Sunday, December 18, 2022

कीड़ों-मकोड़े की घटती आबादी खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी

गोपाल कृष्ण, पर्यावरणविद्

यदि नदी को बहने दिया जाता है, तो वे भूमि निर्माण का कार्य भी करती हैं. संपूर्ण गंगा घाटी की भूमि इसी प्रक्रिया से बनी है. नदियां भूवैज्ञानिक समय से यह कार्य करती आ रही हैं. इस प्राकृतिक प्रक्रिया को व्यापारिक निगमों और सरकारों के अदूरदर्शी इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों के कारण नदी का अपना प्राचीन काम बाधित हो रहा है. इससे भी कृषि भूमि निर्माण रुक रहा है और खाद्य संकट को आमंत्रित किया जा रहा है.

कई अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि दुनिया के कीड़े-मकोड़ों की जनसंख्या हैरतअंगेज तरीके से घट रही है. रासायनिक कीटनाशकों, अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगिकरण, अदूरदर्शी कृषि भूमि उपयोग परिवर्तन, मोनोकल्चर (एकधान्य कृषि), प्राकृतिक वास का नुकसान और मोबाइल टावरों से निकलनेवाली रेडियो तरंगों से कीड़े-मकोड़ों के सेहत के लिए खतरनाक साबित हो रहा है.

कीड़े-मकोड़े खेती और पर्यावरण के लिए अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि वे खाद्य उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. पक्षियों और मधुमक्खियों की आबादी तेजी से घट रही है. वर्ष 1989 से पश्चिमी जर्मनी के कीटवैज्ञानिक ओर्बोइचेर ब्रूच ने आरक्षित प्राकृतिक इलाके में और नार्थ राइन-वेस्टफेलिया के 87 अन्य स्थानों में टेंट लगा कर कीट जाल बिछाते हैं और कीड़े-मकोड़ों की जनसंख्या का अध्ययन करते हैं. अपने निष्कर्ष को उन्होंने जर्मनी के संसद के समक्ष रखा तो संकट की घंटी बज गयी.

वैज्ञानिकों ने बताया कि 1989 के मई और अक्तूबर में उन्होंने 1.6 किलो कीड़े-मकोड़ों को पकड़ा और 2014 में उन्हें सिर्फ 300 ग्राम कीड़े-मकोड़े मिले. जनवरी, 2016 के ‘कंजरवेशन बायोलॉजी’ में प्रकाशित अध्ययन से पता चला कि जर्मनी के जिन क्षेत्रो में वर्ष 1840 में कीट की 117 प्रजातियां थीं, वह 2013 में घट कर केवल 71 रह गयी थीं.

ऐसे हालात जर्मनी तक ही सीमित नहीं हैं.

कैलिफोर्निया के स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के 2014 के वैश्विक अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि कीटों की आबादी दुनिया के सभी स्थानों में घट रही है. रोडोल्फ डरजो के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन से पता चला कि पिछले चार दशकों में कई कीटों की आबादी 45 प्रतिशत घट गयी है. डरजो के अनुसार 3,623 कीट प्रजातियों में से 42 प्रतिशत लुप्त होने के कगार पर हैं.

पराग के छिड़काव पर असर

लंदन के जियोलॉजिकल सोसाइटी के सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, कीटों की आबादी घटने से बड़े जानवरों के भोजन स्रोत पर और कृषि के लिए महत्वपूर्ण पराग के छिड़काव पर खतरनाक असर पड़ेगा. वैज्ञानिकों के अनुसार अभी तक केवल 10 लाख प्रकार के कीटों के बारे में जाना जा सका है.

उनका अनुमान है कि 40 लाख कीटों का पता चलना अभी बाकी है. यह भी आशंका है कि उनका पता लगने से पहले ही बहुत सारे लुप्त हो गये हों या हो जायें. सरकारों और निगमों की प्रकृति के प्रति अघोर उदासीनता से तो यही लगता है कि जब तक लोग इस दूरगामी घटना पर गौर करेंगे, तब तक काफी देर हो चुकी होगी.

खाद्य और कृषि संगठन के 2015 के रिपोर्ट के मुताबिक, आज भी दुनियाभार में 725 करोड़ लोगों के लिए भूख एक चुनौती है. इनमें से 78 करोड़ लोग भारत जैसे विकासशील देशो में हैं.

आर्थिक संकट के संदर्भ में अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा था कि- भूमि खरीदो, अब भूमि बनना बंद हो गया है. ऐसी सलाह उन्होंने 19वीं सदी में दी थी. वर्ष 2012 में फ्रेड पियर्स में अपनी किताब ‘द लैंडग्रेबर्स’ में इसका उल्लेख किया है कि अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण अमेरिका में चल रहे भूमि हड़पने के पराक्रम में किया है.

अवैज्ञानिक सलाह और प्रकृति की प्रक्रिया की नासमझी

इससे पहले टाइम पत्रिका ने वर्ष 2009 में अमेरिकी कांग्रेस को एक मेमो (ज्ञापन) लिखा, जिसमें मार्क ट्वेन की सलाह का उल्लेख करते हुए कहा गया कि अमेरिकी सरकार 2007-2009 के आर्थिक संकट के सवाल के जवाब में भूमि खरीद कर कदम उठा सकती है. आसन्न खाद्य संकट के संदर्भ में मार्क ट्वेन की बात को याद करना इसलिए जरुरी है, क्योंकि उनकी सलाह अवैज्ञानिक है और प्रकृति की प्रक्रियाओं की गहरी नासमझी को दर्शाता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यदि नदी को बहने दिया जाता है, तो वे भूमि निर्माण का कार्य भी करती हैं.

संपूर्ण गंगा घाटी की भूमि इसी प्रक्रिया से बनी है. नदियां भूवैज्ञानिक समय से सदैव यह कार्य रही हैं. इस प्राकृतिक प्रक्रिया को व्यापारिक निगमों और सरकारों के अदूरदर्शी इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों के कारण नदी को अपना प्राचीन काम बाधित हो रहा है. इससे भी कृषि भूमि निर्माण रुक रहा है और खाद्य संकट को निमंत्रण दिया जा रहा है.

भूमि और जल सदैव सह-अस्तित्व में रहे हैं. औपनिवेशिक विचारधारा के प्रभाव में भूमि और जल के अस्तित्व को अलग करके उनका प्रबंधन और शोषण किया जा रहा है. इससे निकट भविष्य में भयानक पर्यावरण और खाद्य संकट का मार्ग प्रशस्त हो रहा है.

नेशनल ब्यूरो ऑफ स्वाइल सर्वे एंड लैंड यूज प्लानिंग और इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के मुताबिक, भारत के 32.86 करोड़ भूमि क्षेत्र में से 14.68 करोड़ भूमि क्षेत्र अनेक प्रकार के भू-क्षरण या मिट्टी के कटाव से प्रभावित हैं और यह प्रति वर्ष 16.4 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हो रहा है. पर्यावरण के प्रति सरकार और समाज की अनदेखी देश में खाद्य संकट को न्योता दे रही है.



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