Sunday, June 6, 2021

भारतवासियों का मेटाडेटा और आंकड़ों का राष्ट्रवाद

मेटा डेटा का एक अर्थ है- आकड़ों के बारे में आंकड़ा और दूसरा अर्थ है संग्रहित सूचना. सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों वाली संविधान पीठ के 1,448 पन्नों के आधार मामले मे दिए गये फैसले में इस शब्द का लगभग 50 बार जिक्र किया गया है. यह शब्द आधार कानून 2016 में परिभाषित नहीं है. पृष्ठ 121 पर कहा गया है कि आधार कानून भारतवासियों और नागरिकों का मूल बायोमेट्रिक (उंगलियों व आंखों की पुतलियों) की जानकारी, जनसंख्या संबंधी जानकारी और मेटा डेटा का साइबर सूचना संग्रहालय तैयार करता है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला मेटा डेटा (अधि-आंकड़ा) के संबंध में मौजूदा प्रावधान को निरस्त करता है और उसमें संशोधन करने का निर्देश देता है.     

सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित संसदीय समिति ने फरवरी 2014 की अपनी एक रिपोर्ट में अमेरिकी नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी द्वारा किये जा रहे खुफिया हस्तक्षेप और विकिलिक्स के खुलासे और साइबर क्लाउड तकनीकी और वैधानिक खतरों के संबध में इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के तत्कालीन सचिव जे सत्यनारायण (वर्तमान में चेयरमैन, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, भारत सरकार) से पूछा था. संसदीय समिति उनके जवाब से संतुष्ट नहीं लगी. हैरत की बात है कि इन्हें विदेशी सरकारों और कंपनियों द्वारा सरकारी लोगों और देशवासियों के मेटा डाटा एकत्रित किये जाने से कोई परेशानी नहीं थी. 

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने दो अलग-अलग फैसला दिया है. दोनों फैसलों में समानता और अंतर है. समानता यह है कि दोनों फैसलों में आधार कानून पर सवाल उठाया गया है. अंतर यह है कि न्यायमूर्ति एके सीकरी द्वारा लिखे चार जजों के आदेश ने आधार के कई प्रावधानों पर सवाल उठाया है और कुछ प्रावधानों को असंवैधानिक बताया है. 

उन्होंने आधार कानून के बहुत से प्रावधानों को रद्द कर दिया है और सरकार को उनमें संशोधन करने का आदेश दिया है. इस फैसले से अलग न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने पूरे आधार कानून को असंवैधानिक बताया है.

मोटे तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाला एक अनूठा पहचान संख्या है, जिसके द्वारा  देशवासियों के संवेदनशील आकड़ों को सूचीबद्ध किया जा रहा है. लेकिन यही पूरा सच नहीं है. असल में यह 16 अंकों वाला है, मगर 4 अंक छुपे रहते हैं. इस परियोजना के कई रहस्य अब भी उजागर नहीं हुए हैं. शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पांच जजों में से चार जज सरकार द्वारा गुमराह हो गये प्रतीत होते हैं. 

यूआईडी/आधार  और नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (राष्ट्रीय खुफिया तंत्र) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और कंपनियां विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं. 

यह परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष है. केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 10 अप्रैल, 2017 को राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान कहा कि सरकार नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और आधार संख्या को नहीं जोड़ेगी. इसी सरकार ने आधार को स्वैच्छिक बता कर बाध्यकारी बनाया है. सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों ने ऐसे प्रयासों पर रोक लगा दिया है. फिक्की और एसोचैम की रिपोर्टों से स्पष्ट है कि नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए हैं.

आधार परियोजना पर होनेवाले अनुमानित खर्च का आज तक खुलासा नहीं किया गया है. देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रहा है. 

अदालत ने दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नोलाॅजी कंपनी आईबीएम के कारनामों की अनदेखी की है. आईबीएम ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से भगाने और आखिरकार उनके सफाये के लिए पंच-कार्ड (कंप्यूटर का पूर्व रूप) और इन कार्डों के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिये यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को संभव बनाया. इसकी आशंका प्रबल है कि आधार से वही होने जा रहा है, जो जर्मनी में हुआ था. 

गौरतलब है कि चार जजों ने आधार के बहुत सारे प्रावधानों पर सवाल उठाया है. एक जज ने पूरे आधार कानून को असंवैधानिक बताया है. कोर्ट ने आधार कानून की धारा 57 को खत्म कर दिया है. आधार एक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियां 2010 से ही आधार की मांग कर रही थी. धारा 57 के अनुसार सिर्फ राज्य ही नहीं, बल्कि बॉडी कॉरपोरेट या फिर किसी व्यक्ति को चिह्नित करने के लिए आधार संख्या मांगने का अधिकार अब नहीं है. 

इस प्रावधान के तहत मोबाइल कंपनी, प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स के पास वैधानिक सपोर्ट था, जिससे वे पहचान के लिए आपका आधार संख्या मांगते थे. ऐसे नाजायज प्रावधान को धन विधेयक का हिस्सा बनाया गया था, जिसे लोकसभा और लोकसभा अध्यक्ष ने कानून बना दिया था. बीते 26 सितंबर तक इस प्रावधान के तहत देशवासियों के साथ कानून के नाम पर घोर अन्याय किया गया. इस अन्याय के लिए लोकसभा और लोकसभा अध्यक्ष को नागरिकों से माफी मांगनी चाहिए. इस प्रावधान से देश के हित और नागरिकों के हित के साथ खिलवाड़ हुआ है. 

सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने फैसले में कहा है कि आधार कानून धन विधेयक है. ये जज हैं- प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा , न्यायमूर्ति एके सीकरी, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति अशोक भूषण. इन जजों का मानना है कि लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है.  

न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा है कि वह सरकार की इस दलील से सहमत नहीं है कि आधार कानून धन विधेयक है और उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को गलत बताया है. 

उन्होंने आधार को लागू करनेवाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के साथ हुए विदेशी निजी कंपनियों के करार का हवाला देते हुए कहा कि नयी इन बायोमेट्रिक तकनीकी कंपनियों की सहभागिता से होनेवाले राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी खतरे और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हनन को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. इसलिए उन्होंने आधार परियोजना और कानून को खारिज कर दिया और इसकी जगह कोई वैकल्पिक व्यवस्था करने की अनुशंसा की है.      

वित्त मंत्री पर आरोप है कि इन्होंने तथ्यों को गलत ढंग से पेश किया है. सूचना के अधिकार के तहत जो कॉन्ट्रेक्ट एग्रीमेंट निकाले गये हैं, उसमें स्पष्ट लिखा गया है कि ऐक्सेंचर, साफ्रान ग्रुप, एर्नेस्ट यंग नाम की ये कंपनियां भारतवासियों के इन संवेदनशील बाॅयोमेट्रिक आंकड़ों को सात साल के लिए अपने पास रखेंगी.

इस का संज्ञान सुप्रीम कोर्ट के एक जज वाले फैसले में लिया गया है. इसी कारण चार जजों ने भी निजी कंपनियों को आधार सूचना देने पर पाबंदी लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह तय नहीं किया है कि यदि आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेका और संविधान में द्वंद्व हो, तो संविधान प्रभावी होगा कि ठेका. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि संविधान प्रभावी होगा. बाकी के चार जजों ने फिलहाल इस मामले में चुप्पी साध ली है.     

आधार को लागू करनेवाले प्राधिकरण द्वारा अब तक 120 करोड़ से अधिक भारतीय निवासियों को आधार संख्या प्रदान किये जा चुके हैं. यह नागरिकता का पहचान नहीं है. यह आधार पंजीकरण से पहले देश में 182 दिन रहने का पहचान प्रदान करता है. कोई बुरुंडी, टिंबकटू, सूडान, चीन, तिब्बेत, पाकिस्तान, होनोलुलू या अन्य देश का नागरिक भी इसे बनवा सकता है. नागरिकों के अधिकार को उनके बराबर करना और इसे बाध्यकारी बनाकर और इस्तेमाल करके उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित करना तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं है.

 

Friday, June 4, 2021

Justice Shiva Kirti Singh remains Chairperson, Telecom Disputes Settlement & Appellate Tribunal

Following the order of Supreme Court bench comprising Justices L Nageswara Rao, Hemant Gupta and S Ravindra Bhat on an interlocutory application filed in the Madras Bar Association 's petition challenging the Tribunals Reforms Ordinance 2021Justice Shiva Kirti Singh (retd.) cremains Chairperson, Telecom Disputes Settlement & Appellate Tribunal (TDSAT) till the appointment of the new Chairperson. 

The Court gave a direction staying Union Ministry’s communication dated March 31 to the TDSAT Chairperson asking him to demit office by April 20, 2021. The communication cited the new Tribunals Reforms Ordinance, which mandate that the tenure of Chairperson cannot exceed 4 years. This communication was challenged by lawyers who practice in the Tribunal. The order reads: "In view of the AG's submissions, the extraordinary situation and letter dated May 31, 2021, we are of the view that Justice Shiva Kirti Singh will be continuing as Chairman till fresh appointment is made. We request the Chief Justice of India to expedite the process of appointment".

The Central Government has notified the Tribunals Reforms (Rationalisation and Conditions of Service) Ordinance, 2021, to dissolve certain existing appellate bodies and transfer their functions to existing judicial bodies. A Bill was introduced in the Lok Sabha in this regard during the Budget Session but it could not be taken up for consideration and passing. Justice Shiva Kirti Singh assumed the office of Chairperson, TDSAT on April 21, 2017.

Justice Shiva Kirti Singh was born in November 1951. His grandfather Late Krishna Kumar Singh of Village Narendrapur, P.S. Ander, District Saran (now Siwan), Bihar had a modest Zamindari. His father Late Shambhu Prasad Singh, retired as a senior most Judge of Patna High Court in January, 1979. His uncle, late Uma Kant Pd. Singh became a martyr in front of Patna Secretariat during Quit India Movement in August 1942. His maternal grandfather Late B.P. Sinha was Chief Justice of India from 1959 to 1964. 


He completed schooling from Sainik School Tilaiya, now in Jharkhand, He graduated in Political Science from Patna College. He did his post graduation from Patna University and LL.B. from Patna Law College. He enrolled as an Advocate on March 17, 1977. He was designated Senior Advocate on January 17, 1990. He practised in Patna High Court in Civil, Criminal, Service and Constitutional matters. He served as counsel for Bihar State Electricity Board for several years. He was elevated as permanent Judge of Patna High Court on December 29, 1998. He served as Executive Chairman of Bihar State Legal Services Authority from March 7, 2006 to October 16, 2012. 


He was appointed as Acting Chief Justice of Patna High Court in May 2009 for about four months, and again in September 2009 for about same period and for the third time in May 2010 for a lesser period. He was transferred to Allahabad High Court and took oath on October 17, 2012. He was appointed as Acting Chief Justice of Allahabad High Court on November 20, 2012 and as Chief Justice on February 4, 2013. He was elevated to Supreme Court on September 19, 2013. He retired on 11th November, 2016


Justice Shiva Kirti Singh was part of the 3-Judge Bench that commuted the death sentence of 15 people in Shatrughan Chauhan v Union of India (2014) because undue delay by the President in rejecting mercy to a death row convict amounted to torture. The time taken by the President in rejecting mercy petitions of the 15 prisoners ranged between 11 years and 1.5 years. This has paved the for India to adopt a more humane process committed to the rule of law until the very end in carrying out death sentences. The bench took the view that the crime in question is irrelevant in deciding the effects of keeping a death row prisoner waiting for a decision on his or her mercy petition. The suffering that comes with anticipating death on an every day basis for the judges amounted to torture, which was violative of the right to life under Article 21 of the Constitution. This is the bench that declared that the 2-Judge bench decision of the Supreme Court in the Devender Pal Singh Bhullar v State of NCT of Delhi (2013) that those sentenced to death under anti-terror laws are not allowed to invoke the argument of undue delay to argue for commutation, was held to be flawed application of an earlier decision of the 5-Judge bench of Supreme Court in the Triveniben v State of Gujarat (1989). By declaring Bhullar per incuriam, this bench has done away with notorious judgements delivered in 2013. This bench held that enforcement of rights was within its jurisdiction and what constitutes the content of fundamental rights of all persons is determined by the judiciary.