To
Shri Nitish Kumar
Hon’ble Chief Minister
Bihar
Subject-Tenth Anniversary of a MoU, Request for review of MoU with UIDAI and UID/Aadhaar pursuant to Hon’ble Supreme Court’s Constitution Bench verdicts
Sir,
With reference to the MoU which the State Government signed with Unique
Identification Authority of India (UIDAI on August 20, 2010, the 547 page long right to privacy verdict of 24 August 2017, the 1448 page long verdict of Hon'ble Supreme Court's verdict on
UID/Aadhaar dated 26 September 2018 that
declared Section 57 of Aadhaar
Act, 20016 unconstitutional, Section 25 of Aadhaar
and Other Laws (Amendment) Act, 2019 that omitted Section 57
of Aadhaar Act 2016 and the 255 page long verdict of 13 November, 2019 that unanimously found passage of Aadhaar Act 2016
as Money Bill constitutionally questionable, we submit that a compelling logic has emerged for the State
Government to review the MoU and put a stay on the execution of the UID/Aadhaar
related projects in the state.
We submit that UID/Aadhaar related project has been unfolding without
the promised Right to Privacy and Data Protection Bill. श्री राम मनोहर लोहिया ने भी अपने सप्तक्रांति के सात सिद्धांतो में निजता के अधिकार को शामिल किया था और अब सरकार इससे इनकार कर रही है. नागरिकों के संवेदनशील आंकड़ों को विदेशी सरकारों को मुहैया कराने की इस अदूरदर्शी कवायद से बचाना चाहिए. सच तो यह है कि आधार समाधान की ‘जड़ी’नहीं, बल्कि गहरी और मौलिक समस्या पैदा करने वाली जड़ी है. निजता का अर्थ है किसी व्यक्ति का यह तय करने का अधिकार कि वह किस हद तक अपने आपको दूसरों के साथ बांटेगा. निजता का अधिकार यह तय करता है कि वह स्वयं को सबसे अलग कर ले तथा किसी को उसकी निजी जिदंगी में ताकने-झांकने का अधिकार न हो. निजता दरअसल ऐसे ही मामलों में होती है, जिसकी रक्षा की जानी चाहिए. इस अधिकार की रक्षा इसलिए जरूरी है ताकि राज्य निरंकुश न हो जाए.
We submit that मेटा डेटा का एक अर्थ है- आकड़ों के बारे में आंकड़ा और दूसरा अर्थ है संग्रहित सूचना. सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों वाली संविधान पीठ के 1,448 पन्नों के फैसले में इस शब्द का लगभग 50 बार जिक्र किया गया है. यह शब्द आधार कानून 2016 में परिभाषित नहीं है. पृष्ठ 121 पर कहा गया है कि आधार कानून भारतवासियों और नागरिकों का मूल बायोमेट्रिक (उंगलियों व आंखों की पुतलियों) की जानकारी, जनसंख्या संबंधी जानकारी और मेटा डेटा का साइबर सूचना संग्रहालय तैयार करता है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला मेटा डेटा (अधि-आंकड़ा) के संबंध में मौजूदा प्रावधान को निरस्त करता है और उसमें संशोधन करने का निर्देश देता है.
We submit that सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित संसदीय समिति ने फरवरी 2014 की अपनी एक रिपोर्ट में अमेरिकी नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी द्वारा किये जा रहे खुफिया हस्तक्षेप और विकिलिक्स के खुलासे और साइबर क्लाउड तकनीकी और वैधानिक खतरों के संबध में इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के तत्कालीन सचिव जे सत्यनारायण (वर्तमान में चेयरमैन, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, भारत सरकार) से पूछा था. संसदीय समिति उनके जवाब से संतुष्ट नहीं लगी. हैरत की बात है कि इन्हें विदेशी सरकारों और कंपनियों द्वारा सरकारी लोगों और देशवासियों के मेटा डाटा एकत्रित किये जाने से कोई परेशानी नहीं थी.
We submit that सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने आधार कानून के बहुत से प्रावधानों को रद्द कर दिया है और सरकार को उनमें संशोधन करने का आदेश दिया है. इस फैसले से अलग न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने पूरे आधार कानून को असंवैधानिक बताया है.
We submit that मोटे तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाला एक अनूठा पहचान संख्या है, जिसके द्वारा देशवासियों के संवेदनशील आकड़ों को सूचीबद्ध किया जा रहा है. लेकिन यही पूरा सच नहीं है. असल में यह 16 अंकों वाला है, मगर 4 अंक छुपे रहते हैं. इस परियोजना के कई रहस्य अब भी उजागर नहीं हुए हैं. यूआईडी/आधार और नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (राष्ट्रीय खुफिया तंत्र) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और कंपनियां विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं.
We submit that यह परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष है. केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 10 अप्रैल, 2017 को राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान कहा कि सरकार नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और आधार संख्या को नहीं जोड़ेगी. इसी सरकार ने आधार को स्वैच्छिक बता कर बाध्यकारी बनाया है. सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों ने ऐसे प्रयासों पर रोक लगा दिया है. फिक्की और एसोचैम की रिपोर्टों से स्पष्ट है कि नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए हैं.
We submit that आधार परियोजना पर होनेवाले अनुमानित खर्च का आज तक खुलासा नहीं किया गया है. देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रहा है. टेक्नोलाजी कंपनी आईबीएम के कारनामों की अनदेखी से आईबीएम ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से भगाने और आखिरकार उनके सफाये के लिए पंच-कार्ड (कंप्यूटर का पूर्व रूप) और इन कार्डों के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिये यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को संभव बनाया. इसकी आशंका प्रबल है कि आधार से वही होने जा रहा है, जो जर्मनी में हुआ था.
We submit that कोर्ट ने आधार कानून की धारा 57 को खत्म कर दिया है. आधार एक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियां 2010 से ही आधार की मांग कर रही थी. धारा 57 के अनुसार सिर्फ राज्य ही नहीं, बल्कि बॉडी कॉरपोरेट या फिर किसी व्यक्ति को चिह्नित करने के लिए आधार संख्या मांगने का अधिकार अब नहीं है. इस प्रावधान के तहत मोबाइल कंपनी, प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स के पास वैधानिक सपोर्ट था, जिससे वे पहचान के लिए आपका आधार संख्या मांगते थे. ऐसे नाजायज प्रावधान को धन विधेयक का हिस्सा बनाया गया था, जिसे लोकसभा और लोकसभा अध्यक्ष ने कानून बना दिया था. बीते 26 सितंबर, 2018 तक इस प्रावधान के तहत देशवासियों के साथ कानून के नाम पर घोर अन्याय किया गया.
न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा है कि वह सरकार की इस दलील से सहमत नहीं है कि आधार कानून धन विधेयक है और उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को गलत बताया है. (Constitution Bench Verdict of 13 November, 2019,
https://www.sci.gov.in/pdf/JUD_4.pdf that has unanimously found passage of Aadhaar Act 2016 as Money Bill
constitutionally questionable,)
We submit that उन्होंने आधार को लागू करनेवाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के साथ हुए विदेशी निजी कंपनियों के करार का हवाला देते हुए कहा कि नयी इन बायोमेट्रिक तकनीकी कंपनियों की सहभागिता से होनेवाले राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी खतरे और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हनन को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. इसलिए उन्होंने आधार परियोजना और कानून को खारिज कर दिया और इसकी जगह कोई वैकल्पिक व्यवस्था करने की अनुशंसा की है.
We submit that सूचना के अधिकार के तहत जो कॉन्ट्रेक्ट एग्रीमेंट निकाले गये हैं, उसमें स्पष्ट लिखा गया है कि ऐक्सेंचर, साफ्रान ग्रुप, एर्नेस्ट यंग नाम की ये कंपनियां भारतवासियों के इन संवेदनशील बायोमेट्रिक आंकड़ों को सात साल के लिए अपने पास रखेंगी.
We submit that सुप्रीम कोर्ट ने भी निजी कंपनियों को आधार सूचना देने पर पाबंदी लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह तय नहीं किया है कि यदि आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेका और संविधान में द्वंद्व हो, तो संविधान प्रभावी होगा कि ठेका.
We submit that आधार को लागू करनेवाले प्राधिकरण द्वारा भारतीय निवासियों को आधार संख्या प्रदान किये जा चुके हैं. यह नागरिकता का पहचान नहीं है. यह आधार पंजीकरण से पहले देश में 182 दिन रहने का पहचान प्रदान करता है. कोई बुरुंडी, टिंबकटू, सूडान, चीन, तिब्बेत, पाकिस्तान, होनोलुलू या अन्य देश का नागरिक भी इसे बनवा सकता है. नागरिकों के अधिकार को उनके बराबर करना और इसे बाध्यकारी बनाकर और इस्तेमाल करके उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित करना तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं है.
We submit that आधार में लोगों की बायोमीट्रिक जानकारी है। इसमें उंगलियों के निशान, आखों की पुतलियों की तस्वीर और अन्य जैविक विशिष्टता वाले तथ्य हैं. ऐसी संवेदनशील जानकारियों के गलत इस्तेमाल की संभावना बढ़ जाती है, फिर चाहे ये सरकार के पास सुरक्षित ही क्यों न हों. ऐसी जानकारियों के एकत्रित होने से तानाशाही प्रवृत्तियों का काम आसान होगा। ऐसा जर्मनी, मिस्र और पाकिस्तान जैसे देशों में हो चुका है. बायोमीट्रिक आंकड़े कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत मजिस्ट्रेट की अनुमति से लिये जाते हैं, जिसे कैदी के सजा पूरा करके या रिहा होने पर नष्ट करना होता है. आधार नागरिको को कैदियों से भी बदतर स्थिति में खड़ा कर देता है, क्योकि इसके तहत लिए गए बायोमीट्रिक आंकड़े सनातन रूप से सरकार की आशीर्वाद प्राप्त विदेशी और देसी कंपनियों और विदेशी सरकारों के पास उपलब्ध रहेगा. आधार कानून, 2016 से सरकार को यह अधिकार मिल जाता है कि वह किसी की भी ‘सिविल डेथ’ कर सकती है यानी सरकार किसी भी देशवासी को सरकारी रिकॉर्ड में मृत ‘तय’ कर सकती है. साइबर और बायोमीट्रिक पहलों से मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है. प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली लोकतंत्र के मायने बदल रही है. यहां प्रौद्योगिक कंपनियां नियामक नियंत्रण से बाहर हैं, क्योंकि वे सरकारों, विधायिका और विरोधी दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं. सरकार ने कंपनियों को गुमनाम रहने का अधिकार दे दिया है। कंपनियों के दबाब में सरकार, जो जनता की नौकर है, खुद को अपारदर्शी और जनता, जो उसकी मालिक है, को पारदर्शी बना रही है. इन सबके बावजूद यह अलोकतांत्रिक दावा किया जा रहा कि सरकार का देशवासियों के शरीर पर अधिकार है. इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं.
We submit that बायोमीट्रिक परियोजना संविधान के अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता), 19 (स्वतन्त्रता का अधिकार) और 21 (जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) का उल्लंघन करता है। यह परियोजना संविधान के मूल संरचना के खिलाफ है। इससे सरकार और नागरिकों के रिश्ते में मूलभूत बदलाव आएगा. साइबर व बायोमीट्रिक युग में निजता के अधिकार राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा है. भविष्य के फौजियों सहित सांसदों, मंत्रियों और अन्य अधिकारियों के आंकड़े विदेशों में अदूरदर्शी तरीके से भेजे जा रहे हैं। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, प्रत्येक आधार के पंजीकरण पर सरकार 2.75 पैसे विदेशी कंपनियों को दे रही है. अनुबंध के अनुसार, वे भारतवासियों की ये कंपनियां संवेदनशील जानकारी सात साल तक रख सकती हैं. साइबर युग में इसका अर्थ है हमेशा के लिए. इस तरह से भारत के सभी भावी मंत्रियो, ख़ुफ़िया अधिकारयों और नागरिकों के संवेदनशील निजी आंकड़ों को विदेशी कंपनियों को सौंपकर देश और देश वासियों की संप्रभुता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. सियासी दल यह समझने में भी असफल हैं कि यह योजना देश के संघीय ढांचे के खिलाफ है.
We submit that सरकार आधार योजना का गुणगान कर रही है लेकिन शायद उसे महात्मा गांधी का पहला ऐतिहासिक सत्याग्रह याद नहीं है. यह सत्याग्रह आंदोलन 11 सितंबर 1906 को दक्षिण अफ्रीका में भारतीय और एशिया मूल के लागों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा उंगलियों के निशान आधारित अनिवार्य पंजीकरण के लिए लाए गये अध्यादेश के खिलाफ था. इसके तहत 16 साल से ऊपर के लोगों को पहचान पंजीकरण प्रमाणपत्र के लिए अपना पंजीकरण एशियाटिक रजिस्ट्रार के पास करवाना अनिवार्य था. इस कानून के मुताबिक जो अपना पंजीकरण नहीं करवाते उन्हें उस स्थान पर रहने के अधिकार से वंचित होना पड़ता. इस पहचान पंजीकरण प्रमाणपत्र को हमेशा अपने साथ रखने की बाध्यता थी. बिना इसके सजा और जेल का प्रावधान था. इस पहचान पंजीकरण प्रमाणपत्र के निरीक्षण के लिए कोई भी सिपाही किसी के भी घर में कभी भी घुस सकता था. इसके बिना कोई सुविधा नहीं मिलती थी. गांधीजी इसे दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों और एशियायी लागों के मूल अस्तित्व के खिलाफ मानते थे. गांधीजी की अपील पर जोहन्सबर्ग में हजारों लोग इकट्ठा हुए अहिंसक सत्याग्रह आन्दोलन कि शुरुआत हुई, गांधीजी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. इसी आंदोलन के चलते गांधीजी पहली बार जेल गये थे. गांधीजी ने दोबारा आंदोलन शुरू किया और सभा बुलाकर प्रमाणपत्रों की होली जलाई.
We submit that भारत में कैदी पहचान कानून के तहत आज भी उंगलियों के निशान अपराधियों और कैदियों के लिए जाते हैं न कि नागरिकों के. आधार को चीन, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और फिलिपींस जैसे देशों ने इसलिए रोक दिया कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उलंघन करता हैं.
We submit that central government has “admitted that (a) no committee
has been constituted to study the financial implications of the UID scheme; and
(b) comparative costs of the aadhaar number and various existing ID documents
are also not available” before the Parliament. We submit that UID/Aadhaar
and National Population Register (NPR) is part of the same convergence project.
This is revealed from the text of the central government’s notification dated
28 January 2009.
We submit that the issue of the passage of Aadhaar Act, 2016 as Money
Bill has been referred to a yet to be constituted 7- judge Constitution Bench.
In such a backdrop, state government ought to constitute a legal team of jurists
to undertake reading of these verdicts and legislations.
In view of the above, we submit that in view of the above-mentioned directions of the Hon'ble Court, there is a compelling reason for the administration to rectify the error ridden MoU and related orders a to ensure that no one is denied the fundamental rights recognized under Article 21 of the Constitution of India and reiterated by the Hon'ble Court.
We will be happy to share more information in this regard.
warm regards
Gopal Krishna
Convener
Citizens Forum for Civil Liberties (CFCL)*
Mb: 09818089660
E-mail-krishnaruhani@gmail.com
Web: www.toxicswatch.org