डॉ गोपाल कृष्ण
आधार परियोजना, आधार कानून व चुनाव कानून का जुड़ना नरसंहार की संभावना को जन्म देता है।
वोटर ID कार्ड को आधार से लिंक करने वाला चुनाव कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 विपक्ष के विरोध के बावजूद 21 दिसंबर को राज्य सभा से भी पास हो गया। ये विधेयक एक दिन पहले ही लोकसभा से पास हुआ था। विधेयक को स्थाई समिति के पास भेजने की मांग को ठुकरा दिया गया। चुनाव कानून (संशोधन) बिल, 2021 में वोटर ID कार्ड को आधार संख्या से लिंक किए जाने का प्रावधान है।
इस विधेयक में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन किए गए हैं। 1950 के कानून के अनुसार, कोई व्यक्ति निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी के पास अपना नाम दर्ज कराने के लिए आवेदन कर सकता है।
इस कानून में संशोधन के बाद इस विधेयक के अनुसार, ''निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी किसी व्यक्ति से उसकी पहचान साबित करने के लिए उसका आधार पेश करने के लिए कह सकता है। यदि उसका नाम पहले से ही वोटर लिस्ट में है, तो सूची में दर्ज एंट्री के प्रमाणीकरण के लिए आधार संख्या की आवश्यकता हो सकती है।''
इसमें कहा गया है, ''किसी व्यक्ति द्वारा आधार न दे पाने की वजह से न तो वोटर लिस्ट में उसका नाम शामिल करने से वंचित किया जाएगा और न ही वोटर लिस्ट से उसका नाम हटाया जाएगा, बशर्ते इसके लिए (आधार न देने के लिए) उसके पास 'पर्याप्त कारण' हों। 'पर्याप्त कारण' को परिभाषित नहीं किया गया है। वोटर ID कार्ड का "आधारीकरण" सरकारी हिंसा का हिस्सा है।
वोटर ID को आधार से लिंक करने का प्रयास 2012-2015 में चुनाव आयोग ने अंधाधुंध भ्रामक प्रचार कर शुरू हुआ था। तत्कालीन गृह सचिव राज कुमार सिंह और मुख्य चुनाव आयुक्त शाहबुद्दीन याकूब कुरैशी के बीच के पत्राचार से इसका खुलासा होता है। मार्च 2015 से अगस्त 2015 तक राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धिकरण कार्यक्रम (NERPAP) चलाया था। उस समय चुनाव आयोग ने 30 करोड़ से अधिक वोटर ID को आधार से लिंक कर लिया था। इस प्रक्रिया पर रोक सिटीजनस् फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज और अन्य लोगों के प्रयास से लगा। बाद मे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के वोटर डेटाबेस घोटाले का मामला सामने आया।
आधार कानून की तरह ही बिना चर्चा और बहस के इस विधेयक को पास करा लिया गया। कांग्रेस का विरोध आधा- अधूरा था। आधार से जुड़े मामले मे कांग्रेस व अन्य दलों को विरोध करने के तरीके ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी व लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी से सिखना चाहिए। लंदन स्कूल ऑफ एकॉनोमिक्स के अध्ययन के बाद ब्रिटेन के दोनों दलों के गठबंधन ने ब्रिटेन के आधार (नेशनल ID) को नष्ट कर दिया। गठबंधन ने अपने चुनाव अभियान मे टोनी ब्लेयर सरकार के नेशनल ID का विरोध करते हुए ये वायदा किया था कि उनके नेतृत्व वाली सरकार इसे रोक देगी। अपने वायदे पर वे खरे उतरे। भारत के सियासी दलों के लिए ये एक सबक है। वायदे और जुमलों मे जमीं - आसमां का फर्क होता है।
लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता निक कलेग ने ब्रिटेन के उप प्रधानमंत्री के तौर पर जो भाषण वहा की संसद मे दिया वह भी आधार-वोटर ID के संदर्भ में समीचीन है। (संदर्भ:https://www.gov.uk/government/speeches/deputy-prime-ministers-first-speech-on-constitutional-reform)
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों अपने सितंबर 2018 के निर्णय में विदेशी कंपनियों द्वारा ईलेट्रॉनिक-बायोमेट्रिक उपनिवेशवाद के बारे मे अब तक जो उनकी समझ बनी है उसका परिचय दिया है। उन्होनें इस बात को नज़रंदाज़ कर दिया कि ब्रिटेन के बायोमेट्रिक नेशनल ID का हवाला देकर ही विप्रो नामक कंपनी ने भारत सरकार के लिए UID-आधार का शुरुआती पत्र तैयार किया था। लेकिन जब ब्रिटेन ने अपना बायोमेट्रिक नेशनल ID रोक दिया तो भारत में इसके पैरोकारों ने चीखती हुई चुप्पी ओढ़ ली।
बायोमेट्रिक युआईडी/आधार संख्या और आधार कानून का भविष्य तय होना अभी बाकी है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले मे इन चार जजों को आईना दिखा दिया। बाद मे नवम्बर 2019 मे पांच जजों की पीठ ने भी इन चार जजों के निर्णय पर सवाल उठा कर मामले को सात जजों को सौप दिया है।
गौर तलब है कि इससे पहले वित्त कानून 2017 के जरिये आधार कानून मे संशोधन करके वह कर दिया गया जो वित्त मंत्री रहते प्रणब मुख़र्जी ने संसद में बायोमेट्रिक “ऑनलाइन डेटाबेस” अनूठा पहचान अंक (यू.आई.डी./आधार) परियोजना की घोषणा करते वक्त अपने 2009-10 बजट भाषण में नहीं किया था। अंततः भारत सरकार ने वित्त कानून 2017 मे कंपनी कानून, 2013 और आधार कानून, 2016 का जिक्र साथ-साथ कर ही दिया था. इसके बाद वित्त कानून 2018 के द्वारा भी मौजूदा कानून मे संशोधन करके विदशी कंपनियों को देशी कंपनी के रूप मे परिभाषित कर दिया गया है। परिणाम स्वरूप संविधान सम्मत कानून के राज की समाप्ति करके कंपनी राज की पुनः स्थपाना की विधिवत घोषणा कर दिया है. इसने देश के राजनीतिक भूगोल में को ही फिर से लिख डाला है जिसे शायद एक नयी आज़ादी के संग्राम से ही भविष्य में कभी सुधारा जा सकेगा. इसके कारण बायोमेट्रिक युआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना और कंपनियों के इरादे के बीच अब तक छुपे रिश्ते जगजाहिर हो गए है. मगर अदालतों, सियासी दलों और नागरिकों के लिए आधार कानून, 2016, वित्त कानून 2017 और वित्त कानून 2018 का अर्थ अभी ठीक से खुला ही नहीं है।
भारत में एक अजीब रिवाज चल पड़ा है। वह यह कि दुनिया के विकसित देश जिस योजना और तकनीकी को खारिज कर देते हैं, हम लोगों के अदालत सहित सभी सरकारी संस्थान उसे सफ़लता की कुंजी समझ बैठती है। अनूठा पहचान (युआईडी)/आधार संख्या परियोजना और आधार कानून 2016 पर अदालत का फैसला इसकी ताजा मिसाल है। मोटे तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाला एक अनूठा पहचान संख्या है, जिसके द्वारा देशवासियों के संवेदनशील आकड़ों को सूचीबद्ध किया जा रहा है। लेकिन यही पूरा सच नहीं है। असल में यह 16 अंकों वाला है मगर 4 अंक छुपे रहते है. इस परियोजना के कई रहस्य अभी भी उजागार नहीं हुए है। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के पाँच जजों मे से चार जज सरकार द्वारा गुमराह हो गए। सरकारी व कंपनियों के विचारकों के अनुसार भारत “मंदबुद्धि लोगों का देश” है. शायद इसीलिए वो मानते जानते है कि लोग बारीक बातों की नासमझी के कारण खामोश ही रहेंगे।
भारतवासियों को “मंदबुद्धि” का मानने वालों मे भारतीय गृह मंत्रालय के तहत नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) विभाग के मुखिया रहे कैप्टन रघुरमन भी है. कैप्टन रघुरमन पहले महिंद्रा स्पेशल सर्विसेस ग्रुप के मुखिया थे और बॉम्बे चैम्बर्स ऑफ़ इंडस्ट्रीज एंड कॉमर्स की सेफ्टी एंड सेक्यूरिटी कमिटि के चेयरमैन थे। इनकी मंशा का पता इनके द्वारा ही लिखित एक दस्तावेज से चलता है, जिसका शीर्षक “ए नेशन ऑफ़ नम्ब पीपल” अर्थात् असंवेदनशील मंदबुद्धि लोगों का देश है। इसमें इन्होंने लिखा है कि भारत सरकार देश को आंतरिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कर सकती। इसलिए कंपनियों को अपनी सुरक्षा के लिए निजी सेना का गठन करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि ‘कॉर्पोरेटस’ सुरक्षा के क्षेत्र में कदम बढ़ाएं। इनका निष्कर्ष यह है कि ‘यदि वाणिज्य सम्राट अपने साम्राज्य को नहीं बचाते हैं तो उनके अधिपत्य पर आघात हो सकता है।’’ कैप्टन रघुरमन बाद में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के मुखिया बने. इस ग्रिड के बारे में 3 लाख कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाली एसोसिएट चैम्बर्स एंड कॉमर्स (एसोचेम) और स्विस कंसलटेंसी के एक दस्तावेज में यह खुलासा हुआ है कि विशिष्ट पहचान/आधार संख्या इससे जुड़ा हुआ है। कुछ समय पहले तक ये सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रहे है।
आजादी से पहले गठित अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “फिक्की” (फेडरेशन ऑफ़ इंडियन कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) द्वारा 2009 में तैयार राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर टास्कफोर्स (कार्यबल) की 121 पृष्ठ कि रिपोर्ट में सभी जिला मुख्यालयों और पुलिस स्टेशनों को ई-नेटवर्क के माध्यम से नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) में जोड़ने की बात सामने आती है. यह रिपोर्ट कहती है कि जैसे ही भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) तैयार हो जाएगा, उसमें शामिल आंकड़ों को नेशनल ग्रिड का हिस्सा बनाया जा सकता है।’ ऐसा पहली बार नहीं है कि नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और यूआईडीएआई (आधार कार्यक्रम को लागू करने वाला प्राधिकरण) के रिश्तों पर बात की गई है। कंपनियों के हितों के लिए काम करने वाली संस्था व अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “एसोचैम” और स्विस परामर्शदाता फर्म केपीएमजी की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी इन इंडिया 2010’ में भी यह बात सामने आई है। इसके अलावा जून 2011 में एसोचैम और डेकन क्रॉनिकल समूह के प्रवर्तकों की पहल एवियोटेक की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी एसेसमेंट इन इंडिया: एक्सपैंशन एंड ग्रोथ’ में कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय जनगणना के तहत आने वाले कार्यक्रमों के लिए बायोमीट्रिक्स की जरूरत अहम हो जाएगी।’ इस रिपोर्ट से पता चलता है कि यूआईडी/आधार से जुड़े राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम का लक्ष्य क्या है।
गौर तलब है कि वर्तमान सरकार ने डॉ ममोहन सिंह के दामाद इंटेलिजेंस ब्यूरो मे कार्यरत अशोक पटनायक को 13 जुलाई 2016 को नैटग्रिड का प्रमुख बना दिया. यह पद अप्रैल 2014 से खाली था क्योंकि कैप्टन रघु रमन के खिलाफ खुफिया रिपोर्ट के कारण उन्हे नया कांट्रैक्ट नहीं दिया गया था। मार्च 2017 मे गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति के रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि नैटग्रिड मे सूचना प्रोद्योगिकी के सक्षम उम्मीदवारों की कमी के कारण 35 पद खाली है। यह मामला लोक सभा मे भी उठा था। देशी तकनीकी और देशी सूचना और बायोमेट्रिक प्रोद्योगिकी मे सक्षम लोगों को दरकिनार कर विदेशी तत्त्वों को ऐसे संवेदनशील मामलों मे शामिल करना भी देशवासियों और देश की सुरक्षा को खतरे मे डालता प्रतीत होता है। सूप्रीम कोर्ट के आधार और नैटग्रिड के रिश्तों को अभी तक नहीं रखा गया है। लोक सभा मे इस संबंध मे सवाल उठाया गया है।
वैसे तो अमेरिका में आधार जैसी बायोमेट्रिक यूआईडी के क्रियान्वयन की चर्चा 1995 में ही हो चुकी थी मगर हाल के समय में धरातल पर इसे अमेरिकी रक्षा विभाग में यूआईडी और रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) की प्रक्रिया माइकल वीन के रहते उतारा गया. वीन 2003 से 2005 के बीच एक्विजिशन, टेक्नोलॉजी एंड लॉजिस्टिक्स (एटी ऐंड एल) में अंडर सेक्रेटरी डिफेंस हुआ करते थे। एटी ऐंड एल ने ही यूआईडी और आरएफआईडी कारोबार को जन्म दिया। अंतरराष्ट्रीय फौजी गठबंधन “नाटो” के भीतर दो ऐसे दस्तावेज हैं जो चीजों की पहचान से जुड़े हैं। पहला मानकीकरण संधि है जिसे 2010 में स्वीकार किया गया था। दूसरा एक दिशा निर्देशिका है जो नाटो के सदस्यों के लिए है जो यूआईडी (आधार इसका ब्रांड नाम है) के कारोबार में प्रवेश करना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि भारत का नाटो से कोई रिश्ता बन गया है. यहां हो रही घटनाएं इसी बात का आभास दे रही हैं। इसी के आलोक में देखें तो चुनाव आयोग और यूआईडीएआई द्वारा गृह मंत्रलय को भेजी गयी सिफारिश कि मतदाता पहचान पत्र को यूआईडी के साथ मिला दिया जाय, चुनावी पर्यावरण को बदलने की एक कवायद है जो एक बार फिर इस बात को रेखांकित करती है कि बायोमीट्रिक प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल उतना निर्दोष और राजनीतिक रूप से तटस्थ चीज नहीं जैसा कि हमें दिखाया जाता है। ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग के वेबसाइट के मुताबिक हर ईवीएम में यूआईडी होता है। विपक्षी सियासी दलों ने ईवीएम के विरोध में तो देरी कर ही दी अब वे बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार के विरोध में भी देरी कर रहे है. यही नहीं राज्यों में जहा इन विरोधी दलों कि सरकार है वह वे अनूठा पहचान यूआईडी/आधार परियोजना का बड़ी तत्परता से लागू भी कर रहे है. वे इसके दूरगामी परिणाम से अनभिज्ञ है।
यह ऐसा ही है जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार शपथ ले रहे थे तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि जिस कालीन पर खड़े थे वह उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनायीं गई थी. डेविड कोच ने ही अपने संगठनो के जरिये पहले उन्हें उनके कार्यकाल के दौरान गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी. भारत में भी विरोधी दल जिस बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार और यूआईडी युक्त ईवीएम की कालीन पर खड़े है वह कभी भी उनके पैरो के नीचे से खिंची जा सकती है. लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके लोकतान्त्रिक अधिकार छीन जाते है.
ईवीएम के अलावा जमीन के पट्टे संबंधी विधेयक में जमीन के पट्टों को अनूठा यूआईडी/आधार से जोड़ने की बात शामिल है। यह सब हमारे संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण होगा और प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र के मायने ही बदल रहा है जहां प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां नियामक नियंत्रण से बाहर है क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं।
यूआईडी/आधार और नैटग्रिड एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं। एक ही रस्सी के दो सिरे हैं। विशिष्ट पहचान/आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और कंपनिया विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं। यह परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं। हैरत कि बात यह भी है कि एक तरफ गाँधी जी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल होने पर सरकारी कार्यक्रम हो रहे है वही वे गाँधी जी के द्वारा एशिया के लोगो का बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ उनके पहले सत्याग्रह और आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गए. उन्होंने उंगलियों के निशानदेही द्वारा पंजीकरण कानून को कला कानून कहा था और सबंधित दस्तावेज को सार्वजनिक तौर पर जला दिया था. चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे. ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा मगर भारत भूल गया. चीन ने बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पहचान अनूठा परियोजना को रद्द कर दिया है.
गौर तलब है कि कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिसट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों के ऊपर होनेवाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट करने का प्रावधान रहा है, देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को रिकॉर्ड में रखा जा रहा है. बावजूद इसके जानकारी के अभाव में देशवासियों की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्था से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती है. सरकार जो की जनता की नौकर है अपारदर्शी और जनता को अपारदर्शी बना रही है.
केन्द्रीय मंत्री के तौर पर रवि शंकर प्रसाद ने 10 अप्रैल, 2017 को राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान
कहा कि सरकार नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संख्या को नहीं जोड़ेगी. उनका बयान भरोसे के लायक नहीं है। इसी सरकार ने आधार को स्वैछिक बता कर बाध्यकारी बनाया है। इसी मंत्री ने पूरे देश को गुमराह कर लोगों को आधार को बनवाने और उसे फोन से जोड़ने के लिए बाध्य कर दिया था।
ऐसी सरकार जिसने आधार को गैरजरूरी बता कर देशवासियों से पंजीकरण करवाया और बाद में उसे जरुरी कर दिया उसके किसी भी ऐसे आश्वासन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है. जनता इतनी तो समझदार है ही वह यह तय कर सके कि कंपनियों के समूह फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों और मंत्री की बातों में से किसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाय. इन्ही कंपनियों के समूहों में वे गुमनाम चंदादाता भी शामिल है जो ज्यादा भरोसेमंद है क्योंकि उन्ही के भरोसे सत्तारूढ़ सियासी दलों का कारोबार चलता है. फिक्की और असोचैम के रिपोर्टों से स्पष्ट है कि नैटग्रिड और बायोमेट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए है. वैसे भी ऐसी सरकार जो “स्वैछिक” कह कर लोगो को पंजीकृत करती है और धोखे से उसे “अनिवार्य” कर देती है उसके आश्वासन पर कौन भरोसा कर्र सकता है.
इस हैरतंगेज सवाल का जवाब कि देशवासियों की पहचान के लिए यूआईडी/संख्या संख्या की जरूरत को कब और कैसे स्थापित कर दिया गया, किसी के पास नहीं। पहचान के संबंध में यह 16 वां प्रयास है। चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से पहले यह घोषणा करता है कि यदि किसी के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है तो वे अन्य 14 दस्तावेजों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं। ये वे पहचान के दस्तावेज हैं जिससे देश में प्रजातंत्र एवं संसद को मान्यता मिलती है।
ऐसे में इस 16वें पहचान की कवायद का कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता जिसे लोकशाही में स्वीकार किया जाए। संसद को पेश किये गए अपने रिपोर्ट में वित्त की संसदीय समिति ने खुलासा किया है कि सरकार ने इस 16वें पहचान के अनुमानित खर्च का पहले हुए पहचान पत्र के प्रयासों से कोई तुलना नहीं किया है. देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमेट्रिक-डिजिटल पहलों से जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रह हैं। ज्ञात हो कि इस समिति ने सरकार के जवाब के आधार पर यह अनुमान लगाया है की एक आधार संख्या जारी करने में औसतन 130 रुपये का खर्चा आता है जो देश के प्रत्येक 130 करोड़ लोगों को भुगतान करना पड़ेगा. बायोमेट्रिक यू.आई.डी. नीति को नागरिक जीवन (सिविल लाइफ) के लिए समीचीन बताकर 14 विकासशील देशो में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के जरिये लागु किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागु हो चुका है और नेपाल और बांग्लादेश में भी लागु किया जा रहा है.
भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है। विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, 2009 के औपचारिक निर्माण से अस्तित्व में आई यू.आई.डी./आधार परियोजना जनवरी 1933 (जब हिटलर सत्तारूढ़ हुआ) से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद के दौर की याद ताजा कर देती है। जिस तरह इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स (आई.बी.एम.) नाम की दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलाजी कम्पनी ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से भगाने और आखिरकार उनके सफाए के लिए पंच-कार्ड (कम्प्यूटर का पूर्व रूप) और इन कार्डो के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिए यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को सम्भव बनाया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके, निशानदेही के तर्क को आगे बढ़ाते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री ने 2010-2011 का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यू.आई.डी. परियोजना वित्तीय योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी। जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना से किन्हीं खास धर्मो, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं। आश्चर्य है कि आधार परियोजना के प्रमुख यानी वित्त मंत्री ने वित्तीय समावेशन की तो बात की, लेकिन गरीबों के आर्थिक समावेशन की नहीं। भारत में राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में। अगर एक समग्र अन्तःआनुशासनिक अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यू.आई.डी. के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ नहीं करेगा? दरअसल यही जनवरी 1933, जनवरी 2009 से सितंबर 2018 तक के निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है। यू.आई.डी. वही सब कुछ दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम
बना। यू.आई.डी. का नागरिकता से कोई संबंध नहीं है, वह महज निशानदेही का साधन है। इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय पहचानपत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय स्वागत योग्य हैं क्योंकि यह फैसला नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा करता है। पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर दिया है।
इसकी आशंका प्रबल है कि आधार जो कि यू.आई.डी. (विशिष्ट पहचान संख्या) का ब्रांड नाम है वही करने जा रही है जो कि हिटलर के सत्तारूढ़ होने से पहले के जर्मन सत्ताधारियों ने किया, अन्यथा यह कैसे सम्भव था कि यहूदी नामों की सूची नाजियों के आने से पहले भी जर्मन सरकार के पास रहा करती थी? नाजियों ने यह सूची आई.बी.एम. कम्पनी से प्राप्त की जो कि जनगणना के व्यवसाय में पहले से थी। यह जनगणना नस्लों के आधार पर भी की गई थी जिसके चलते न केवल यहूदियों की गिनती, बल्कि उनकी निशानदेही सुनिश्चित हो सकी, वाशिंगटन डी.सी. स्थित अमेरिका के होलोकास्ट म्युजियम (विभीषिका संग्रहालय) में आई.बी.एम. की होलोरिथ डी-11 कार्ड सार्टिग मशीन आज भी प्रदर्शित है जिसके जरिए 1933 की जनगणना में यहूदियों की पहले-पहल निशानदेही की गई थी।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटि) का गठन किया. समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा। यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया है। जैवमापन मानक समिति ने यह संस्तुति की है कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए। समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय निधि अर्थात ‘धन’ बताती है। यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा नहीं जा सकता. ऐसे समय में जब बायोमेट्रिक आधार और कंपनी कानून मामले में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच खिचड़ी पकती सी दिख रही है, आधार आधारित केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस से देश के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया है। आधार आधारित व्यवस्था के दुरुपयोग की जबर्दस्त संभावनाएं हैं और यह आपातकालीन स्थिति तक पैदा कर सकने में सक्षम है। ये देश के संघीय ढांचे का अतिक्रमण करती हैं और राज्यों के अधिकारों को और मौलिक व लोकतान्त्रिक अधिकारों को कम करती हैं।
देश के 28 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से अधिकतर ने यूआईडीएआई के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। राज्यों में वामपंथी पार्टियों की सरकारों ने इस मामले में दोमुहा रवैया अख्तियार कर लिया है. अपने राज्य में वे इसे लागु कर रहे है मगर केंद्र में आधार परियोजना में अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग की संग्लिप्तता के कारण विरोध कर रहे है. क्या उनके हाथ भी ठेके के बंटवारे के कारण बांध गए है? कानून के जानकार बताते हैं कि इस समझौते को नहीं मानने से भी राज्य सरकारों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। पूर्व न्यायाधीश, कानूनविद और शिक्षाविद यह सलाह दे रहे हैं कि यूआईडी योजना से देश के संघीय ढांचे को एवं संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। राज्य सरकारों, केंद्र के कई विभागों और अन्य संस्थाओं को चाहिए कि यूआईडीएआई के साथ हुए एमओयू की समग्रता में समीक्षा करे और अनजाने में अधिनायकवाद की स्थिति का समर्थन करने से बचें। एक ओर जहां राज्य और उनके नागरिक अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं और केंद्रीकृत ताकत का विरोध करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिगामी कनवर्जेंस इकनॉमी पर आधारित डेटाबेस और अनियमित सर्वेलेंस, बायोमीट्रिक व चुनावी तकनीकों पर मोटे तौर पर किसी की नजर नहीं जा रही और उनके खिलाफ आवाज अभी-अभी उठना शुरू हुआ है।
आधार कानून 2016 का धारा 57 कहता है- “Act not to prevent use of Aadhaar number for other purposes under law”। इस धारा के प्रावधान मे लिखा है कि “Nothing contained in this Act shall prevent the use of Aadhaar number for establishing the identity of an individual for any purpose, whether by the State or any body corporate or person, pursuant to any law, for the time being in force, or any contract to this effect.” (धारा 57 कहती है कि 'राज्य या कोई निगम या व्यक्ति' आधार संख्या का इस्तेमाल 'किसी भी उद्देश्य के लिये किसी व्यक्ति की पहचान स्थापित करने में कर सकता है.)' लोक सभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इस प्रावधान सहित 59 धाराओं वाले आधार कानून को धन विधेयक के रूप मे मुहर लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों वाली संविधान पीठ ने दो फैसला दिया दिया है. दोनों फैसलों मे आधार कानून पर सवाल उठाया गया है। चार जजों ने आधार के बहुत सारे प्रावधानों पर सवाल उठाया है। एक जज ने पूरे आधार कानून को असंवैधानिक बताया है। कोर्ट ने आधार आधार कानून की धारा 57 को खत्म कर दिया है. आधार एक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियां 2010 से ही आधार की मांग कर रही थी. धारा 57 के अनुसार सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि बॉडी कॉरपोरेट या फिर किसी व्यक्ति को चिन्हित करने के लिए आधार संख्या मांगने का अधिकार अब नहीं है. इस प्रावधान के तहत मोबाइल कंपनी, प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स के पास वैधानिक सपोर्ट था जिससे वो पहचान के लिए आपका आधार संख्या मांगते थे. ऐसे नाजायज प्रावधान को धन विधेयक का हिस्सा बनाया गया था जिसे लोक सभा और लोक सभा की अध्यक्ष ने कानून बना दिया था। 26 सितंबर, 2018 तक इस प्रावधान के तहत देशवासियों किए साथ कानून के नाम पर घोर अन्याय किया गया॰ इस अन्याय के लिए लोक सभा और लोक सभा की अध्यक्ष को नागरिकों से माफी मांगनी चाहिए। इस प्रावधान से देश हित और नागरिकों के हित के साथ खिलवाड़ हुआ। इसकी सांस्थानिक जिम्मेवारी तय होनी चाहिए। कोर्ट ने आधार संख्या को बैंक खाता नंबर से लिंक करने की अनिर्वाता को भी सुप्रीम कोर्ट ने खत्म कर दिया है. कोर्ट के आदेश के बाद आधार कानून मे 2019 में संशोधन कर धारा 57 को हटा दिया गया हैं।
मगर इस धारा के हटने से पूर्व के समझौते अभी तक निरस्त नहीं हुए है। वोटर ID- आधार का जोड़ उन्हीं समझौतों (ठेकों) कारण सामने आया है। ये समझौते (ठेके) संविधान और कोर्ट के आदेश से ज्यादा बाध्यकारी प्रतीत हो रहे है।
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के फैसले मे कहा गया है कि आधार कानून धन विधेयक (मनी बिल) है और उन्होने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को सही बताया है. ये चार जज है प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविल्कर और न्यायमूर्ति अशोक भूषण। न्यायमूर्ति मिश्रा, सीकरी व भूषण सेवामुक्त हो चुके है।
गौर तलब है कि इन जजो का भी ये मानना है कि लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले मे कहा है कि वह सरकार की इस दलील से सहमत नहीं है कि आधार कानून धन विधेयक है और उन्होने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को गलत बताया है। आधार को किसी भी तरीके से लोकसभा अध्यक्ष को धन विधेयक नहीं बताना चाहिये था क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 110 (धन विधेयक की परिभाषा) की शर्तों को पूरा नहीं करता है. उन्होने कहा कि 'धारा 57 के तहत कोई लाभ और सब्सिडी का वितरण नहीं है. मनी बिल या धन विधेयक के तहत राजस्व और खर्च से जुड़े हुए मामले आते हैं. इस पर अंतिम फैसला लोकसभा लेती है. ऐसे विधेयकों पर राज्य सभा में चर्चा तो हो सकती है लेकिन उसे खारिज नहीं कर सकती. उन्होने अपने फैसले मे कहा कि आधार को साधारण विदेयक की तरह पारित किया जा सकता है. उन्होने आधार को लागू करने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के साथ हुए विदेशी निजी कंपनियों के करार का हवाला देते हुए कहा कि नयी इन बायोमेट्रिक तकनीकी कंपनियों की सहभागिता से से होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी खतरे और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हनन को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। इसलिया उन्होने आधार परियोजना और कानून को खारिज कर दिया और इसके जगह पर कोई और वैकल्पिक व्यवस्था करने की अनुसंशा की है।
सरकार की तरफ से वित मंत्री द्वारा आधार बिल 2016 को लोकसभा में धन विधेयक कि तरह पेश किया गया जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने धन विधेयक का प्रमाण पत्र दे दिया था. इसे राज्यसभा में भी पेश किया गया था. राज्य सभा ने 16 मार्च, 2016 को पाँच संशोधनों के साथ इसे वापस लोक सभा भेज दिया था. लेकिन इसे लोकसभा ने अस्वीकार कर दिया और समिविधान के तहत आधार एक्ट को 2016 लोक सभा से पारित कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार यूनिक पहचान संख्या यानी विशिष्ट पहचान संख्या इसलिए विशिष्ट एचएआई क्योंकि वह बायोमेट्रिक (उँगलियों और पुतलियों की तस्वीर जैसे) आकड़ों पर आधारित है। यह मान्यता अवैज्ञानिक है क्योंकि मानव शरीर मे ऐसा कोई अंग नहीं है जो परिवर्तनशील नहीं है। इसी अवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर आधार परियोजना और आधार कानून को देशवासियों के ऊपर थोपा गया है।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया है। 'जिस तरह से आधार के तहत अंगुलियों के निशान और आंखों की तस्वीरें ली जा रही हैं वे नागरिकों को कैदियों की स्थिति से भी बदतर हालत में खड़ा कर देता है. क्योंकि कैदी पहचान कानून के तहत ये प्रावधान है कि कैदी अगर बाइज्जत बरी होता है या सजा काट लेता है तो उसके अंगुलियों के निशान को नष्ट कर दिया जाता है. आधार के मामले में ये कभी नष्ट नहीं होगा.
वित्तमंत्री ने आधार के जरिए जुटाए जा रहे बायोमेट्रिक आंकड़ों को पूरी तरह सुरक्षित बताया था. मीडिया मे हुए खुलासों इस दावे के पोल खोल दी है। इन खुलासों से यह स्पष्ट हो गया है कि आंकड़ों वाली कंपनियों और उनके विशेषज्ञों में और अपराध जगत के माफिया तंत्र के बीच मीडिया में परिष्कृत प्रस्तुतिकरण का ही फर्क है| राज्यसभा में उन्होंने कहा ''ये केवल खास मकसद से है और सटीक तरीका भी इसके लिए बनाया गया है. ये कहना कि इस जानकारी का वैसे इस्तेमाल किया जाएगा जैसे नाजी लोगों को टार्गेट करने के लिए इस्तेमाल करते थे. मुझे ये लगता है कि ये महज एक राजनैतिक बयान है. ये ठीक नहीं है.'' इन दावों की सच्चाई का पता आधिकारिक तौर पर कोर्ट के कम-से-कम एक जज को चल गया है। दिल्ली हाइ कोर्ट के एकल पीठ के सामने मे लंबित रक्षा वैज्ञानिक मैथ्यू थॉमस की याचिका की सुनवाई के बाद जनता सहित सभी जज भी उसे जान जाएँगे।
सूचना के अधिकार के तहत जो कॉन्ट्रेक्ट एग्रीमेंट निकाले गए है उसमें स्पष्ट लिखा गया है कि ऐक्सेंचर, साफ्रान ग्रुप, एर्नेस्ट यंग नाम की ये कंपनियां भारतवासियों के इन संवेदनशील बायोमेट्रिक आंकड़ों को सात साल के लिए अपने पास रखेगी. इस का संज्ञान सूप्रीम कोर्ट के एक जज वाले फ़ेलसे मे लिया गया है। इसी कारण चार जजों ने भी निजी कंपनियो को आधार सूचना देने पर पाबंदी लगा दी है।
यह परियोजना विदेशी बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को मुनाफे देने के लिए बनाया गया है। आधार परियोजना में हर एक पंजीकरण पर 2 रूपया 75 पैसा खर्च हो रहा है. भारत की आबादी लगभग 140 करोड़ के आस पास है. ना सिर्फ पंजीकरण के समय बल्कि जब जब इसे इस्तेमाल किया जाएगा, डिडुप्लिकेशन के नाम पर इन कंपनियों को ये मुनाफा पहुंचाया जाएगा. इन बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए ये सब किया जा रहा है. ये देशहित में नहीं है और ये मानवाधिकारों का बड़ा उल्लंघन है.
ऐसे संदर्भ मे सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यूजीसी, सीबीएसई और निफ्ट जैसी संस्थाएं आधार नहीं मांग सकती हैं. साथ ही स्कूल भी आधार नहीं मांग सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अवैध प्रवासियों को आधार न दिया जाए. कोर्ट ने कहा है कि मोबाइल और निजी कंपनी आधार नहीं मांग सकती हैं. कोर्ट ने आधार को मोबाइल से लिंक करने का फैसला भी रद्द कर दिया .कोर्ट ने आधार को बैंक खाते से लिंक करने के फैसले को भी रद्द कर दिया. किसी भी बच्चे को आधार नंबर नहीं होने के कारण लाभ/सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता है. मगर यह काफी नहीं है।
प्राधिकरण द्वारा अब तक 120 करोड़ से अधिक भारतीय निवासियों को आधार संख्या प्रदान किए जा चुके हैं। यह नागरिकता का पहचान नहीं है। यह आधार पंजीकरण से पहले देश मे 182 दिन रहने का पहचान प्रदान करता है। कोई बुरुंडी, टिंबकटू, सूडान, चीन, तिब्बेत, पाकिस्तान, होनोलूलू या अन्य देश का नागरिक भी इसे बनवा सकता है। नागरिकों के अधिकार को उनके बराबर करना और इसे बाध्यकारी बनाकर और इस्तेमाल करके उन्हे मूलभूत अधिकारों से वंचित करना तर्क संगत और न्यायसंगत नहीं है। आधार परियोजना का आपातकाल के दौर के संजय गांधी की बाध्यकारी परिवार नियोजन वाली विचारधारा से कोई रिश्तेदारी है। ऐसी विचारधारा का खामियाजा उन्होने भोगा था। आधार परियोजना के पैरोकार भी उनके रास्ते ही चल रहे है।
धन की परिभाषा में देश के आंकड़े, निजी संवेदनशील सूचना और डिजिटल सूचना शामिल है| भारत सरकार की बॉयोमेट्रिक्स समिति की रिपोर्ट बॉयोमेट्रिक्स डिजाइन स्टैंडर्ड फॉर यूआईडी एप्लिकेशंस की अनुशंसा में कहा है कि बॉयोमेट्रिक्स आंकड़े राष्ट्रीय संपत्ति हैं और उन्हें अपने मूल विशिष्ट लक्षण में संरक्षित रखना चाहिए| इलेक्ट्रॉनिक आंकड़े भी राष्ट्रीय संपत्ति हैं अन्यथा अमेरिका और उसके सहयोगी देश अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन की वार्ता में मुफ्त में ऐसी सूचना पर अधिकार क्यों मांगते? कोई राष्ट्र या कंपनी या इन दोनों का कोई समूह अपनी राजनीतिक शक्ति का विस्तार आंकड़े को अपने वश में करके अन्य राष्ट्रों पर नियंत्रण कर सकता है| एक देश या एक कंपनी किसी अन्य देश के संसाधनों को अपने हित में शोषण कर सकता है| आंकड़ों के गणितीय मॉडल और डिजिटल तकनीक के गठजोड़ से गैरबराबरी और गरीबी बढ़ सकती है और लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है।
संवेदनशील सूचना के साइबर बादल (कंप्यूटिंग क्लाउड) क्षेत्र में उपलब्ध होने से देशवासियों, देश की संप्रभुता व सुरक्षा पर खतरा बढ़ गया है| किसी भी डिजिटल पहल के द्वारा अपने भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के ऊपर किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र के तत्वों के द्वारा उपनिवेश स्थापित करने देना और यह कहना कि यह अच्छा काम है, देश हित में नहीं हो सकता है| उपनिवेशवाद के प्रवर्तकों की तरह ही साइबरवाद व डिजिटल इंडिया के पैरोकार खुद को मसीहा के तौर पर पेश कर रहे हैं और बराबरी, लोकतंत्र एवं मूलभूत अधिकार के जुमलों का मंत्रोचारण कर रहे हैं| ऐसा कर वे अपने मुनाफे के मूल मकसद को छुपा रहे हैं|
दूसरे कई देशों ने आधार जैसी परियोजनाओं पर जो कदम उठाए उनके अनुभवों को दरकिनार करके आधार पर चार जजों का अधूरा फैसला प्रतीत होता है। इसने आकड़ों के राष्ट्रवाद की विचारधारा को नकार दिया है। इस विचारधारा के तहत यूरोप में जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन के अलावा अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस तरह की परियोजनाओं को रोक दिया गया है. अब तो यह स्पष्ट है कि आधार परियोजना और आधार कानून राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट बन गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह तय नहीं किया है कि यदि आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेका और संविधान मे द्वंद हो तो संविधान प्रभावी होगा की ठेका। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले स्पष्ट किया है कि संविधान प्रभावी होगा। बाकी के चार जजों ने इस मामले मे चुप्पी साध ली है। उनकी खामोशी चीख रही है और उनको कटघरे मे खड़ा कर रही है।
ठेका-राज से निजात पाने के लिए विशिष्ट पहचान/आधार संख्या जैसे उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना एक तार्किक मजबूरी है. फिलहाल देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार परियोजना का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है. आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेके का एक मामला दिल्ली हाई कोर्ट मे लंबित है। सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की पीठ को अभी तय करना है कि आधार कानून संविधान सम्मत है या नहीं।
अगले चुनाव से पहले एक ऐसे भरोसेमंद विपक्ष की जरुरत है जो यह लिखित वायदा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस और अन्य देशों कि तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के देशवासियों को बायोमेट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से आज़ाद करेगी।
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लेखक 2010 से आधार संख्या-NPR-वोटर ID परियोजना व गुमनाम चंदा विषय पर शोध कर रहे है। इस सबंध मे संसदीय समिति के समक्ष भी पेश हुए।