Saturday, September 25, 2010

यह लालू, नीतीश और राहुल की अग्निपरीक्षा है

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संतोष भारतीय

editor@chauthiduniya.com

संतोष भारतीय चौथी दुनिया (हिंदी का पहला साप्ताहिक अख़बार) के प्रमुख संपादक हैं. संतोष भारतीय भारत के शीर्ष दस पत्रकारों में गिने जाते हैं. वह एक चिंतनशील संपादक हैं, जो बदलाव में यक़ीन रखते हैं. 1986 में जब उन्होंने चौथी दुनिया की शुरुआत की थी, तब उन्होंने खोजी पत्रकारिता को पूरी तरह से नए मायने दिए थे.



बिहार चुनाव राजनीति की महत्वपूर्ण प्रयोगशाला बन गया है. अगर इसे पुराने बिहार के पैमाने पर देखें तो और मज़ा आएगा. पहले झारखंड के संकेत देखिए. अर्जुन मुंडा ने आडवाणी जी की अनदेखी की. आडवाणी सहित मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज सरकार बनाना नहीं, चुनाव चाहते थे. इनका मानना था कि बिहार के बाद चुनाव यदि झारखंड में होते तो उन्हें बिहार की जीत का फायदा मिलता. इनका मानना है कि बिहार में नीतीश कुमार के साथ उनके गठजोड़ की सरकार बन रही है. लेकिन अर्जुन मुंडा ने और झारखंड भाजपा ने उनकी बात नहीं मानी. सारे भाजपा विधायक झारखंड मुक्ति मोर्चे के साथ मिलकर राज्यपाल के यहां चले गए. इस घटना ने संकेत दिया है कि भाजपा में विचारधारा की प्रतिबद्धता तो ख़त्म हो ही गई है, अब वहां अनुशासन का भी कोई महत्व नहीं रहा. स्थानीय स्वार्थ और बाहरी दबाव अब ज़्यादा मायने रखते हैं.

बिहार में नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. चुनौतियां इसलिए, क्योंकि वह मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के रूप में इन्होंने बिहार में सरकारी तंत्र का पुनर्निर्माण किया है. पर यह काम जनता के प्रतिनिधियों और उनके कार्यकर्ताओं को अलग रखकर ही किया गया है. शायद इस तर्क में कुछ सच्चाई हो कि अगर कार्यकर्ता और जनप्रतिनिधि अलग नहीं रखे जाते तो प्रशासनिक ढांचे का पुनर्निर्माण हो ही नहीं सकता था. पर नीतीश कुमार से यही अपेक्षा थी कि वह इस संतुलन को बनाएंगे.

हमारा मानना था कि अटल जी के पर्दे से हटने के बाद भी उनकी नीतियां आडवाणी जी और जोशी जी के रूप में चलेंगी. पर अब लगता है कि ये दोनों भी धीरे-धीरे अप्रासंगिकता की ओर ढकेल दिए गए हैं. कई राजनैतिक दल हैं, जिनकी बागडोर अदृश्य रूप से कुछ बड़े पैसे वालों के हाथ में है. वैसे ही अब भाजपा की राज्य इकाइयां भी ऐसे ही पैसे वालों के इशारे पर काम कर रही हैं और केंद्रीय संस्कृति केंद्रीय अनुशासन को मुंह चिढ़ाने लगी है.

बिहार में नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. चुनौतियां इसलिए, क्योंकि वह मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के रूप में इन्होंने बिहार में सरकारी तंत्र का पुनर्निर्माण किया है. पर यह काम जनता के प्रतिनिधियों और उनके कार्यकर्ताओं को अलग रखकर ही किया गया है. शायद इस तर्क में कुछ सच्चाई हो कि अगर कार्यकर्ता और जनप्रतिनिधि अलग नहीं रखे जाते तो प्रशासनिक ढांचे का पुनर्निर्माण हो ही नहीं सकता था. पर नीतीश कुमार से यही अपेक्षा थी कि वह इस संतुलन को बनाएंगे. नीतीश कुमार की राजनैतिक शिक्षा बिहार आंदोलन की प्रक्रिया में हुई थी और वह कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय भी रहे थे, पर दो साल बीतते- बीतते वह अधिकारियों के हो गए. कार्यकर्ताओं और विधायकों की सुनवाई बंद हो गई. इसका एक ख़तरनाक परिणाम निकला कि जहां काम एक हज़ार में हो रहा था, वहीं अब उसकी क़ीमत पांच हज़ार हो गई.

नीतीश कुमार की अच्छाइयां गिनाएं तो सूची लंबी बनेगी, पर अब अच्छाइयों को काम की कसौटी पर परखा जाएगा. दिल्ली और पटना से दिखाई देने वाला काम अब वे परखेंगे, जिनके लिए काम किया गया है. उन्हें मालूम है कि जो काम हुए हैं, उसका कितना फायदा उन्हें सचमुच मिलने वाला है. सच्चाई यह है कि बिहार के बारे में सब मानते हैं कि वहां फैसला जातियों के गठजोड़ पर ज़्यादा होता है, शायद इस बार भी हो, लेकिन यह कुछ टूटता भी दिखाई दे रहा है.

इसका पहला संकेत बिहार का नक्सलवादी आंदोलन है. इसे बिहार में नक्सलवादी नहीं, बल्कि पार्टी कहा जाता है. जो नौजवान इसमें शामिल होते हैं, वे गर्व से कहते हैं कि उन्होंने पार्टी ज्वाइन कर ली है. इस आंदोलन में यादव समाज की बड़ी भागीदारी है तथा दूसरी भागीदारी मुसहरों की है. लड़ाकू दस्तों की अगुवाई मुसहर समाज के नौजवान करते हैं. मुसहर समाज बिहार का वह समाज है, जो दलित समाज से भी बदतर है तथा इसे कुछ साल पहले तक बड़ी जातियों के लोग इंसान तक बातचीत में नहीं मानते थे. नक्सलवादियों में लगभग सभी जातियों के नौजवान हैं और गैर बराबरी के ख़िला़फ हथियारबंद संघर्ष की बात खुलेआम अपने गांवों में करते हैं. उनका कितना असर पड़ता है, यह अलग विषय है, पर यह संघर्ष जातियों का बंधन तोड़ने की शुरुआत कर चुका है. यादवों में ज़्यादातर समर्थक लालू यादव के हैं, लेकिन नक्सलवादियों का कोई खुला समर्थन लालू यादव को नहीं है. लालू यादव के आखिरी राज में जहानाबाद पर दो हज़ार के आसपास नक्सलवादियें ने हमला किया था. तीन दिनों तक शहर उनके क़ब्ज़े में था. पुलिस लाइन, कचहरी घिरी थी तथा जेल तोड़ दी गई थी. आम लोगों को उन्होंने परेशान नहीं किया था, बल्कि शहर के लोग छत पर से इस सारे दृश्य को देख रहे थे, बस सड़कों पर नहीं निकले.

इसके बाद नीतीश कुमार की सरकार बनी. कोई भी बड़ी वारदात नीतीश कुमार के शासन के दौरान नहीं हुई. नक्सलवादी अपना संगठन बढ़ाते रहे. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कंपनियां काम करती रहीं. नक्सलवादियों को लेवी देती रहीं. नीतीश कुमार ने नक्सलवादियों का खुला विरोध भी कभी नहीं किया, यहां तक कि वह कोलकाता में गृहमंत्री चिदंबरम की बुलाई बैठक में भी नहीं गए. माना जा रहा है कि नक्सलवादी आम तौर पर नीतीश कुमार के साथ हैं, पर स्थानीय तौर पर वे अलग-अलग उम्मीदवारों से टैक्स ले, या तो उनका साथ देंगे या उन्हें परेशान न करने की गारंटी देंगे.

बिहार में नीतीश कुमार, लालू यादव और चुनाव की लड़ाई में राहुल गांधी भी एक पेंच हैं. राहुल गांधी ने एक सफल संदेश दिया है कि वह बिहार में युवकों को राजनीति में बढ़ाना चाहते हैं. अगर उन्होंने हर वर्ग के युवकों को टिकट दिए तो यह नीतीश कुमार और लालू यादव, दोनों के लिए परेशानी पैदा कर सकता है. अगर कांग्रेस 50 सीटें जीत गई तो बिहार में किसकी सरकार बनेगी, यह आज कहना मुश्किल है.

मुस्लिम समाज कितना नीतीश कुमार का साथ देगा, कहा नहीं जा सकता, क्योंकि भाजपा का आक्रामक रूप उसे डराएगा. लालू यादव के साथ उसके बहुमत का जाना तय है, पर राहुल गांधी और कांग्रेस अगर आक्रामक चुनाव रणनीति बनाते हैं तो मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ भी जा सकता है. यह स्थिति भी बिहार में साफ सरकार बनाने में रोड़ा पैदा करेगी.

सितंबर के तीसरे हफ्ते में तस्वीर अवश्य साफ होगी, क्योंकि अब नेताओं और उनके द्वारा किए कामों के जनता द्वारा आकलन का निर्मम समय आ गया है. बिहार के बाद बंगाल, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के चुनाव हैं. कह सकते हैं कि आने वाला हर साल किसी न किसी राज्य में किसी न किसी पार्टी का भविष्य लिखने वाला है. लेकिन बिहार चुनाव जहां नीतीश कुमार, लालू यादव का भविष्य तय करेगा, उससे ज़्यादा राहुल गांधी का आकलन करेगा, क्योंकि बिहार की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने आप ले ली है. सबसे आराम में रामविलास पासवान रहेंगे, जिनके सामने केवल पचास के आसपास विधायकों को जितवाने की ज़िम्मेदारी है.

बिहार विधानसभा चुनाव छह चरणों में: नीतीश-लालू को बोनस

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सरोज सिंह

sarojsingh@chauthiduniya.com



बिहार विधानसभा चुनाव छह चरणों में कराने की घोषणा ने एक साथ दो सवालों को जन्म दिया. पहला यह कि क्या इतनी लंबी चुनावी प्रक्रिया नक्सलियों के मंसूबों को नाकाम करने का कदम है और दूसरा यह कि कहीं इस थकाऊ कार्यक्रम से कुछ राजनीतिक दलों को जाने-अनजाने फायदा तो नहीं मिल जाएगा? दोनों ही सवालों का जवाब तो उस समय मिलेगा, जब वोट पड़ेंगे, पर चुनाव आयोग की घोषणा के बाद राजनीतिक गलियारों में बहस तेज़ हो गई है. पहले सवाल पर मतभेद कम हैं. बिहार में नक्सलियों के प्रभाव को देखते हुए इस तरह की सावधानी ज़रूरी बताई जा रही है.

छह चरणों में राज्य विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही बिहार में राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है. लंबा चुनाव कार्यक्रम कई दलों के लिए वरदान बनकर सामने आया है, लेकिन जनसामान्य चिंतित है. वजह, चुनाव के दौरान परिवहन के सार्वजनिक साधनों का सरकारी इस्तेमाल और रोजमर्रा की जिंदगी में सुरक्षा व्यवस्था से पैदा होने वाली दिक्कतें. जिस समय चुनाव हो रहे होंगे, उसी दौरान कई पर्व पड़ेंगे और शादी-ब्याह का मौसम भी होगा. लेकिन चुनाव आयोग के सामने भी एक गंभीर चुनौती है कि चुनाव को शांतिपूर्ण एवं निष्पक्ष तरीके से कैसे संपन्न कराया जाए, क्योंकि राज्य के कई विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां नक्सलियों का वर्चस्व है.

पिछली बार चार चरणों में चुनाव कराए गए थे, पर इस बार नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव का नतीजा है कि दो चरण बढ़ा दिए गए. हर चरण में कुछ सीटें नक्सलियों के प्रभाव वाली हैं, जहां ये चुनावी प्रकिया को बाधित या कहें प्रभावित करने की हैसियत रखते हैं. पहले चरण में सिमरी बख्तियारपुर और महिषी, दूसरे चरण में मीनापुर, पारू और साहेबगंज, तीसरे चरण में वाल्मीकिनगर, रामनगर (सुरक्षित), राघोपुर व पातेपुर (सुरक्षित), चौथे चरण में अलौली (सुरक्षित), सूर्यगढ़ा, तारापुर, जमालपुर, कटोरिया (सुरक्षित), बेलहर, सिकंदरा (सुरक्षित), जमुई, झाझा और चकाई में नक्सलियों से निपटने के लिए भारी सुरक्षा इंतजाम किए जा रहे हैं. इन सीटों पर मतदान का समय भी बदल गया है. इन सीटों पर सुबह सात बजे से दोपहर तीन बजे तक ही वोट डाले जाएंगे. इसी तरह पांचवें चरण में रजौली (सुरक्षित), गोविंदपुर, अरवल, कुर्था, जहानाबाद, घोसी, मखदुमपुर (सुरक्षित), बोधगया (सुरक्षित), फुलवारी (सुरक्षित), मसौढ़ी (सुरक्षित), पालीगंज और बिक्रम और छठे चरण में भभुआ, चैनपुर, चेनारी (सुरक्षित), सासाराम, दिनारा, डेहरी, काराकाट, गोह, नवीननगर, कुटुंबा(सुरक्षित), रफीगंज, गुरूआ, शेरघाटी, इमामगंज (सुरक्षित), बाराचट्टी (सुरक्षित) और टेकारी में नक्सलियों की ताकत को देखते हुए आयोग विशेष इंतजाम करने में जुट गया है. आयोग का तर्क है कि सुरक्षाबलों की समुचित तैनाती के लिए ही इस तरह का चुनाव कार्यक्रम बनाया गया है. आयोग का यह तर्क बहुत हद तक लोगों के गले उतर रहा है, पर इतने लंबे चुनाव कार्यक्रम के दौरान दैनिक कार्यों में होने वाली असुविधा को लेकर लोगों के पसीने छूटने लगे हैं. पिछला अनुभव रहा है कि इस तरह के चुनाव कार्यक्रम का सबसे ज़्यादा असर परिवहन व्यवस्था पर पड़ता है. चुनाव कार्यों में गाड़ियों के लग जाने से लोगों को आने-जाने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है. जो थोड़े-बहुत वाहन सड़कों पर दौड़ते हैं, वे मनमाना किराया वसूलते हैं. चूंकि प्रभावशाली लोगों की गाड़ियां सड़कों पर होती हैं, इसलिए आम जनता का विरोध कोई मायने नहीं रखता. यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि चुनाव के दौरान सारे बड़े पर्व पड़ रहे हैं. इसके अलावा इसी दौरान शादी-ब्याह की तैयारी भी शुरू होनी है. मतलब सा़फहै कि आम लोगों को परेशानी झेलनी ही झेलनी है. दशहरा, दीपावली एवं छठ में लाखों बिहारी जो राज्य के बाहर काम करते हैं, अपने घर आते हैं. यही वक़्त होता है, जब ये लोग अपने सामाजिक सरोकार का खाता खोलते हैं और इसे मज़बूत करते हैं. यानी कि वे अपने रिश्तेदारों के घर जाते हैं और खुद को समाज की मुख्यधारा से जोड़ते हुए सुख-दु:ख बांटते हैं, पर इस बार इनके पैरों का बंधना तय है. इसके अलावा देखा गया है कि चुनाव प्रक्रिया लंबी होने का असर दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं पर भी पड़ता है. खाने-पीने की चीज़ों के दाम भी आसमान छूने लगते हैं. इस बार छह चरणों में चुनाव होने के कारण इस तरह की दिक्कतों में इज़ा़फा होने की आशंका है.

अब हम बात दूसरे सवाल की करते हैं. चुनाव प्रक्रिया लंबी होने से जाने-अनजाने कुछ राजनीतिक दलों को फायदा मिलने की बात पर एक राय नहीं है. माना जाता है कि इस तरह के कार्यक्रम से उन दलों को फायदा मिलता है, जिनके पास नेताओं की कमी है. ज़्यादा चरणों में चुनाव होने से इन दलों के नेता हर जगह जा सकते हैं. इशारा जदयू, लोजपा एवं राजद की तऱफ है. चूंकि कांग्रेस एवं भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों के पास नेताओं की कोई कमी नहीं है तो इन्हें कोई फर्क़ नहीं पड़ता है. अगर चुनाव एक या दो चरण में भी होते हैं तो ये दल अपने किसी न किसी बड़े नेता को हर विधानसभा क्षेत्र में भेज सकते हैं. लेकिन लालू प्रसाद, नीतीश कुमार एवं रामविलास पासवान चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते. ज़्यादा चरणों में चुनाव होने से छोटी पार्टियों को संसाधन जुटाने का भी समय मिल जाता है. सबसे बड़ी बात यह होती है कि उम्मीदवारों के चयन के लिए का़फी वक़्त इन्हें मिल जाता है और ये हर चरण के लिए अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करते हैं. एक साथ पूरी सूची जारी करने के दबाव से बच जाते हैं. इसके अलावा इन नेताओं को एक फायदा यह भी मिलता है कि अगर एक चरण में कोई ग़लती रह गई तो बाद के चरण में उसे सुधारने का वक़्त मिल जाता है. इस बार के चुनाव में एक खास बात यह भी होगी कि पर्व के मा़ैके पर लाखों की संख्या में घर आने वाले बिहारी भी अपना वोट डाल सकेंगे. उम्मीद की जा रही है कि इन वोटों का फायदा राजद एवं जदयू को मिलेगा. बाहर रहने वाले बिहारी मोटे तौर पर लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार को ही अपना नेता मानते हैं. यह ऐसा वोट होगा, जो कई क्षेत्रों में चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकता है. खासकर मिथिलांचल के इलाक़े में ये वोट का़फी असर डालेंगे. राज्य से बाहर जाकर कमाने वाले ज़्यादातर वही लोग हैं, जो लालू एवं नीतीश के वोटर रहे हैं. चुनाव के मौक़े पर इनका अपने घरों में रहना जदयू एवं राजद के लिए बोनस की तरह है.

चुनावी कार्यक्रम

चरण अधिसूचना जारी नामांकन की नामांकन पत्रों नामांकन वापस मतदान

करने की तिथि अंतिम तिथि के जांच की तिथि लेने की तिथि की तिथि

प्रथम चरण सोमवार सोमवार मंगलवार गुरुवार गुरुवार

27.09.2010 04.10.2010 05.10.2010 07.10.2010 21.10.2010

दूसरा चरण बुधवार बुधवार गुरुवार शनिवार रविवार

29.09.2010 06.10.2010 07.10.2010 09.10.2010 24.10.2010

तीसरा चरण सोमवार सोमवार मंगलवार गुरुवार गुरुवार

04.10.2010 11.10.2010 12.10.2010 14.10.2010 28.10.2010

चौथा चरण गुरुवार गुरुवार शुक्रवार सोमवार सोमवार

07.10.2010 14.10.2010 15.10.2010 18.10.2010 01.11.2010

पांचवां चरण शुक्रवार शुक्रवार शनिवार सोमवार मंगलवार

15.10.2010 22.10.2010 23.10.2010 25.10.2010 09.11.2010

छठा चरण बुधवार बुधवार गुरुवार शनिवार रविवार

27.10.2010 03.11.2010 04.11.2010 06.11.2010 20.11.2010

मतदान कब और कहां

प्रथम चरण 21 अक्टूबर (47 सीटें)

हरलाखी, बेनीपट्टी, खजौली, बाबूबरही, विस्फी, मधुबनी, राजनगर (अजा.), झंझारपुर, फुलपरास, लौकहा, निर्मली, पिपरा, सुपौल, त्रिवेणीगंज (अजा.), फारबिसगंज, अररिया, जोकीहाट, सिकटी, बहादुरगंज, ठाकुरगंज, किशनगंज, कोचाधामन, अमौर, बायसी, कसबा, बनमनखी (अजा.), रूपौली, धमदाहा, पूर्णिया, कटिहार, कदवा, बलरामपुर, प्राणपुर, मनिहारी (अजजा.), बरारी, कोढ़ा (अजा.), मधेपुरा, सोनवर्षा (अजा.), सहरसा, सिमरी बख्तियारपुर, महिषी.

दूसरा चरण 24 अक्टूबर (45 सीटें)

शिवहर, रीगा, बथनाहा (अजा.), परिहार, सुरसंड, बाजपट्टी, सीतामढ़ी, रुन्नीसैदपुर, बेलसंड, कुशेश्वर स्थान (अजा.), गौराबौरम, बेनीपुर, अलीनगर, दरभंगा ग्रामीण, दरभंगा, हायाघाट, बहादुरपुर, केवटी, जाले, गायघाट, औराई, बोचहा (अजा.), सकरा (अजा.), कुढ़नी, मुजफ्फरपुर, कांटी, वरूराज, कल्याणपुर (अजा.), वारिसनगर, समस्तीपुर, उजियारपुर, मोरवा, सरायरंजन, मोहिउद्दीननगर, विभूतिपुर, रोसड़ा (अजा.), हसनपुर, नरकटिया, पिपरा, मधुबन, चिरैया, ढाका, मीनापुर, पारू, साहेबगंज.

तीसरा चरण 28 अक्टूबर (48 सीटें)

नरकटियागंज, बगहा, लौरिया, नौतन, चनपटिया, बेतिया, सिकटा, रक्सौल, सुगौला, हरसिद्धि (सु.), गोविंदगंज, केसरिया, कल्याणपुर, मोतिहारी, बैकुंठपुर, बरौली, गोपालगंज, कुचायकोट, भोरे (सु.), हथुआ, सीवान, जीरादेई, दरौली (सु.), रघुनाथपुर, दरौंधा, बरहड़िया, गोरियाकोठी, महराजगंज, एकमा, मांझी, बनियापुर, तैरया, मढ़ौरा, छपरा, गरखा (सु.), महनार, वाल्मीकि नगर, रामनगर (सु.), राघोपुर व पातेपुर, अमनौर, परसा, सोनपुर, हाजीपुर, लालगंज, वैशाली, महुआ, राजापाकर(सु.).

चौथा चरण 1 नवंबर (42 सीटें)

चेरिया बरियारपुर, बछवारा, तेघड़ा, मटिहानी, साहेबपुर कमाल, बेगूसराय, बखरी (सु.), खगड़िया, बेलदौर, परबत्ता, लखीसराय, मुंगेर, बिहपुर, गोपालपुर, पीरपैंती (सु.), कहलगांव, भागलपुर, सुल्तानगंज, नाथनगर, मोकामा, बाढ़, बख्तियारपुर, दीघा, बांकीपुर, कुम्हरार, पटना साहिब, फतुहा, दानापुर, मनेर, अमरपुर, धोरैया (सु.) एवं बांका चौथे चरण में ही सुबह 7 बजे से 3 बजे तक जिन विधानसभा क्षेत्रों में मतदान होने हैं, उनमें अलौली (सु.), सूर्यगढ़ा, तारापुर, जमालपुर, कटोरिया (सु.), बेलहर, सिकंदरा (सु.), जमुई, झाझा एवं चकाई विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं.

पांचवां चरण 9 नवंबर (35 सीटें)

संदेश, बड़हरा, आरा, अगिआंव (सु.), तरारी, जगदीशपुर, शाहपुर, हिसुआ, नवादा, वारसलीगंज, गया टाउन, बेलागंज, अतरी, वजीरगंज, शेखपुरा, बरबीघा, अस्थावां, बिहारशरीफ, राजगीर (सु.), इस्लामपुर, हिलसा, नालंदा, हरनौत, रजौली, गोविंदपुर, अरवल, कुर्था, जहानाबाद, घोसी, मकदुमपुर (सु.), बोधगया (सु.), फुलवारी (सु.), मसौढ़ी (सु.), पालीगंज व बिक्रम.

छठा चरण 20 नवंबर (26 सीटें)

ब्रह्मपुर, बक्सर, डुमरांव राजपुर (सु.), रामगढ़, मोहनिया (सु.), करगहर, नोखा, ओबरा एवं औरंगाबाद में सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक, जबकि भभुआ, चेनपुर, चेनारी (सु.), सासाराम, दिनारा, डेहरी, काराकाट, गोह, नबीनगर, कुटुंबा (सु.), रफीगंज, गुरूआ, शेरघाटी, इमामगंज (सु.), बाराचट्टी (सु.) एवं टिकारी में सुबह 7 बजे से 3 बजे तक मतदान होगा.

Friday, September 24, 2010

Battle for Bihar: Frontline

Nitish Kumar and the coalition he heads claim that development, and not caste, will decide the elections in Bihar this time.

Chief Minister Nitish Kumar releasing Bihar Development Report 2010 in Patna on September 2. The ruling combine's thrust is on the development successes of the five years of its rule.
(Photo Ranjit Kumar)
PERCEPTIONS may vary on the balance of power in Bihar's political arena and the outcome of the impending elections to the Assembly, but observers as well as practitioners of different brands of politics agree on one thing: that elections, scheduled to be held in six phases in October-November, could well be the most significant in the history of Bihar in the past two decades. They have arrived at this conclusion after studying the situation from their own view points.

According to Chief Minister Nitish Kumar and the Janata Dal (United) led by him, Bihar has witnessed a social, political and economic paradigm shift in the last five years under the party's rule. Nitish Kumar contends that this shift will be reflected in new political parameters with development as the key factor, pushing aside considerations based on caste and community that have for decades dominated the State's electoral politics.The Bharatiya Janata Party (BJP), the JD(U)'s coalition partner, largely shares this perception, though some sections in the party are sceptical.

The Rashtriya Janata Dal (RJD) led by Lalu Prasad and the Lok Janshakti Party (LJP) led by Ramvilas Paswan, which constitute the main opposition, dismiss the “paradigm shift” premise as baseless and assert that these elections will, as always, be dominated by caste and community considerations.

The results of the elections, to be held on October 21, 24, 28 and on November 1, 9, 20, will be announced on November 24.

Caste divisions, of course, have traditionally dominated elections in Bihar. Elections have been fought and won on the basis of careful manoeuvreing of caste divides coupled with some deft social engineering. This time, however, a significant number of political activists and observers agree with the Chief Minister's assessment. Governance under the coalition government in the past five years, they say, has changed society and politics in the State, allowing the urge for “development” to sideline caste considerations.

At a seminar on Bihar held in New Delhi in August, Nitish Kumar said: “In the past five years, the whole political grammar of Bihar has changed. The beginnings of the same were seen even in the 2005 polls when people decidedly voted for a change. Over the past five years, more and more sections of society have joined that process on account of the policies and governance we had adopted and the net result has been the concretisation of the change in political grammar.” He added that despite this obvious change, his principal adversaries, Lalu Prasad and Paswan, were clinging to the “old syllabus” based on caste permutations and combinations. “They will soon be brought to realisation with a thud,” he said.

A large number of people in and outside the State endorse his view. They believe that development has been brought firmly on the State's radar and that nobody would want to upset that. However, the other side sees the Chief Minister's claims as just so much rhetoric – bhashaan-baaji. For Lalu Prasad and Paswan, the “development” story is a creation of a pliant media rather than a realistic assessment of the situation on the ground.

As for the Congress, which heads the ruling United Progressive Alliance (UPA) at the Centre, it is ready to admit that the State has witnessed better development under Nitish Kumar than under earlier governments in the last 15 years. But it asserts that this was made possible by the substantial funds that the Centre made available to his government.

Other factors

Several other significant issues are expected to come into play in the run-up to and elections and during the polling process. One of these is the so-called political magic of Rahul Gandhi and its impact on the Congress' prospects. Rahul Gandhi was credited with being the man behind the party's reasonably good performance in Uttar Pradesh in the 2009 Lok Sabha elections. Was that a flash in the pan? Or does the scion of the Congress' first family have a real hold on the people in the Hindi heartland? A poor performance by the party in the Bihar elections will put question marks on his ability to deliver at the national level.

Clearly, the stakes are high for all the players. The Left parties – the Communist Party of India (Marxist), the Communist Party of India and the Communist Party of India (Marxist-Leninist) – form a fourth factor in the equation and have pockets of limited influence in different parts of the State.

Meanwhile, the principal players are pursuing their respective agendas in the early stages of electioneering, albeit with some clever nuancing. While Nitish Kumar swears by the new development-oriented agenda, he has also roped in leaders with overt caste and community appeal, such as former RJD leaders Taslimuddin, a former Union Minister, and Dalit leader Ramai Ram. Lalu Prasad seems to have compromised on his “backward caste” politics and inducted former JD(U) leader Prabhunath Singh, belonging to the upper-caste Rajput community. Both Lalu Prasad and Paswan have also been forced to introduce “development” in their discourse.

The JD(U)-BJP combine's campaign thrust is the perceptible changes in the State, especially improvement in the law and order situation, facilitating free movement by people across the State. The number of cases of kidnapping, which had acquired the status of an industry during the 15 years of RJD rule, has gone down considerably. The sprucing up of the infrastructure, including road connectivity, and the strengthening of the health care and educational systems are also highlighted. There have been some path-breaking pieces of legislation, including ones aimed at empowering women, the Maha Dalits and the Most Backward Communities (MBCs) through reservation in local bodies. The Chief Minister's personal integrity is a significant part of this campaign and he is projected as a visionary capable of steering Bihar into a prosperous future.

The ruling coalition's campaign, however, is defensive and almost silent on the once-much-touted land reforms that the government later backed out of. The issue had aggrieved large sections of the upper castes and had even led to the departure of influential leaders such as Prabhunath Singh and Lallan Singh from the JD(U) fold. Coalition leaders, including Nitish Kumar, tend to circumvent the topic and have been trying to assuage upper-caste sentiments through gestures such as friendly visits to dominant upper-caste figures, including the mother of Anand Mohan Singh, a prominent upper-caste leader of the State.

Meanwhile, the way in which the ruling coalition's campaign has been woven around the Chief Minister's personality has drawn criticism from its opponents and provoked dissent within the combine. Lallan Singh, formerly a trusted lieutenant of Nitish Kumar, parted ways with him a few months ago and has since moved closer to the Congress. He trenchantly argues that over the past five years Bihar witnessed the development of a blatant and shameless personality cult.

Secularism or Hindutva?

The ruling combine has been plaugued, over the past five years, by the contrasting ideological moorings of the two partners. Nitish Kumar has taken great pains to affirm his secular credentials, but the divide has sometimes caused functional problems for the coalition. Last June, when Gujarat Chief Minister and BJP leader Narendra Modi used the meeting of the National Executive of his party in Patna to promote his credentials as a national leader, an offended Nitish Kumar cancelled a dinner that he had meant to hold for BJP leaders. This caused heartburning among the BJP rank and file and some BJP Ministers came out with open criticism of the Chief Minister.

These differences have reportedly tapered off, but the fundamental ideological conflict between the two partners in the name of secularism and Hindutva is bound to come up in the long electoral process. The judgment of the Lucknow Bench of the Allahabad High Court on the Babri Masjid-Ram Janmabhoomi dispute will be delivered on September 24. Nitish Kumar's secular credentials and his Muslim support base will presumably dictate his stance. How the two sides resolve their differences on the issue remains to be seen.

Opposition dynamics

The opposition parties, meanwhile, have their own political dynamics. The RJD has been generous to the LJP by according it 75 seats. The combine's basic calculation is caste-oriented. It hopes to ride on the RJD's Yadav votes, the LJP's Dussadh Dalit vote base, the new-found attraction of a section of upper-caste voters for the combine, and the depleting Muslim support base of both the parties. The combine's main challenge is a major credibility-deficit. The Congress, on its part, is trying to woo a section of the upper-caste vote base of the BJP and also Muslims.

The alliance between the RJD and the LJP, which developed after the last elections, may actually take away from the advantage that the JD(U)-BJP had in the last elections. In 2005, voters sent a clear message with a ‘yes' in favour of the JD(U)-BJP combine, which bagged 143 seats in the 243-member Assembly. The JD(U) got 88 seats while the BJP got 55. The RJD was relegated to the third spot, its strength reduced to 54. The LJP could win only 10 seats, while the Congress had to rest content with a mere nine.

This result was made possible through the coming together of the JD(U) vote base in the Other Backward Class (OBC) Kurmi community (to which Nitish Kumar belongs), the BJP's upper-caste base and a section of the Muslim minority votes that were attracted to Nitish Kumar's personality. Over the past five years, Nitish Kumar has added large segments of the MBCs to his vote base and has widened his Muslim support base, though a section of the upper castes have left the JD(U)-BJP combine on account of the government's proposed land reforms.

Nitish Kumar hopes to repeat the 2005 result in spite of the RJD-LJP alliance. His contention is that this election will not be about caste-based arithmetic but about the hopes and aspirations of the people.

Wednesday, September 22, 2010

Bihar's Assembly Constituencies

Names of Bihar's Assembly Constituencies after Delimitation

1-Valmiki Nagar
2-Ramnagar (SC)
3-Narkatiaganj
4-Bagaha
5-Lauriya
6-Nautan
7-Chanpatia
8-Bettiah
9-Sikta [1 to 9 PASCHIM CHAMPARAN]
10-Raxaul
11-Sugauli
12-Narkatia
13-Harsidhi (SC)
14-Govindganj
15-Kesaria
16-Kalyanpur
17-Pipra
18-Madhuban
19-Motihari
20-Chiraia
21-Dhaka [10 to 21 PURVI CHAMPARAN]
22-Sheohar [SHEOHAR]
23-Riga
24-Bathnaha (SC)
25-Parihar
26-Sursand
27-Bajpatti
28-Sitamarhi
29-Runnisaidpur
30-Belsand [23 to 30 SITAMARHI]
31-Harlakhi
32- Benipatti
33-Khajauli
34-Babubarhi
35-Bisfi
36-Madhubani
37-Rajnagar (SC)
38-Jhanjharpur
39-Phulparas
40-Laukaha [31 to 40 MADHUBANI]
41-Nirmali
42-Pipra
43-Supaul
44-Triveniganj (SC)
45-Chhatapur [41 to 45 SUPAUL]
46-Narpatganj
47-Raniganj (SC)
48-Forbesganj
49-Araria
50-Jokihat
51-Sikti [46 to 51 ARARIA]
52-Bahadurganj
53-Thakurganj
54-Kishanganj
55-Kochadhaman [52 vto 55 KISHANGANJ]
56-Amour
57-Baisi
58-Kasba
59-Banmankhi (SC)
60-Rupauli
61-Dhamdaha
62-Purnia [56 to 62 PURNIA]
63-Katihar
64-Kadwa
65-Balrampur
66-Pranpur
67-Manihari (ST)
68-Barari
69-Korha (SC)[63 to 69 KATIHAR]
70-Alamnagar
71-Bihariganj
72-Singheshwar (SC)
73-Madhepura 70 to 73 MADHEPURA]
74-Sonbarsha (SC)
75-Saharsa
76-Simri Bakhtiarpur
77-Mahishi [74 to 77 SAHARSA]
78-Kusheshwar Asthan (SC)
79-Gaura Bauram
80-Benipur
81-Alinagar
82-Darbhanga Rural
83-Darbhanga
84-Hayaghat
85-Bahadurpur
86-Keoti
87-Jale [78 to 87 DARBHANGA]
88-Gaighat
89-Aurai
90-Minapur
91-Bochaha (SC)
92-Sakra (SC)
93-Kurhani
94-Muzaffarpur
95-Kanti
96-Baruraj
97-Paroo
98-Sahebganj [88 to 98 MUZAFFARPUR]
99-Baikunthpur
100-Barauli
101-Gopalganj
102-Kuchaikote
103-Bhorey (SC)
104-Hathua [99 to 104 GOPALGANJ]
105-Siwan
106-Ziradei
107-Darauli (SC)
108-Raghunathpur
109-Daraundha
110-Barharia
111-Goriakothi
112-Maharajganj [105 to 112 SIWAN]
113-Ekma
114-Manjhi
115-Baniapur
116-Taraiya
117-Marhaura
118-Chapra
119-Garkha (SC)
120-Amnour
121-Parsa
122-Sonepur [113 to 122 SARAN]
123-Hajipur
124-Lalganj
125-Vaishali
126-Mahua
127-Raja Pakar (SC)
128-Raghopur
129-Mahnar
130-Patepur (SC)[123 to 130 VAISHALI]
131-Kalyanpur (SC)
132-Warisnagar
133-Samastipur
134-Ujiarpur
135-Morwa
136-Sarairanjan
137-Mohiuddinnagar
138-Bibhutipur
139-Rosera (SC)
140-Hasanpur [131 TO 140 SAMASTIPUR]
141-Cheria Bariarpur
142-Bachhwara
143-Teghra
144-Matihani
145-Sahebpur Kamal
146-Begusarai
147-Bakhri (SC)
148-Alauli (SC)
149-Khagaria
150-Beldaur [141 TO 147 BEGUSARAI]
151-Parbatta [148 TO 151 KHAGARIA]
152-Bihpur
153-Gopalpur
154-Pirpainti (SC)
155-Kahalgaon
156-Bhagalpur
157-Sultanganj
158-Nathnagar [152 TO 158 BHAGALPUR]
159-Amarpur
160-Dhauraiya (SC)
161-Banka
162-Katoria (ST)
163-Belhar [159 TO 163 BANKA]
164-Tarapur
165-Munger
166-Jamalpur
167-Suryagarha [164 TO 166 MUNGER]
168-Lakhisarai [167 TO 168 LAKHISARAI]
169-Sheikhpura [169 TO 170 SHEIKHPURA]
170-Barbigha
171-Asthawan
172-Biharsharif
173-Rajgir (SC)
174-Islampur
175-Hilsa
176-Nalanda
177-Harnaut [171 TO 177 NALANDA]
178-Mokama
179-Barh
180-Bakhtiarpur
181-Digha
182-Bankipur
183-Kumhrar
184-Patna Sahib
185-Fatuha
186-Danapur
187-Maner
188-Phulwari (SC)
189-Masaurhi (SC)
190-Paliganj
191-Bikram 178 TO 191 PATNA]
192-Sandesh
193-Barhara
194-Arrah
195-Agiaon (SC)
196-Tarari
197-Jagdishpur
198-Shahpur [192 TO 198 BHOJPUR]
199-Brahampur
200-Buxar
201-Dumraon
202-Rajpur (SC)[199 TO 202 BUXAR]
203-Ramgarh
204-Mohania (SC)
205-Bhabua
206-Chainpur 203 206 KAIMUR (BHABHUA]
207-Chenari (SC)
208-Sasaram
209-Kargahar
210-Dinara
211-Nokha
212-Dehri
213-Karakat [207 TO 213 ROHTAS]
214-Arwal
215-Kurtha [214 TO 215 ARWAL]
216-Jehanabad
217-Ghosi
218-Makhdumpur (SC)[216 to 218 JAHANABAD]
219-Goh
220-Obra
221-Nabinagar
222-Kutumba (SC)
223-Aurangabad
224-Rafiganj [219 to 224 AURANGABAD]
225-Gurua
226-Sherghati
227-Imamganj (SC)
228-Barachatti (SC)
229-Bodh Gaya (SC)
230-Gaya Town
231-Tikari
232-Belaganj
233-Atri
234-Wazirganj [225 to 234 GAYA]
235-Rajauli (SC)
236-Hisua
237-Nawada
238-Gobindpur
239-Warsaliganj [235 to 239 NAWADA]
240-Sikandra (SC)
241-Jamui
242-Jhajha
243-Chakai [240 to 243 JAMUI]

Tuesday, September 21, 2010

पटना से हिन्दी टैबलायड वीकली ‘बिहार रिपोर्टर’ का प्रकाशन शुरू

http://mediamorcha.co.in September 11 2010

पटना से हिन्दी टैबलायड वीकली ‘बिहार रिपोर्टर’ का प्रकाशन पिछले दिनों शुरू हो गया। संपादक हैं विनायक विजेता। गांधी संग्रहालय के महामंत्री व गांधीवादी नेता डा. रजी अहमद ने अखबार को लोकार्पित करते हुए कहा कि वर्तमान परिवेश में एक निष्पक्ष और निर्भीक समाचार पत्र की जरूरत है । उन्होंने उम्मीद जतायी कि बिहार रिपोर्टर’ इस पर खरा उतरेगा। प्रत्येक बुधवार को प्रकाशित होने वाले इस समाचार पत्र की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि इस समाचार पत्र के कंटेंट ‘देखन में छोटन लगे पर घाव करे गंभीर’ के कहावत को चरितार्थ कर रही है।

अखबार के संपादक विनायक विजेता ने कहा कि उनका यह प्रयास रहेगा कि अपने समाचारों से बिहार रिपोर्टर जल्द ही पाठकों का पंसदीदा अखबार बन जाए। उन्होंने कहा कि अखबार को बिहार के आम पाठकों तक पहुंचाने की नीयत से ही इसका मूल्य मात्र दो रुपये रखा गया है। लोकापर्ण के वक्त कई वरिष्ठ पत्रकार मौजूद थे।

Leaders switch loyalties as poll approaches/ Hindustan Times

http://www.hindustantimes.com/Leaders-switch-loyalties-as-poll-approaches/Article1-601967.aspx
New Delhi, September 19, 2010

The political landscape in poll-bound Bihar is undergoing a churning process, with last-minute equations being worked out. The sitting Janata Dal (United) MP from Muzaffarpur, Captain Jainarain Prasad Nishad, and former Bihar Scheduled Caste Commission chairman Ramai Ram are seeking Congress tickets for their sons.

The two JD (U) leaders have written separate letters to Congress general secretary Mukul Wasnik in this regard. Also on Saturday, senior Rashtriya Janata Dal (RJD) leader Akhilesh Singh resigned from the party and is all set to join the Congress even as his party colleague, MP Umashankar Singh, raised the banner of revolt against Lalu Prasad, describing him as a “monarch”.

Congress managers are enthused with these developments. Having been out of power in Bihar since 1989, the party is looking at different strategies to emerge as a formidable force in the state.

As part of the “grand plan” formulated by general secretary Rahul Gandhi, the Congress has already decided to go it alone in the October-November assembly elections.

Announcing his decision to quit the RJD, former Union minister Akhilesh told reporters at Patna that both “Kushashan Babu (Lalu Prasad) and Sushshan Babu (Nitish Kumar) who were out to stifle the voice of forward castes. Thus, I decided to leave the RJD and join the Congress party, which gives due respect to political leaders irrespective of caste and creed”. Umashankar Singh has been unhappy with the inclusion of his bete noire Prabhunath Singh into the RJD.

“Lalu ji behaves like a monarch. Real workers should get respect. Those who are serving the party for long should be given tickets, but what is happening now is contrary to it. Moneybags are being preferred to loyal party workers,” Umashankar told reporters.

He also ruled out the possibility of quitting the RJD.


Lalu-Paswan pact driving out MPs from RJD/ Santwana Bhattacharya /Indian Express

http://expressbuzz.com/nation/lalu-paswan-pact-driving-out-mps-from-rjd/208615.html

21 Sep 2010

NEW DELHI
Rashtriya Janata Dal’s maverick chief Lalu Prasad Yadav’s bid to reclaim his gaddi in Patna, in alliance with Ram Vilas Paswan, is resulting in a mass exodus from his party on the eve of Bihar elections. If the former RJD MP and Union Minister Akhilesh Singh on Monday joined the Congress citing the new Paswan-Yadav alliance as the reason for the switch, the former Bihar CM’s brother-in-law Subhash Yadav quit the party without revealing which party he would be jumping on to. Both said, “Laloo is sinking ship” as he has abandoned his old Muslim- Yadav vote-bank to embrace ‘the Paswan’. Accusing as ‘dictatorial’, Lalu taking ‘suicidal steps ever since the last Lok Sabha elections’, Akhilesh Singh laments the RJD no longer stands for ‘M-Y voters, but for a P-Y faction’. “We’ve no place in the new scheme.” While formally announcing his entry into the Congress at the party’s headquarters, Singh was quite candid about why he chose to switch camps without attempting to sound lofty. “I was unhappy. The RJD gave all the seats to Paswan’s party in my area, East Champaran. None of my people have got tickets.” The ‘influential’ Bhumihar leader, who was formerly the RJD MP from Motihari, said thanks to Lalu’s decision to hand over 75 seats to Paswan’s LJP, “Not a single leader from the minority community or the upper castes have got tickets in Motihari, Arwal or Jehanabad. It has all gone to the LJP and the Paswans”.

Well, no one in the Congress briefed him that Rahul Gandhi’s campaign line is: ‘Rid Bihar of caste politics’. But, then the Congress in-charge of the state, Mukul Wasnik, has his hands full — given, the number of party-hoppers that the Congress have welcomed into its fold in the last couple of days.

Saturday, September 18, 2010

चुनाव में खून बहेगा

http://www.chauthiduniya.com/

सरोज सिंह (sarojsingh@chauthiduniya.com)
चुनावी शंखनाद के साथ ही शांतिपूर्ण मतदान पर नक्सली आतंक का साया मंडराने लगा है. ऑपरेशन ग्रीन हंट और अपने नेताओं की गिरफ्तारी से बौखलाए नक्सली चुनावी स़फर को रक्तरंजित करने की तैयारी में जुट गए हैं. आधुनिक हथियारों से लैस नक्सलियों के मारक दस्तों ने चुनावी हिंसा की रणनीति को अंतिम रूप दे दिया है. लखीसराय में इसकी झलक भी नक्सलियों ने दिखा दी है. सूबे में दूसरे राज्यों से भी मारक दस्तों के आने की सूचना है. राज्य सरकार इनसे निबटने के लिए कितनी तैयार है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि कजरा की पहाड़ियों में तीन सौ से ज़्यादा नक्सलियों से निपटने के लिए केवल 20 जवानों को भेजा गया था. नक्सली जमावड़े की खुफिया जानकारी के बावजूद इस तरह की लापरवाही से सूबे में चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर खून बहने की आशंका प्रबल हो गई है.

पिछले पांच सालों में नक्सल समस्या को जितने हल्के ढंग से लिया गया, उससे वारदातों में इजाफा हुआ है और जवानों के शहीद होने के आंकड़े बढ़े हैं. राज्य में होने वाले चुनाव पर लौटें तो खु़फिया रिपोर्ट बताती है कि नक्सली पूरी तैयारी में हैं और छोटी सी भी चूक बड़े नुक़सान का कारण बन सकती है. खुफिया रिपोर्ट बताती है कि नक्सली चुनाव प्रकिया को बाधित करने की पूरी कोशिश करेंगे. कुछ ज़िलों में बड़े पैमाने पर हिंसा हो सकती है.

नक्सली वारदातों के आंकड़ों पर ग़ौर करें तो सूबे में बिगड़े हालात की बड़ी ही भयावह तस्वीर सामने आती है. पिछले तीन वर्षों में पुलिस और नक्सलियों के बीच 130 बार भिड़ंत हो चुकी है, जिसमें 62 पुलिसकर्मी शहीद हो गए. इस अवधि में नक्सलियों ने 302 घटनाओं को अंजाम दिया, जिसमें जानमाल का भारी नुक़सान हुआ. बिहार पुलिस मेन्स एसोसिएशन के महामंत्री के के झा इसका कारण राजनेताओं के बीच सामंजस्य न होना मानते हैं. उनका मानना है कि केंद्र व राज्य सरकार के विरोधाभासी बयानों से नक्सलियों का मनोबल बढ़ा है. राज्य के दो तिहाई ज़िलों में नक्सलियों का दबदबा कायम है. इस वजह से वह जो भी फरमान जारी करते हैं, वह लागू हो जाता है.

विकास योजनाओं की पहली ईंट बिना नक्सलियों को लेवी दिए नहीं जोड़ी जा सकती है. यह कोई नया किस्सा नहीं है, पर पिछले पांच सालों में नक्सल समस्या को जितने हल्के ढंग से लिया गया, उससे वारदातों में इजाफा हुआ है और जवानों के शहीद होने के आंकड़े बढ़े हैं. राज्य में होने वाले चुनाव पर लौटें तो खु़फिया रिपोर्ट बताती है कि नक्सली पूरी तैयारी में हैं और छोटी सी भी चूक बड़े नुक़सान का कारण बन सकती है. खुफिया रिपोर्ट बताती है कि नक्सली चुनाव प्रकिया को बाधित करने की पूरी कोशिश करेंगे. कुछ ज़िलों में बड़े पैमाने पर हिंसा हो सकती है. पटना का दियारा क्षेत्र, वैशाली विधानसभा क्षेत्र, राबड़ी देवी का निर्वाचन क्षेत्र राघोपुर और मुजफ्फरपुर के कुछ विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी हिंसा राजनीतिक दलों की शह पर असमाजिक तत्व कर सकते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि जमुई, कैमूर, गया, शिवहर, सीतामढ़ी, औरंगाबाद और सारण ज़िलों में नक्सली चुनाव के दौरान उत्पात मचा सकते हैं. विशेषकर स्कूल भवनों को निशाना बनाया जा सकता है. पुलिस के भरोसेमंद सूत्रों पर भरोसा करें तो नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कई प्रत्याशी चुनाव जीतने के लिए नक्सलियों से मदद लेने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें पैसों के लेन-देन का खेल बड़े पैमाने पर खेला जा रहा है. दिक़्क़त यह है कि तमाम जानकारी होने के बावजूद समय पर कारगर क़दम नहीं उठाए जा रहे हैं. हालांकि नक्सलियों की तैयारियों के मद्देनजर पुलिस प्रशासन भी जवाबी रणनीति बनाने में जुट गया है. मगर, सवाल यह है कि इस रणनीति को अमलीजामा पहनाने में कितनी ईमानदारी बरती जाएगी. अगर चूक हुई तो चुनाव के दौरान बिहार की धरती को खून से लाल होने से रोकना मुश्किल हो जाएगा.

बिहार पुलिस पर हुए प्रमुख नक्‍सली हमले

  • 13 अप्रैल 08 – झाझा स्टेशन पर जीआरपी एवं सैप के चार जवानों सहित छह की हत्या.
  • 26 अप्रैल 08 – वैशाली के जंदाहा स्थित अमथावा गांव में नक्सलियों के साथ मुठभेड़ में जंदाहा थाना प्रभारी सुरेंद्र कुमार सुमन घायल हो गए.
  • 21 अगस्त 08- इमामगंज के रानीगंज बाज़ार में माओवादियों के हमले में पांच सैप जवान और जमादार शही समेत दो अन्य की मौत.
  • 16 जनवरी 09- जमुई कोर्ट हाजत पर नक्सलियों ने हमला कर दस कैदियों को छुड़ाया.
  • 09 फरवरी 09 – नवादा के कौवाकोल थाने के महुलियाटांड में नक्सलियों ने थाना प्रभारी रामेश्वर राम समेत दस जवानों की हत्या कर हथियार लूटे.
  • 22 अगस्त 09- जमुई के सोना में नक्सली हमले में एसआई मो. कलामुद्दीन और चार सैप जवान शहीद.
  • 6 जनवरी 2010- भागलपुर में बीएमपी कैंप पर नक्सली हमला, चार जवान जख्मी, दो कारबाइन और चार एसएलआर लूटे.
  • 13 फरवरी 2010- कोंच थाने के मझियावां गांव में छापेमारी करने गई पुलिस पर नक्सली हमला. टेकारी थाना प्रभारी मिथिलेश प्रसाद शहीद.
  • 2 मई 2010- औरंगाबाद के टड़वा बाज़ार में चार जवानों की हत्या, चार एसएलआर, कारबाइन, हैंड ग्रेनेड और गोलियां लूटीं.
  • 29 अगस्त 10 जमुई के कजरा में नक्सली हमले में सात पुलिसकर्मी शहीद.

Friday, September 17, 2010

एशिया की सबसे बड़ी बनमनखी चीनी मिलः नीतीश वादा करके भूल गए

चौथी दुनिया के लिये कुमार सुशांत www.chauthiduniya.com

पूरे देश में महंगाई को लेकर जनता त्राहिमाम कर रही है. आम जनता को चीनी तक ख़रीदने के लिए अपनी जेब टटोलनी पड़ती है. कुछ महीने पहले देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने चीनी की बढ़ती क़ीमतों पर कहा था कि वह कोई ज्योतिषी नहीं हैं, जो यह बताएंगे कि चीनी के दाम कब तक घटेंगे. पवार के इस बयान पर ख़ूब हंगामा हुआ था. आज संसद में हर दिन महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष और सरकार एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं. दरअसल सरकार और विपक्ष को समझना होगा कि यह परेशानी देश में बंद पड़े बड़े-बड़े उद्योगों की वजह से है. अब बिहार के पूर्णिया ज़िले की बनमनखी चीनी मिल को ही लीजिए, जो कुछ समय पहले एशिया की सबसे बड़ी चीनी मिल हुआ करती थी. इस मिल से किसानों को बहुत फायदा होता था. उस समय कोसी और पूर्णिया प्रमंडल के किसान गन्ना उत्पादन में काफी दिलचस्पी लेते थे. नतीजतन, अच्छी पैदावार होती थी, लेकिन अब यह चीनी मिल दुर्भाग्यवश कई सालों से बंद पड़ी है. इसमें काम करने वाले सैकड़ों मज़दूर बेरोज़गार हो गए हैं और इलाके में अब पहले की तरह गन्ना उपजाना अधिक फायदेमंद नहीं रह गया है. इस वजह से यहां के किसान गन्ने की खेती को प्रमुखता से नहीं लेते. लालू यादव के शासनकाल के दौरान मिल की स्थिति बद से बदतर हो गई. नीतीश सरकार ने भी यहां के किसानों से चीनी मिल को फिर से खुलवाने को लेकर ढेरों वादे किए, लेकिन वे आज तक हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो पाए. इस मिल में काम कर चुके सुखदेव मंडल कहते हैं कि चीनी मिल बंद होने से उन्हें एवं उनके अन्य मज़दूर साथियों को काफी नुक़सान हुआ. मिल बंद होने से इलाक़े के किसानों की रुचि गन्ने की खेती में पहले के मुक़ाबले कम हो गई है. इलाक़े में कई छोटी-छोटी गुड़ मिलें तो खुल गई हैं, लेकिन किसानों को गन्ने की उचित क़ीमत नहीं मिल पाती. बड़ी-बड़ी गुड़ मिलों के मालिक छोटे किसानों का दोहन करते हैं.

2005 के विधानसभा चुनाव में बनमनखी से भाजपा नेता कृष्ण कुमार को मौक़ा दिया गया. कहीं न कहीं कृष्ण कुमार को जिताने के पीछे जनता का मक़सद यह था कि विधायक और सांसद एक ही पार्टी से हों तो इलाक़े का विकास होगा. ख़ासकर किसानों को भरोसा था कि सालों से बंद पड़ी चीनी मिल को खुलवाया जा सकेगा, लेकिन नतीजा ढाक के वही तीन पात वाला रहा. इलाक़ाई नेताओं की छोड़िए, नीतीश कुमार ने भी उन किसानों और मज़दूरों की अनदेखी कर दी, जो चीनी मिल पुन: खुल जाने के सपने देखते थे.

बनमनखी चीनी मिल की स्थापना 1970 में हुई थी. उस समय 55 एकड़ भूमि में स्थित यह मिल पूर्णिया कॉरपोरेशन सुगर फैक्ट्री लिमिटेड के अधीन थी, लेकिन बिहार सुगर एक्विजिशन एक्ट के तहत 1977 में इसे बिहार सरकार ने अपनी निगरानी में ले लिया, मगर पर्याप्त मात्रा में गन्ना, बिजली और पानी उपलब्ध न हो पाने की वजह से 1997 में यह चीनी मिल बंद हो गई. एसबीआई कैपिटल मार्केट्‌स लिमिटेड (एसबीआईसीएपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1980 में बिहार में 28 चीनी मिलें थीं, जिनकी क्रसिंग कैपेसिटी 34 हज़ार टन थी. इन सभी मिलों के यूनिट्‌स की प्रगति के लिए बिहार सरकार ने 1974 में बिहार स्टेट सुगर कॉरपोरेशन लिमिटेड का गठन किया. शुरू में कुछ सालों तक मिल से चीनी का अच्छा उत्पादन हुआ, लेकिन यह ज़्यादा समय तक बरक़रार नहीं रह सका. कम फायदा और अधिक ख़र्च का हवाला देते हुए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और 1996-97 तक कई चीनी मिलें एक के बाद एक करके बंद होती चली गईं. आज 28 में से केवल 9 चीनी मिलें ही चालू अवस्था में हैं. जहां 28 चीनी मिलों की क्रसिंग कैपेसिटी 34,000 टन हुआ करती थी, वहीं अब केवल 9 चीनी मिलों की कैपेसिटी 34,450 टन है. यानी अगर बाक़ी 19 मिलें दोबारा चालू हो जाएं तो बिहार के साथ-साथ पूरा देश चीनी की समस्या से निजात पा सकता है.

नीतीश सरकार ने बंद पड़े उद्योगों को खुलवाने का वादा किया था, लेकिन उल्टे कई उद्योग बंद हो गए.

- शकील अहमद खान

वर्तमान नीतीश सरकार ने इन चीनी मिलों को पुनर्जीवित करने के वादे कई बार किए, लेकिन बात स़िर्फ वादे तक ही सीमित रह गई. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 2006 के फरवरी महीने में गन्ना विकास आयुक्त के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाई गई, जिसने चीनी मिलों के पुनरुद्धार और बंद पड़ी यूनिट्‌स के मूल्यांकन के लिए वित्तीय सलाहकार बहाल करने की योजना बनाई, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार के उदासीन रवैए के चलते कोई भी नतीजा अब तक सामने नहीं आया. नीतीश सरकार का कार्यकाल भी पूरा होने वाला है. यह सरकार 5 सालों के दौरान एक भी चीनी मिल नहीं खुलवा सकी. नेहरू युवा केंद्र संगठन के पूर्व महानिदेशक एवं बिहार कांग्रेस के नेता शकील अहमद खां का कहना है कि नीतीश सरकार ने बंद पड़े उद्योगों को खुलवाने का वादा किया था, लेकिन उल्टे कई उद्योग बंद हो गए. पूर्णिया में न तो कोई निवेश हुआ और न यहां के बेरोज़गारों का पलायन रुक सका.

मिल बंद होने से इलाक़े के किसानों की रुचि गन्ने की खेती में पहले के मुक़ाबले कम हो गई है.

- सुखदेव मंडल

किसान गंगा प्रसाद यादव, जो पहले चीनी मिल में काम करते थे, बताते हैं कि लालू यादव के शासन में हमारी उम्मीदें ख़त्म हो गईं, लेकिन नीतीश कुमार से भी धोखा ही मिला. नीतीश जब भी पूर्णिया या इसके आसपास के इलाक़ों में दौरे पर आते थे, तब बनमनखी चीनी मिल खुलवाने का आश्वासन देते थे. पूर्णिया संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत 7 विधानसभा क्षेत्र आते हैं, जिनमें पूर्णिया, बनमनखी, बैसी, आमौर, रुपौली, धमधाहा एवं कसबा शामिल हैं. इनमें 2005 के विधानसभा चुनाव में तीन पर भाजपा के, दो पर राजद के और दो पर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी जीत दर्ज करा चुके हैं. 2004 में भाजपा नेता उदय सिंह को जनता ने पूर्णिया से लोकसभा चुनाव जिताया था. 2009 में भी जनता ने उदय सिंह पर ही भरोसा किया. 2005 के विधानसभा चुनाव में बनमनखी से भाजपा नेता कृष्ण कुमार को मौक़ा दिया गया. कहीं न कहीं कृष्ण कुमार को जिताने के पीछे जनता का मक़सद यह था कि विधायक और सांसद एक ही पार्टी से हों तो इलाक़े का विकास होगा. ख़ासकर किसानों को भरोसा था कि सालों से बंद पड़ी चीनी मिल को खुलवाया जा सकेगा, लेकिन नतीजा ढाक के वही तीन पात वाला रहा. इलाक़ाई नेताओं की छोड़िए, नीतीश कुमार ने भी उन किसानों और मज़दूरों की अनदेखी कर दी, जो चीनी मिल पुन: खुल जाने के सपने देखते थे.

लालू यादव के शासन में हमारी उम्मीदें ख़त्म हो गईं, लेकिन नीतीश कुमार से भी धोखा ही मिला.

- गंगा प्रसाद यादव

राज्य सरकार अपने वादे पर कहां तक खरी उतरी है, चीनी मिल की हालत देखकर इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है. नीतीश सरकार ने बिहार में उद्योग स्थापित करने के लिए निवेश के वादे किए थे. निवेश क्या होगा, उसके कार्यकाल में तो उद्योग बंद होते रहे. राज्य से बेरोज़गारों का पलायन जारी है, इसका उदाहरण ख़ुद बनमनखी इलाक़े के मज़दूर हैं, जो चीनी मिल में काम करते थे और आज बेरोज़गारी के चलते दूसरे शहरों की ओर भाग रहे हैं. सवाल यह है कि नीतीश सरकार ने एशिया की सबसे बड़ी चीनी मिल को पुनर्जीवित करना मुनासिब क्यों नहीं समझा. कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने बनमनखी चीनी मिल को 2010 के विधानसभा चुनाव के लिए बतौर मुद्दा अपनी सूची में शामिल कर रखा हो, ताकि एक बार फिर वादों का भ्रमजाल फैलाकर राजनीतिक रोटी सेकी जा सके.

हिंदुस्‍तान फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन बरौनीः विकास के वादे कहां गए

चौथी दुनिया के लिये कुमार सुशांत

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बिहार का बरौनी स्थित हिंदुस्तान फर्टिलाइज़र कॉरपोरेशन लिमिटेड (एचएफसीएल). 1990 के आसपास इस कारखाने में अच्छी ख़ासी मात्रा में उर्वरक का उत्पादन होता था, लेकिन 2002 में केंद्र में एनडीए और बिहार में लालू प्रसाद यादव के शासनकाल के दौरान यह कारखाना घाटे के चलते बंद हो गया. कारखाना बंद होने से इससे जुड़े हज़ारों कामगार बेरोज़गार हो गए. इस क्षेत्र के लोगों की मानें तो 1990 से बिहार में शासन कर रहे लालू यादव से उनकी उम्मीदें न के बराबर थीं, लेकिन 2005 में सत्ता परिवर्तन के बाद आए नीतीश कुमार से उनकी काफी उम्मीदें जगी थीं, पर अब वो भी ख़त्म हो गईं. बेगूसराय ज़िला अंतर्गत सिमरिया निवासी ओमप्रकाश यादव पहले इस कारखाना में काम करते थे. वह कहते हैं, कारखाने की बंदी के लिए हम केंद्र को नहीं, अपने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दोषी मानते हैं. हमने उनके संसदीय उम्मीदवार को वोट दिया था और उन्होंने इस कारखाने को खुलवाने का वादा किया था.

बरौनी का खाद कारखाना 2002 से बंद पड़ा है. इसके लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार भी ज़िम्मेदार है. मौजूदा जदयू-भाजपा गठबंधन सरकार का कार्यकाल अब पूरा होने वाला है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं, लेकिन सरकार के दावों की हक़ीक़त बरौनी के इस कारखाने की हालत को देखकर समझी जा सकती है. नीतीश वादानुसार बंद पड़े उद्योग नहीं खुलवा सके, वहीं कामगारों का पलायन होता रहा.

बरौनी में तीन कारखाने हैं. पहला इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड का बरौनी तेलशोधक कारखाना, दूसरा बरौनी थर्मल पावर स्टेशन और तीसरा हिंदुस्तान फर्टिलाइज़र कॉरपोरेशन लिमिटेड. हिंदुस्तान फर्टिलाइज़र कारखाना 2002 से बंद पड़ा है. पिछले साल इसके पुनरुत्थान के लिए शिलान्यास करने रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव एवं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यहां एक साथ पहुंचे. उस समय रामविलास पासवान केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री थे और लालू यादव रेल मंत्री. बिहार में तीनों परस्पर विरोधी नेताओं का एक साथ खड़े होकर किसी कार्य के प्रति जागरूकता दिखाना अपवाद माना जाता है. शिलान्यास के दौरान रामविलास पासवान ने कहा कि बिहार के विकास से जुड़े सभी मुद्दों पर हम साथ-साथ हैं. पासवान ने बताया कि इस कारखाने के नवीनीकरण का कार्य 2010 तक पूरा कर लिया जाएगा, जिस पर 4500 करोड़ रुपये की लागत आएगी और इसकी सालाना उत्पादन क्षमता 11.55 लाख मीट्रिक टन होगी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि यदि यह कारखाना निश्चित समय पर उत्पादन प्रारंभ कर देता है, तो विद्युत विभाग इस कारखाने पर 275 करोड़ रुपये का अपना बकाया माफ कर देगा. चूंकि घोषणा पासवान ने की थी, इसलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिजली बिल माफ करने संबंधी बात कर शर्त लगा दी. उन्होंने सोचा कि समय पर कारखाना तो खुलने से रहा तो क्यों न पासवान के भाषण की किरकिरी करा दें और अपने मुंह मियां मिट्ठू भी बन जाएं. नीतीश कुमार यह भूल गए कि वह राज्य के मुखिया हैं, ऐसे में अगर कोई केंद्रीय मंत्री बिहार के विकास की बात करता है तो उसे राजनीति से परे हटकर देखना चाहिए. लालू यादव ने भी बरौनी के निकट स्थित सोनपुर रेल मंडल के सिमरिया रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के नाम पर दिनकर नगर रेलवे स्टेशन करने और उसे एक आदर्श स्टेशन के रूप में विकसित करने की घोषणा कर दी. न तो कारखाने का नवीनीकरण कार्य शुरू हुआ, न कारखाने पर बिजली विभाग का बकाया माफ हुआ और न सिमरिया रेलवे स्टेशन का नाम बदला.

सिक इंडस्ट्रियल कंपनीज़ एक्ट 1985 के आधार पर इस कंपनी को बोर्ड फॉर इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रीकंसट्रक्शन (बीआईएफआर) के हवाले कर दिया गया. बोर्ड द्वारा पेश रिपोर्ट में इन कंपनियों की हालत ठीक नहीं बताई गई. बोर्ड ने एचएफसी के पुनरुत्थान के लिए पैकेज की मांग की, लेकिन फंड के अभाव में निर्देशित राशि आवंटित नहीं की जा सकी, जिससे बरौनी प्लांट की हालत दिनोंदिन बदतर होती गई. एचएफसी की वित्तीय हालत सुधारने के लिए 1997 में आईसीआईसीआई की एक विशेषज्ञ टीम ने फिर से अनुशंसा की, जिस पर सरकार ने अमल करते हुए पुनरुत्थान के लिए 350 करोड़ रुपये के निवेश की स्वीकृति दी थी. यह तो सरकारी प्रक्रिया के मुताबिक़ था, लेकिन असल में केंद्र की यूपीए सरकार और राज्य की नीतीश सरकार अब तक इस प्लांट को खुलवाने में नाकाम रही है. प्लांट में काम करने वाले बबलू पासवान बताते हैं कि इसके खुलने की उम्मीद हम सालों से कर रहे हैं. हम लोगों ने मोनाज़िर हसन पर विश्वास करके उन्हें सांसद बनाया, लेकिन अब उनके दर्शन भी दुर्लभ हो गए हैं. बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी की पूर्व महासचिव एवं 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार रहीं अमिता भूषण का कहना है कि नीतीश सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है. वह चाहते तो इस कारखाने को अपनी पहल से चला सकते थे, ताकि हज़ारों लोगों की रोजी-रोटी चलती रहे, लेकिन सरकार न तो कारखाना खुलवा सकी, न पलायन रोक सकी और न इस क्षेत्र के पिछड़े ग्रामीणों का विकास कर सकी.

भारत में कुल आबादी का 70 फीसदी हिस्सा सीधे तौर पर कृषि से जुड़ा है, लेकिन यहां कृषि की हालत नाज़ुक है. पिछले कई वर्षों से किसानों को सही समय पर उर्वरकों की आपूर्ति नहीं हो पा रही है. नतीजतन, किसानों को ऊंची क़ीमतों पर उर्वरक ख़रीदना पड़ता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, देश में 2002-06 के दौरान हर साल 17,500 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की. इसके पीछे कहीं न कहीं सूखा, कम उत्पादन, उचित मूल्य न मिलना और उर्वरकों की कालाबाज़ारी जैसी वजहें रहीं. दूसरी तऱफ देश में उर्वरक उत्पादन करने वाले कई सरकारी कारखाने बंद पड़े हैं. सरकार को समझना होगा कि यदि इन कारखानों को खुलवा दिया जाए तो न केवल बेरोज़गारी की समस्या किसी हद तक दूर हो जाएगी, बल्कि उर्वरकों की कालाबाज़ारी भी बंद हो जाएगी.

देश में हरित क्रांति लाने एवं किसानों को उर्वरक की समस्या से निज़ात दिलाने के मक़सद से यह कारखाना खोला गया था. दुर्भाग्य की बात यह कि ये कारखाने ऐसे समय में बंद पड़े हैं, जब देश में जनसंख्या दिनोंदिन बढ़ रही है, बदतर हालात के चलते किसान आत्महत्या कर रहे हैं, कमरतोड़ महंगाई से ग़रीब हलकान हो रहे हैं. असल में हरित क्रांति की ज़रूरत तो अब है. इन कारखानों की बंदी के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह ज़िम्मेदार है, लेकिन कहीं न कहीं राज्य सरकार को भी ज़िम्मेदारी लेनी होगी. बरौनी के इस कारखाने के बंद होने से हज़ारों लोग बेरोज़गार हो गए थे. उनकी उम्मीदें केंद्र सरकार के साथ-साथ बिहार से पलायन रोकने और रोज़गार दिलाने संबंधी वादे करने वाले नीतीश कुमार पर भी टिकी थीं, लेकिन राज्य के मुखिया उनकी उम्मीदों पर खरे उतरने में पूरी तरह नाकाम रहे. नीतीश कुमार को उद्योग खुलवाने की चिंता कम और हर साल विकास रिपोर्ट कार्ड बनाने की चिंता ज़्यादा है. वह स़िर्फ जनता दरबार और चुनिंदा विकास कार्यों के जरिए वाहवाही लूट रहे हैं. बेगूसराय ज़िले की आबादी तक़रीबन 18 लाख है, जिसमें 90 फीसदी से ज़्यादा लोग ग्रामीण इलाक़ों में रहते हैं और रहन-सहन एवं शिक्षा के मामले में काफी पिछड़े हैं. बिहार का यह एक ज़िला सरकारी दावों की सारी पोल खोल देता है. नीतीश कुमार सरकार का कार्यकाल पूरा होने वाला है. चुनाव में कुछ ही महीने शेष रह गए हैं. नीतीश एक बार फिर जीतकर आने का दावा कर रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्य की दिक्कतों को समझने के लिए नीतीश कुमार को भी लालू यादव की तरह 15 वर्षों का समय चाहिए?

आंकड़ों में एचएफसी

  • 1968 में इंदिरा गांधी की अनुशंसा पर खुला था बरौनी खाद कारखाना.
  • 1978 में फर्टिलाइज़र कॉ. ऑफ इंडिया बना हिंदुस्तान फर्टिलाइज़र कॉ.
  • बरौनी प्लांट की उत्पादन क्षमता एक लाख मीट्रिक टन से भी ज़्यादा थी.
  • पुराने उपकरणों की वजह से धीरे-धीरे प्लांट के उत्पादन पर असर.
  • 1997-98 में प्लांट का उत्पादन घटकर 20 हज़ार मीट्रिक टन से भी कम हो गया.
  • 1998 तक कंपनी को 145 करोड़ से अधिक का घाटा हुआ.
  • 2002 में प्राकृतिक गैस की अनियमित आपूर्ति से प्लांट बंद हो गया.

कोई हमारी भी सुनो

एचएफसी का बरौनी कारखाना बंद होने से हज़ारों कर्मचारियों की हालत सोचनीय हो गई. कारखाने में जिनकी नौकरी कम दिनों की बची थी, उन्हें पेंशन तो मिलने लगी, लेकिन जिनकी नौकरी 10 साल से अधिक बची थी, उन्हें ठेंगा दिखा दिया गया. कर्मचारियों का आरोप है कि कारखाना बंद होने की ख़बर पर जब उन्होंने मज़दूरी पुनरीक्षण और कारखाने से निकाले जाने के बाद अपने रोज़गार की मांग की तो उन्हें जबरन बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. बिहट निवासी अशोक सिंह पहले एचएफसी में काम करते थे. वह कहते हैं कि कारखाने में 1992 से मज़दूरी पुनरीक्षण बाकी है. उनकी नौकरी 22 साल शेष रहने के बावजूद उन्हें निकाल दिया गया. उनके सैकड़ों साथियों को भी जबरन कारखाने से निकाला गया. सबने मिलकर पटना उच्च न्यायालय में मुक़दमा कर दिया. अशोक इस बात से ख़ुश हैं कि इसी साल 28 जुलाई को अदालत ने कर्मचारियों के पक्ष में फैसला दिया है. कर्मचारियों ने रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के पास अदालत के फैसले की प्रति और अपनी अर्जी भेजी है. एचएफसी के पूर्व कर्मचारी देवनंदन पासवान का कहना है कि पूर्व रसायन एवं उर्वरक मंत्री ने रामविलास पासवान ने उन्हें फिर से नौकरी देने की बात की थी, इसीलिए जिन लोगों को नौकरी से निकाला गया, उन्हें मजदूरी पुनरीक्षण के साथ दूसरे प्लांटों में ही सही, पर नौकरी दी जाए. अदालत के फैसले के बावजूद कर्मचारियों को आशंका है कि कहीं रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय उनकी मांग ठंडे बस्ते में न डाल दे.

Thursday, September 16, 2010

कांग्रेस के हाथ लगेगी सत्ता की चाबी (चौथी दुनिया की रिपोर्ट )

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पांच साल पहले रामविलास पासवान सत्ता की चाबी लेकर घूम रहे थे. बहुमत न मिलने के कारण नीतीश और लालू उन्हें मनाते रहे, लेकिन उन्होंने सत्ता की चाबी किसी को नहीं सौंपी. नतीजा यह हुआ कि किसी की सरकार नहीं बनी और सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. आज हालात बदल गए हैं. पासवान का लालू के साथ गठबंधन है और नीतीश कुमार सत्ता में हैं, मगर सूबे के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि इस बार भी सत्ता की चाबी का सवाल सामने आ गया है. ज़मीनी स्तर पर जनता का मिजाज़ भांपने से लगता है कि कांग्रेस इस बार सरकार बनाने में अहम भूमिका निभा सकती है. सी वोटर के एक सर्वे में कांग्रेस के खाते में 26 सीटें दिखलाई गई हैं. सर्वे से अलग बात करें तो अब तक जो तैयारी कांग्रेस की तऱफ से दिख रही है, उससे यही लगता है कि पिछले चुनाव की तुलना में इस बार पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहेगा. ज़िलों से आ रहे संकेत भी कांग्रेस के लिए शुभ हैं. कांग्रेसी नेता सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं, पर हक़ीक़त यह है कि पार्टी की पूरी कोशिश है कि कम से कम इतनी सीटों पर जीत हासिल कर ली जाए कि पार्टी के समर्थन के बिना बिहार में कोई सरकार न बन पाए. कांग्रेसी जानते हैं कि संगठन के मामले में अब भी पार्टी का़फी कमज़ोर है और उसके पास चुनाव जीतने वाले नेताओं का भी अभाव है. दूसरे दलों के दमदार नेताओं पर पार्टी की नज़र है. टिकट वितरण से नाराज़ दूसरे दल के दमदार नेता अंतिम समय में कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं. कांग्रेसी चाहते हैं कि बिहार में जो अगली सरकार बने, वह कांग्रेस की शर्तों पर बने. मतलब कांग्रेसी हर हाल में सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखना चाहते हैं और इसकी पूरी तैयारी में वे लगे हैं.

मौजूदा राजनीतिक हालात में अगर कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ तो दोनों बड़े गठबंधनों को सौ-सौ का आंकड़ा पार करने में मुश्किल होगी. कांग्रेस के पक्ष में अगर मतदाताओं की गोलबंदी जारी रही तो तीस से चालीस सीटों पर उसके प्रत्याशी जीत कर आ सकते हैं.

कांग्रेस की इसी रणनीति को ध्वस्त करने के लिए जदयू एवं राजद ने हर एक मोर्चे पर उसे घेरने का काम शुरू कर दिया है. तैयारी यह है कि कांग्रेस के हर हथियार को भोथरा करके यह साबित कर दिया जाए कि राजद गठबंधन एवं जदयू गठबंधन ही चुनाव के दो धु्रव हैं और जनता को इन्हीं दोनों में से किसी एक पर अपना फैसला सुनाना चाहिए. आंकड़ों व मुद्दों को ढाल बनाकर जनता को यह समझाया जाए कि कांग्रेस केवल वोटकटवा की भूमिका में है और इसे वोट देने का मतलब वोट को बर्बाद करना है. कांग्रेस का पहला हथियार है बिहार के विकास में केंद्र का भरपूर सहयोग. इस हथियार को भोथरा करने के लिए महीनों से तीर चलाए जा रहे हैं. नीतीश कुमार एवं जदयू के दूसरे बड़े नेताओं का कहना है कि सूबे को केंद्र ने केवल इसका हक़ दिया है, इसके अलावा कुछ नहीं. बिहार का विकास नीतीश कुमार के सुशासन की देन है, जबकि केंद्रीय मंत्रियों एवं कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की दलील है कि बिहार के विकास के लिए मनमोहन सरकार ने तिजोरी खोल दी. कांग्रेस एवं जदयू की इस बहस ने तब और ज़ोर पकड़ लिया, जब सोनिया गांधी ने भी बिहार में विकास के लिए केंद्र सरकार के प्रयासों को सराहते हुए कह दिया कि कांग्रेस बिहार में गंभीरता से चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है. इस पर नीतीश कुमार तिलमिला गए और उन्होंने कांग्रेस को खुली बहस की चुनौती दे डाली. दोनों तऱफ से बयानबाज़ी चल ही रही थी कि रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट ने कांग्रेसी नेताओं के चेहरे खिला दिए. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच बिहार को मिलने वाली केंद्रीय सहायता में 214 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. आरबीआई हैंडबुक ऑफ स्टैटिसटिक्स आन स्टेट गवर्नमेंट फाइनेंसेज के अनुसार, 2005-06 में 12,286 करोड़ की सहायता बिहार को मिली थी, जो 2009-10 में बढ़कर 34,353 करोड़ हो गई. 2009-10 में बिहार को जो यह राशि मिली, उसमें केंद्रीय करों में राज्य का हिस्सा, योजना मद, प्राकृतिक आपदाओं के लिए सहायता एवं ब्याज चुकाने की राशि शामिल थी. 2004-05 में कुल ट्रांसफर्ड शेयर 50 फीसदी था, जो 2009-10 में बढ़कर 72 फीसदी हो गया, जबकि अन्य राज्यों का औसत 34 फीसदी ही रहा.

इस रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस जदयू को चुप कराने में लगी है तो जदयू के नेता कहने में जुटे हैं कि बिहार को इसके हक़ के अलावा कुछ नहीं मिला. केंद्र के सौतेले व्यवहार के कारण सूबे का विकास प्रभावित हुआ. ललन सिंह के कांग्रेस को वोट देने की अपील और नीतीश सरकार हटाओ अभियान को जदयू लालू को मदद पहुंचाने की कोशिश बता रहा है. ललन सिंह की सभाओं में उमड़ रही उनकी बिरादरी की भीड़ ने जदयू एवं भाजपा नेताओं की नींद उड़ा दी है. पिछले चुनाव में भूमिहारों ने एनडीए को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात एक कर दिया था. अगर इस चुनाव में भूमिहार दूसरे खेमे में चले गए तो एनडीए को करारा झटका लग सकता है. इसी तरह मुसलमानों की कांग्रेस की तऱफ हो रही गोलबंदी ने लालू प्रसाद को परेशान कर रखा है. यही वजह है कि कभी वह रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की बात कह रहे हैं तो कभी इमामों को वेतन देने का मामला उठा रहे हैं. कांग्रेस को वोटकटवा बताकर वह मुसलमानों से अपना वोट बर्बाद न करने की अपील भी कर रहे हैं. मतलब दोनों ही खेमों में कांग्रेस को लेकर बेचैनी है, क्योंकि कांग्रेस सूबे में का़फी तेज़ी से चुनावी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने में लगी है. कांग्रेस की इस हैसियत का मतलब है कि कुछ क्षेत्रों में नीतीश को ऩुकसान होगा तो कुछ इलाक़ों में लालू को. कांग्रेस के बड़े नेता जानते हैं कि पार्टी अगर इस हैसियत में आ गई तो सत्ता की चाबी हर हाल में उसके हाथ लग जाएगी. बिहार की राजनीति को ज़मीनी स्तर पर समझने वाले विश्लेषकों की राय का निचोड़ निकालें तो यह बात सामने आती है कि अगर कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ तो दोनों बड़े गठबंधनों को सौ-सौ का आंकड़ा पार करने में मुश्किल होगी. अगर कांग्रेस के पक्ष में मतदाताओं की गोलबंदी जारी रही तो तीस से चालीस सीटों पर उसके प्रत्याशी जीत कर आ सकते हैं. कांग्रेस की कोशिश तो दूसरे पायदान पर आने की है, पर संगठन की कमज़ोरी एवं पार्टी के भीतर की लड़ाई के कारण फिलहाल ऐसा संभव नहीं लग रहा है. कांग्रेस जानती है कि 29 सीटें लेकर रामविलास पासवान ने फरवरी 2005 के चुनाव के बाद गदर मचा दी थी. अगर तीस से चालीस सीटें कांग्रेस के हाथ लग गईं तो वह बिहार में अगली सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभा सकती है.

कांग्रेस के भरोसेमंद सूत्रों की बातों पर भरोसा करें तो दरअसल पार्टी की नज़र 2014 के लोकसभा और उसके बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव पर है. इस चुनाव को कांग्रेस बोनस के तौर पर देख रही है. पूरी कोशिश सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपनी मज़बूत मौजूदगी दिखाने की है. गोलबंदी त़ेज होने पर अप्रत्याशित चुनाव परिणामों की उम्मीद भी कांग्रेस के कुछ नेता कर रहे हैं, लेकिन लक्ष्य हर हाल में सत्ता की चाबी अपने हाथ में करने की है. कांग्रेस प्रवक्ता प्रेमचंद्र मिश्रा कहते हैं कि हमारी लड़ाई सत्ता की चाबी पाने की नहीं है, बल्कि यहां अपनी सरकार बनाकर सही मायनों में सूबे का विकास करने की है. लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार दोनों को ही जनता आज़मा चुकी है, अब बारी कांग्रेस की है. प्रदेश की जनता कांग्रेस का इंतजार कर रही है. दूसरी तरफ राजद सांसद रामकृपाल यादव कहते हैं कि सवाल चाबी और ताले का नहीं है, असल सवाल बिहार को बचाने का है और इसे राज्य की जनता अच्छी तरह समझ रही है. इसलिए जनता ने नीतीश कुमार की निकम्मी सरकार को उखाड़ फेंकने का मन बना लिया है. सूबे में लालू प्रसाद के नेतृत्व में राजद-लोजपा गठबंधन की सरकार बनना तय है. खैर दावा जो भी हो, पर सूबे की मौजूदा राजनीतिक सच्चाई यह बता रही है कि कोई भी गठबंधन स्पष्ट बहुमत की तऱफ नहीं बढ़ रहा है और इसी का फायदा कांग्रेस को मिलता दिख रहा है.

Wednesday, September 15, 2010

बिहार में बन रहा नया समीकरण- अमर सिंह की रणनीति (चौथी दुनिया से)


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ठाकुर अमर सिंह अपनी नई पार्टी बना रहे हैं. बेहद पोशीदगी से सारे काम को अंजाम दिया जा रहा है. पार्टी के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. नई पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर अमर सिंह का नाम चुनाव आयोग में भेजा जा चुका है. उनके अलावा जो मुख्य भूमिका में होंगे, वे हैं पूर्व राज्यसभा सांसद एवं मुसलमानों में धर्म उपदेशक के रूप में गहरी पैठ बना चुके मौलाना ओबेदुल्ला खान आज़मी और लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से सांसद रह चुके एवं अब कांग्रेस में शामिल एक बेहद दबंग यादव नेता. अमर सिंह की नई पार्टी मुसलमान, यादव और राजपूत जाति के समीकरण पर आधारित होगी. देश के राजनीतिक इतिहास में जातीय राजनीति का यह अपनी तरह का पहला प्रयोग होगा, जिसमें राजपूत नेताओं की गोलबंदी मुसलमान और यादव नेताओं के साथ होगी. ओबेदुल्ला खान आज़मी इन दिनों अपनी-अपनी पार्टियों के रवैये से नाराज़ बिहार एवं उत्तर प्रदेश के तमाम यादव, मुसलमान और राजपूत नेताओं से मिलकर उन्हें अमर सिंह की पार्टी में आने का न्यौता दे रहे हैं. ये वैसे नेता हैं, जिनकी समाज में खासी द़खल है. बिहार में ऐसे नेताओं को बटोरने का ज़िम्मा उसी दबंग यादव नेता को दिया गया है. वह जब लालू यादव की पार्टी राजद में थे तो बिहार में उनका सिक्का चलता था.बिहार के इस बाहुबली यादव नेता और मौलाना ओबेदुल्ला खान आज़मी के ज़ोर पर ठाकुर अमर सिंह फरवरी के आ़खिरी हफ़्ते में बिहार की राजधानी पटना में एक ज़ोरदार अधिवेशन करने की तैयारी में हैं. यह अधिवेशन एक तरह से अमर सिंह का शक्ति प्रदर्शन भी होगा, ताकि जब बिहार में अक्टूबर में विधानसभा चुनाव हों, उसके पहले उन्हें अपनी जोड़तोड़ की राजनीति का अंदाज़ा भलीभांति हो जाए. अमर सिंह की मंशा है कि उनकी पहली प्रयोगशाला बिहार हो. और, पहले ही वार में अमर सिंह बिहार का क़िला फतह करने का सपना भी देख रहे हैं. ठीक उसके बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. तब तक अमर सिंह अपनी सियासी रणनीतियों को ठोक बजा लेना चाहते हैं, ताकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी का प्रदर्शन बेमिसाल हो सके और वह अपने पुराने हितैषियों और चाहने वालों को क़रारा जवाब दे सकें. अगले लोकसभा चुनाव तक अमर सिंह देश की सियासत में ध्रुवतारा की मा़फिक चमकने की हसरत रखते हैं.

राजपूत, मुसलमान और यादव का त्रिभुज बनाकर अमर सिंह हिंदुस्तान की राजनीति का रू़ख अपनी ओर करना चाहते हैं और इसकी शुरूआत उन्होंने बिहार से कर दी है. दलीय राजनीति से इतर बिहार के तमाम विक्षुब्ध नेता अमर सिंह का दामन थामने को बेक़रार हैं.

नई पार्टी के गठन में अमर सिंह पूरी सावधानी बरत रहे हैं. वह अपनी पार्टी के ज़रिए समाजवाद का एक नायाब उदाहरण पेश करना चाहते हैं. राजपूत, यादव और मुसलमानों की गोलबंदी की योजना तो चल ही रही है, साथ ही दलितों और पिछड़ों पर भी डोरे डाले जा रहे हैं. कभी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिला़फ आग उगलने वाले ठाकुर साहब अब उनकी तारी़फ में कसीदे का़ढ रहे हैं. बहन जी की क़ाबिलियत के वह कायल हो चुके हैं और यह कहने लगे हैं कि उन्होंने हर मुश्किल व़क्त में खुद को साबित किया है. आज सोनिया गांधी भी उनकी नज़र में महान हो चुकी हैं. मौलाना ओबेदुल्ला खान आज़मी अपनी मनमोहिनी मज़हबी तक़रीर के लिए खूब जाने जाते हैं. वह जब जलसों में बोलते हैं तो हज़ारों की तादाद में लोग उन्हें घंटों सुनते हैं. उनके भाषणों के कैसेट बाज़ारों में बिकते हैं. पहली बार मौलाना साहब को पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कहने पर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने राज्यसभा सांसद बनाया. फिर मौलाना आज़मी कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस ने उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा में भेजा. दोबारा वहां गुंजाइश न देख मौलाना आज़मी ने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली. लेकिन यहां उनकी दाल नहीं गली. सपा प्रमुख ने उन्हें घुमाया-टहलाया तो बहुत, पर उनकी ख्वाहिश पूरी नहीं की. उन्हें राज्यसभा का सांसद नहीं बनाया. लेकिन इस दरम्यान वह और पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह एक दूसरे के अजीज़ ज़रूर हो गए. अब जबकि दोनों को ही एक दूसरे की ज़रूरत थी, ऐसी सूरत में अमर सिंह के इस्ती़फे के बाद मौलाना साहब ने भी मुलायम सिंह का हाथ छोड़ा और अमर के साथ हो लिए. और, अब वह अमर सिंह के निर्देशों के मुताबिक़ पार्टी को श़क्ल देने में लगे हैं. वैसे भी पार्टी में उन्हें अमर सिंह ही लेकर आए थे. वह बिहार और उत्तर प्रदेश के विक्षुब्ध नेताओं के संपर्क में लगातार बने हुए हैं. चौथी दुनिया के पास जिन नेताओं के नाम आए हैं, उनमें प्रमुख हैं पूर्व सांसद एवं कांग्रेस नेता साधु यादव, पूर्व राजद सांसद पप्पू यादव, पूर्व जदयू सांसद प्रभुनाथ सिंह, राजद नेता गिरधारी यादव, राजद नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री तस्लीमुद्दीन. राजद छोड़कर समाजवादी पार्टी में शरण लेने वाले और अब खुद की पार्टी बनाकर राजनीति करने वाले बाहुबली विधायक ददन सिंह यादव, अनवारुल हक़, रमई राम इत्यादि नामों की बड़ी सूची है. इसके अलावा कांग्रेस के नाराज़ नेताओं से भी बातचीत चल रही है. लोजपा, जदयू और राजद के नेताओं से गुणा-भाग की राजनीति परवान पर है. मतलब यह कि सभी पार्टियों के चुनिंदा नेताओं को मिलाकर अमर सिंह की नई पार्टी म़ुकम्मल होगी.

अमर सिंह की चाल अगर अपना रंग दिखा जाती है तो अगले बिहार विधानसभा चुनाव के बाद अमर सिंह की पार्टी सरकार बनाने में अहम भूमिका निभा सकती है. बिहार के बाद उत्तर प्रदेश और फिर लोकसभा चुनाव उनका निशाना होगा.

अमर सिंह इन नेताओं से सामंजस्य बिठाने की अहम ज़िम्मेदारी कांग्रेस नेता साधु यादव को देना चाहते हैं. हालांकि साधु यादव इस खबर को बिल्कुल ग़लत क़रार दे रहे हैं. वह कांग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा ज़ाहिर करते हैं, पर उनके मौजूदा आवास 15 जनपथ पर मौलाना ओबेदुल्ला आज़मी का आना-जाना बदस्तूर बना हुआ है. दरअसल साधु यादव बिहार में एक दबंग और जनाधार वाले यादव नेता के रूप में जाने जाते हैं. राजद अध्यक्ष लालू यादव के साले के तौर पर साधु ने अपना राजनीतिक स़फर शुरू किया, पर धीरे-धीरे साधु ने अपना अलग आधार बनाया. लालू के कंधे पर पैर रखकर छलांग लगाई और अनबन होने की सूरत में कांग्रेस में शामिल हो गए. लेकिन साधु का पार्टी बदलना उनके मतदाताओं को रास नहीं आया और वह लोकसभा चुनाव हार गए. हारने के बाद भी साधु यादव के साथ उनके समर्थकों की जो भीड़ है, उसमें यादव, मुसलमान, ब्राह्मण, भूमिहार और राजपूत युवकों की तादाद ज़्यादा है. इसके अलावा साधु ने अपना आधार दक्षिण भारत में भी बनाना शुरू कर दिया. वहां के यादवों का भी समर्थन साधु को मिलने लगा है. बिहार में लालू यादव से पंगा लेने या उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव से दो-दो हाथ करने में साधु यादव से बेहतर विकल्प अमर सिंह को दिखाई नहीं दे रहा है. हालांकि साधु यादव की छवि एक अपराधी और बाहुबली नेता की रही है, लेकिन यह छवि जातीय कारक से कहीं दब सी जा रही है.

नई पार्टी के गठन में अमर सिंह पूरी सावधानी बरत रहे हैं. वे अपनी पार्टी के ज़रिए समाजवाद का एक नायाब उदाहरण पेश करना चाहते हैं. राजपूत, यादव और मुसलमानों की गोलबंदी की योजना तो चल ही रही है, साथ ही दलितों और पिछड़ों पर भी डोरे डाले जा रहे हैं. कभी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिला़फ आग उगलने वाले ठाकुर साहब अब उनकी तारी़फ में कसीदे का़ढ रहे हैं.

अमर सिंह इस जुगत में हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर वह एक क्षत्रिय नेता के तौर पर स्थापित हों. मौलाना आजमी मुसलमान नेता और साधु यादव यादवों के नेता के रूप में अपनी धमक जगाएं. दलित वोटों को बटोरने के लिए उत्तर प्रदेश के एक बड़े दलित नेता से बातचीत अंतिम चरण में है. बिहार में राजपूत जाति का वोट लगभग 5 फीसदी, मुसलमानों का 11 फीसदी और यादवों को 18 फीसदी है. अमर की नजर इसी वोट बैंक पर है. अमर सिंह चाहते हैं कि देश की राजनीति की मुख्यधारा में राजपूतों का वर्चस्व हो, ताकि आने वाले दिनों में एक पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अमर सिंह की सामयिक महत्ता बनी रहे. इसके लिए वह पूर्व जदयू नेता एवं निर्दलीय सांसद दिग्विजय सिंह से अपनी गांठ जोड़ना चाहते हैं. लेकिन फिलहाल दिग्विजय सिंह संशय की स्थिति में हैं. उन्हें इस बात का डर है कि कहीं अमर सिंह का प्रयोग असफल रहा तो उनकी राजनीतिक साख को झटका लग सकता है.

अमर सिंह चाहते हैं कि देश की राजनीति की मुख्यधारा में राजपूतों का वर्चस्व हो, ताकि आने वाले दिनों में एक पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अमर सिंह की सामयिक महत्ता बनी रहे.

लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर अमर सिंह की रणनीति बिहार में कामयाब रहती है और फरवरी के आ़खिरी या मार्च के शुरुआती हफ़्ते में पटना में होने वाला उनका अधिवेशन सफल रहता है तो दिग्विजय सिंह भी अमर सिंह के साथी बन सकते हैं. लेकिन, एक बात जो तय है, वह यह कि जदयू के बागी नेता प्रभुनाथ सिंह अमर सिंह की पार्टी में महत्वपूर्ण पद संभालने जा रहे हैं. प्रभुनाथ सिंह बिहार की राजनीति में खास मायने रखते हैं. वह राजपूत जाति के बेहद अहम नेता हैं. छपरा, सीवान, गोपालगंज, बेतिया, मोतिहारी, सासाराम सरी़खे भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में प्रभुनाथ सिंह की पकड़ बेहद मज़बूत है. प्रभुनाथ सिंह पिछले लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री से खासे खफा हैं. वह खुलेआम उन्हें ललकार रहे हैं. आर-पार की लड़ाई का न्यौता दे रहे हैं. अमर सिंह जानते हैं कि प्रभुनाथ सिंह नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू का कितना बड़ा नुक़सान कर सकते हैं. लिहाज़ा बिहार में अपनी नई पार्टी का पैर ज़माने के लिए वह प्रभुनाथ सिंह का इस्तेमाल ब़खूबी करेंगे. साथ में रमई राम सरीखे दलित नेताओं का साथ भी अमर सिंह की पार्टी को बड़ा फायदा पहुंचाएगा. अब यहां सवाल उठता है कि राजपूत, यादव और मुसलमान की अमर सिंह की यह तिकड़ी बिहार विधानसभा चुनाव में माई समीकरण के जनक लालू यादव या अन्य नेताओं को कितना नुक़सान पहुंचाएगी. खास तौर पर मुसलमान मतदाताओं का झुकाव किस ओर ज़्यादा होगा. राजद में मुस्लिम चेहरे के रूप में स़िर्फ अब्दुल बारी सिद्दीकी हैं. सिद्दीकी कहने को तो मुसलमान नेता हैं, पर उनकी पकड़ बिहार की मुसलमान बिरादरी पर उतनी गहरी नहीं, जो लालू यादव की नैया पार करा दे. लोजपा में इन दिनों वैसे भी स्थापित नेताओं का अकाल पड़ा है. इसलिए मुसलमान के नाम पर कोई जानी पहचानी शख्सियत पार्टी में मौजूद नहीं है. कांग्रेस अभी अपनी जड़ तलाशने में ही जुटी है. जदयू में कोई बड़ा नाम है नहीं. और भाजपा का वैसे भी मुसलमान नेताओं से वास्ता नहीं रहता. ऐसी हालत में मौलाना ओबेदुल्ला खान आज़मी निश्चित तौर पर मुसलमानों के बड़े नेता के तौर पर बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी अमर सिंह की पार्टी को मज़बूत करेंगे. वैसे भी धर्मगुरु और उपदेशक होने के नाते मौलाना आज़मी मुसलमान बिरादरी में एक ऊंंचा स्थान रखते हैं. और, यह बात अमर सिंह की नई पार्टी के लिए संजीवनी का काम करेगी. मतलब यह कि राजपूत, मुसलमान, यादव समीकरण को आधार बनाकर अमर सिंह हरेक जाति में सेंध लगाएंगे और अपनी पार्टी की नींव मज़बूत करेंगे. इसकी खातिर ठाकुर अमर सिंह कोई कसर बाकी रखना नहीं चाहते. यही वजह है कि उन्होंने अपनी पार्टी का निर्माण नीचे से करने के बजाय ऊपर से करना शुरू किया है. यह बात भी दीगर है कि नई पार्टी के गठन में खर्च बेशुमार है. उसमें भी तब, जबकि पार्टी में जाने-माने बड़े नेताओं को शामिल होना है. अब पार्टी अध्यक्ष होने के नाते यह सारा इंतजाम करना तो ठाकुर साहब को ही है, पर उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं. वह तमाम इंतजामात ब़खूबी कर रहे हैं. उनकी हरसंभव कोशिश यही है कि बिहार विधानसभा चुनाव के बाद बिहार में जो स्थितियां बनें, उनमें उनकी पार्टी के हाथ सरकार बनाने की चाबी हो. वह निर्णायक भूमिका में हों. बिहार में अगर उन्हें यह उपलब्धि हासिल हो गई तो अगले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी पुराने सखा मुलायम सिंह यादव के मुकाबले चुनावी अखा़डे में उतरने का दम भर सकती है. यक़ीनन इसका नतीजा अगले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिलेगा, लेकिन फिलहाल तो यह देखना है कि अमर सिंह अपनी पार्टी के ज़रिए बिहार में जो नई राजनीतिक ताक़त पैदा करना चाह रहे हैं, वह किसका नुक़सान करेगी. लालू का? नीतीश का? या कांग्रेस का? इसके लिए कम से कम अमर सिंह की पार्टी के पहले अधिवेशन का इंतज़ार तो करना ही होगा.

बिहार में मुसलमान (चौथी दुनिया से )

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चुनावी साल में बिहार के दिग्गज नेताओं को एक बार फिर सूबे के डेढ़ करोड़ मुसलमानों का दर्द सताने लगा है. मुसलमानों की ग़रीबी, उनके बच्चों के न पढ़ पाने का दर्द और सत्ता में उनकी कम भागीदारी अचानक नेताओं के एजेंडे में ऊपर आ गई है. जगह-जगह रैलियों एवं सभाओं में मुसलमानों के सम्मान और कल्याण के लिए वादों की बौछार शुरू है. इन नेताओं की आंखों में अपना दर्द निहारने वाले मुसलमानों के हिस्से में क्या आएगा, यह तो समय बताएगा पर वोट की राजनीति करने वाले नेता यह गुना-भाग करने में मशगूल हैं कि उनकी पार्टी के हिस्से में मुसलमानों का ज़्यादा से ज़्यादा वोट कैसे आएगा. अनुमान के मुताबिक़ नए परिसीमन के बाद सूबे की तीन दर्ज़न सीटों पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला मुस्लिम वोटरों को ही करना है. सीमांचल के चार ज़िले किशनगंज, पूर्णिया, अररिया एवं कटिहार के अलावा सहरसा, सुपौल, दरभंगा, सीतामढ़ी, भागलपुर सहित कई और ज़िलों में कुछ विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटरों को दरकिनार कर कोई भी प्रत्याशी विधानसभा पहुंचने की सोच भी नहीं सकता है. यही वजह है कि नीतीश कुमार, रामविलास पासवान और लालू प्रसाद ने अभी से ही मुसलमानों को रिझाने के लिए कवायद शुरू कर दी है. मुस्लिम वोटों पर जहां लालू प्रसाद अपना स्वाभाविक दावा जताते हैं, वहीं नीतीश कुमार का कहना है कि मेरी सरकार ने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए ढेर सारे काम किए हैं. रामविलास पासवान का तर्क है कि बातें तो बहुत हुईं, लेकिन मुसलमानों को उनका वाजिब हक़ नहीं मिल सका है. लोजपा की मुस्लिम रैली में पासवान ने कहा कि आज़ादी के 63 साल बाद भी देश का मुसलमान डरा हुआ है. वह अपने आप को दोयम दर्जे का नागरिक समझता है. मुसलमानों की चिंता जल्द ख़त्म करने का आश्वासन देते हुए पासवान ने रैली में चुनावी तड़का लगाना शुरू कर दिया. बहुचर्चित चाबी वाले अपने बयान से कुछ अलग हटते हुए उन्होंने कहा कि बिहार में नई सरकार की चाबी अकलियतों के हाथ में होगी और जिस दिन अकलियतों ने हमारे गठबंधन के पक्ष में मन बना लिया, सत्ता में आने से हमें कोई नहीं रोक सकता है. रैली में नीतीश पर हमला करने से भी पासवान नहीं चूके. उन्होंने कहा कि इस सरकार में इसी गांधी मैदान में तीन दिनों तक आरएसएस का सम्मेलन हुआ. उन्होंने कहा कि जब पश्चिम बंगाल सरकार ने रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी, तो फिर केंद्र और बिहार सरकार को ऐसा करने में क्या परहेज है. रैली में मौलाना कल्बे रुशैद रिज़वी ने मुसलामानों का दर्द बयां कर महफिल लूट ली. उन्होंने कहा कि मुस्लिम रैली के बाद पासवान की अकलियतों की प्रति ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. चिलचिलाती धूप में बैठे मुसलमानों को हिंदुस्तान का सिपाही बताते हुए उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया यह समझ ले कि इस देश पर बुरी नज़र रखने वालों की आंखें निकालने में यहां का मुसलमान सबसे आगे रहेगा. सांसद साबिर अली ने भी मुसलमानों के साथ लगातार हो रही नाइंसा़फी का मुद्दा उठाया. कुल मिलाकर रैली के माध्यम से रामविलास पासवान ने मुसलमानों को यह संदेश देने की कोशिश की कि उन्हें ठगने वालों को लोजपा सबक सिखाएगी. अगर अकलियतों का वोट लोजपा के खाते में आ जाए तो उनके आंसू पोछने के लिए पार्टी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी. दरअसल दलित वोटों में नीतीश कुमार ने सेंध लगाकर पासवान के होश उड़ा दिए हैं. दलित राजनीति करने का दंभ भरने वाले पासवान को लगता है कि नीतीश का महादलित कार्ड लोजपा के सारे गणित को फेल कर सकता है. इन वोटों की खानापूर्ति मुस्लिम वोटों से करने की रणनीति पर अमल करते हुए सारे नेताओं द्बारा मुसलमानों से ढेर सारे वादे किए जा रहे हैं.

मुस्लिम वोटों के लिए पासवान और नीतीश की तेज़ी को देखते हुए राजद खेमा भी सक्रिय हो गया है. मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे 15 सालों तक सत्ता में रहे राजद ने मुसलमानों को रिझाने के लिए एक और मोर्चा खोल दिया है. पार्टी की तऱफ से माइनरिटी वेलफेयर फ्रंट अब मुसलमानों के बीच जागरुकता अभियान चलाएगा. लालू के क़रीबी अनवर अहमद उसके प्रमुख हैं.

सत्ता में आने के बाद से ही नीतीश कुमार ने कोशिश शुरू कर दी थी कि भले ही भाजपा के साथ उनकी गठबंधन की सरकार है पर उनकी छवि धर्मनिरपेक्ष बनी रहे. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में जब भी वह गए इस बात को दोहराना न भूले कि उनके कार्यकाल में एक भी दंगा नहीं हुआ. अल्पसंख्यकों की शिक्षा और रोज़गार के अलावा अन्य शुरू किए गए कल्याणकारी योजनाओं के बारे में नीतीश कुमार बताना नहीं भूलते. मुस्लिम रैली के माध्यम से जब पासवान अकलियतों के नज़दीक आने में जुटे तो नीतीश कुमार ने तुरंत पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने का तीर चला दिया. जहानाबाद में मुस्लिम फलाही बेदारी कांफ्रेंस में नीतीश कुमार ने मुसलमानों के दर्द को सहलाते हुए कहा कि मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ग़रीबी से त्रस्त है. इसलिए विकास में उनका विशेष हक़ होना चाहिए. उन्होंने कहा कि मैं पूरी ईमानदारी से चाहता हूं कि समाज का हर तबका विकास का स्वाद चखे. नीतीश कुमार ने कहा कि उनकी सरकार ने मुसलमानों की बेहतरी के लिए 19 कार्यक्रम चला रखे हैं. दरअसल जिन अगड़ी जातियों ने नीतीश को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया था, उनका कितना साथ इस चुनाव में उन्हें मिलेगा यह दुविधा जदयू के लिए चिंता का विषय है. खासकर ललन प्रकरण के बाद यह चिंता कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है. इसलिए पार्टी के रणनीतिकार चाहते हैं कि जितना ज़्यादा से ज़्यादा हो सके मुस्लिम वोटों में सेंधमारी का अभियान तेज़ कर दिया जाए. पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण की बात कहकर नीतीश ने बड़ा दांव खेला है. सूत्रों पर भरोसा करें तो अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को और निखारने के लिए नीतीश आने वाले दिनों में कोई बड़ा राजनीतिक जोख़िम भी उठा सकते हैं.

मुस्लिम वोटों के लिए पासवान और नीतीश की तेज़ी को देखते हुए राजद खेमा भी सक्रिय हो गया है. मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे 15 सालों तक सत्ता में रहे राजद ने मुसलमानों को रिझाने के लिए एक और मोर्चा खोल दिया है. पार्टी की तऱफ से माइनरिटी वेलफेयर फ्रंट अब मुसलमानों के बीच जागरुकता अभियान चलाएगा. लालू के क़रीबी अनवर अहमद उसके प्रमुख हैं. अनवर राजधानी से लेकर पंचायत स्तर तक कार्यक्रम चलाकर मुसलमानों को उनके हक़ के बारे में बताएंगे. राजद का सा़फ कहना है कि नीतीश ने मुसलमानों के लिए जो योजनाएं चलाई हैं. वे बस काग़ज़ों पर हैं. बजट में करोड़ों रुपए का प्रावधान है पर अल्पसंख्यकों के हित में उसे ख़र्च नहीं किया जा रहा है. ख़तरा कांग्रेस की तऱफ से भी लग रहा है. इसलिए राजद ने पहले से ही सांप्रदायिकता के मुद्दे पर कांग्रेस को बेनकाब करने का अभियान चला रखा है. लोकसभा चुनाव में माय समीकरण के बिखराव से लगे झटके से लालू चौकन्ना हो गए हैं और चाहते हैं कि विधानसभा चुनाव में उनके माय समीकरण में कोई सेंध न लगे. बहरहाल मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए मची होड़ में कौन आगे निकलेगा यह तो आने वाला समय बताएगा पर इतना तो सा़फ है कि इस होड़ में जो आगे निकलेगा, सत्ता उसी के ज़्यादा क़रीब होगी.

बिहार में वाम दल दिखाएंगे दम (चौथी दुनिया की रिपोर्ट )


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पश्चिम बंगाल में कमज़ोर होती पकड़ के बावजूद बिहार में वाम दल पूरी तैयारी के साथ चुनावी अखाड़े में कूदने की तैयारी कर रहे हैं. बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से लगभग दो सौ सीटों पर भाग्य आजमाने के लिए पार्टी नेता रात-दिन पसीना बहा रहे हैं. बंगाल से सटे बिहार में बेहतर प्रदर्शन कर वाम नेता यह संदेश देना चाहते हैं कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है और घमासान जंग के बाद ही तय होगा कि लाल झंडे का भविष्य क्या होगा.

भाकपा-माकपा वाम एकता के साथ चुनावी दंगल में उतरना चाहती है. इसके लिए भाकपा और माकपा के बीच कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है. भाकपा माले ने क़रीब 100 सीटों पर, भाकपा ने 54 सीटों पर और माकपा ने 25-35 सीटों पर तैयारी शुरू कर दी है.

अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में प्रदेश की प्रमुख वामपंथी पार्टी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (भाकपा), भाकपा माले और माकपा की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. भाकपा-माकपा वाम एकता के साथ चुनावी दंगल में उतरना चाहती है. इसके लिए भाकपा और माकपा के बीच कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है. भाकपा माले ने क़रीब 100 सीटों पर, भाकपा ने 54 सीटों पर और माकपा ने 25-35 सीटों पर तैयारी शुरू कर दी है. क़रीब-क़रीब तीनों पार्टियों ने उम्मीदवारों के नाम पर मोटे तौर पर मोहर लगा दी है. इस बार के विधानसभा चुनाव में भाकपा के तीन में दो विधायक राजेंद्र प्रसाद सिंह और रामविनोद पासवान चुनावी दंगल में नहीं उतरेंगे, ऐसा पार्टी सूत्रों का कहना है. वहीं भाकपा माले विधायक अमरनाथ यादव की सीट सुरक्षित हो जाने के कारण उनकी उम्मीदवारी पर भी संशय है.

पिछले दिनों भाकपा राज्य कार्यकारिणी की बैठक में प्रदेश की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 54 पर क़िस्मत आजमाने का निर्णय लिया गया. इन सीटों के लिए उम्मीदवार तलाशने का कार्य भी शुरू कर दिया गया है. हालांकि प्रथम श्रेणी की 18 सीटों के लिए उम्मीदवारों की तस्वीर भी क़रीब-क़रीब साफ हो गई है. सूत्रों के अनुसार कार्यकारिणी में गहन विचार विमर्श के बाद 54 सीटों को चिह्नित किया गया है. इनमें से 18 सीटों पर तैयारी शुरू कर देने का निर्देश संबंधित ज़िलों को दिया गया है.

सूत्रों के अनुसार पार्टी ने चयनित 54 विधानसभा सीटों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है. तीनों श्रेणियों में 18-18 सीटों को शामिल किया गया है. इसमें प्रथम श्रेणी की सीट है बेगूसराय ज़िले की तेघड़ा, बछबाडा, मटिहानी, बखरी, मधुबनी ज़िले की हरलाखी, खजौली, विस्फी, खगड़िया की बेलदौर, गया की गया शहर, बांका ज़िले की बांका, धुरैया, औरंगाबाद की गोह, पूर्वी चंपारण की मीनापुर, समस्तीपुर की समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण की केसरिया, सहरसा की सिमरी बख्तियारपुर, नालंदा की इस्लामपुर और भागलपुर की कहलगांव है. इसके अलावा पीरपैंती, शंकरपुर, रफीगंज और गोपालपुर को भी प्रथम श्रेणी में शामिल करने की मांग सदस्यों ने उठाई है. प्रथम श्रेणी की चयनित 18 सीटों में से तीन पर वर्तमान में भाकपा का क़ब्ज़ा है. साथ ही अन्य सीटों पर पिछले चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार दूसरे या तीसरे स्थान पर रहे. माना जा रहा है कि हर हाल में पार्टी इन सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी. भाकपा ने अपने कोटे की सभी सीटों की सूची माकपा को उपलब्ध करा दी है. इन सीटों पर जल्द ही दोनों पार्टियों के नेताओं की अगली बैठक होगी. जिसमें सीटों के आदान-प्रदान पर चर्चा होगी.

सूत्रों के अनुसार तेघड़ा से रतन सिंह, बखरी से विधायक सूर्यकांत पासवान, बछबाड़ा से पूर्व विधायक अवधेश राय, मटिहानी से पूर्व विधायक राजेंद्र राजन, हरलाखी से विधायक रामनरेश पांडे, विस्फी से हेमचंद्र झा, खजौली से रामनारायण बनरैत और अमीरूद्दीन, बेलदौर से पूर्व विधायक सत्यनारायण सिंह, गया शहर से पूर्व सांसद जलालुद्दीन अंसारी, बांका से पूर्व विधान पार्षद संजय कुमार, कहलगांव से पूर्व विधायक अंबिका प्रसाद, इस्लामपुर से राकेश रौशन, धुरैया से पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य मुन्नीलाल पासवान, सिमरी बख्तियारपुर से ओमप्रकाश संभावित उम्मीदवार माने जा रहे हैं. भाकपा कभी विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत रखती थी. भाकपा पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में अधिक से अधिक संख्या में लोगों को विधानसभा भेजने की तैयारी में जुटी हुई है. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एबी बर्द्धन जनवरी से अब तक चार बार बिहार के दौरे पर आ चुके हैं. इसके अलावा लोकसभा में पार्टी के नेता गुरुदास गुप्ता, राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान, अमरजीत कौर आदि नेता भी कई सभाओं को संबोधित कर चुके हैं. भाकपा माले ने भी अपनी चुनाव तैयारी शुरू कर दी है. इसी के मद्देनज़र 30 मार्च को राजधानी में पार्टी की बड़ी रैली और 10 मई को किसानों का राष्ट्रीय सम्मेलन पटना में आयोजित किया गया. माले विधानसभा चुनाव में क़रीब एक सौ सीटों पर प्रत्याशी उतारने जा रही है. पार्टी की स्थायी समिति ने संभावित सीटों के साथ-साथ उम्मीदवारों की सूची भी तैयार कर ली है. इसके साथ ही संभावित उम्मीदवारों को अपने-अपने चुनावी क्षेत्र में तैयारी शुरू करने का निर्देश भी दे दिया गया है. विधानसभा में जन समस्याओं को जोरदार तरीक़े से उठाने वाले माले सदस्य अमरनाथ यादव का विधानसभा क्षेत्र दरौली आरक्षित हो गया है. इसी चलते माले अपने चर्चित विधायक को फिर से विधानसभा पहुंचाने के लिए सीट खोजने में जुटी हुई है. माले अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में चुनावी मैदान के पुराने खिलाड़ियों के साथ-साथ नए खिलाड़ियों को उतारने की कोशिश करेगा. इसके लिए भी प्रयास शुरू है. आधी अबादी की सीट शशि यादव, माधवी सरकार, सहित कई चर्चित महिला नेत्री भरेगी. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्‌टाचार्य, पार्टी के प्रदेश सचिव नंद किशोर प्रसाद, किसान नेता राजाराम सिंह, मज़दूर नेता धीरेंद्र झा, महिला नेत्री सरोज चौबे सहित पार्टी के सभी बड़े नेता और विभिन्न जन संगठनों के पदाधिकारी चुनाव तैयारी में लग चुके हैं. इन लोगों का कार्यक्रम हर विधानसभा में चालू है.

उधर, माकपा के केंद्रीय नेतृत्व ने हिंदी भाषी क्षेत्र में अपनी मज़बूत उपस्थित दर्ज़ करने के लिए बिहार विधानसभा चुनाव पर पूरा ध्यान केंद्रीत कर दिया है. यही कारण है कि पार्टी पोलित व्यूरो सदस्य एवं सांसद श्रीमती वृंदा करात, पूर्व सांसद एवं किसान नेता एस रामचंद्र पिल्लै जनवरी से अबतक कई बार प्रदेश के दौरे पर आ चुके हैं. यह सभी दौरा चुनावी तैयारी को लेकर ही किया गया है. केंद्रीय पार्टी ने भीतर ही भीतर बिहार में पार्टी को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी श्रीमती वृंदा करात को सौंप दी है.

पार्टी सूत्रों का कहना है कि पार्टी 25-35 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवार उतारेगी. मज़बूत जनाधार वाली सीटों का चयन भी कर लिया गया है. साथ ही उम्मीदवारों का चयन जारी है. माकपा अपनी चयनित सीटों की सूची भाकपा को सौंप दी है. माकपा नेताओं का कहना है कि पार्टी किसी भी हालत में विधानसभा चुनाव में राजद, लोजपा, कांग्रेस आदि पूंजीपति पार्टियों के साथ समझौता नहीं करेगी. इसका संकेत श्रीमती करात भी दे चुकी हैं. पार्टी ने चुनाव के मद्देनज़र आंदोलन भी तेज़ कर दी है. इसी का परिणाम है कि सीतामढ़ी ज़िले के रून्नीसैदपुर प्रखंड मुख्यालय में क़रीब ग्यारह सौ झोपड़ियों का निर्माण माकपा के नेतृत्व में कराया गया. इसके अलावा 14 जून को पटना में किसानों की रैली. इसे पहले छात्रों-नौजवानों की रैली आयोजित की गई. कहा जा सकता है माकपा विधानसभा चुनाव में अपनी मज़बूत स्थिति दर्ज़ कराने के लिए पूरी दमखम के साथ जुटी है. पार्टी के सचिव विजयकांत ठाकुर विधानसभा चुनाव की तैयारी में दिन-रात एक किए हुए हैं.