमी बनाए रखी जाती है और महानगरों में  तो मात्र 10-15 प्रतिशत   स्टाफ ही पुलिस थानों  में तैनात है| फिर भी पुलिस थानों का स्टाफ भी इस कमी का कोई विरोध नहीं करता और बिना विश्राम किये लम्बी ड्यूटी देते रहते हैं कि ज्यादा स्टाफ आ गया तो माल के बंटाईदार बढ़ जायेंगे|
पुलिस अधिकारियों की मीटिंगों और फोन काल का विश्लेष्ण किया जाए तो ज्ञात होगा कि उनके समय का महत्वपूर्ण भाग तो संगठित अपराधियों, राजनेताओं और दलालों से वार्ता करने में लग जाता हैपुलिस के मलाईदार पदों के विषय में एक रोचक मामला सामने आया है जहां असम में एक प्रशासनिक अधिकारी को जेल महानिरीक्षक लगा दिया गया और बाद में सरकार ने उसका स्थानान्तरण शिक्षा विभाग में करना चाहा तो वे अधिकारी महोदय स्थगन लेने उच्च  न्यायालय चले गएबिहार  के एक पुलिस उपनिरीक्षक के पास उसके अधीक्षक से ही अधिक एक अरब रूपये की सम्पति पाई गयी थी| वहीं शराब ठेकेदार से 10 करोड़ रूपये वसूलने के  आरोप में पुलिस उपमहानिरीक्षक  को निलंबित भी किया गया था| वास्तव में पुलिस अधिकारी का पद तो टकसाल रुपी वरदान है  जो भाग्यशाली –भेंट-पूजा   में विश्वास करने वाले लोगों को ही नसीब हो पाता है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा भी है कि पंजाब पुलिस में कोई भी भर्ती बिना पैसे के नहीं होती है| अब गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक की सम्पति का सहज अनुमान लगाया जा सकता हैइन तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि इन पदों को तो ऊँचे दामों पर नीलाम किया जा सकता है अथवा किया जा रहा है व  वेतन देने की कोई आवश्यकता नहीं हैभ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां भी पहले परिवादी से वसूल करती हैं और बाद में सुविधा देने के लिए अभियुक्त का दोहन करती हैं या सुरक्षा देने के लिए नियमित हफ्ता वसूली करती हैं अन्यथा कोई कारण नहीं कि इतनी बड़ी रकम वसूलने वाला लोक सेवक लम्बे समय तक छिपकर, सुरक्षित व निष्कंटक नौकरी करता रहे या इसके विरुद्ध कोई शिकायत प्राप्त ही नहीं हुई हो | आज भारतीय न्यायतंत्र  एक अच्छे उद्योग के स्वरुप में संचालित है और इसमें व्यापारी वर्ग, जो प्राय: मुकदमेबाजी से दूर रहता है,  भी इसमें उतरने को   लालायित है व  बड़ी संख्या में व्यापारिक पारिवारिक पृष्ठभूमिवाले लोग  पुलिस अधिकारी, न्यायिक अधिकारी, अभियोजक और वकील का कार्य कर इसे  एक चमचमाते  उद्योग का दर्जा दे रहे हैं|

हिंदुत्व के दांत दिखाने के कुछ हैं और खाने के कुछ और "১৯৪৭ সালের পরে যাঁরা ভারতে এসেছেন, তাঁরা বিছানা-বেডিং বেঁধে রাখুন! ১৬ মে-র পরে তাঁদের বাংলাদেশে ফিরে যেতে হবে।"

हिंदुत्व  के दांत दिखाने के कुछ हैं और खाने के कुछ और
"১৯৪৭ সালের পরে যাঁরা ভারতে এসেছেন, তাঁরা বিছানা-বেডিং বেঁধে রাখুন! ১৬ মে-র পরে তাঁদের বাংলাদেশে ফিরে যেতে হবে।"
पलाश विश्वास
Come May 16, Bangladeshis must keep bags packed: Narenedra Modi
श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल): भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने रविवार को चेतावनी दी कि राजग के सत्ता में आने पर बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा।

मोदी ने कहा, 'मैं यहां से चेतावनी देना चाहता हूं, भाइयों और बहनों, आप लिख लीजिए, कि (हम) 16 मई के बाद इन बांग्लादेशियों को उनके बोरिया बिस्तर के साथ सीमापार भेजेंगे।' उन्होंने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी वोटबैंक की राजनीति कर रहीं हैं।

उन्होंने इस मिश्रित आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्र में ममता पर निशाना साधते हुए कहा, 'आप वोटबैंक की राजनीति के लिए बांग्लादेशियों के लिए पलक पांवड़े बिछा रही हैं।' इस संसदीय क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी भाषी हैं जो यहां के जूट मिलों में मजदूरी करते हैं।

मोदी ने कहा, 'यदि बिहार से लोग आते हैं तो वे आपको बाहरी लगते हैं, यदि ओडिशा से लोग आते हैं तो वे आपको बाहरी लगते हैं। यदि मारवाड़ी आते हैं तो आप उदास हो जाते हैं, लेकिन यदि बांग्लादेशी आते हैं तो आपके चेहरे चमक जाते हैं।'

हमारे अग्रज राजीव नयन बहुगुणा ने एक बुनियादी मसला उठाया है.झक झक सफेद टोपी का यानी झक झक सफेद राजनीति का।आम आदमी यानी औसत भारतीय नागरिक की औकात में यह सफेदी है ही नहीं।वह तो नख से शिख तक या तो श्वेत श्याम है या फिर संजय लीला भंसाली की फिल्मों की तरह लोक विरासत के मुताबिक चटख बहुरंगी।

झक झक सफेद तो राजनीति है,जो विडंबना है कि दिखती सफेद है , लेकिन होती कुछ और है।हमारे हिसाब से यह नुमांदगी का मामला है,जिसे हम संविधान परस्ती से सुलझाना चाहते हैं,लेकिन वह संविधान भी कहीं लागू है ही नहीं।

मौजूदा राज्यतंत्र में बिना किसी फेरबदल के महज चेहरे बदल देने से भारतीय नागरिकों की किस्मत नहीं बदलने वाली है।

हाथी के दांत दिखाने के कुछ हैं और खाने के कुछ और।

हिंदुत्व के दांत भी दिखान के और हैं और खाने को वातानुकूलित कारपोरेट जायनवादी नस्ली वर्णवर्चस्वी कुलीन सफेद झक झक झख झकास।

जिस समन्वय के तहत जनसंहारवास्ते सत्ता दल कांग्रेस ने सत्ता हस्तातंरण कर दिया संस्थागत महाविनाश पर्व के लिए,जैसे नाजी फासी रुपांतरण हो रहा है तमाम उदात्त विचारधाराओं के मध्य और जिस तरह वर्ण वर्चस्व और नस्ली भेदभाव के तहत आम नागरिक के नागरिक और मानवाधिकारों के हनन के साथ सत्ता का सैन्यीकरण हो रहा है धर्मोन्मादी वैदिकी परंपराओं के मुताबिक,वहां आम आदमी हाशिये पर भी खड़ा रहने को स्वतंत्र है ही नहीं।

उसके लिए तो मृत्यु परवाना पर दस्तखत कर दिये गये हैं।

मसलन पाकिस्तान से आ रहे शरणार्थियों को नागरिकता देने की मांग करने में संघ परिवार को कोई परहेज नहीं है।लेकिन संघ परिवार के भावी प्रधानमंत्री ने बंगाल के श्रीरामपुर में बांग्लादेशियों के खिलाफ जिहाद का ऐलान करते हुए कहा कि सन 1947 के बाद जो भारत आये हैं,वे अपना बोरिया बिस्तर बांध लें,16 मई के बाद उन्हें बांग्ला देश भेज दिया जायेगा।

हम 2003 से जब नागरिकता संशोधन बिल राजग सरकार के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने पेश किया,और जिसे बिना सुनवाई सर्वदलीय सहमति से पास किया गया,लगातार देशभर में जल जंगल जमीन नागरिकता से बेदखली के खास इंतजामात के डिजिटल बायोमेट्रिक चाकचौबंद के बारे में लोगों को समझाते रहे हैं,संघ परिवार के एजंडे का खुलासा करते रहे हैं,लेकिन किसी को कायदे से समझा नहीं सकें।

मोदी ने एक झटके से बता दिया कि भारत विभाजन के शिकार तमाम लोग बांग्लादेशी घुसपैठिया हैं और जिन बेशकीमती खनिज इलाकों में आदिवासियों के मध्य जंगल में उनका मंगल रचा गया है,वहां से उन्हें हटाकर बिना प्रतिरोध कारपोरेट परियोजनाओं को लागू किया जाना है।

जनसंख्या घटाने का माकूल इंतजाम है।

मुंबई में जैसा शिवसेना ने किया है,वैसा ही घृणा अभियान दरअसल संघी कुलीनतंत्र का चरित्र है।

धर्मभीरु धार्मिक हिंदू जनगण को समझाया जाता है कि यह सबकुछ मुसलमानों को औकात बताने के लिए है।

हर अपराध के लिए भारत विभाजन की तर्ज पर मुसलमानों को जिम्मेदार बताकर संघी तलवार हिंदुओं की गरदनें उतार रही हैं,हिंदुत्व की पैदल सेनाओं को इसका अहसास तक नहीं है।

बंगाल में लेकिन पहली बार हुआ कि किसी मुख्यमंत्री ने शरणार्तियों के नागरिक और मानवाधिकारों के हक में संघ परिवार के खिलाफ युद्ध घोषणा कर दी है।विडंहबना है कि उनकी यह कवायद भी बंगाल में निर्णायक तीस फीसद वोट बैंक को साधने की है।

वोट बैंक की मजबूरी के चलते हिंदू शरणार्थियों को अब देशभर में संघतरफे समझाया जा रहा है,सारे के सारे प्रचारक मौखिक नेट प्रचार में लगे हैं कि दरअसल संघ मुसलमानों को ही बांग्लादेशी घुसपैठिया मानता है।नरेंद्र मोदी की युद्धघोषणादरअसल मुसलामानों के खिलाफ है।

असम में बांग्लादेशियों के खिलाफ अस्सी के दशक में हो रहे आंदोलन के वक्त भी और पूर्वोत्तर में हिंसा को न्ययपूर्ण ठहराने के लिए भी बहुसंख्यहिंदुओं को असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और अमानवीय तरीके से समजाया जाता रहा है कि सारी कवायद मसल्लो को देश बाहर करने की है।

अब भी संघी तत्व बार बार यह साबित करने में लगे हैं कि हिंदू शरणार्थियों के किलाफ नहीं है संघ परिवार।


जबकि सन साठ में असम में बांगाल खेदाओ अभियान के निशाने पर हिंदू शरणार्थी ही थे।

उत्तराखंड की पहली संघी सरकार ने उत्तराखंड में सन 1952 से बसे और 1969 में संविद सरकार के जमाने में भूमिधारी हक हासिल किये तमाम बंगाली शरणार्थियों को जो संजोग से हिंदू हैं,उन्हें बांग्ला देशी घुसपैठिया घोषित कर दिया।

ओड़ीशा के केंद्रापाड़ा में भारत विभाजन के तुरंत बाद बसाये गये नोआखाली के विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थी परिवारों,जिन्होंने अपने परिजनों को कटते मरते बलात्कार का शिकार होते देखकर भारत में शरण ली थी,को भाजपा बीजद गठबंधन सरकार ने बांग्लादेश डिपोर्ट करने का अभियान चलाया।

बांग्ला बोलने वाले हर शख्स को बंगाल से बाहर बांग्लादेशी बताया जाता है,यह भूलते हुए कि भारत विभाजन के शिकार बंगाली भी हैं ठीक उसीतरह जैसे कश्मीर,सिंध और पंजाब के शरणार्थी।

लोग भूल जाते हैं कि बंगाल अब भी भारत का प्रांत है।

यही नहीं, नरेंद्र मोदी ने एकदम ठाकरे परिवार की तरह बंगाल में कमल खिलाने के लिए हिंदू मुसलमान और बंगाली गैर बंगाली विभाजन करने की हर चंद कोशिश की।

जबकि वाम शासन में विकास हो न हो, राजनीतिक आतंक की वजह से दम घुट रहा हो,लेकिन धर्म,जाति,भाषा,लिंग आधारित राजनीति के लिए कोई जगह थी नहीं।वाम शासन से पहले भी ऐसा ही रहा है।

शारदा फर्जीवाड़े में राजनेता पहलीबार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे हैं,जो साबित भी नहीं हुए हैं,बाकी देश के मुकाबले वाम वामविरोधी ध्रूवीकरण के अलावा कोई दूसरा विभाजन नहीं था।

बंगाल की इस राजनीतिक विरासत को नमोलहर बाट लगाने वाली है।

जो हिंदू शरणार्थी पहले वामदलों के समर्थक थे,वे तृणमूली हो गये और अब वे धार्मिक ध्रूवीकरण के तहत केसरिया हुआ जा रहे हैं।

जबकि संघ परिवार की अपनी कोई ताकत है नहीं।

तृणमूल के जनाधार और वोट बैंक ध्वस्त करने की गरज से कांग्रेस और वामदलों ने अप्रत्यक्ष मदद करके भाजपा के चार फीसद वोटबैंक को बीस तीस फीसद तक पहंुचाने में कामयाबी हासिल की है।

विडंबना है कि धर्म,जाति,भाषा और अस्मिता आधारित विभाजन के लिए जो वामपंथी विचारधारा बंगाल में सबस बड़ी किलेबंदी थी,वहां से मोदी के राष्ट्रविरोधी नागरिकता मानवाधिकारविरोधी युद्ध घोषणा के खिलाफ कोई प्रतिवाद नहीं है।

वह भी वोट बैंक की ही वजह से।

तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ और जहर उगलते हुए मंगलवार को कहा कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो देश जल उठेगा।

इससे पूर्व तृणमूल कांग्रेस मोदी के खिलाफ 'गुजरात का कसाई' जैसे तीखे शब्दों का इस्तेमाल कर चुकी है।

ममता बनर्जी ने कहा, 'भारत अंधकार युग में लौट जाएगा। अगर वह प्रधानमंत्री बने तो भारत जल जाएगा।'' उन्होंने कहा कि जो 'व्यक्ति अलगाववादी राजनीति करता है' वह देश का नेतृत्व नहीं कर सकता।

ममता ने दावा किया कि मोदी ने यह मान लिया है कि वह प्रधानमंत्री बन गये हैं। उन्होंने कहा, ''वह कोई अकेले शेर नहीं हैं। मायावती, जयललिता और मुलायमजी जैसे और भी बहुत से नेता हैं। वे भी शेर हैं।'' उन्होंने कहा, ''और सबसे भयावह शेर रायल बंगाल टाइगर होता है जो बंगाल में है।''

ममता ने कहा, ''नेता जो भारत की अगुवाई करेगा वह महात्मा गांधी, नेताजी, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसा होना चाहिये। ऐसा नहीं होना चाहिये जिसकी विचाराधारा धर्म के आधार पर देश को विभाजित करने की हो।'' बनर्जी ने आरोप लगाया कि एक व्यक्ति जिस पर दंगा कराने का आरोप है, उसे भारत जैसे बहु भाषी और बहु धर्मी देश का नेतृत्व नहीं करना चाहिये।

तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता ने ट्विटर पर लिखा है, 'अगर वह सत्ता में आते हैं, भारत अंधकार में डूब जाएगा। हमें दंगों के आर्किटेक्ट से विकास पर ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।'' भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर तीखे हमले बोलते हुए ममता ने कहा, ''जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जा रहा है, अगर वह सत्ता में आते हैं तो भारत बर्बाद हो जाएगा।''

मोदी द्वारा लगाए गए आरोप कि वह गैर.बांग्ला लोगों की अनदेखी और बांग्लादेशियों का स्वागत कर वोट बैंक की राजनीति में शामिल हैं, ममता ने संवाददाताओं से कहा कि उन्हें (मोदी) इतिहास की जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश से प्रवासी 1971 के इंदिरा-मुजीब समझौते के तहत भारत आए। उन्होंने कहा, ''श्री मोदी को इतिहास नहीं मालूम है। उन्हें नहीं मालूम कि बांग्ला बोलने से कोई बांग्लादेशी नहीं हो जाता।''

ममता ने कहा, ''भारत में अन्यत्र, जो भी बांग्ला बोलता है, उसे बांग्लादेशी कह दिया जाता है। यह भेदभाव है।'' उन्होंने मोदी पर विभाजनकारी राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहा, ''श्री मोदी बंगालियों और गैर बंगालियों को बांटना चाहते हैं। यह निंदनीय है।'' ममता ने कहा, ''श्री मोदी बंगालियों को भारत से भेजना चाहते हैं। वह तय करने वाले कौन होते हैं? वह विभाजनकारी राजनीति में शामिल हैं। वह दार्जिलिंग को विभाजित करना चाहते थे। अब वह राज्य में हिंदू और मुसलमानों को बांटना चाहते हैं।''

उन्होंने कहा, ''बांग्ला विश्व की पांचवीं सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। किसी भाषा के खिलाफ घृणा फैलाना अपराध है। बंगाल के लोग सौहार्द्र के साथ रहते हैं।'' विकास के गुजरात मॉडल पर हमला बोलते हुए ममता ने कहा, ''उनके शासनकाल में गुजरात के विकास में कमी आयी है।'' इस क्रम में कई आंकड़े देते हुए ममता ने कहा कि बंगाल में राजस्व आय में 31 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई लेकिन गुजरात में यह सिर्फ 15 प्रतिशत रही।

बारह मई को वोट पड़ जायेंगे।

अब तक दिल्ली की कुर्सी मतदाताों ने तय कर दी है।सही को सही,गलत को गलत बताने में कामरेड हिचक क्यों रहे हैं।

जब ममता खामोश थीं,तो आपरोप थे कि संघ परिवार के साथ उनका गुपचुप समझौता है।

अब जब दीदी खुलकर गुजरात नरसंहार,गुजरात में विकास के माडल, धार्मिक भाषाई ध्रूवीकरण और संघ के एजंडे के खिलाफ बोलने लगी हैं,तो हमारे कामरेड नमोमयबंगाल में खामोश क्यों है जबकि राजनाथ सिंह बंगाल में कम से कम दस सीटों का दावा कर रहे हैं और वामपंथियों के लिए दस सीटें निकालना भी मुश्किल है।

बाकी देश में भा अजब तमाशा है।मोदी खुद मुसलमानों के खिलाफ युद्धगोषणा कर रहे हैं और दूसरी तरफ से प्रतिक्रिया होने पर बोलने वालों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह के आरोप लगाये जा रहे हैं।चित भी उनकी पट भी उनकी।

संघ परिवार के तमाम घटक,संघी सिपाहसालार और पैदल सेनाएं एक ही कमान से नियंत्रित हैं,सब कुछ सोछी समझी मार्केंडिंग की आधुनिकतम प्रमाली के तहते है।

एक ही कमोडिटी को बाजार में बेचना है,नमोमय भारत।

बाकी सबकुच हाशिये पर।

लेकिन हाशिये पर चले जाने से वे संघ के एजंडा में शामिल मसले खत्म नहीं हो गये हैं।

उसकी याद दिलाने के लिए समय समयपर देश के कोने कोने से अलग अलग कंठ से अलग अलग स्वर उभर रहे हैं।

एक ही बांसुरी के वे अलग अलग छिद् है,जिससे सुर लेकिवन एक ही है।

तीन तीन राम के सिपाहसालार बनाये जाने पर उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती और बिहार में लालू प्रसाद के करिश्मे से जब दलित मुसलिम ओबीसी वोट बैंक के किले नमो सुनामी को मीडिया सर्वों के विपरीत रोक ही रहे हैं, तो ओबीसी भावी प्रधानमंत्री के हक में ओबीसी संत ने ओबीसी वोट बैंक को दलितों के खिलाफ लामबंद करने की सोची समजी संघी रणनीति के तहत हानीमून पुराण रच दिया।

यह फिसली जुबान का मामला नहीं है,यह है जहरीला संघी समीकरण जिसे हिंदुत्व का मुलम्मा ओढ़ा दिया जाता है।

बलि से पहले बकरे को घास उतनी ही दी जाती है कि बलि के वक्त वह ज्यादा मिमायाकर कर्मकांड में व्यवधान न डालें।

नयनदाज्यू ने बहरहाल बेहद सादगी से यह पहेली परोस दी है।अब बूझ लें आप बूझें तो हमे भी बता दें।

कई दशक बाद भारतीय राज नीति में कुछ अलग हट कर करता दीख रही आम आदमी पार्टी मुझे भी लुभाती है , लेकिन अनेक शंकाएं और आपत्तियां भी मेरे दिल में इसको लेकर है , जिनमे से प्रमुख सफ़ेद टोपी है . यह सफ़ेद टोपी कहीं से भी एक आम आदमी होने का आभास नहीं देती , बल्कि एक विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व तथा अभी व्यक्ति करती है . इसे गांधी टोपी कहा जाता है , लेकिन गांधी ने सिर्फ डेढ़ साल पहन कर इसे उतार फेंका , और इसकी निरर्थकता भांप कर इसे फिर कभी नहीं पहना . दर असल यह टोपी संस्कृति " आप " ने अन्ना हजारे से ली है , जो एक विचार शून्य व्यक्ति साबित हो चुके हैं . भारत के जोगी - जोगटों की तरह अन्ना हजारे को भी अपना आडम्बर महिमामंडित कर खुद को पुजवाने के लिए एक विशिष्ट वस्त्र विन्यास चाहिए . एक निम्न मध्य वर्गीय आम आदमी यह झका झक सफ़ेद टोपी कैसे मेंटेन कर सकता है , जिसके पास नहाने का साबुन भी सुलभ नहीं . क्या पुनर्विचार करेंगे आप ?

असल में राजनीति आम नता की नुमांइंदगी करती नही है।फर्जी जम्हूरियत के तिलिस्म में हम कैद है।इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए राज्यतंत्र पर काबिज कुलीन संघी तंत्र के तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़ना बेहद जरुरी है। मिट्टी से लथपथ मैले कुचले लोगों की भागेदारी सुनिश्चित किये बिना जो असंभव है।

বাংলাদেশিদের তল্পিতল্পা গুটিয়ে চলে যেতে হবে, হুঁশিয়ারি মোদীর



 

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003
Sub:- CITIZEN SHEEP AMENDMENT ACT 2003



বাংলা ভাষায় কথা বললেই 'বাক্স-প্যাঁটরা সমেত ছুড়ে ফেলে দেবে'?১৯৪৭ সালের পরে যাঁরা ভারতে এসেছেন, তাঁরা বিছানা-বেডিং বেঁধে রাখুন! ১৬ মে-র পরে তাঁদের বাংলাদেশে ফিরে যেতে হবে।" আসুন সংকল্প করি ,এই পৃথীবীতে বাংলা ভাষায় যারা কথা বলেন,তারা পৃথীবীর কোথাও এই বর্ণবিদ্বেষী নররক্তপিপাষুর সমর্থনে একটি ভোটও দেব না। ভোট 12 মেতে শেষ হচ্ছে,কিন্তু সারা ভারতে বাঙালির অস্থ্ব বিপর্যয়ে বাটের রাজনীতির উর্ধে বাঙালি জাতিসত্তার সব সীমান্ত ভেঙে ফেলার এই সংক্রমণকালে বাঙালি একজোট না হলে সারা ভারতবর্ষ কিন্তু পর্ব বঙ্গ হয়ে যাবে।

http://shudhubangla.blogspot.in/2014/04/12.html

বাংলাদেশী জিগির তুলে ভারত ভাগের বলি মানুষদেরই নাগরিকত্ব থেকে বন্চিত করে সারা দেশ ব্যাপী অভিযান চলছে কংগ্রেস বিজেপি যোগসাজসে।


বাংলাভাগের পর হিন্দূ রাষ্ট্রের নয়া জিগির আবার ভারত ভাগের বলি বাঙালি উদ্বাস্তুদের জন্য অশনিসংকেত বাংলার বুকে দাঁড়িযে সঙ্ঘ পরিববারের কুলশিরোমণি বাংলাদেশী অনুপ্রবেশ ইস্যুক সর্বাধিক গুরুত্ব দিয়ে আবার হিন্দূ মুসলিম বিভাজনে বাংলা জয়ের ঘোষণা করে গেলেন।

আসলে নজরুল ইসলাম ও রেজ্জাক মোল্লার নেতৃত্বে যে দলিত মুসলিম সংগঠন আগামি বিধানসভা নির্বাচনে ব্রাহ্মণ্যতান্ত্রিক আধিপাত্যের অবসাণে অন্ত্যজদের ক্ষমতায়ণের যুদ্ধঘোষণা করেছে,তাঁরই প্রতিক্রিয়া ও ক্ষমতাগোষ্ঠির রণকৌশল হল গৌরিক পতাকার এই আক্রামক আস্ফালন,হিন্দু মুসলিম বিভাজন ও কখনো ভারত ভাগের আগের মত দলিত মুসলিম একতায় ক্ষমতাবেদখল হতে না দেওয়ার জোর প্রস্তুতি।

Narendra Modi threatens to deport Bangaldeshis if BJP comes to power




जनसत्ता में प्रकाशित पूरी रपट गौरतलब हैः
श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल)/अमदाबाद। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने चेतावनी दी है कि राजग के सत्ता में आने पर बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा। इससे पहले एक साक्षात्कार में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर धर्मनिरपेक्षता के बंकर में छिपने का प्रयास करने का आरोप लगाते हुए नरेंद्र मोदी ने रविवार को कहा कि पार्टी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।

मोदी ने कहा,'मैं यहां से चेतावनी देना चाहता हूं, भाइयों और बहनों, आप लिख लीजिए कि हम 16 मई के बाद इन बांग्लादेशियों को उनके बोरिया बिस्तर के साथ सीमापार भेजेंगे।' उन्होंने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं। उन्होंने इस मिश्रित आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्र में ममता पर निशाना साधते हुए कहा,'आप वोट बैंक की राजनीति के लिए बांग्लादेशियों के लिए पलक पांवड़े बिछा रही हैं।' इस संसदीय क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं, जो यहां के जूट मिलों में मजदूरी करते हैं।
मोदी ने कहा,'यदि बिहार से लोग आते हैं तो वे आपको बाहरी लगते हैं, यदि ओड़िशा से लोग आते हैं तो वे आपको बाहरी लगते हैं। यदि मारवाड़ी आते हैं तो आप उदास हो जाते हैं। लेकिन यदि बांग्लादेशी आते हैं तो आपके चेहरे चमक जाते हैं।' उन्होंने आरोप लगाया कि ममता बनर्जी वोट बैंक की राजनीति के लिए देश के लोगों का अपमान कर रही हैं। उन्होंने कहा,'35 साल में वामदलों ने जितना नुकसान पहुंचाया, आपने उससे भी ज्यादा नुकसान 35 महीने में किया।'
इससे पहले एक साक्षात्कार में नरेंद्र मोदी ने कांगे्रस पर धर्मनिरपेक्षता के बंकर में छिपने का प्रयास करने का आरोप लगाते हुए नरेंद्र मोदी ने रविवार को कहा कि पार्टी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। उन्होंने कहा कि नई लोकसभा में कांगे्रस के लिए 100 सीट के स्तर तक पहुंचना भी दुरुह काम लग रहा है। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर झूठ बोलने का आरोप लगाया है। कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आरोप कि उनका चुनाव प्रचार धार्मिक कट्टरता, धन और बल का खतरनाक गठजोड़ है, इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने कहा,'निश्चित हार का सामना कर रही वह (कांगे्रस) अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। वह एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता के बंकर में छिपने का प्रयास कर रही है।'

मोदी ने कहा,'उसकी अंतिम उम्मीद है कि किसी तरह 100 सीटों के स्तर को पार किया जाए जो उसके लिए दुरुह काम लग रहा है।' सोनिया के कटाक्ष कि वह भारत को स्वर्ग बनाने का वादा कर रहे हैं, मोदी ने कहा,'मैंने कभी यह नहीं कहा कि मैं भारत को स्वर्ग बना दूंगा और मेरे पास सभी समस्याओं का हल है। मैं आश्वस्त हूं कि लोग भी मुझसे यह उम्मीद नहीं करते।'
प्रियंका गांधी की ओर से उनके परिवार और उनके पति राबर्ट वडरा को लेकर जलील करने के मोदी पर लगाए गए आरोप के सवाल पर भाजपा नेता ने कहा,'यह स्वाभाविक है कि एक बेटी अपनी मां का बचाव करना पसंद करेगी। एक बहन अपने भाई का बचाव करना पसंद करेगी। मुझे उसे लेकर कोई दिक्कत नहीं है।'  
नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर गोधरा की घटना के बाद 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बारे में किसी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया। लेकिन एक अन्य प्रश्न के उत्तर में कहा कि उनके विरोधियों को उनके खिलाफ भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद या अक्षमता के गंभीर आरोप नहीं मिल पा रहे हैं। इस सवाल पर कि क्या वह मुसलमानों को यह आश्वासन देना चाहेंगे कि वे सुरक्षित महसूस करें और उनके नेतृत्व में सरकार बनने पर किसी के खिलाफ भेदभाव नहीं करेगी, मोदी ने कहा कि किसी के असुरक्षित महसूस करने की वजह नहीं है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। उन्होंने कहा,'हम 125 करोड़ भारतीयों की सुरक्षा और विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारा आदर्श नारा है,'सबका साथ सबका विकास'।'
उधर, उत्तर प्रदेश फतेहपुर में जनसत्ता संवाददाता श्रवण श्रीवास्तव के मुताबिक नरेंद्र मोदी ने रविवार को बिना नाम लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि मां-बेटे झूठ का पुलिंदा है। देश को शासक की नहीं सेवक की जरूरत है। साठ साल बाद भी उत्तर प्रदेश की जनता बिजली, पानी आदि समस्याओं से जूझ रही है। जनता के अरमानों को लूटा गया है। मोदी फतेहपुर में भाजपा उम्मीदवार साध्वी निरंजन ज्योति के समर्थन में चुनावी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि वो पूरा देश घूमें हैं। लेकिन आजादी के 60 साल बाद हर जिले के लोग एक ही बात कहते हैं कि पीने का पानी नहीं है। मैं हैरान हूं कि फतेहपुर, रायबरेली जैसे बड़े-बड़े दिग्गजों का कार्यक्षेत्र होने के बाद भी महिलाओं के लिए शौचालय नहीं है। उन्होंने कहा कि मां-बेटे दोनों झूठ बोलने में आगे चल रहे हैं।