भारत का
सरकारी तंत्र तो सदा से भी भ्रष्ट और निकम्मा रहा है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए| भारतीय
रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा प्रेषण प्रक्रिया में प्रारंभ
में पुलिस की सीधी सेवाएं ली जाती थी किन्तु पुलिस स्वयं पेटियों को तोडकर
धन चुरा लेती और किसी की भी जिम्मेदारी तय नहीं हो पाती थी | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर अपनी नीति में परिवर्तन करना पडा और अब मुद्रा प्रेषण को मात्र पुलिस का संरक्षण
ही होता है मुद्रा स्वयं बैंक स्टाफ के कब्जे में ही रहती है| इससे सम्पूर्ण पुलिस तंत्र की विश्वसनीयता का अनुमान लगाया जा
सकता है|
ठीक इसी प्रकार राजकोष का कार्य- नोटों सिक्कों आदि का लेनदेन,विनिमय आदि मुख्यतया
सरकारी कोषागारों का कार्य है| राजकोष का अंतिम
नियंत्रण रिजर्व बैंक करता रहा है किन्तु सरकारी
राजकोषों के कार्य में भारी अनियमितताएं रही और वे समय पर रिजर्व बैंक को लेनदेन की
कोई रिपोर्ट भी नहीं भेजते थे क्योंकि रिपोर्ट
भेजने में कोषागार स्टाफ का कोई हित निहित नहीं था और बिना हित साधे सरकारी स्टाफ की कोई कार्य करने की परिपाटी नहीं रही है | अत:
रिजर्व बैंक को विवश होकर यह कार्य भी सरकारी कोषागारों से लेकर बैंकों
को सौंपना पडा और आज निजी क्षेत्र के बैंक भी यह कार्य कर
रहे हैं |
अर्थात निजी बैंकों का स्टाफ सरकारी स्टाफ से ज्यादा
जिम्मेदार और विश्वसनीय है | अत: यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि
राज्य तंत्र अब भ्रष्ट हो गया है अपरिपक्व होगा, यह तो सदा से ही भ्रष्ट रहा है किन्तु आजादी के साथ इसके पोषण में तेजी अवश्य आई है |
भारत में
कानून बनाते समय देश की विधायिकाएं उसमें कई छिद्र छोड़ देती हैं जिनमें से शक्ति प्रयोग
करने वाले अधिकारियों के पास रिसरिस कर रिश्वत आती रहती है और दोषी लोग स्वतंत्र विचरण
करते व आम जनता का खून चूसते रहते हैं| देश में शासन द्वारा आज भी एकतरफा कानून बनाए जाते हैं व जनता से कोई फीडबैक नहीं
लिया जाता|
आम जनता से प्राप्त सुझाव और शिकायतें रद्दी की टोकरी की विषय
वस्तु बनते हैं और देश के शासन के संचालन की
शैली तानाशाही ने मेल खाती है जहां कानून थोपने
का एक तरफा संवाद ही सरकार की आधारशीला होती
है|
जनता को भारत में तो पांच वर्ष में मात्र एक दिन मत देने का
अधिकार है जबकि लोकतंत्र जनमत पर आधारित शासन प्रणाली का नाम है| भारत भूमि पर सख्त कानून बनाने का भी तब तक कोई
शुद्ध लाभ नहीं होगा जब तक कानून लागू करने वाले लोगों को इसके प्रति जवाबदेय नहीं
बनाया जाता|
सख्त कानून बनाए जाने से भी लागू करने वाली एजेंसी के हाथ और उसकी दोषी के साथ मोलभाव
करने की क्षमता में वृद्धि होगी और भ्रष्टाचार
की गंगोत्री अधितेज गति से बहेगी| जब भी कोई नया सरकारी कार्यालय खोला जाता है तो वह सार्वजनिक धन की बर्बादी,
जन यातना और भ्रष्टाचार का नया केंद्र साबित होता है, इससे अधिक कुछ नहीं| एक मामला जिसमें पुलिस 1000 रूपये में काम निकाल सकती है , वही मामला अपराध शाखा के पास होने पर 5000 और सी बी आई के पास होने पर 10000 लागत आ सकती है किन्तु अंतिम परिणाम में कोई ज्यादा अंतर पड़ने
की संभावना नहीं है|
जहां जेल में अवैध सुविधाएं
उपलब्ध करवाने के लिए साधारण जेल में 1000-2000 रूपये सुविधा शुल्क लिया जाता है वही सुविधा तिहाड़ जैसी सख्त कही जाने वाली जेल
में 10000 रूपये में मिल जायेगी|
सरकार को
भी ज्ञान है कि उसका तंत्र भ्रष्टाचार में
आकंठ डूबा हुआ है अत: कर्मचारियों को वेतन के अतिरिक्त कुछ देकर ही काम करवाया जा सकता
है फलत: सरकार भी काम करवाने के लिए कर्मचारियों को विभिन्न प्रलोभन देती है | डाकघरों में बुकिंग क्लर्क और डाकिये को डाक बुक करने व बांटने
के लिए वेतन के अतिरिक्त प्रति नग अलग से प्रोत्साहन राशि दी जाती है| गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में भी चेक आदि बनाने के लिए सरकार अपने कर्मचारियों
को प्रोत्साहन राशि देती हैं| जहां इस प्रकार
कोई लाभ देने का कोई रास्ता नहीं बचा हो वहां कर्मचारियों के विपरीत व आपसे में ट्रांसफर और प्रतिनियुक्ति दोनों
एक साथ अर्थात ए को बी के स्थान पर और बी को
ए के स्थान पर अनावश्यक ट्रान्सफर व प्रतिनियुक्त करके दोनों को भत्तों का भुगतान कर
उन्हें उपकृत किया जाता है|
तब जनता को ऐसी अविश्वसनीय न्याय और शासन व्यवस्था में क्यों
धकेला जाए ?
देश के
न्याय तंत्र से जुड़े लोग संविधान में रिट याचिका के प्रावधान को बढ़ा चढ़ाकर
गुणगान कर रहे हैं जबकि रिट याचिका तो किसी के अधिकारों के अनुचित व विधिविरुद्ध
अतिक्रमण के विरुद्ध दायर की जाती है और कानून को लागू करवाने की प्रार्थना की जाती
है |
क्या न्यायालय के आदेश के बिना कानून लागू नहीं किया जा सकता
या उल्लंघन करने वाले लोक सेवकों ( वास्तव में राजपुरुषों) को कानून का उल्लंघन करने
का कोई विशेषाधिकार या लाइसेंस प्राप्त है ? भारतीय दंड संहिता की धारा 166 में किसी लोक सेवक द्वारा कानून के निर्देशों का
उल्लंघन कर अवैध रूप से हानि पहुंचाने के लिए दंड का प्रावधान है किन्तु खेद का विषय
है कि इतिहास में आज तक किसी भी संवैधानिक न्यायालय द्वारा रिट याचिका में किसी लोक सेवक के अभियोजन के आदेश
मिलना कठिन हैं | जब तक दोषी को दंड नहीं दिया जाता तब तक यह उल्लंघन का सिलसिला
किस प्रकार रुक सकता है और इसे किस प्रकार पूर्ण न्याय माना जा सकता है जब दोषी को
कोई दंड दिया ही नहीं जाय क्योंकि वह राजपुरुष है | किन्तु
सकार को भी ज्ञान है कि यदि दोषी राजपुरुषों को दण्डित किया जाने लगा
तो उसके लिए शासन संचालन ही कठिन हो जाएगा क्योंकि सत्ता में शामिल
बहुसंख्य राजपुरुष अपराधी हैं| इस प्रकार रिट याचिका द्वारा मात्र पीड़ित
के घावों
पर मरहम तो लगाया जा सकता है किन्तु दोषी को दंड नहीं दिया जाता| क्या यह राजपुरुषों का पक्षपोषण नहीं है? यह स्थिति भी न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि पर एक यक्ष प्रश्न
उपस्थित करती है | हमारे संविधान निर्माताओं ने रिट क्षेत्राधिकार को सर्वसुलभ
बनाने के लिए अनुच्छेद 32(3) में यह शक्ति जिला न्यायालयों के स्तर पर देने का प्रावधान किया था किन्तु आज तक इस दिशा में कोई
प्रगति नहीं हुई है अर्थात रिट याचिका को संवैधानिक न्यायालयों का एक मात्र विशेषाधिकार
तक सीमित कर दिया गया है| हमारे पडौसी राष्ट्र
पकिस्तान में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का अधिकार सत्र न्यायालयों को प्राप्त है जबकि
उत्तरप्रदेश में तो सत्र न्यायालयों से अग्रिम
जमानत का अधिकार भी 1965 में ही छीन लिया गया था| अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में लोकतंत्र किस सीमा तक प्रभावी है| भारत में तो
आज भी शक्ति का विकेंद्रीकरण नहीं हुआ है और एक व्यक्ति या आनुवंशिक शासन का आभास
होता है |
यदि
देश
के कानून को निष्ठापूर्वक लागू किया जाए तो लोक सेवकों के अवैध कृत्यों और
अकृत्यों से निपटने के लिए अवमान कानून व भारतीय दंड संहिता
की धारा 166 अपने आप में पर्याप्त हैं और रिट याचिका की कोई मूलभूत
आवश्यकता महसूस
नहीं होती |
किन्तु देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोगों ने तो मुकदमेबाजी को
द्रोपदी के चीर की भांति बढ़ाना है अत: वे सुगम और सरल रास्ता कैसे अपना सकते हैं| मुकदमेबाजी को घटना वे आत्मघाती समझते हैं| देश के
न्यायाधीशों का तर्क होता है कि देश में मुक़दमे
बढ़ रहे हैं किन्तु यह भी तो दोषियों के प्रति उनकी अनावश्यक उदारता का ही
परिणाम है और कानून का उल्लंघन करनेवालों में दण्डित होने का कोई भय शेष ही नहीं
रह गया है| जब मध्य प्रदेश राज्य का बलात्कार का एक मुकदमा मात्र 7 माह में
सुप्रीम कोर्ट तक के स्तर को पार कर गया और दोषियों को अन्तिमत: सजा हो गयी तो ऐसे
ही अन्य मुक़दमे क्यों बकाया रह जाते हैं|
भारत में
पुलिस संगठन का गठन जनता को कोई सुरक्षा व
संरक्षण देने के लिए नहीं किया गया था अपितु यह तो शाही लोगों की शान के प्रदर्शन के
लिए गठित, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा है, देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह है| पुलिस बलों में
से मात्र 25 प्रतिशत स्टाफ ही थानों में तैनात है व शेष बल तो इन शाही लोगों को वैध और अवैध सुरक्षा
देने व बेगार के लिए कार्यरत है| कई
मामलों में
तो नेताजी के घर भेंट की रकम भी पुलिस की
गाडी में पहुंचाई जाती है जिससे कि रकम को मार्ग में कोई ख़तरा
नहीं हो| लोकतंत्र की रक्षा के लिए इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों को सुरक्षा
देने के स्थान पर वास्तव में तो इनकी गतिविधियों की गुप्तचरी कर
इन पर चौकसी रखना ज्यादा आवश्यक है|
अभी हाल ही में उतरप्रदेश राज्य में एक ऐसा मामला प्रकाश में
आया है जहां सरकार ने एक विधायक और उसकी पुत्री को सुरक्षा के लिए 2-2 गनमेन निशुल्क उपलब्ध करवा रखे
थे व इन विधायक महोदय पर 60 से अधिक आपराधिक
मुकदमे चल रहे थे| इनके परिवार में
5-6 शास्त्र लाइसेंस अलग से थे | इससे स्पष्ट है
कि किस प्रकार के व्यक्तियों को निशुल्क राज्य सुरक्षा उपलब्ध करवाई जाती है और जनता
के धन का एक ओर किस प्रकार दुरूपयोग होता है व दूसरी ओर पुलिस बलों की कमी बताकर आम
जन की कार्यवाही में विलम्ब किया जाता है | चुनावों के समय आचार संहिता के कारण इस आरक्षित स्टाफ को महीने भर के लिए मैदानों
में लगा दिया जाता है |
जब महीने भर इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा में कटौती से इन्हें कोई जोखिम नहीं है तो फिर अन्य समय कैसा
और क्यों जोखिम हो सकता है|
किन्तु पुलिस जनता से वसूली करती है और संरक्षण प्राप्त करने
के लिए ऊपर तक भेंट पहुंचाती है अत: यदि कार्यक्षेत्र में स्टाफ बढ़ा दिया गया तो इससे
यह वसूली राशि बंट जायेगी और ऊपर पहुँचने वाली राशि में कटौती होने की संभावना से इनकार
नहीं किया जा सकता|
इस कारण पुलिस थानों में स्टाफ की हमेशा कृत्रिम कमी बनाए रखी
जाती है और महानगरों में तो मात्र 10-15 प्रतिशत स्टाफ ही पुलिस थानों में तैनात है| फिर भी पुलिस थानों का स्टाफ भी इस कमी का कोई विरोध नहीं करता और बिना
विश्राम किये लम्बी ड्यूटी देते रहते हैं कि ज्यादा स्टाफ आ गया तो माल के
बंटाईदार बढ़ जायेंगे|
पुलिस अधिकारियों
की मीटिंगों और फोन काल का विश्लेष्ण किया जाए तो ज्ञात होगा कि उनके समय का महत्वपूर्ण
भाग तो संगठित अपराधियों,
राजनेताओं और दलालों से वार्ता करने में लग जाता है| पुलिस के मलाईदार
पदों के विषय में एक रोचक मामला सामने आया है जहां असम में एक प्रशासनिक अधिकारी को
जेल महानिरीक्षक लगा दिया गया और बाद में सरकार ने उसका स्थानान्तरण शिक्षा विभाग में
करना चाहा तो वे अधिकारी महोदय स्थगन लेने उच्च
न्यायालय चले गए| बिहार के एक पुलिस उपनिरीक्षक के पास उसके अधीक्षक से
ही अधिक एक अरब रूपये की सम्पति पाई गयी थी| वहीं शराब ठेकेदार से 10 करोड़ रूपये वसूलने के आरोप में पुलिस उपमहानिरीक्षक को निलंबित भी किया गया था| वास्तव में पुलिस अधिकारी का पद तो टकसाल रुपी वरदान
है जो भाग्यशाली –भेंट-पूजा में विश्वास करने वाले लोगों को ही नसीब हो
पाता है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा भी है कि पंजाब पुलिस में कोई भी
भर्ती बिना पैसे के नहीं होती है| अब गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक की सम्पति का सहज
अनुमान लगाया जा सकता है| इन तथ्यों से ऐसा
प्रतीत होता है कि इन पदों को तो ऊँचे दामों पर नीलाम किया जा सकता है अथवा किया जा
रहा है व वेतन देने की कोई आवश्यकता नहीं है| भ्रष्टाचार निरोधक
एजेंसियां भी पहले परिवादी से वसूल करती हैं और बाद में सुविधा देने के लिए अभियुक्त
का दोहन करती हैं या सुरक्षा देने के लिए नियमित हफ्ता वसूली करती हैं अन्यथा कोई कारण
नहीं कि इतनी बड़ी रकम वसूलने वाला लोक सेवक लम्बे समय तक छिपकर, सुरक्षित व निष्कंटक
नौकरी करता रहे या इसके विरुद्ध कोई शिकायत प्राप्त ही नहीं हुई हो | आज भारतीय न्यायतंत्र
एक अच्छे उद्योग के स्वरुप में संचालित है और इसमें व्यापारी वर्ग, जो
प्राय: मुकदमेबाजी से दूर रहता है, भी
इसमें उतरने को लालायित है व बड़ी संख्या में व्यापारिक पारिवारिक पृष्ठभूमिवाले
लोग पुलिस अधिकारी, न्यायिक अधिकारी,
अभियोजक और वकील का कार्य कर इसे एक
चमचमाते उद्योग का दर्जा दे रहे हैं|
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