Sunday, December 18, 2022

कीड़ों-मकोड़े की घटती आबादी खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी

गोपाल कृष्ण, पर्यावरणविद्

यदि नदी को बहने दिया जाता है, तो वे भूमि निर्माण का कार्य भी करती हैं. संपूर्ण गंगा घाटी की भूमि इसी प्रक्रिया से बनी है. नदियां भूवैज्ञानिक समय से यह कार्य करती आ रही हैं. इस प्राकृतिक प्रक्रिया को व्यापारिक निगमों और सरकारों के अदूरदर्शी इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों के कारण नदी का अपना प्राचीन काम बाधित हो रहा है. इससे भी कृषि भूमि निर्माण रुक रहा है और खाद्य संकट को आमंत्रित किया जा रहा है.

कई अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि दुनिया के कीड़े-मकोड़ों की जनसंख्या हैरतअंगेज तरीके से घट रही है. रासायनिक कीटनाशकों, अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगिकरण, अदूरदर्शी कृषि भूमि उपयोग परिवर्तन, मोनोकल्चर (एकधान्य कृषि), प्राकृतिक वास का नुकसान और मोबाइल टावरों से निकलनेवाली रेडियो तरंगों से कीड़े-मकोड़ों के सेहत के लिए खतरनाक साबित हो रहा है.

कीड़े-मकोड़े खेती और पर्यावरण के लिए अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि वे खाद्य उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. पक्षियों और मधुमक्खियों की आबादी तेजी से घट रही है. वर्ष 1989 से पश्चिमी जर्मनी के कीटवैज्ञानिक ओर्बोइचेर ब्रूच ने आरक्षित प्राकृतिक इलाके में और नार्थ राइन-वेस्टफेलिया के 87 अन्य स्थानों में टेंट लगा कर कीट जाल बिछाते हैं और कीड़े-मकोड़ों की जनसंख्या का अध्ययन करते हैं. अपने निष्कर्ष को उन्होंने जर्मनी के संसद के समक्ष रखा तो संकट की घंटी बज गयी.

वैज्ञानिकों ने बताया कि 1989 के मई और अक्तूबर में उन्होंने 1.6 किलो कीड़े-मकोड़ों को पकड़ा और 2014 में उन्हें सिर्फ 300 ग्राम कीड़े-मकोड़े मिले. जनवरी, 2016 के ‘कंजरवेशन बायोलॉजी’ में प्रकाशित अध्ययन से पता चला कि जर्मनी के जिन क्षेत्रो में वर्ष 1840 में कीट की 117 प्रजातियां थीं, वह 2013 में घट कर केवल 71 रह गयी थीं.

ऐसे हालात जर्मनी तक ही सीमित नहीं हैं.

कैलिफोर्निया के स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के 2014 के वैश्विक अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि कीटों की आबादी दुनिया के सभी स्थानों में घट रही है. रोडोल्फ डरजो के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन से पता चला कि पिछले चार दशकों में कई कीटों की आबादी 45 प्रतिशत घट गयी है. डरजो के अनुसार 3,623 कीट प्रजातियों में से 42 प्रतिशत लुप्त होने के कगार पर हैं.

पराग के छिड़काव पर असर

लंदन के जियोलॉजिकल सोसाइटी के सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, कीटों की आबादी घटने से बड़े जानवरों के भोजन स्रोत पर और कृषि के लिए महत्वपूर्ण पराग के छिड़काव पर खतरनाक असर पड़ेगा. वैज्ञानिकों के अनुसार अभी तक केवल 10 लाख प्रकार के कीटों के बारे में जाना जा सका है.

उनका अनुमान है कि 40 लाख कीटों का पता चलना अभी बाकी है. यह भी आशंका है कि उनका पता लगने से पहले ही बहुत सारे लुप्त हो गये हों या हो जायें. सरकारों और निगमों की प्रकृति के प्रति अघोर उदासीनता से तो यही लगता है कि जब तक लोग इस दूरगामी घटना पर गौर करेंगे, तब तक काफी देर हो चुकी होगी.

खाद्य और कृषि संगठन के 2015 के रिपोर्ट के मुताबिक, आज भी दुनियाभार में 725 करोड़ लोगों के लिए भूख एक चुनौती है. इनमें से 78 करोड़ लोग भारत जैसे विकासशील देशो में हैं.

आर्थिक संकट के संदर्भ में अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा था कि- भूमि खरीदो, अब भूमि बनना बंद हो गया है. ऐसी सलाह उन्होंने 19वीं सदी में दी थी. वर्ष 2012 में फ्रेड पियर्स में अपनी किताब ‘द लैंडग्रेबर्स’ में इसका उल्लेख किया है कि अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण अमेरिका में चल रहे भूमि हड़पने के पराक्रम में किया है.

अवैज्ञानिक सलाह और प्रकृति की प्रक्रिया की नासमझी

इससे पहले टाइम पत्रिका ने वर्ष 2009 में अमेरिकी कांग्रेस को एक मेमो (ज्ञापन) लिखा, जिसमें मार्क ट्वेन की सलाह का उल्लेख करते हुए कहा गया कि अमेरिकी सरकार 2007-2009 के आर्थिक संकट के सवाल के जवाब में भूमि खरीद कर कदम उठा सकती है. आसन्न खाद्य संकट के संदर्भ में मार्क ट्वेन की बात को याद करना इसलिए जरुरी है, क्योंकि उनकी सलाह अवैज्ञानिक है और प्रकृति की प्रक्रियाओं की गहरी नासमझी को दर्शाता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यदि नदी को बहने दिया जाता है, तो वे भूमि निर्माण का कार्य भी करती हैं.

संपूर्ण गंगा घाटी की भूमि इसी प्रक्रिया से बनी है. नदियां भूवैज्ञानिक समय से सदैव यह कार्य रही हैं. इस प्राकृतिक प्रक्रिया को व्यापारिक निगमों और सरकारों के अदूरदर्शी इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों के कारण नदी को अपना प्राचीन काम बाधित हो रहा है. इससे भी कृषि भूमि निर्माण रुक रहा है और खाद्य संकट को निमंत्रण दिया जा रहा है.

भूमि और जल सदैव सह-अस्तित्व में रहे हैं. औपनिवेशिक विचारधारा के प्रभाव में भूमि और जल के अस्तित्व को अलग करके उनका प्रबंधन और शोषण किया जा रहा है. इससे निकट भविष्य में भयानक पर्यावरण और खाद्य संकट का मार्ग प्रशस्त हो रहा है.

नेशनल ब्यूरो ऑफ स्वाइल सर्वे एंड लैंड यूज प्लानिंग और इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के मुताबिक, भारत के 32.86 करोड़ भूमि क्षेत्र में से 14.68 करोड़ भूमि क्षेत्र अनेक प्रकार के भू-क्षरण या मिट्टी के कटाव से प्रभावित हैं और यह प्रति वर्ष 16.4 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हो रहा है. पर्यावरण के प्रति सरकार और समाज की अनदेखी देश में खाद्य संकट को न्योता दे रही है.



Sunday, December 11, 2022

 गैर बराबरी से मानवाधिकारों पर हमला और आकड़ों के सैन्यीकरण के खतरे 

मानवाधिकार दिवस पर जनसभा मे दिया गया वक्तव्य

'संयुक्त राष्ट्र संघ' ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को 10 दिसंबर 1948 को अंगीकार किया। संघ मे 193 सदस्य देश शामिल है। इस घोषणा को 500 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में यह कथन था कि संयुक्त राष्ट्र के लोग यह विश्वास करते हैं कि कुछ ऐसे मानवाधिकार हैं जो कभी छीने नहीं जा सकते; मानव की गरिमा है और स्त्री-पुरुष के समान अधिकार हैं। इस घोषणा को पेरिस में घोषित किया गया था। इसने सत्तर से अधिक मानवाधिकार संधियों को अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया है, जो आज वैश्विक और क्षेत्रीय स्तरों पर स्थायी आधार पर लागू होते हैं। 

इसकी प्रस्तावना मे कहा गया है कि मानव परिवार के सभी सदस्यों की अंतर्निहित गरिमा और समान और अविच्छेद्य अधिकारों की मान्यता दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव है। विश्व युद्धों के पहले और युद्ध के दौरान मानव अधिकारों की अवहेलना और अवमानना ​​​​का परिणाम बर्बर कृत्यों के रूप में हुआ है, जिसने मानव जाति की अंतरात्मा को आहत किया है।  

मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा मे ऐसी दुनिया की कामना की गयी है जिसमें मनुष्य अभिव्यक्ति और आस्था की स्वतंत्रता का आनंद लेंगे और भय और अभाव से मुक्ति होंगे। 

इस सार्वभौमिक घोषणा मे "अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह करने को अंतिम उपाय के रूप में" स्वीकार किया गया है। यदि मानवाधिकारों की रक्षा नहीं होती है तो मनुष्य को  विद्रोह करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।  इसलिए "कानून के शासन" द्वारा मानवाधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। 

घोषणा मे 30 अनुच्छेद है। अनुच्छेद 1 मे यह चन्हित किया गया है कि सभी मनुष्य गरिमा और अधिकारों में स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं अनुच्छेद 2 मे कहा गया कि हर कोई इस घोषणा में निर्धारित सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं का हकदार है। जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य राय, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति और जन्म के आधार पर भेद अनुचित हैं। इसके अलावा, किसी व्यक्ति के देश या क्षेत्र की राजनीतिक, अधिकार क्षेत्र या अंतरराष्ट्रीय स्थिति के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाएगा, चाहे वह स्वतंत्र हो, विश्वास हो, गैर-स्वशासी हो या संप्रभुता की किसी अन्य सीमा के तहत हो।अनुच्छेद 3 मे या घोषणा है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता और व्यक्ति की सुरक्षा का अधिकार है।

गौर तलब है कि भारत की संविधान मे भी मनुष्य की गरिमा और व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार और स्वतंत्रता अधिकार के अधिकार को अंगीकार किया गया है। इसके लिए आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक न्याय को मानवीय गरिमा से जोड़ कर देखा गया है। 

मगर सिद्धांत मे जिन मूल्यों को स्वीकार किया गया है उन्हे अमल मे नहीं लाया जा रहा जिसके कारण मानवाधिकारों पर हमला हो रहा है। 

"विश्व असमानता रिपोर्ट 2022" के अनुसार, भारत की शीर्ष 10 फीसदी आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57 फीसदी हिस्सा है, जबकि नीचे से 50 फीसदी आबादी की इसमें हिस्सेदारी मात्र 13 फीसदी है। भारत एक गरीब और काफी असमानता वाले देशों की सूची में शामिल हो गया है, जहां वर्ष 2021 में एक फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी हिस्सा है, जबकि निचले तबके के 50 फीसदी के पास महज 13 फीसदी हिस्सा है।

"विश्व असमानता रिपोर्ट 2022" में कहा गया कि भारत की वयस्क आबादी की औसत राष्ट्रीय आय 2,04,200 रुपये है, जबकि निचले तबके की आबादी (50 प्रतिशत) की आय 53,610 रुपये है और शीर्ष 10 फीसदी आबादी की आय इससे करीब 20 गुना (11,66,520 रुपये) अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में औसत घरेलू संपत्ति 9,83,010 रुपये है। 

गौर तलब है कि 2014 में अदानी की संपत्ति थी 37 हजार करोड़, 2018 में हो गयी 59 हजार करोड, 2020 में हो गयी  ढाई लाख करोड़ और 2022 में 13.5 लाख करोड़! खुलेआम संविधान के अनुच्छेद 39 (b) व (c) का अवहेलना हो रहा है। 

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सालाना शिखर सम्मेलन के संदर्भ मे जारी हुई ऑक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2021 के दौरान अरबपतियों की संख्या साल भर पहले के 102 से बढ़कर 142 हो गई. इन 142 अरबपतियों की कुल दौलत इस दौरान बढ़कर करीब 720 बिलियन डॉलर पर पहुंच गई। यह देश की 40 फीसदी गरीब आबादी की कुल संपत्ति से ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार, महामारी के चलते 2021 में भारत के 84 फीसदी परिवारों की इनकम कम हो गई। 

ऑक्सफेम की रिपोर्ट 'Inequality Kills' के अनुसार, भारत अब अरबपतियों की संख्या के मामले में टॉप 3 देशों में से एक बन गया है. अब भारत से ज्यादा अरबपति सिर्फ अमेरिका और चीन में हैं. फ्रांस, स्वीडन और स्विट्जरलैंड तीनों देशों को मिलाकर जितने अरबपति हैं, उनसे ज्यादा अकेले भारत में हैं. दूसरी ओर देश की 50 फीसदी गरीब आबादी की नेशनल वेल्थ में महज 6 फीसदी हिस्सेदारी है. इससे पता चलता है कि भारत में असमानता किस तरह चिंताजनक रफ्तार से बढ़ रही है.

नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश देश के सबसे गरीब राज्य हैं। बिहार की 51.91 प्रतिशत जनसंख्या गरीब है। वहीं झारखंड में 42.16 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 37.79 प्रतिशत आबादी गरीबी में रह रही है. सूचकांक में मध्य प्रदेश (36.65 प्रतिशत) चौथे स्थान पर है। 

ऑक्सफेम की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय आबादी के शीर्ष 10% के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा था। एक दशक में अरबपतियों की संपत्ति लगभग 10 गुना बढ़ गई और उनकी कुल संपत्ति वित्त वर्ष 2018-19 के लिए भारत के पूरे केंद्रीय बजट से अधिक है, जो कि 24422 अरब रुपये थी। 

मानवाधिकारों की रक्षा के लिए और मानव की गरिमा की सुरक्षा ले लिए अमीरों पर संपत्ति कर लगाया जाना चाहिए। 

पिछले दशकों मे ये साफ दिख रहा है कि जब भी मानवाधिकारों और कंपनियों के हितों मे द्वंद होता है तो सरकार कंपनियों के पक्ष मे खड़ी नजर आती है। संविधान के अनुच्छेद-39 (b)(c) के तहत सरकार अपनी नीति के द्वारा यह सुनिश्चित करने मे असफल रही कि "भारत के समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो" और "आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन- साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी केंद्रिकरण न हो"। मगर 

सरकारों द्वारा प्रकृति विरोधी होना, मजदूर विरोधी होना दर्शाता है कि सरकार मानवाधिकारों के पक्ष मे बिल्कुल नहीं है। अब तो कंपनियों के हित और सत्तारूढ़ सियासी दलों मे ऐसा गठजोड़ बन गया है कि आकड़ों के व्यापार मे संलिप्त कंपनियों के लिए नागरिकों से सबंधित आकड़ों को एकत्रित कर नागरिकों के ऊपर खुफिया निगरानी के तंत्र विकसित किये जा रहे है। असल मे राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर(एनपीआर) और आधार संख्या विशाल खुफिया निगरानी योजना का हिस्सा है। 

गृह मंत्रालय ने जुलाई 2015 में घोषित किया , ' आधार संख्या के साथ यह अद्यतन एनपीआर डेटाबेस मूल डेटाबेस बन जाएगा और विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा इसका उपयोग किया जा सकता है। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) का गठन करने वाली भारत सरकार की अधिसूचना का अनुबंध 1 प्राधिकरण की भूमिका और जिम्मेदारियों से संबंधित है।

इसमें चौथा बिंदु पढ़ता है: 'यूआईडी योजना का कार्यान्वयन आवश्यक होगा' 'यूआईडी के साथ एनपीआर के मिलान को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाए (अनुमोदित रणनीति के अनुसार)'।

एनपीआर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को संदर्भित करता है और यूआईडी 12-अंकीय जनसांख्यिकीय और बायोमेट्रिक डेटा-आधारित संख्या को संदर्भित करता है जिसे ब्रांड नाम "आधार" दिया गया है।आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ और सेवाओं का लक्षित वितरण) अधिनियम, 2016 को 26 मार्च, 2016 को भारत के राजपत्र में अधिनियमित और प्रकाशित किया गया था।इस कानून की धारा 59 कहती है: 'भारत सरकार, योजना आयोग के 28 जनवरी, 2009 की अधिसूचना के तहत केंद्र सरकार द्वारा यूआईडीएआई, या इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा की गई कोई भी कार्रवाई या की गई कोई भी कार्रवाई दिनांक 12 सितंबर, 2015 की अधिसूचना वाली कैबिनेट सचिवालय अधिसूचना के तहत, जैसा भी मामला हो, इस अधिनियम के तहत वैध रूप से किया गया या लिया गया माना जाएगा।

एनपीआर देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत नागरिकता (नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना) नियम, 2003 के नियम 3 के उप-नियम (4) में उल्लेखित है।कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में 23 नवंबर, 2015 को समिति कक्ष, कैबिनेट सचिवालय, राष्ट्रपति भवन में आयोजित सचिवों की समिति की बैठक के कार्यवृत्त के अनुसार प्रगति के दौरान सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य के अनुसार आधार नामांकन की रणनीति पर चर्चा करने के लिए प्राधिकरण और भारत के महापंजीयक (आरजीआई), गृह मंत्रालय के संबंध में समीक्षा में कहा गया है, 'आरजीआई ने बताया कि अधिकांश राज्यों में एनपीआर अपडेशन का काम पूरा होने वाला है। यह कवायद आधार के तहत कवर किए गए गांव I बस्ती स्तर के घरों की मैपिंग के लिए डेटा देगी और इसका उपयोग प्रभावी ढंग से आधार नामांकन के लिए बचे हुए मामलों को लक्षित करने के लिए किया जा सकता है।'

'आरजीआई ने यह भी बताया कि डीबीटी मिशन के साथ तहसील/तालुक स्तर पर स्थायी नामांकन केंद्रों को 'हब' के रूप में स्थापित करने और ग्राम स्तर पर विभिन्न नामांकन केंद्रों को 'स्पोक' के रूप में स्थापित करने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया गया है, यह स्थायी नामांकन केंद्रों को एकीकृत करने के लिए एक टेम्पलेट प्रदान करता है। एनपीआर और आधार के तहत जुड़वा दृष्टिकोण।'

यहां संदर्भित 'एनपीआर और आधार के तहत जुड़वां दृष्टिकोणों को एकीकृत करना' आधार अधिनियम की धारा 59 में उल्लिखित अधिसूचना में रेखांकित 'यूआईडी (अनुमोदित रणनीति के अनुसार) के साथ एनपीआर के मिलान को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने' के समान है। 2016 के कागजातो से पता चलता है कि 'गृह सचिव ने कहा कि आरजीआई भारतीय नागरिकता अधिनियम के तहत भारतीय नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार कर रहा है। नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, आरजीआई के पास सभी निवासियों के बायोमेट्रिक एकत्र करने और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के अग्रदूत के रूप में अद्यतन करने का अधिकार है। दोहराव के प्रयास से बचने के लिए, कैबिनेट द्वारा यह निर्णय लिया गया कि यूआईडीएआई और आरजीआई यूआईडीएआई द्वारा आधार बनाने के लिए आवंटित राज्यों में बायोमेट्रिक और अन्य जानकारी एकत्र करेंगे, और पारस्परिक रूप से जानकारी साझा करेंगे।' उसके बाद 'भारतीय नागरिकता अधिनियम के तहत भारतीय नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करने के लिए यूआईडीएआई से बायोमेट्रिक डेटा प्राप्त करने के मुद्दे पर' निर्णय लिया गया।

गृह मंत्रालय की 31 जुलाई, 2019 की अधिसूचना में कहा गया है कि केंद्र सरकार ने सभी व्यक्तियों से संबंधित जानकारी के संग्रह के लिए असम को छोड़कर पूरे देश में घर-घर जाकर गणना के लिए जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने और अद्यतन करने का निर्णय लिया है। जो आमतौर पर स्थानीय रजिस्ट्रार के अधिकार क्षेत्र में रहते हैं, 1 अप्रैल, 2020 से 30 सितंबर, 2020 के बीच किया जाएगा।'

गौरतलब है कि गृह मंत्रालय ने 22 जुलाई, 2015 को  आधार संख्या के साथ एनपीआर डेटा को जोड़ने शीर्षक से एक विज्ञप्ति जारी की थी । इसमें लिखा है: 'सरकार ने 951.35 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अपडेट करने और एनपीआर डेटाबेस में आधार संख्या जोड़ने का फैसला किया है। फील्ड का काम मार्च 2016 तक पूरा हो जाएगा।'

'आधार संख्या के साथ यह अद्यतन एनपीआर डेटाबेस मूल डेटाबेस बन जाएगा और विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा उनकी संबंधित योजनाओं के तहत लाभार्थियों के चयन के लिए उपयोग किया जा सकता है।'

'प्रयासों का कोई दोहरापन नहीं है क्योंकि सभी एजेंसियां ​​जैसे भारत के नागरिक पंजीकरण महापंजीयक, गृह मंत्रालय, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, नीति आयोग, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) मिशन, वित्त मंत्रालय और राज्य/संघ राज्य क्षेत्र की सरकारें हैं। उपरोक्त अभ्यास को पूरा करने के लिए निकट समन्वय में काम कर रहे हैं।' यह बात गृह राज्य मंत्री ने लोकसभा में एक लिखित उत्तर में कही। जैसा कि आशंका थी, यह गृह मंत्रालय और प्राधिकरण की पहल का शुरू से ही हिस्सा था।

182 दिनों के निवासियों के लिए यूआईडी/आधार और नागरिकों के लिए प्रतीत होने वाली संबंधित सामाजिक योजनाओं का उपयोग अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक जार और सैन्य गठजोड़ के इशारे पर नागरिकों की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को फंसाने और फंसाने के लिए एक मछली के चारा के रूप में किया गया है।

नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत यूआईडीएआई, गृह मंत्रालय की जुलाई 2015 की विज्ञप्ति, आधार अधिनियम, 2016 की धारा 59 और 31 जुलाई, 2019 को गठित करने वाली 2009 की अधिसूचनाओं के संयुक्त पठन से पता चलता है कि ये भारत के निवासियों के डेटा की प्रोफाइलिंग और खनन के लिए 360 डिग्री निगरानी परियोजना का हिस्सा हैं।'

इसे सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान पीठ ने नामंजूर कर दिया है। नागरिकता अधिनियम, 1955 (नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019) में नया संशोधन जिसे 12 दिसंबर, 2019 को भारत के राजपत्र में अधिसूचित किया गया था, ने यह सुनिश्चित किया है कि यह कानून 'अविभाजित भारत', विभाजित भारत और अब कुछ निवासियों के निवासियों से संबंधित है। अफगानिस्तान के भी विशेष रूप से, यह निगरानी परियोजना अफगानिस्तान के अलावा 'अविभाजित भारत' के क्षेत्रों में सामने आई है।

एनआरसी, एनपीआर और यूआईडी/आधार या पाकिस्तानी राष्ट्रीय पहचान पत्र (एनआईसी) या बांग्लादेशी राष्ट्रीय पहचान पत्र (एनआईडी) या अफगानिस्तानी इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय पहचान पत्र (ई-ताजकिरा) द्वारा व्यक्तियों की लक्षित निगरानी से शुरू हुआ पहल अब अभूतपूर्व, अंधाधुंध अमानवीय सामूहिक निगरानी में  परिवर्तन का हिस्सा बन गया। 

सरकार, कंपनी और नागरिक के बीच आकड़ों की गैर बराबरी से भी मानवाधिकार खतरे मे पड़ता है। मानवीय गरिमा को सरकार के साथ-साथ गूगल, फेसबुक, ट्विटर जैसी आकड़ा आधारित कंपनियों से भी खतरा है। इन कंपनियों का सरकार से रिश्ता जगजाहिर है। जागरूक नागरिक अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ असहयोग और सविनय अवज्ञा के अपने अधिकार और कर्तव्य का प्रयोग करके ही ऐसे हथकंडों का जवाब दे सकते हैं। सभी प्रकार के मानवाधिकारों के हनन से वे हनन ज्यादा दर्दनाक होते है जो कानून के नाम पर किये जाते है। 

डॉ. गोपाल कृष्ण