Monday, December 8, 2008

घर बैठो और घाव चाटो

हमारी मुंबई कहती है कि पाकिस्तान पर तत्काल हमला करो और उसे मिट्टी में मिला दो। आतंकवाद से लड़ने का यही अमेरिकी तरीका है. लेकिन अमेरिका कहता है कि पागलपन मत करो। हमारी तरह तुम उसके लायक नहीं हो। पागल होने के लिए हथियार और पैसे चाहिए जो तुम्हारे पास नहीं है। घर बैठो और घाव चाटो।

पढ़ी-लिखी और खाती-पीती मुंबई बुधवार की शाम मोमबत्ती लेकर गेट वे ऑफ इंडिया पहुंची। हजारों की तादाद में। कहते हैं, लाख से दो लाख लोग वहां शाम से रात तक एक साथ नहीं तो अलग-अलग समय पर आए। जिन टीवी एंकरों और उनके संपादकों ने भारत में जन आंदोलन में जनता का शामिल होना नहीं देखा है उनने इस उमड़ाव को अभूतपूर्व कहा।सही है कि इस मुंबई को कोई राजनीतिक पार्टी या संगठन ढो के नहीं ले गया था। वहां जो भी आए थे अपनी आंतरिक मजबूरी और मर्जी से आए थे। आंतकवाद के विरूद्ध घर से निकल कर अपना गुस्सा निकालने और आक्रोश जताने का आवाहन उनसे सभ्य समाज की स्वयंसेवी संस्थाओं ने किया था। हाथ में जलती मोमबत्तीयां लेकर चलना-हम होंगे कामयाब जैसे अंग्रेजी से अनुदित गीत गाना, हाथ में तख्ती पर अपना संदेश या नारा लिखना- ये- सब जन आंदोलनों के नहीं- विशेष अभियानों के दृश्य हैं। संतोष की बात यही है कि ऐसे अभियानों में शामिल होने वाले सभी लोग वहां आए थे इससे वह जन उभार लग रहा था।

सभी कुछ न कुछ कहना चाहते थे। सभी टीवी चैनलें माइक लिए उनके सामने खड़ी थीं। दिक्कत यही थी कि उनके पास कुछ सेंकेंड से ज्यादा समय नहीं होता था और बोलने वालों में घंटों के बारूद भरी थी। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह अपने फलीभूत होने और धन्यता महसूस करने का अवसर होता है जब लोक- महत्व की भयावह दुर्घटना के बाद लोग अपनी एकजुटता दिखाने और अपनी बात कहने को खुद ही इस तरह इकट्ठा हों। यह भावना निश्चित ही सलाम करने लायक है। लेकिन वहां जो कहा और चाहा गया उससे साफ है कि संकट के क्षणों में हमारा पढ़ा-लिखा सभ्य समाज भी कितना विचलित और दिग्भ्रमित हो सकता है।

आंतकवादी हमले के शिकार ताज होटल के सामने गेट वे ऑफ इंडिया पर आए लोगों और उनकी मांगों के बारे में उन्हीं में से अंग्रेजी भाषी एक जवान ने एक चैनल पर कहा- मैं अपने पर शर्मिंदा हूं। यहां आए इन सभी लोगों पर शर्मिंदा हूं। भारत में आतंकवादी दुर्घटनाएं बरसों से हो रही हैं। चौराहों, सड़कों, रेलों, बाजारों में बम फटते आ रहे हैं और हजारों लोग मरे हैं। लेकिन यह पहली बार हुआ है पांच सितारा होटलों पर हमले हुए हैं और अमीर लोग मारे गए हैं और ये लोग मोमबत्तियां लेकर यहां इकट्ठे हो गए हैं. अभी कुछ महीनों पहले दिल्ली में बम फटे थे तो कौन आया था यहां? आज के बाद ये लोग भी यहां नहीं आएंगे। इस पर उसके पास खड़े लोगों नं कहा- आएंगे। लोग उसका बोलते जाना पसंद नहीं कर रहे थे। वह अपनी बात पूरी करता इसके पहले ही माइक उसके सामने से हटा लिया गया।

उस जवान ने ठीक कहा था। आंतकवाद का सीधा हमला पहली बार इंडिया पर हुआ है और खाते-पीते सुरक्षित लोगों का सभ्य संसार टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे भयभीत और चिंतित हैं और सुरक्षा की मांग करते हुए सड़कों पर निकल आए हैं। भीड़ में खड़े हैं, क्योंकि भीड़ बड़ी सुरक्षा देती है। वे लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए निकम्मे नेताओं का खून मांग रहे हैं। उन्हें जेड सिक्यूरिटी और मेरे स्कूल जाते बच्चों की कोई सुरक्षा नहीं-गुससे में एक मां ने अंग्रेजी में पूछा।

कॉलेज जाते एक लड़के ने कहा- ये मनमोहन सिंह क्या बोलता है, मुझे समझ नहीं आता। ऐसे काम नहीं चलेगा। हमें मुशर्रफ जैसा कोई स्मार्ट डिक्टेटर चाहिए, जो तत्काल कड़ी कार्रवाई कर सके। एक तगड़े डिक्टेटर की मांग कई लोगों ले की, क्योंकि मुंबई पर हुए आतंकी हमले का मुंहतोड़ और सबसे लोकप्रिय जवाब यही था कि पाकिस्तान पर तत्काल हमला करके उसे मिट्टी में मिला दिया जाए। अमेरिका पर 9/11 हुआ तो उसने इराक और अफगानिस्तान पर हमला करके उन्हें मिट्टी में मिला दिया। उसके बाद अमेरिका पर हमला करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई।

उस शाम गेट वे ऑफ इंडिया पर आतंकवाद से लड़ने में सफल होने वाला देश अमेरिका ही था। इराक और अफगानिस्तान पर बुश के हमले आदर्श थे, जिनका अनुसरण भारत को करना चाहिए। अमेरिका और ब्रिटेन पर एक के बाद आंतकवादी हमला नहीं कर सके, क्योंकि उनने मुंहतोड़ जवाब दिए। कड़े कानून बनाए। भारत को भी यही करना चाहिए। तत्काल। हम सब उसके साथ हैं। भारत माता की जय। वंदे मातरम। पाकिस्तान मुर्दावादी के नारे चारों तरफ से लग रहे थे। पढ़ी-लिखी और खाती-पीती मुंबई को एक स्मार्ट और शक्तिशाली डिक्टेटर की तलाश थी जो पाकिस्तान पर हमला करके उसके धुर्रे बिखेर दे, ताकि मुंबई के भले लोग सुरक्षित महसूस कर सकें और उन पर हुए हमले का बदला लिया जा सके।
हमारे राजनेता निकम्मे हैं और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में ठीक से काम नहीं होते तो किया क्या जाए? चैनल वालों ने लोगों से पूछा। किसी ने भी नहीं कहा कि कोई राजनेता और लोकतंत्र काम कर सकता है। पढ़े- लिखे डिग्रीधारी लोगों की लोकसेवी पार्टी बनाने से लेकर अनेक सुझाव दिए गए। कुछ लोगों ने कहा कि कॉरपोरेट और सिलेब्रिटीज को साथ आना चाहिए। कोई अंग्रेजी चैनलों के एंकरों और संपादकों को कुछ करने को कह रहा था। दो-तीन लोगों ने बड़ी गंभीरता के साथ सुझाव दिया कि टाटा को महाराष्ट्र, अंबानियों को गुजरात और इस तरह के एक-एक कॉपोरेट को एक-एक राज्य मैनेज करने को दिया जाना चाहिए। बाबुओं के बजाय सिपाहियों और कमांडो की तनखा बढ़ा देनी चाहिए। शहीदों के परिवारों को लाखों नहीं करोड़ों रूपए दिए जाने चाहिए। देश का कामकाज चलाने के लिए बिलकुल दफतरी ढंग के सुझाव और व्यवस्था बताई गई। राजनेता निकम्मे और कॉपोरेट जिम्मेदार, लोकतंत्र अप्रभावी और तानाशाही और कंपनी व्यवस्था बेहतर बताई गई।
इक्का-दुक्का लोग लोकतंत्र को सुधार कर प्रभावी बनाने वाले भी निकले। एक सज्जन तो माहात्मा गांधी बन कर ही आए। अंग्रेजी बोलने-चालने और गुस्साए उन लोगों में गांधी ही एक प्रतीक था जो खड़ा रह सका और चल-फिर सका। नहीं तो पाकिस्तान पर हमला करने और डिक्टेटर को राज सौंपने की मांग करने वाले उन लोगों में समझदारी बड़ी मुश्किल से मिल सकती थी। चैनलों की मांग थी कि इन लोगों का गुस्सा समझो और उनकी आहत भावनाओं का सम्मान करो। ये लोग बता रहे थे कि टीवी चैनल अपने पढ़े-लिखों और खाते-पीते लोगों में कैसा समाज बना रहे हैं। कितनी और कैसी इनकी जानकारी है और चीजों की कितनी और केसी समझ है। अपनी सुरक्षा की भावना के चूर-चूर हो जाने के बाद अच्छे-भले लोग भी किस तरह घबरा जाते हैं। और अपने टीवी चैनल?

ताज और ओबराय होटलों में आतंक मचाने के पहले दो आतंकवादी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस गए थे। यह स्टेशन ताज से भी बड़ी धरोहर है और लाखों लोग रोज इससे आते जाते हैं। इस भीड़ भरे रेलवे स्टेशन पर आंकतवादियों ने देखते-देखते छप्पन लोगों को मार दिया। वहां बाबा आदम के जमाने की बंदूकों वाले सिपाही थे। वह तो उद्घोषणा करने वाले एक झेंडे साब ने आतंकवादियों को गोली चलाते देख लिया और बार-बार चिल्ला कर लोगों से भागने और आती रेलगाड़ियों में यात्रियों से पीछे लौटने की अपील की। लोग बच गए और खाली प्लेटफार्म छोड़ कर आतंकवादी बाहर निकले। यहीं से वे कामा हास्पिटल गए। करकरे, काम्टे, सालस्कर आदि पर लोलियां चलाईं। गाड़ी लेकर भागे। गिरगांव चौपाटी पर एक मार गया और दूसरा पकड़ा गया। लेकिन इस हमले की न तो किसी के पास फुटेज थी न तीन दिन तक किसी ने सीसीटीवी को फुटेज प्राप्त करने की कोशिश की। सब ताज और ओबराय पर कैमरे लगाए बैठे रहे। नरीमन हाउस पर भी उतना ध्यान नहीं दिया गया।

अंग्रेजी चैनलों पर तो छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हमले का जिक्र तक नहीं होता था। आखिर एनडीटीवी की बरखा दत्त को फिल्मकार और सांसद श्याम बेनेगल ने कहा कि `आपके कवरेज तक में वर्ग चरित्र प्रकट होता है। पहली और सबसे बड़ी दुर्घटना छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हुई और वहीं सबसे ज्यादा लोग-छप्पन-मारे गए। लेकिन उन चेहराविहीन लोगों को आप दिखाते तक नहीं।´ कहां से दिखाते? न फुटेज था न सहानुभूति थी न आतंकवादी हमले की समझ थी। वे तो इसे भारत का 9/11 कह रहे थे। ताज होटल वल्र्ड ट्रेड सेंटर और ओबराय पेंटागन। आतंकवादी इन्हीं को नष्ट करने आए थे। अमेरिका में वे सफल हुए। हमारे वीर कमांडों ने यहां उन्हें मार गिराया।

मुंबई का ताज होटल इंडिया के धनपतियों और खाते-पीते लोगों के गर्व और संपत्ति का प्रतीक है। वह बड़े लोगों की धरोहर है, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस भी धरोहर है, पर ऐसे लोगों की जिनके पास अपने मृतकों को दफनाने के पैसे नहीं हैं। वह उन्हीं लोगों की धरोहर है जो सन अस्सी से किसी न किसी तरह के आतंकवाद के शिकार हो रहे हैं। मुंबई में भी उत्तर प्रदेश जाती रेलगाड़ी के छप्पन लोगों को मार कर आतंकवाद ताज और ओबराय होटलों में पहुंच सका। गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्ती जलाने वालों को छत्रपति शिवाजी टर्मिनस में मरने वाले किसी असहाय शिकार की याद थी? किसे थी? आतंकवादी वहां आठ किलो का बम छोड़ गए थे। जो ठीक सात दिन वाद लावारिस सामान में मिला और नाकाम किया गया, क्योंकि इस्तीफा देते मुख्यमंत्री वहां आए थे। नहीं तो लावारिस सामान में वह फटता और न जाने कितने लावारिस लोगों की जान ले लेता।

प्रभाष जोशी
08 December, 2008
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Sunday, November 23, 2008

Motihari awaits Central Univarsity

Farmers offer land for setting up Central varsity

PATNA: Land acquisition has proved to be a hard nut to crack for state governments across India with farmers not willing to part ways with land. In extreme cases (read Singur), it has also led to bloody battles.

Bihar's East Champaran district, however, appears to be on the course of adding a totally different chapter on this front. For, the farmers of this district have made a beeline to district magistrate's office for providing their land for setting up a Central university.

This, after CM Nitish Kumar during his visit to Motihari, the district headquarters, on November 20, urged locals to provide 1,000 acre of land for setting up a Central university. He also promised that farmers willing to give land would be compensated according to the new land acquisition policy.

His assertion did wonders as within two days of this announcement the office of the district magistrate received proposals for land measuring well over 1,200 acres.

"People of Bihar have understood the importance of development and CM's announcement that farmers would be adequately compensated gave impetus to it," Motihari BJP MLA Pramod Kumar said.

Ramashray Singh, local leader and former MLA of erstwhile Sugauli assembly constituency, echoed Kumar and said, "Local farmers have realised that setting up a Central university would bring many a benefits hence they came forward for giving land."

Incidentally, the land on which this university would be set up falls between Motihari Bapu Dham and Semra railway stations under the Muzaffarpur-Narkatiaganj section and villagers of Ajgari, Mahmadpur, Siswania, Gobri, Mokhlishpura and Pachrukha have come forward for giving land to this ambitious project.

"Getting adequate compensation is just one of the factors, but what has inspired us is the fact that this area has not witnessed any development since independence. Setting up a Central university would certainly address this problem to a great extent," said former Mukhiya of Siswania Panchayat Sheikh Iqbal who is willing to part ways with 15 acres of his land for the project.

And Iqbal is not alone with such a positive mood rather many villagers of Siswania and adjoining villages too spoke almost on the same line.

Encouraged by the response of these villagers, most of whom are farmers, the district administration will be sending a proposal to the state headquarters on Monday itself regarding likely availability of the land needed for the proposed Central university.

"The way things have moved, we expect to complete the land acquisition work within six to nine months," East Champaran DM Narmadeshwar Lal told TOI over phone on Sunday.

He said that the proposal so far received was well over 1,000 acres of private land despite the fact there was already over 450 acres of government land available in the area.

The demand for setting up a Central university in East Champaran, from where Mahatma Gandhi started his movement way back in 1917, is being raised for quite some time. Local BJP MLA Pramod Kumar had earlier written to the Centre raising this demand. The chief minister's announcement that the state would pursue Centre for setting up a Central university here after acquiring land has instilled a sense of hope among the locals.

TOI

Controversy over Justice R.M. Lodha's Appointment as Supreme Court Judge

Patna High Court Chief Justice R.M. Lodha's Appointment to the Supreme Court is being contested by the Union Law Ministry

Union Government's decision to suggest a rethink on the move by Chief Justice of India (CJI)to propose the names of A K Ganguly, Chief Justice of Madras High Court, R M Lodha, Chief Justice of Patna High Court, and H L Dattu, Chief Justice of Kerala High Court, for elevation to the apex court has created a stalemate.

An advocate has moved the Supreme Court for a declaration that the President is bound to issue warrants of appointments to the three judges, recommended by the collegium headed by Chief Justice of India (CJI) K.G. Balakrishnan.

In his writ petition, R. K. Kapoor said that as per the various apex court judgments the recommendations of the judiciary on appointment of judges were binding on the executive. If the executive sat on the matter or delayed the appointment, the apex court could issue appropriate directions for performance of those functions in the public interest.

“If there is a deadlock between the judiciary and the executive on the issue of appointment of judges to the apex court, as a result of which the vacancies continue [and] arrears of cases go on piling up, the deadlock has to be broken by the judiciary itself by issuing appropriate directions.”

Controversy

The petitioner said he was concerned at the controversy over the elevation of the Chief Justices of the Kerala, Madras and Patna High Courts, H.L. Dattu, A K Ganguli and R.M. Lodha, to the Supreme Court, with the government sending back the files to the CJI and the collegium reiterating its earlier recommendations.

The petitioner cited the apex court ruling in the SC Advocates on Record Association vs. UOI case, in which a nine-member Constitution Bench accorded primacy to the collegium in judicial appointments saying “The opinion of the CJI, forwarded in the manner prescribed, shall be primal. No appointment can be made by the President under Articles 124(2) and 217(1) unless it is in conformity with the opinion of the CJI.”

On the government claim that seniority of some High Court Chief Justices was overlooked, the petitioner quoted the Constitution Bench’s observation: “The appointment to the Supreme Court shall be by ‘selection on merit.’ Inter se seniority amongst judges in their respective High Courts has to be kept in view while considering the judges for elevation to the Supreme Court.”

Kapoor said: “In view of the several judicial pronouncements, the Centre cannot withhold the files containing the collegium’s proposal on elevation of the three High Court Chief Justices.”

Justice Lodha had assumed office of Chief Justice, Patna High Court on 13th of May 2008.

The Supreme Court on November 21 declined to give an urgent hearing to a petition seeking direction to the government to go by the advice of a panel headed by the CJI on the issue of appointment of apex court judges. When the petition was mentioned, a Bench headed by Chief Justice K G Balakrishnan, showed its disinterest in hearing the matter on an urgent basis.

The Bench also questioned the advocate for his submission that the government was sitting on the file cleared by the collegium, a panel of five judges, for the elevation of three Chief Justices of High Courts to the apex court.

"Who is sitting over the file," the Bench wanted to know from the advocate who filed the petition.

Realising that the court was not inclined to hear the matter, advocate R K Kapoor who has filed the petition said he will wait for the matter to be heard in the routine course on January 5, 2009.

The petition filed by the advocate has contended that the President was bound to go by the advice of the CJI-headed collegium on appointment of apex court judges. Quoting the Constitution and judicial pronouncements, the advocate has maintained that the Supreme Court's collegium, a panel of judges headed by the CJI, has the final say on elevation of High Court chief justices' elevation to the top court and not the PMO or any other executive authority.

The government had sent back the file on the elevation proposal to the collegium for a rethink on the ground that three other senior HC Chief Justices — A P Shah (Delhi High Court), A K Patnaik (Madhya Pradesh) and V K Gupta (Uttarkhand) — had been overlooked in the process.

मां गंगा! अब तुम राष्ट्रीय नदी हो

समग्रता की कमी है
गोपाल कृष्ण

आखिरकार, भारत सरकार ने महसूस कर लिया कि गंगा को राष्ट्रीय नदी मान लेना चाहिए. राष्ट्रीय होने के लिए जो जरूरी सरकारी उपाय हैं वे पूरे किये जाएंगे और किसी दिन धूमधाम से फाईलों में गंगा की बजाय नेशनल रीवर गंगा लिखा नजर आने लगेगा. लेकिन राष्ट्रीय होने की यह चिंता इतनी देर से क्यों हुई जब यह भविष्यवाणी की जा रही है कि सन २०२५ तक गंगा का पानी सूख जाएगा.

गंगा नदी तो शायद रह भी जाए लेकिन वह गंगा नहीं रह जाएगी. एक सरकारी व्यवस्था ६० साल की कोशिशों के बावजूद भी जितने लोगों का भरण-पोषण नहीं कर पायी उससे ज्यादा लोगों का भरण-पोषण गंगा अपने दम पर करती आयी है. दुनिया की १/८ आबादी गंगा मैया के वरदान पर निर्भर है. हर १० मे ४ भारतीय को मां गंगा पालती है. भारत ही नहीं, अब पड़ोसी देश हो चुके बांग्लादेश में भी गंगा लोगों को रोजी-रोटी देती है. ऊपर नेपाल और भूटान भी गंगा के प्रभाव और प्रसाद से अछूते नहीं है. एक नदी मां का दर्जा ऐसे ही थोड़े पा जाती है. मां होने के लिए जिस समग्र सेवा का भाव चाहिए वह गंगा निर्बाध और अबाध रूप से अपने बेटों के लिए करती आयी है. सदियां आयीं और गयी लेकिन सगरपुत्रों को तारने से लेकर आज तक कोटि-कोटि जनों को गंगा ने पाला-पोसा और इस लोक ही नहीं उस लोक में भी अपने पिता के साम्राज्य में स्थान दिलवाया. लेकिन आधुनिक विकास की अंधी दौड़ ने उस प्राणधारा को ही काटने का काम शुरू कर दिया जिससे कोटि-कोटि जन इस लोक और उस लोक में सम्मानजनक स्थान पाते थे. औद्योगिक पागलपन की एक ऐसी अंधी दौड़ शुरू हुई कि हमारे लिए गंगा बिजली बनाने, नाला गिराने, औद्योगिक कचरा बहाने तक सीमित होता गया. इन्हें रोकने की राजनीति हुई, आंदोलन हुए लेकिन कभी रूका कुछ नहीं. मानों गंगा ने भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था. अगर लोग यही चाहते हैं कि गंगा विदा हो जाए तो फिर गंगा यहां जबर्दस्ती धरती पर क्यों बनी रहे?

ऐसे मुश्किल दौर में गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा क्षणिक तौर पर सुकून तो देता ही है. लेकिन इस घोषणा में वह समग्रता नहीं है जिसकी आज के समय में सबसे ज्यादा जरूरत है. तात्कालिक राजनीतिक परस्थितियां देखें तो गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करके प्रधानमंत्री ने एक तीर से तीन शिकार किया है. उनका पहला शिकार हिन्दू वोट बैंक है. दूसरा शिकार वे हिन्दूवादी नेता और आंदोलनकारी हैं जो गंगा बचाने का आंदोलन चला रहे थे. और इस घोषणा का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण शिकार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं. इस घोषणा से मायावती की बहुउद्देश्यीय गंगा एक्सप्रेसवे खटाई में पड़ सकती है क्योंकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ ही अब बात केवल नदी की धारा और प्रदूषण तक सिमटकर नहीं रहेगी. बात पूरे गंगा बेसिन को बचाने की होगी. लेकिन कैसे? पानी बचाने की योजना बिना माटी बचाए कैसे संभव होगी? माटी और पानी बचाने के लिए जीवन दर्शऩ को भी बचाने की जरूरत होगी, उसे खारिज करके जिस गंगा को राष्ट्रीय बना देंगे तो वह कितनी राष्ट्रीय रह जाएगी?
प्रधामंत्री की इस घोषणा में सोनिया गांधी की सलाह साफ दिखाई दे रही है. सितंबर की शुरूआत में सोनिया गांधी बनारस गयी थीं. इस साल बनारस में एक ऐसी घटना हुई जिसे लेकर गंगा के प्रति संवेदनशील बनारसी लोग बहुत चितिंत हैं. वह यह कि पहली बार शायद गंगा और बनारस के इतिहास में ऐसा हुआ है कि गंगा ने अपना पाट छोड़ दिया था. इसी वक्त में सोनिया गांधी का बनारस जाना अच्छा मौका था कि लोगों ने अपनी गंगा चिंता उनके सामने रखी. वीरभद्र मिश्र ने बहुत कारूणिक अंदाज में सोनिया गांधी को याद दिलाया कि कैसे राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे पहला बड़ा निर्णय यही लिया था कि गंगा नदी को कैसे साफ बनाया जाए. इसके लिए उन्होंने १९८५ में गंगा एक्शन प्लान बनाने की घोषणा की थी. यह एक्शन प्लान सरकार के साथ जनभागीदारी करके गंगा को बचाने की मुहिम थी. बीरभद्र मिश्र ने यही सब सोनिया गांधी को याद दिलाया. सोनिया गांधी भी भावुक हो गयीं.

वे दिल्ली लौटकर आयीं तो जल संसाधन मंत्री से कहा कि वे इस बारे में कुछ करें. जल संसाधन मंत्री ने पर्यावरण मंत्रालय के साथ मिलकर एक बैठक की. बैठक में तय किया गया कि गंगा को समग्र रूप से देखने की जरूरत है. अभी गंगा राज्यों में बंटी हुई है. अगर गंगा को संरक्षित रखना है तो एक ऐसा प्राधिकरण बनाना चाहिए जिससे गंगा रक्षा के लिए लागू की जा रही सारी योजनाओं की समीक्षा हो सके और नयी योजनाओं को लागू किया जा सके. गंगा की कुल लंबाई २५१० किलोमीटर का समग्र रूप से अध्ययन किया जाए. आम सहमति बनने के बाद प्रधानमंत्री ने ४ नवंबर को यह घोषणा कर दी कि जल्द ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया जाएगा. इसका मतलब है कि गंगा को अलग-अलग राज्य सरकारें अभी तक प्रोजेक्ट के रूप में देखती और उसके पानी के उपयोग-दुरूपयोग का निर्णय लेती थी. राष्ट्रीय प्राधिकरण बन जाने के बाद अब यह प्राधिकरण ही गंगा के बारे में ही सारे निर्णय लेगा.

अगर सिर्फ इतना भर होने से ही गंगा राष्ट्रीय नदी हो जाती हैं तो फिर उम्मीद की किरणें एक बार फिर धूमिल हो जाती है. महत्वपूर्ण तो यह है कि क्या गंगा के प्रति सरकार का नजरिया बदल जाएगा? क्या औद्योगीकरण की नीतियों में कोई बदलाव आयेगा? क्या गंगा को केवल गंगा के रूप में ही देखा जाएगा या फिर उसकी सहायक नदियों के बारे में कोई विचार किया जाएगा? उत्तर में गंगा यमुना, रामगंगा, गोमती, शारदा, कोसी, महानंदा, घाघरा और गंडक को अपने साथ लेती है तो दक्षिण से आनेवाली चंबल, केन, बेतवा, सोन, दामोदर को साथ लेकर चलती है. अगर इन नदियों की दुर्दशा जारी रही तो अकेले गंगा को राष्ट्रीय नदी बना देने से क्या हो जाएगा? क्या उस दृष्टिकोण में कोई बदलाव आयेगा जो नदी को संसाधन मानकर उसका दुरूपयोग करता है? यह मानसिकता भी तो इसी प्रणाली की उपज है. अगर सरकारी महकमा गंगा को केवल संसाधन ही मानता रहा तो इस तरह की घोषणाओं का क्या मतलब है?

पहले भी प्रधानमंत्री की देखरेख में बाघों को बचाने का प्राधिकरण काम कर रहा है. क्या हुआ? कितने बाघ बचे? यह बात सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालय का सीधा हस्तक्षेप रहने से प्राधिकरण उतना लापरवाह नहीं हो पायेगा जैसा कि आमतौर पर कोई सरकारी विभाग हो जाता है. फिर भी राष्ट्रीय नदी की राजनीतिक घोषणा से आगे निकलकर बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है. सरकार और राजनीतिक दल दोनों को अपनी नदियों, मिट्टी, साधन और संसाधन के बारे में उधार की मानसिकता से सोचने की जरूरत नहीं है. नदी हमारी है, लोग हमारे हैं, हम लोगों को ही नदी बचानी है ताकि हम बचे रहें. सरकार में बैठे अफसर और कारकून जब तक इस हकीकत को स्वीकार नहीं करेंगे ऐसी घोषणाओं से कुछ खास हासिल नहीं होगा, सिवाय इसके कि अगली बार सरकार में आने के लिए कुछ वोटों की व्यवस्था और हो जाए. ऐसे सतही राजनीतिक दृष्टिकोण से गंगा राष्ट्रीय नदी भले ही जाए आम भारतीय का भरण-पोषण करनेवाली मां शायद ही रह पाये. गंगा के बारे में जब हम सोचें तो यह सोचें कि यह राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय नदी है और सीमाओं में बंटे लोगों में बिना भेदभाव चार देशों के लोगों को सम्मानजक जीवन ही नहीं, मोक्ष का भी रास्ता दिखाती है.

Lalu inaugurates Bikramganj-Piro & Piro-Ara-Sasaram rail section

Railway minister also inaugurated the 18-km Bikramganj-Piro rail section and Piro-Ara-Sasaram section

Sasaram (Bihar), Nov 23: Railway Minister Lalu Prasad laid the foundation stone wagon and coupler factory at Dalmianagar in Sasaram.

The proposed factory at Dalmianagar would manufacture high axle-load wagons and bogies couplers having 32.5 tonnes axle-load capacity.

Describing railways as the lifeline of the country, Lalu said the railway would generate electricity on its own to run its services.

The minister also inaugurated the 18-km Bikramganj-Piro rail section and Piro-Ara-Sasaram section.

Raghvendra Pratap Singh, RJD's likely candidate from Ara

Delimitation prompting several RJD MPs to seek new seats

Patna, (Bihar Times): As the RJD chief and railway minister, Lalu Yadav, is busy allotting seats for the coming election several sitting party MPs, including ministers, want change in their parliamentary constituencies.

Thanks to the delimitation many of them are feeling insecure. Prominent among them are Jai Prakash Narayan Yadav, Ram Kripal Yadav, Kanti Singh, Sadhu Yadav, Raghunath Jha http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=7993771111626478689
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According to reports Union minister Kanti Singh is now no more keen to contest from Ara. Rather she wants to shift to the newly hewed out Karakat parliamentary constitutency. This is simply because post-delimitation the caste equation would suit her in Karakat and not Ara. Lalu is thinking in terms of fielding an upper caste candidate from Ara. Former MLA, Raghvendra Pratap Singh, is likely to be the choice.

Union minister of state for water resources development, Jai Prakash Narayan Yadav, wants to move out from Munger. It is said that Jai Prakash fears that the state Janata Dal (United) president, Lallan Singh, may throw his hat as Barh and Mokamah assembly segments have been included in the Munger parliamentary seat. There is a sizeable upper caste voters in these two segments and this may tilt balance against Yadav.

The Patna MP, Ram Kripal Yadav, is thinking in the same term as Patna has now two constituencies: Pataliputra and Patna Saheb. Ram Kripal will be comfortable in Pataliputra but speculations are rife in the media that Lalu himself wants to contest the seat as it has sizeable Yadav population. Ram Kripal, in such a case, would opt for some other place, may be Patna Saheb.

Sadhu Yadav is also finding himself in a tight spot as his Gopalganj seat has been declared reserved.

Jailed MP Mohammad Shahabuddin is not likely to contest poll from Siwan this time. In that case his relative and former minister, Ejaz-ul-Haq, is likely to contest. Similarly the party is in the look out for a strong candidate from Madhepura as another jailed MP Pappu Yadav may not be able to contest.

RJD won 22 seats from Bihar in 2004 election while it won two from Jharkhand.

Saturday, November 22, 2008

'Development' unites political adversaries

Nitish, Paswan, Lalu 'unite' for Bihar's development

BEGUSARAI: For the first time after years, they shared the dais. That, however, didn't prevent Bihar politics' bigwigs -- CM Nitish Kumar (JD-U) and Union ministers Lalu Prasad (RJD) and Ram Vilas Paswan (LJP) -- from taking potshots at one another.

The occasion was the foundation-laying ceremony for the reconstruction of the closed Hindustan Fertiliser Corporation plant at Barauni. In keeping with the occasion, the trio swore they are united for the development of Bihar. But the political overtones were more than pronounced in their speeches.

Railway minister Lalu was the first to speak and he showered lavish praise on his cabinet colleague and Union fertiliser minister Paswan for reviving the closed fertiliser unit. ''It is only due to the massive effort of Paswan that this closed unit has been able to see this day,'' Lalu said and added there is no politics on the issue of development of Bihar which has been the subject of gross injustice during the last six decades.

Lalu also sought to pat himself as he said the railway ministry under him has given the state rail projects worth Rs 65,000 crore. ''But Nitishji claims all the projects were initiated when he was the railway minister,'' the RJD supremo said, taking a dig at Nitish.

Nitish said there were no differences on the issue of development among the three leaders. ''However, Laluji and Paswanji, being Union ministers, are better placed to put pressure on the Centre to take action against the Bihari-baiters in Maharashtra,'' he said.

Nitish did not forget to remind Lalu that when he (Nitish) was the railway minister, he used to invite both Lalu and Rabri Devi at official functions. ''But Laluji has not reciprocated probably fearing I will attack his policies,'' he said and assured Lalu that this would not happen.

Paswan, who laid the stone at the ceremony, said the days of caste and creed-based politics are over and ''it is high time we focussed on development of the state''. He said the plant is likely to start production by 2012.

13 Nov 2008
TOI

New saviours for Bihar?

Patna, Nov. 13: They had helped the Patna Municipal Corporation realise long-pending holding taxes from habitual defaulters. They also came to the rescue of the poor slum-dwellers when the local administration began razing their huts and shanties located in the state capital without making arrangements for their rehabilitation. With these feats in their kitty, eunuchs in the state seem to be a ray of hope for ridding Bihar of its evils.

And, now that top state leaders are still on the fence over the attacks on Bihari migrants, the saree-clad, heavily made-up transvestites have once again come forward to fight for their rights. Peeved at the role of the state leaders ~ now looking more concerned about playing the political game of one-upmanship than registering a strong protest ~ the eunuchs have resolved to strongly oppose the “atrocities” on the Bihari migrants soon.

Earlier this week, a large number of eunuchs under the banner of the Akhil Bhartiya Kinner Sabha gathered at Koelwar town in Bhojpur district, close to Patna, to at on their plans. The meeting chaired by Suresh Hizra alias Sheela, president of the organization, condemned the continuing hate campaign against Biharis by the MNS activists and assailed the leaders for their failure to muzzle divisive forces on the one hand and to curb such incidents on the other. “It's shameful that eunuchs have to take up the issue since nothing perceivable has been done by the leaders,” they said.

The issue ~ attack on Biharis ~ has left three top state politicians, RJD chief Mr Lalu Prasad, chief minister Mr Nitish Kumar, JD-U, and the LJP president Mr Ram Vilas Paswan locked in the game of one-upmanship as Biharis continue to be attacked. Their unity bid split barely hours after they came together sinking their political difference for this cause.

While all the five JD-U MPs have resigned from the Lok Sabha, the RJD chief has proposed that MPs and MLAs of all parties, including the ruling NDA and its chief minister Mr Kumar, should resign to launch a nation-wide campaign over the issue.

The LJP too has criticised the resignation of JD-U MPs saying: “They tried to present themselves as martyrs by simply trimming their nails”. “If they really are serious over this issue, the JD-U's Rajya Sabha members too must resign. Presently, only its Lok Sabha members have resigned when just four months of their term are left”.

Manoj Chaurasia
The Statesman

Friday, October 31, 2008

हिंदीपट्टी के छात्रों से गुज़ारिश


बिहार के नवनिर्माण को लेकर हरिवंश जी काफी सजग रहे हैं। उन्‍होंने प्रभात खबर के माध्‍यम से बिहार-झारखंड के शानदार भविष्‍य का ब्‍लूप्रिंट कई बार तैयार किया। यह पहली बार नहीं है, जब बिहार बनाने के लिए उन्‍होंने युवाओं को आवाज़ दी है। आप हरिवंश जी की बातें गंभीरता से सुनें। उन्‍होंने यह पत्र मोहल्‍ला में साझा करने के लिए भेजा है। कई मुलाकातों में उनसे ब्‍लॉग्‍स के बारे में बात हुई है और हर बार काफी उत्‍सुकता से उन्‍होंने इस माध्‍यम को लिया है: अविनाश

यह पत्र किसी राजनीतिज्ञ, चिंतक, विचारक या बुद्धिजीवी का नहीं। एक सामान्य पत्रकार का है, जिसने अपने कामकाज के दौर में मुंबई, हैदराबाद, पटना, कोलकाता, दिल्ली और रांची में समय गुजारा है। छात्र आंदोलनों से भी संबंध रहा है। जीवन के इन अनुभवों ने मौजूदा स्थिति पर हिंदी पट्टी के छात्रों, खासतौर से बिहार-झारखंड के छात्रों के नाम यह पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया : हरिवंश


आप छात्रों को शायद अपना इतिहास मालूम हो। आप उदारीकरण के आसपास या बाद की पौध हैं। उदारीकरण के पहले राजनीति विचारों, सिद्धांतों और वसूलों से संचालित होती थी। उदारीकरण के बाद की राजनीति, आर्थिक सवालों, प्रगति, विकास और बिजनेस के आसपास घूम रही है। यह विचार की राजनीति के दिनों का नारा है, 'जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है।' इस नारे में आपकी ताकत की कहानी लिखी हुई है। याद करिए, बिहार में '60 के दशक में पटना में छात्रों पर पहला गोलीकांड हुआ। देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई। महामाया बाबू ने छात्रों को जिगर का टुकडा कह आकाश पर पहुंचा दिया। फिर आया '74 का आंदोलन। इस आंदोलन ने देश की राजनीति की सूरत ही बदल दी। आंदोलन का लंबा सिलसिला है। फिर भी हिंदी प्रदेश अपनी पीडा और बदहाली से मुक्ति नहीं पा सके। इतिहास का सबक यही बताता है कि आपके इस तोड़फोड़ और विरोध आंदोलन से भी कुछ हासिल नहीं होनेवाला।

ऐसा नहीं है कि '74 के पहले बिहार, उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ भेदभाव नहीं होता था। 1980 के आसपास महाराष्ट्र के जानेमाने विचारक और संपादक माधव गडकरी ने तीखे सवाल उठाये थे, जिनका आशय था कि हिंदी भाषी पिछडे़ राज्यों के विकास का खर्च अन्य राज्य क्यों उठाएं। क्यों बंबई या महाराष्ट्र आयकर से अधिक कमायें और सेंट्रल पूल में पैसा दें। क्यों केंद्र से संसाधनों का बंटवारा गरीबी के आधार पर हो। और महाराष्ट्र का कमाया अधिक धन केंद्र के रास्ते हिंदी पट्टी के गरीब राज्यों के पास क्यों जाये। यह प्रश्न वैसा ही था जैसे परिवार में एक कमाऊ भाई, दूसरे बेरोजगार या कम कमानेवाले से पूछता है कि आपका बोझ हम कब तक उठाएं। आज राज ठाकरे हैं। कल वहां बाल ठाकरे थे। वह '60 के दशक में मुबंई से दक्षिण भारतीयों को भगाते थे। इसी दौर में दत्ता सामंत, यूनियन नेता हुए, जो मराठावाद की ही बात करते थे। पर जब बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीय भगाओ का नारा दिया और वहां उपद्रव हुए, तब दक्षिण के किसी राज्य में प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं हुई। दक्षिण के राज्यों ने क्या किया। इसके बाद दक्षिण के राज्यों ने अपनी ऊर्जा विकास में झोंक दी। सड़कें, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, प्रबंधन के संस्थान और नये-नये उद्योग धंधे। आज हालत यह है कि हैदराबाद, बेंगलुरू, चेन्नई वगैरह कई अर्थों में मुंबई से आगे निकल गये हैं। दक्षिण का कम्युनिस्ट केरल, आज देंग शियाओ पेंग के रास्ते पर है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, खुद पूंजीवादी निवेशक की भूमिका में है। एक कर्नाटक अकेले, आइटी उद्योग से आज 70 हजार करोड अर्जित कर रहा है। दक्षिण सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों की राजधानी बन गया है। दक्षिण के एयरपोर्टों पर सीधे दुनिया के महत्वपूर्ण देशों से विमान उड़ान भरते हैं। एक-एक राज्य में छह-आठ एयरपोर्ट हैं। जहाज से जुडे हैं। हैदाराबाद, बेंगलुरू के हवाईअड्डे विश्व स्तर के हैं। चार लेन - छह लेन की सड़कें हैं। बेहतर सुविधाएं हैं। बाल ठाकरे की शिवसेना ने मद्रासी भगाओ (सभी दक्षिण भारतीयों को मद्रासी कह कर ही संबोधित करते थे, जैसे सभी हिंदी भाषियों को बिहारी या भैया कह कर संबोधित करते हैं) नारा दिया, तो दक्षिण के राज्यों ने ट्रेन जलाकर, अपना नुकसान कर, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारकर जवाब नहीं दिया। क्या बिहार में ट्रेन जलाने, उपद्रव करने, अपना नुकसान करने से राज ठाकरे सुधर जाएंगे? क्या वह ऐसे इंसान हैं, जिनकी आत्मा है? या संवेदनशीलता है? बिहार के आक्रोश की यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है। यह श्मशान वैराग्य जैसा है। जैसे श्मशान में चिता जलते देख, वैराग्य बोध होता है। संसार छोड़ने का मानस बनता है। पर श्मशान से बाहर होते ही वहीं प्रपंच, राग-द्वेष। दुनिया के छल-प्रपंच। ऐसा कहा जाता है कि श्मशान वैराग्य भाव, मनुष्य में ठहर जाए तो वह जीवन में संकीर्णताओं से ऊपर उठ जाएगा। उसका जीवन तर जाएगा। बिहार में हो रही हिंसा, बंद और तोड़फोड़ अंग्रेजी में कहें, तो क्रिएटिव रिसपांड आफ द क्राइसिस नहीं है। हम बिहारी, झारखंडी या हिंदी भाषी, गंभीर संकट का रचनात्मक जवाब कैसे दे सकते हैं।

अपना नुकसान कर हम अपनी कायरता का परिचय दे रहे हैं। अपनी पौरुषहीनता दिखा रहे हैं। अगर सचमुच हम दुखी, आहत और अपमानित हैं, तो दुख, पीड़ा और अपमान को एक अद-भुत सृजनात्मक ऊर्जा में बदल सकते हैं। चुनौतियों को स्वीकार करने की पौरुष दृष्टि ही इतिहास बनाती है। इस घटना से सबक लेकर हम हिंदीभाषी भविष्य का इतिहास बना सकते हैं। जिस तरह दक्षिण ने अपने आर्थिक चमत्कार से दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। बेंगलुरू को संसार में दूसरा सिलिकन वैली कहा जा रहा है। उससे बेहतर चमत्कार और काम, हम कर सकते हैं। क्या आप छात्रों को मालूम है, कि हिंदीभाषी राज्यों के लड़के दक्षिण के इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? हमारे उत्तर के पैसे से दक्षिण के बेहतर अस्पताल, बेहतर इंजीनियरिंग कॉलेज, उत्कृष्ट संस्थाएं चल रही हैं। हजारों करोड़ रुपये प्रतिवर्ष चिकित्सा, शिक्षा के मद में, उत्तर के गरीब राज्यों से देश के संपन्न राज्यों में जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि हमारे यहां चिकित्सा, शिक्षा, इंजीनियरिंग वगैरह में सेंटर ऑफ एक्सीलेंस (उत्कृष्ट संस्थाएं) नहीं हैं। क्या हम ऐसी संस्थाओं को बनाने, गढ़ने और नींव रखने की बाढ़ नहीं ला सकते? अभियान नहीं चला सकते? नीतीश सरकार ने ऐतिहासिक काम किया है। लॉ, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, कृषि, मेडिकल वगैरह में बडे़ पैमाने पर बिहार सरकार ने संस्थाओं को शुरू किया है। इसके चमत्कारी असर कुछ वर्षों बाद दिखाई देंगे। पर ऐसी संस्थाओं की बाढ़ आ जाए, आप छात्र यह कोशिश नहीं कर सकते? बिहार के तीन नेता, आज देश में प्रभावी हैं। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार। आप छात्र बाध्य कर सकते हैं, इन तीनों नेताओं को। कैसे और किसलिए? आप बेचैन छात्र इनसे मिलिए और अनुरोध कीजिए। बिहार को गढ़ने और बनाने के सवाल पर, आप तीनों एक हो जाएं। आप तीनों नेता मिल जाएं, सिर्फ बिहार बनाने के सवाल पर, तो बिहार संवर जाएगा। इनसे गुजारिश करें कि आप तीनों के सौजन्य से बिहार में संस्थाओं की बौछार हो। आप छात्र सिर्फ यह एक काम करा दें, तो राज ठाकरे को जवाब मिल जाएगा। अशोक मेहता ने एक सिद्धांत गढा, 'पिछड़ी अर्थव्यवस्था की राजनीतिक अनिवार्यता'। इसी सिद्धांत पर आगे चलकर पीएसपी (पिपुल सोशलिस्ट पार्टी) का कांग्रेस में विलय हो गया। हमारे कहने का आशय यह नहीं कि लालूजी, रामविलास जी और नीतीशजी को आप युवा एक पार्टी में जाने को कहें बल्कि 'पिछडी अर्थव्यवस्था की राजनीतिक अनिवार्यता' के तहत बिहार के हितों के सवाल पर इन तीनों को एक साथ खडे़ होने के लिए आप विवश कर सकते हैं। यह याद रखिए कि कभी पटना मेडिकल कॉलेज, भारत के सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेजों में से एक था। देश में जितने एफआरसीएस डॉक्टर थें, उनमें से आधे से अधिक तब सिर्फ पटना मेडिकल कॉलेज में थे। पर आज क्या हालत है, उस संस्था की? साइंस कालेज जैसी संस्थाएं थीं। पर क्या स्थिति है संस्थाओं और अध्यापकों की? रोज नारे, धरने, प्रदर्शन, जुलूस। आप छात्र अगर शिक्षण संस्थाओं को सर्वश्रेष्ठ बनाने का अभियान चलाएं और इसके लिए सख्त से सख्त कदम उठाने के लिए सरकार को विवश करें, तो हालात बदल जाएंगे। आज की दुनिया में नौकरियों की कमी नहीं। योग्य और क्षमतावान युवकों की कमी है। मेरे युवा मित्र, इरफान और कौशल (जो आइआइएम, अहमदाबाद से पढे़ हैं और बड़ी नौकरियों के प्रस्ताव छोड़ कर बिहार में काम कर रहे हैं) कहते हैं, कि अगर दक्ष, पढे़-लिखे युवा मिलें, तो सैकड़ों नौकरी देने के लिए हम तैयार हैं। मेरे मित्र संतोष झा, मिकेंजी की एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं, जिसमें कहा गया है कि भारतीय शिक्षण संस्थाओं से अनइम्प्लायबल यूथ (नौकरी के अयोग्य युवा) निकल रहे हैं। इस फ़‍िज़ा को आप छात्र बदलिए। करोड़ों-अरबों रुपये शिक्षण संस्थाओं पर खर्च हो रहे हैं। अध्यापकों के वेतन-भत्तों में भारी इजाफा हुआ है, पर क्वालिटी एजुकेशन क्यों खत्म हो गया? अगर जात-पात और पैरवी के व्याकरण से ही आप शिक्षण संस्थाओं को चलाना चाहते हैं, तो याद रखिए, इन संस्थाओं से लाखों अयोग्य, अकर्मण्य और अकुशल पढे़-लिखे युवा निकलेंगे और वे रोजगार के लिए दर-दर भटकेंगें, याचक के रूप में। जीवन का एक और सिद्धांत गांठ बांध लीजिए - याचक अपमानित होने के लिए ही होता है। अपने अंदर की प्रतिभा, ईमानदारी, कठोर श्रम, निवेशक को जगाइए और दाता की भूमिका में आइए। आपको देश ढूंढेगा और पूजेगा। हम कहां-कहां और कब-कब और कितने आंदोलन करेंगे? बिहार बंद करेंगे? ट्रेनें जलाएंगे? इस हकीकत से मुंह मत चुराइए कि आज हिंदी भाषी राज्य लेबर सप्लायर राज्यों के रूप में ही जाने जाते हैं। मत भूलिए, असम और पूर्वोत्तर में कई बार बिहारियों पर हमले हुए, भगाये गये, वहां कर्फ्यू लगा। शिविरों में रहना पड़ा। अपमान, तिरस्कार और भय के बीच। जम्मू-कश्मीर में रेल लाइन बिछाने में सुरंगों में विस्फोट हो या आतंकवादी विस्फोट हो, बिहारी, झारखंडी या हिंदीभाषी मजदूर ही मारे जाते हैं। पंजाब और हरियाणा के खेतों में या फार्म हाउसों में, कितनी जिल्लत की ज़‍िंदगी झारखंडी-बिहारी मजदूर जीते हैं, आप जानते हैं? गुजरात हो या राजस्थान या दक्षिण के राज्य, झारखंडी-बिहारी मजदूरों की दुर्दशा आप देख सकते हैं। याद करिए, दो साल पहले का दिल्ली का वह दृश्य। छठ के अवसर पर बिहार आ रहे थे। स्टेशन पर भगदड़ हुई। दर्जनों बिहारी मर गये। दब-कुचल कर। भगदड़ में। हाल में असम में जो उत्पात हुआ उसमें झारखंड से गये लोगों के साथ क्या सुलूक हुआ? अपमान, तिरस्कार का एक लंबा विवरण है। क्या-क्या गिनाएं? पर तोड़फोड़, आगजनी, उत्पात सबसे आसान है। सबसे कठिन है, सृजन और निर्माण। अपने राजनेताओं को बाध्य करिए कि वे सृजन और निर्माण के कामों में राजनीति न करें। सरकार चाहे जिसकी हो, पर अगर वह शिक्षा संस्थाओं को दुरुस्त करने, सड़क बनाने, बिजली ठीक करने जैसे बुनियादी कामों में कठोर कदम उठाती है, तो उस पर राजनीति बंद कराइए। अगर इन संस्थानों में कमियां हैं, तो सरकार के कठोर कदमों के पक्ष में खडे़ होइए। अनावश्यक यूनियनबाजी, नेतागिरी और हर चीज में राजनीतिक पेंच लगाने की बिहारी संस्कृति के खिलाफ विद्रोह करिए। क्यों एक बिहारी बाहर जाकर अपने काम, उपलब्धि और श्रम के लिए गौरव पाता है, पर बिहार में वही फिसड्डी हो जाता है। क्योंकि बिहार की कार्यशैली, प्रवृत्ति और चिंतन में कहीं गंभीर त्रुटि है। इस त्रुटि को दूर करना अपमान की आग में झुलस रहे युवाओं की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बिहार में वह माहौल, कार्यसंस्कृति बनाइए कि हम बिहारी होने पर गर्व करें। बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में घुसना, टिकट न लेना, उजड्डता दिखाना, मारपीट करना, परीक्षा केंद्रों पर हजारों की संख्या में पहुंच कर चिट कराना, ऐसी आदतों को छोड़ने का हम सामूहिक संकल्प लें, क्योंकि इनसे मुक्ति के बाद ही बिहार के लिए नया अध्याय शुरू होगा। स्मरण करिए बिहार के इतिहास को। कई हजार वर्षों पहले जब सूचना क्रांति नहीं हुई थी, चंद्रगुप्त मौर्य ने आधुनिक भारत की नींव रखी। सबसे बड़ा साम्राज्य खड़ा किया। अफगानिस्तान तक। चाणक्य दुनिया के गौरव के विषय बने। अशोक के करुणा के गीत आज भी गाये जाते हैं। नालंदा की सुगंध आज भी दुनिया में है। तब के बिहार से हम अगर आज प्रेरित हों, तो दुनिया में हमारी सुगंध फैलेगी।

आप बिहारी, झारखंडी विद्यार्थियों से एक और निवेदन, याद रखिए देश के जिस किसी हिस्से में बिहारियों-झारखंडियों के साथ अपमान हुआ, वहां उनसे जाति नहीं पूछी गयी? बल्कि पहचान का एक ही फार्मूला है, बिहारी होना या झारखंडी होना या हिंदी पट्टी का होना। तो आप ऐसा ही माहौल बनाइए। यादव, भूमिहार, कुर्मी, राजपूत, ब्राह्मण, पासवान, आदिवासी, गैरआदिवासी या अन्य होने का नहीं? छात्रावासों में जातिगत मोर्चे तोड़ दीजिए। जाति के आधार पर अध्यापकों और नेताओं का समर्थन बंद करिए। काम करनेवाले और राज्य को आगे ले जानेवाले नेताओं के साथ खडे़ रहिए। जो नेता, विधायक इस बिहारीपन-झारखंडीपन के बीच बाधा बनें, उनके खिलाफ अभियान चलाइए। बिहार की राजनीति बिहार के लिए, झारखंड की राजनीति, झारखंड के लिए, कुछ ऐसी फ़‍िज़ा बनाइए, तब शायद बात बने।

विचारों की राजनीति के दौर में भाषा के प्रति प्रबल आग्रह था, तब के लिए वह नारा भी ठीक था, हिंदी में सब कुछ। पर आज उदारीकरण के बाद की दुनिया में यह नारा बेमानी है। अंग्रेजी पढ़‍िए। चीन से सीखिए। आप जानते हैं, गुजरे चार-पांच वर्षों में चीन में सबसे लंबी लाइन किन दुकानों पर लगती थी? 2001 के बाद चीन में अंग्रेजी सीखने की भूख पैदा हुई और किताब की उन दुकानों पर मीलों लंबी कतारें लगने लगीं, जहां आक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी-चीनी शब्दकोश उपलब्ध था। चीन ने यह प्रेरणा भारत से ली। 2000 के आसपास चीन के प्रधानमंत्री ने भारत आकर देखा। सॉफ्टवेयर उद्योग में भारत दुनिया में क्यों अग्रणी है? तब उन्हें बेंगलुरू देखकर लगा कि भारतीय युवा अंग्रेजी जानते हैं। इस कारण भारत साफ्टवेयर में चीन से आगे है। चीन ने भारत से सबक लेकर अपनी कमी को पहचान कर सृजनात्मक अभियान चलाया, अंग्रेजी सीखने का, ताकि चीन विश्वताकत बन सके। क्या हम बिहारी-झारखंडी या हिंदी पट्टी के लोग चीन के इस प्रसंग से सबक ले सकते हैं? अपने नेताओं और राजनीतिज्ञों को बाध्य करिए कि वे शिक्षा में अंग्रेजी को महत्व दिलाएं, उत्कृष्ट संस्थाओं को आमंत्रित करें। मेरे एक मित्र हैं, संजयजी। देशकाल संस्था के सचिव। इस संस्था ने मुसहरों-दलितों में उल्लेखनीय काम किया है। वह कहते हैं, मुसहर लोग जो खुद पढे़ नहीं है, शिक्षा के तीन प्रतीक बताते हैं -

(1) शहर
(2) टेक्नोलाजी, और
(3) इंग्लिश

उन्होंने जेएनयू विश्वविद्यालय दिल्ली की एक दलित छात्रा का अनुभव बताया। उसने कहा - मोबाइल (टेक्नोलॉजी), अंग्रेजी, वैश्विक दृष्टि (ग्लोबलाइजेशन) और शहर (अरबनाइजेशन) का असर नहीं होता तो मैं दलित लड़की जेएनयू नहीं पहुंचती। दलित चिंतक चंद्रभान बार-बार कह-लिख रहे हैं, अंग्रेजी, पूंजीवाद और शहरीकरण (अरबनाइजेशन) ही दलितों के उद्धार मार्ग हैं। इसलिए अंग्रेजी हिंदी पट्टी की शिक्षा में अनिवार्य हो।

दूसरा मसला, शहरीकरण (अरबनाइजेशन) का है। हाल में सिंगापुर में एक आयोजन हुआ भारत को लेकर। मिनी प्रवासी भारतीय दिवस। इसमें सिंगापुर के मिनिस्टर मेंटर (दो-दो बार पूर्व प्रधानमंत्री रहें और विश्‍व के चर्चित श्रेष्ठ नेताओं में से एक) ने कहा, भारत तेजी से प्रगति कर सकता है, पर उसे कठोर कदम उठाने पड़ेंगे। उन्होंने कहा, चीन आज एक करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष गांवों से शहरों में ले जा रहा है। शहरीकरण की प्रक्रिया तेज कर गांवों को शहर बना रहा है। उनके अनुसार, अगर भारत सुपर हाइवे, सुपरफास्ट ट्रेनें, बडे़-बडे़ हवाई अड्डे और बडे़ निमार्ण नहीं करता, तो वह इस दौर में पीछे छूट जाएगा। फिर उसके भाग्य होगा, खोये अवसरों की कहानी। ली ने पूछा कि सुकरात और ग्रीक के बुद्धिजीवी गांवों में नहीं, शहरों में रहते थे। गांव के स्कूलों को बेहतर बनाइए। देश के शिक्षण संस्थाओं को श्रेष्ठ बनाइए। ली की दृष्टि में भारत इसी रास्ते महान और बड़ा बन सकता है। ली ने दो हिस्से में अपनी आत्मकथा लिखी है। नेहरू जमाने के भारत का अदभुत वर्णन है। भारत ने कैसे अवसर खोये, इसका वृत्तांत है। ली, जीते जी किंवदंती बन गये हैं। उनकी आत्मकथा को, उन भारतीयों को ज़रूर पढ़ना चाहिए, जो भारत को बनाना चाहते हैं। अंत में महाराष्ट्र के ही मधु लिमये को उद्धृत करना चाहूंगा। चरित्र, सच्चाई, कार्य क्षमता और उद्यमशीलता के अभाव में आप कैसे सफल हो सकते हैं। आलस्य, समय की पाबंदी, अच्छी नीयत जिम्मेदार नागरिक के लिए आवश्यक सदगुणों का संपोषण आदि के बिना आधुनिक तकनीक के पीछे भागना मूर्खता है। वह कहते हैं, बेईमानी, भ्रष्ट आचरण, आलस्य, अनास्था, इन दुर्गुणों की दवा कंप्यूटर नहीं है। यह उन्होंने राजीव राज के दौरान लिखा था। अगर हम सचमुच हिंदी पट्टी के राज्यों का कायापलट करना चाहते हैं तो क्या हम इन चीजों से प्रेरणा?

युवा मित्रो, जीवन में कोई शार्टकट नहीं होता। परिश्रम, ईमानदारी, तप और त्याग का विकल्प, धूर्तता, बेईमानी, आलस्य और कामचोरी नहीं। यह दर्शन अपने इलाके के घर-घर तक पहुंचाइए। कहावत है, 'सूर्य अस्त, झारखंड मस्त'। दारू, शराब और मुफ्तखोरी के खिलाफ आप युवा ही अभियान चला सकते हैं। इतिहास पलटिए और देखिए, बंगाल और महाराष्ट्र में आजादी के पहले पुनर्जागरण (रेनेसां) आंदोलन चले, समाज सुधार आंदोलन। हिंदी पट्टी में आज ऐसे समाज सुधार के आंदोलन चाहिए। रेनेसां की तलाश में है, हिंदी पट्टी। आप युवा ही इस ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। बिना श्रम किये, जीवन में कुछ न स्वीकारें। यह दर्शन आप युवा ही समाज से मनवा सकते हैं। बेंजामिन फ्रेंकलिन का एक उद्धरण याद रखिए। एक युवा के जीवन में सबसे अंधकार का क्षण या दौर वह होता है, जब वह अपार धन की कामना करता है, बिना श्रम किये, बिना अर्जित किये। आज की राजनीति क्या सीख देती है? सत्ता, रुतबा और पैसा कमाना। इस शार्टकट से हिंदी समाज को निकाले बिना बात नहीं बनेगी।

आप हालात समझिए। पहला तथ्य। राज ठाकरे को हीरो मत बनाइए। कांग्रेस और शरद पवार की पार्टी, एनसीपी ने एक उद्देश्य के तहत राज ठाकरे को आगे बढ़ाया है। उसी तरह जैसे संजय गांधी ने भिंडरावाले को बढ़ाया था। कांग्रेस की चाल है कि आगामी चुनावों में भाजपा एवं बाल ठाकरे की शिव सेना को अपदस्थ कर दें। इसलिए उन्होंने राज ठाकरे को आगे बढ़ाया। आप युवा इस ख़तरनाक राजनीति को समझिए। अपने स्वार्थ और वोट के लिए पार्टियां देश बेचने पर उतारू हैं। पहले नेता होते थे। अब दलाल और बिचौलिये नेता बनते हैं। उनके सामने देश की एकता, अखंडता का सपना नहीं है। पैसा लूटना वे अपना धर्म समझते हैं। और इस काम के लिए उन्हें गद्दी चाहिए। गद्दी के लिए वे कोई भी षड्यंत्र-तिकड़म कर सकते हैं। महाराष्ट्र में यही षड्यंत्र हुआ है। क्या उस आग में आप युवा भी घी डालेंगे? यह सिर्फ आपकी जानकारी के लिए। केंद्र में कांग्रेस चाहती तो नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट के तहत राज ठाकरे को गिरफ्तार कर सकती थी। यह कदम उठाने में गृह मंत्रालय सक्षम है। एक आदमी जिसके पिछले एक साल के बयानों से लगातार उपद्रव हो रहे हैं, दंगे हो रहे हैं, करोड़ों का नुकसान हो रहा है, जानें जा रही हैं, देश में विषाक्त माहौल बन रहा है, क्या उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी? फिर क्यों हैं सरकारें? इस राज ठाकरे नाम के आदमी का सबसे गंभीर अपराध है, देश की एकता, अखंडता पर सीधे प्रहार। भयहीन आचरण। पर उसके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं। इससे केंद्र सरकार की मंशा स्पष्ट है। महाराष्ट्र सरकार का गणित समझिए। वहां के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। कांग्रेस का एक गुट, उन्हें हटाना चाहता है। वह चाहते हैं कि यह मुद्दा जीवित रहे ताकि उनकी कुर्सी बची रहे। महाराष्ट्र की पुलिस कभी स्काटलैंड की पुलिस की तरह सक्षम और चुस्त-दुरुस्त मानी जाती थी। पर राज ठाकरे प्रकरण ने साबित कर दिया कि राजनीति ने कैसे एक बेहतर पुलिस संस्था को अक्षम और पंगु बना दिया। वरना महाराष्ट्र में मकोका लागू है। क्या राज ठाकरे उसके तहत गिरफ्तार नहीं किये जा सकते थे?

सबसे स्तब्धकारी घटना और गवर्नेंस के खत्म हो जाने का सबूत एक और है। महाराष्ट्र पुलिस ने राज ठाकरे जैसे देशतोड़क के खिलाफ सारी जमानती धाराएं लगायीं? क्यों? इससे सरकार का इंटेंशन (इरादा) साफ होता है। राज ठाकरे के समर्थक उत्पाती पहले पकड़ लिये गये होते तो हालात भिन्न होते। कोर्ट में उनकी पेशी के वक्त पुलिस पहले सजग होती, धारा 144 होती, तो हिंसा नहीं होती। पर वोट और सत्ता की राजनीति तो खून की प्यासी है। इस खूनी राजनीति के खिलाफ अपना खून बहा कर आप क्या कर लेंगे? आप युवा इस तरह के षड्यंत्र की राजनीति का मर्म समझिए और ऐसी राजनीति के खिलाफ उतरिए। रचनात्मक ढंग से। ऐसी ताकतों को चुनावों में पाठ पढाने की दृष्टि से। राष्ट्रीय नेतृत्व ने महाराष्ट्र में जो कुछ हिंदी भाषियों के साथ हुआ या हो रहा है, उस पर स्तब्धकारी आचरण किया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी पीड़ा पहुंचानेवाली है। बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ आती है, तब भी बिहार के लोगों को केंद्र के नेताओं को कुंभकरण की नींद से जगाना पड़ता है। मुंबई में एक बारिश होती है, तो राहत के लिए प्रधानमंत्री 3-4 करोड़ रुपये दे देते हैं। पर बिहार की विनाशकारी बाढ़ पर केंद्र तब उदार होता है, जब राज्य की आवाज़ उठती है और केंद्र में बैठे बिहार के नेता ध्यान दिलाते हैं। मुंबई में हुई घटना असाधारण है। देश के भविष्य की दृष्टि से। पर इसके लिए विशेष कैबिनेट की बैठक नहीं। विशेष प्रस्ताव नहीं। तत्काल आग बुझाने के लिए अलग प्रयास नहीं। केंद्र की कोई उच्चस्तरीय टीम मुंबई नहीं गयी। देश को एक रखने का दायित्व जिस केंद्र पर है, उसका यह आचरण? पिछले 60 वर्षों में बिहार और झारखंड ने खनिज के मामले में देश को कितना दिया है, क्या इसका हिसाब कोई देगा? फ्रेट इक्वलाइजेशन के मामले में लाखों करोड़ों का भेदभाव बिहार-झारखंड से हुआ होगा। बिहार और झारखंड से निकले सस्ते श्रम और बहुमूल्य खनिज से देश के विभिन्न हिस्सों में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया से संपन्नता आयी। क्या बिहार की इस कीमत को कोई चुकायेगा? आज जब नीतीश कुमार बिहार के साथ हुए एतिहासिक भेदभाव का सवाल उठाते हैं तो बिहार के सभी दल एवं जनता एक स्वर में बोले... तब इस अंधेरी सुरंग से बिहार के लिए एक राह निकलेगी।

यह सही है कि हिंदीभाषी राज्य विकास के बस से छूट गये हैं। अगर देश ऐसे छूटे राज्यों के प्रति सदाशयता का परिचय नहीं देगा, तो क्षेत्रीय विस्फोट की इस आग को रोक पाना कठिन होगा। यह कैसे संभव है कि देश के कुछ हिस्से या राज्य संपन्नता के टापू बन जाएंगे और अन्य राज्य भूख और गरीबी से तबाह हो कर मूक दर्शक बने रहेंगे। क्षेत्रीय विषमता की यह आग देश को ले डूबेगी। 1995 के आसपास पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बढ़ती क्षेत्रीय विषमता पर एक लंबा (लगभग 30-40 पेजों का) लेख लिखा था और आगाह किया था कि हम देश को किधर ले जा रहे हैं। अंततः क्षेत्रीय विषमता जैसे गंभीर सवालों को कौन एड्रेस (सुलझाना) करेगा? केंद्र सरकार ही न या संसद? केंद्र सरकार, संसद, योजना आयोग और राजनीतिक पार्टियां ही न। पर कहां पहुंच गयी है हमारी संसद? क्या इन विषयों पर सचमुच कोई डीबेट हो रहा है? क्या आचरण रह गया है हमारे सांसदों, राजनीतिक दलों और सरकारों का? अगर आप हिंदी पट्टी के युवा सचमुच इस देश को और अपने राज्यों को विकास के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, खुद आत्सम्मान के साथ जीना चाहते हैं, निजी जीवन में प्रगति और विकास चाहते हैं तो आपको सुनिश्चित करना होगा कि राजनीति का चाल, चरित्र और चेहरा बदले? ऐसा माहौल बनाइए कि केंद्र की राजनीति (चाहे सरकार किसी पक्ष की हो) भारत के पिछडे़ राज्यों और क्षेत्रीय असंतुलन के सवालों पर अलग नीति बनाये। आप युवा राजनीति की धारा बदल सकते हैं।

1974 में हुए छात्र आंदोलन के एक तथ्य से आप परिचित होंगे। 1972 के आसपास गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुआ। जेपी को इस छात्र आंदोलन में एक नयी रोशनी दिखाई दी। वह गुजरात गये। फिर इस आंदोलन पर एक लंबा लेख लिखा। आप छात्र जानते हैं, यह आंदोलन गुजरात के मोरवी इंजीनियरिंग कालेज के एक मेस से शुरू हुआ। उस छात्रावास में रह रहे छात्रों को लगा मेस में खाने का मासिक शुल्क अचानक बढ़ गया है और इस कीमत बढ़ोतरी के पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार है। छात्रों में आक्रोश पैदा हुआ और एक छात्रावास के मेस से निकली इस आग की लपटों में अंततः पहली बार केंद्र से कांग्रेस का सफाया हो गया। आप बिहारी और झारखंडी छात्रों में अगर सचमुच आग है तो अपने राज्य के नवनिर्माण के सृजन के लिए उस आग की आंच को इस्तेमाल करिए। लोकसभा के चुनाव जल्द ही होने वाले हैं। सारे राजनीतिक दलों को बाध्य करिए कि चुनाव के पहले आपके राज्य के विकास का एजेंडा लेकर जनता के पास आएं। मांग करिए कि राज्य में उद्योग लगाने को, टैक्स होलीडे के तहत पैकेज दिया जाए। एजुकेशन हब की परिकल्पना लेकर दल चुनाव में उतरे। बिहार पंजाब से भी ज्यादा उपजाऊ है, पर कृषि आधारति चीजों का विकास का प्रयास नहीं हुआ। इसके ब्लू प्रिंट की मांग करिए। 40 जिलों में 40 बेहतरीन अलग-अलग शिक्षा के उत्कृष्ट इंस्टीटूशन की परिकल्पना करिए। चौड़ी और बेहतर सड़कों के लिए अभियान चलाइए। अपने बीच से नये उद्यमियों को गढ़‍िए। कानून और व्यवस्था के अनुसार सभ्य समाज गढ़ने का अभियान चलाइए। यही रास्ता बिहार को फिर शिखर पर ले जा सकता है।

लगभग 40 वर्षों पहले प्रो गुन्नार मिर्डल ने एशियन ड्रामा पुस्तक लिखी, जिस पर उन्हें अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला। तब उन्होंने कहा था कि करप्शन ने भारत को तबाह कर दिया है। आप छात्र गौर करिए, भ्रष्टाचार ने बिहार को कहां पहुंचा दिया? ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार देश के भ्रष्ट राज्यों में से एक। कांग्रेस राज्य में यह परंपरा शुरू हुई। लोग सड़क चुराने लगे, बांध चुराने लगे और यह परंपरा चलती रही। भ्रष्टाचार के खिलाफ चौतरफा हमले में सक्रिय हुई यह बिहार सरकार भ्रष्टाचारियों को धर पकड़ रही है। ऐसा माहौल बनाइए कि भ्रष्टाचारी पकडे़ जाएं। दंडित हों। पर इतना ही काफी नहीं है। भ्रष्टाचार नियंत्रण अब अकेले सिर्फ सरकार के बूते की बात नहीं है। भ्रष्ट लोगों के खिलाफ समाज में एक नफरत और घृणा का माहौल पैदा करिए। भ्रष्टाचारी समाज में पूज्य न बने। आप में अगर सचमुच आग है, पौरुष है तो राजनीतिज्ञों को एकाउंटेबल बनाने के अभियान में लगिए। राजनीति में मूल्य और आदर्श स्थापित करने के अभियान में जुटिए। आप जानते हैं डॉ वर्गीस कुरियन को? एक आदर्शवादी केरल के युवा ने दूध उत्पादन और को-ऑपरेटिव के क्षेत्र में गुजरात को दुनिया के शिखर पर पहुंचा दिया। उनके जीवन का निचोड़ याद रखिए। हम जो कुछ सही करते हैं वही नैतिकता है। पर जो चीज हमारे सोचने की प्रक्रिया को संचालित करती है, वह इथिक्स (मूल्य) है। हम जैसे जीते हैं, वह नैतिकता है। जैसा सोचते है और अपना बचाव करते हैं, वही इथिक्स है। हिंदी पट्टी के समाज और राजनीति को आप युवा ही मॉरल और इथिकल बना सकते हैं।

आप युवाओं ने नाम सुना होगा, पीटर ड्रकर का। आधुनिक प्रबंधन में दुनिया के सबसे बडे़ नामों में से एक। पहले जैसे पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, आकर्षण और विचार के केंद्र थे, उसी तरह ग्लोबल दुनिया में इक्कीसवीं सदी के दौर में कंप्यूटर क्रांति और सूचना क्रांति के इस दौर में प्रबंधन सबसे आकर्षक और नयावाद बन गया है। राजनीति हो या उद्योग धंधा या विकास, श्रेष्ठ प्रबंधन कला ही किसी इंसान, समाज और व्यवस्था को शिखर पर ले जा सकती है। इसी प्रबंधनवाद के मार्क्स कहे जाते है, पीटर ड्रकर। एक जगह उन्होंने कहा है कि चीन को भारत पछाड़ सकता है, अगर वह टेक्नोलाजी में आगे रहे, सर्वश्रेष्ठ उच्चशिक्षा संस्थान बनाये और वर्ल्ड क्लास प्राइवेट सेक्टर विकसित करे। बिहार के शिक्षा संस्थानों में बौद्धिक श्रेष्ठता का माहौल नहीं रह गया है। क्या इसे हम दोबारा वापस कर पाएंगे? यह आप छात्र करा सकते हैं। सरकारें नहीं करा सकती। शिक्षा में यूनियनबाजी, नेतागीरी, चापलूसी, पैरवी, जातिवाद और संकीर्ण माहौल को आग लगा दीजिए और इस अग्नि-परीक्षा से एक नया बिहार निकलेगा।

दुनिया के प्रख्यात कंसलटेंसी मिकेंजी एंड कंपनी की रिपोर्ट है कि इस बदलती दुनिया में रिटेल व्यवसाय, रेस्टूरेंटों और होटलों, हेल्थ सर्विस में बडे़ पैमाने पर अवसर पैदा होनेवाले हैं। क्या हम हिंदी पट्टी के लोग अपने यहां ऐसे संस्थान बना सकते हैं, जहां से ऐसे कुशल और प्रशिक्षित युवा निकलें जिनकी दुनिया में मांग हो? आज अरब के देशों में बडे़ पैमाने पर प्लंबर, राज मिस्त्री वगैरह की मांग है, सीखिए दुबई और खाड़ी के देशों से। वहां मुसलिम शासक हैं। पर हर धर्म, देश और राष्ट्रीयता के कुशल लोगों को छूट है कि वे आकर काम करें। आजादी से रहें। और उनकी इसी रणनीति ने खाड़ी देशों को कितना आगे पहुंचा दिया। प्रकृति ने हिंदी पट्टी के इलाकों को उपजाऊ बनाया। जैसा मौसम दिया, वैसा शायद अन्यत्र न मिले। पर क्या हम इसका उपयोग कर पाते हैं? थामस एल फ्रीडमैन ने 2005 में संसार प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी, द वर्ल्ड इज फ्लैट। पुस्तक की भूमिका में उन्होंने एक फ्रेज (मुहावरे) का इस्तेमाल किया है, जो भारत देखकर उन्हें लगा, न्यू वर्ल्ड, द ओल्ड वर्ल्ड आर द नेक्सट वर्ल्ड (नया संसार, पुराना संसार या भविष्य का संसार)। आप बिहारी छात्र भविष्य का संसार गढ़‍िए। दुनिया आपके कदमों पर होगी। अक्सर बिहार के कुछ दृश्य मेरे जेहन में उभरते हैं। पेड़ों के नीचे बैठ कर ताश खेलते लोग। गप्‍पें मारते लोग। परनिंदा में व्यस्त। 10वीं-12वीं की परीक्षा में चोरी कराने में बडे़ पैमाने पर परीक्षाकेंद्रों में उपस्थित भीड़। क्या आप छात्र इन प्रवृत्तियों के खिलाफ कुछ कर सकते हैं? जिस दिन हमारी यह श्रमशक्ति अपनी ताकत पहचान लेगी, बिहार का कायाकल्प हो जाएगा।

इतिहास की एक घटना से हम सीख ले सकते हैं। रूस ने स्पूतनिक उपग्रह छोड़ा था और अंतरिक्ष में रूसी यात्री यूरी गैगरिन गये थे। अमरीका रूस की इस प्रगति से स्तब्ध और आहत था। आहत अपनी स्थिति को लेकर। यह '60 के दशक की बात है। कैनेडी राष्ट्रपति बने थे, 20 जनवरी 1961 को। उन्होंने अपनी संसद (कांग्रेस) की बैठक बुलायी। बातचीत का विषय था, अर्जेंट नेशनल नीड्स (आवश्यक राष्ट्रीय सवाल)। उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया। कहा, मेरी बातें स्पष्ट हैं। मैं संसद (कांग्रेस) और देश से गुजारिश कर रहा हूं। एक दृढ़प्रतिबद्धता की। एक नये कार्यक्रमों के प्रति। एक नया अध्याय शुरू करने के प्रति, जिसमें भारी खर्च होंगे और जो कई वर्ष चलेगा... यह निर्णय हमारी इस राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से जुडा है कि वैज्ञानिक और तकनीक संपन्न मैनपावर पैदा करें। उसे सारी भौतिक और अन्य सुविधाएं दें... इस संदर्भ में उन्होंने प्रतिबद्धता, सांगठनिक कुशलता और अनुशासन की बात की। उन्होंने कहा, मैं कांग्रेस को बता रहा हूं, हजारों लाखों की संख्या में लोगों को प्रशिक्षित, पुनःप्रशिक्षित करने का ट्रेनिंग प्रोग्राम (प्रशिक्षण प्रोग्राम) और मैनपावर डेवलपमेंट (मानव संपदा विकास) करें।

क्या हम इतिहास के इस पाठ से शिक्षा ले सकते हैं? हमारे दिल में अगर सचमुच राज ठाकरे के व्यवहार से जलन और आग है, तो हम इस जलन और आग को एक नये समाज गढ़ने के अभियान में ईंधन बना सकते हैं। चीन पहले अफीमचीयों का देश माना जाता था। बिल गेट्स ने चीन के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही है। आज वह दुनिया की महाशक्ति है। कैसे और क्यों? उसमें क्या हुनर है? बिल गेट्स के अनुसार, चीनी खतरे उठाते हैं। संकटों से जूझते हैं। कठिन श्रम करते हैं। अच्छी पढ़ाई करते हैं। बिल गेट्स के अनुसार जब किसी चीनी राजनीतिज्ञ से मिलते हैं, तो पाते हैं कि वे वैज्ञानिक हैं। इंजीनियर हैं। उनके साथ आप अनंत सवालों पर बहस कर सकते हैं। लगता है आप एक इंटेलीजेंट ब्यूरोक्रेसी से मिल रहे हैं।

दुनिया के युवाओं के आदर्श और प्रेरक ताकत बिल गेट्स भी हैं, जो एक गैरेज से काम शुरू कर दुनिया के शिखर तक पहुंचे। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के एक प्रोफेसर गर स्टरनर ने एक जगह कहा है, किसी संस्था में बदलाव, संकट या आपात स्थिति में ही शुरू होता है। वह कहते हैं कि किसी भी संस्था में तब तक कोई मौलिक बदलाव नहीं होता, जब तक उसे यह एहसास न हो कि वह अत्यंत खतरे (डीप ट्रबल) में है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उसे कुछ नया, ठोस और अनोखा प्रयास करना होगा। आज बिहार या झारखंड को छात्र बदलना चाहते हैं, तो इससे प्रेरक वाक्य नहीं हो सकता। इस अपमान को सम्मान में बदल देने के रास्ते पर चलिए, आप इतिहास बनाएंगे। इतिहास बनानेवालों से ही सबक लीजिए। ऐसे ही एक इतिहास नायक चर्चिल ने कहा था, किसी चीज के निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत धीमी होती है। इसके पीछे वर्षों का श्रम और साधना होती है। पर इसको नष्ट करने का विचारहीन काम एक दिन में हो सकता है। राष्ट्र की इस संपदा (रेलवे वगैरह) को बनाने में भारी श्रम और पूंजी लगे हैं। यह देश की संपत्ति है, बिहार की संपत्ति है। राज ठाकरे की नहीं। यह आपके और हमारे करों से बनी सार्वजनिक चीज है। हम अपमानित भी हों और अपनी ही दुनिया में आग लगाएं, ऐसा काम दुनिया में शायद कहीं और नहीं होता।

आप युवा हैं। युवाओं में ही कुछ नया करने की कल्पनाशीलता होती है। सपनों के पंख होते हैं। उत्साह होता है। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था, कल्पनाशीलता ज्ञान से ज्यादा महत्चपूर्ण है। क्या आप युवा अपनी कल्पनाशीलता की ताकत को अपने राज्य को गढ़ने में नहीं लगा सकते?

आप युवाओं ने दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी (जीइसी) का नाम सुना होगा। उसके करिश्माई चेयरमैन हुए, जैक वालेशा। उन्होंने भारत के बारे में कहा है, मैं भारत को एक बड़ा खिलाड़ी मानता हूं। आधुनिक दुनिया में। 100 करोड़ से अधिक की जनसंख्यावाला यह देश तेजस्वी लोगों का मुल्क है। यह लगातार बढे़गा और बड़ा होगा और दुनिया की अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण रोल होगा। नैस्कॉम (नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज) के अनुसार भारतीय तकनीकी कंपनियां, अमेरिका, यूरोप, जापान की बड़ी-बड़ी कंपनियों को सेवाएं दे रही हैं। विदेशी, इन कंपनियों को इंडियन टाइगर्स कहते हैं। भविष्य में इन कंपनियों की मांग और बढ़नेवाली है। यह मंदी, वर्ष-डेढ़ वर्ष में कम होगी। आज एक लाख बीस हजार छात्र सूचना तकनीक में भारतीय कॉलेजों से स्नातक की डिग्री पा रहे हैं। 30 लाख विद्यार्थी अंडर ग्रेजुएट डिग्री ले रहे हैं।

(सभी आंकडे़ नैस्कॉम रिपोर्ट 2007 के अनुसार)
इन भारतीय युवाओं को पश्चिम के देशों में जो वेतन मिलते हैं, उसका महज 20 फीसदी ही मिलता है, वह भी भारत में घर बैठे। इसके लिए एक बडा रोचक फार्मूला है - Internet + Brains - High Cost = Huge Business Opportunities

क्यों हमारे हिंदी पट्टी के प्रतिभाशाली विद्यार्थी, इस मौके का लाभ नहीं उठा सकते? इसके लिए बडे़ कल-कारखाने नहीं चाहिए। बड़ी पूंजी नहीं चाहिए। बस चाहिए सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान, जहां से निकले प्रतिभाशाली छात्र अच्छी तरह कामकाज करना जानें। लिखना-पढ़ना जानें। फर्राटेदार अंगरेजी बोलना जानें। अच्छी सड़कें हों, बेहतर कानून-व्यवस्था हो, तो अपने आप आइटी उद्योग आपके यहां खिंचा चला आएगा। वैसे भी अब आइटी उद्योग या अन्य कंपनियां बडे़ शहरों से दूसरे दरजे के शहरों की ओर रुख कर रही हैं। लागत खर्च कम करने की दृष्टि से। यह सुनहरा मौका है बिहार, झारखंड और हिंदी पट्टी के राज्यों के लिए। पहले भारत सांप-सपेरों, जादूगरों, साधुओं और तंत्र-मंत्र का देश जाना जाता था। दुनिया में। पर भारत के युवकों ने यह छवि बदल दी है। क्या बिहार, झारखंड या हिंदी पट्टी के छात्र अपना पुरुषार्थ नहीं दिखा सकते?

बीबीसी के जाने-माने पत्रकार, डेनियल लैक ने भारत पर दो किताबें लिखी हैं। एक मंत्राज ऑफ चेंज (वर्ष 2005)। उनकी ताजा पुस्तक आयी है, इंडिया एक्सप्रेस (2008)। अपनी पुस्तक मंत्राज ऑफ चेंज में उन्होंने हिंदी राज्यों के बारे में लिखा है। उन्होंने भारत के सबसे बडे डेमोग्राफर इन चीफ प्रो आशीष बोस से मुलाकात की। प्रो बोस अपने बौद्धिक कामों के लिए दुनिया में जाने जाते हैं। पहली बार '80 के दशक में, उन्होंने बीमारू राज्यों की अवधारणा को स्पष्ट किया। बीमारू राज्य यानी जो बीमार हैं, पिछडे़ हैं। बीमारू शब्द में ये राज्य हैं - बिहार, राजस्थान, यूपी, मध्य प्रदेश। सन 2000 के आसपास योजना आयोग ने माना कि राजस्थान और मध्यप्रदेश, बीमारू राज्यों की अवधारणा से निकल आये हैं। इस तरह बीमार राज्यों में दो ही राज्य बचे, बिहार और यूपी। वर्ष 2000 के अंत में ये दोनों राज्य बंट कर चार राज्य हो गये - बिहार, झारखंड, यूपी और उत्तरांचल। इस तरह ये चारों राज्य भारत के बीमार राज्य माने जाते हैं। इन राज्यों के कामकाज को लेकर विकास की दौड़ में शामिल अन्य राज्य टीका-टिप्पणी भी करते हैं। वर्ष 2000 के आसपास नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कई गंभीर सवाल उठाये। उन्होंने कहा कि हमारे आंध्रप्रदेश जैसे राज्य या अन्य, जो प्रगति और विकास कर रहे हैं, अपनी बेहतर व्यवस्था, गुड गवर्नेंस, बेहतर आर्थिक प्रबंध वगैरह के कारण, वे पैसे कमा कर केंद्र को देते हैं और केंद्र का वित्त आयोग हमारे कमाये पैसे को गरीब राज्यों के विकास के लिए दे देता है। इससे हमें निराशा होती है। क्या कुशल राज्य संचालन, प्रबंधन का यही पुरस्कार है? उन्होंने साफ-साफ कहा कि हिंदी पट्टी के राज्य न अपनी जनसंख्या घटाते हैं, न आर्थिक विकास दर बढाते हैं, न बेहतर गवर्नेंस करते हैं, न उनकी दिलचस्पी अपने राज्य के विकास में है, तो उनकी अव्यवस्था, अराजकता, अकुशलता का बोझ हम क्यों उठायें? इस सवाल के मूल्यांकन की भी दो दृष्टि है। पहली, यह देश एक है, इसलिए गरीबों का बोझ संपन्न राज्यों को उठाना चाहिए। 1980 तक लगभग यही मानस पूरे देश में था, क्योंकि आजादी के समय के नेता जीवित थे। पर आज यह भावना ख़त्म हो गयी है। हर राज्य अपने विकास में सिमट गया है। इस दृष्टि से चंद्रबाबू नायडू के सवाल जायज़ एवं सही हैं। क्यों हिंदी पट्टी के राज्य अपनी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ नहीं कर सकते? विकास दर नहीं बढा सकते? सुशासन नहीं ला सकते?

आप युवा विद्यार्थी बीमारी की इस जड़ को समझिए और ऐसी राजनीति और नेता को प्रश्रय दीजिए, जो इन मोर्चों पर इन पिछडे़ राज्यों को आगे ले जा सके। अपनी ताजा पुस्तक में डेनियल लैक कहते हैं कि बीमारू राज्यों के बावजूद भारत बीकमिंग एशियाज अमेरिका (भारत, एशिया का अमेरिका बन रहा है)। ऐसी स्थिति में क्यों हिंदी पट्टी के राज्य पिछडे़ और दरिद्र बने रहे? डेनियल एक जगह नारायण मूर्ति को उद्धृत करते हैं। नारायण मूर्ति पहले साम्यवादी थे। साम्यवाद से अपने अनुभव के बाद इंफोसिस कंपनी बनायी, जिसने दुनिया में भारत को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने एक बड़ा वाजिब सवाल उठाया। आप सीमित धन गरीबों में बांट कर, गरीबी दूर नहीं कर सकते। बल्कि अधिक से अधिक संपत्ति का सृजन कर ही गरीबों की गरीबी दूर की जा सकती है। आज क्या कारण है कि अमेरिका के राष्ट्रपति हों या चीन के प्रधानमंत्री या दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष, पहले बेंगलुरू, हैदराबाद, चेन्नई वगैरह जाते हैं। दिल्ली बाद में पहुंचते हैं। मुंबई तो शायद जाते भी नहीं। क्या हम हिंदी पट्टी के लोग एक बेंगलुरू, एक हैदराबाद, एक चेन्नई, एक त्रिवेंद्रम, मनीपाल वगैरह भी खडा नहीं कर सकते?

दुनिया के प्रतिष्ठित फाइनेंसियल टाइम्स अखबार के जाने-माने पत्रकार एडवर्ड लूस ने 2006 में एक किताब लिखी, इन स्पाइट ऑफ द गॉड्स। उसमें एक जगह लिखा है, व्यंग्य के तौर पर ही। इटली के संदर्भ में। 'रात में आर्थिक प्रगति होती है, जब सरकार सो रही होती है।' दरअसल भारत के पावर हाउस के रूप में उभरे नये शहरों में कामकाज रात में ही होता है, जब दुनिया की अर्थव्यवस्था और कंपनियों को भारत के युवा भारत में बैठे नियंत्रित करते हैं।

आप युवाओं को अपनी दृष्टि बदलनी होगी, सोचने का तरीका बदलना होगा। आप खुद को समस्या न मानिए। न समस्या बनिए। बल्कि आप इस संकट के समाधान के कारगर यंत्र बनिए। हिंदी पट्टी की आबादी बहुत बड़ी है और यह बाजार बहुत बड़ा है। यह हमारी ताकत है। हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। टेक्नोलॉजी अपनाने में अग्रिम मोरचे पर रहिए। कंप्यूटर, इंटरनेट, नयी खोज, नयी चीजें, इन सबको जीवन में पहले उतारिए। इनके विरोधी मत बनिए। इतिहास से सीखिए। जो टेक्नोलॉजी में पिछड़ गया, वह गुलाम बनने के लिए अभिशप्त है। औद्योगिक क्रांति का अगुआ था ब्रिटेन। उसके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था। भारत उसका गुलाम बन गया। अमेरिका का वर्चस्व अपनी टेक्नोलॉजी के कारण है। दक्षिण के राज्य हमसे क्यों आगे हैं? क्योंकि अच्छी शिक्षण संस्थाएं, इंफ्रास्ट्रक्चर वगैरह बना कर वह सूचना क्रांति के केंद्र बन गये हैं।
रॉबर्ट फ्रास्ट की एक मशहूर कविता है, जिसका आशय है -

आज से हजारों हजार वर्ष बाद
मैं भले भाव में यह कहूंगा
जंगल में दो रास्ते थे
मैं उस पर चला
जिस पर लोग यात्रा नहीं करते थे
और इसी प्रयास ने सारे द्वार खोल दिये

आप युवा घटिया राजनीति के पात्र न बनें। यह राजनीति देश को तोड़ने की ओर ले जाएगी। 1960 में सेलिग एस हैरिसन ने बहुचर्चित किताब लिखी थी इंडिया : द मोस्ट डेंजरस डिकेड। जो चीज़ें आज के भारत में हो रही हैं, उसका उल्लेख है इस पुस्तक में। कैसे राज ठाकरे जैसे लोग देश को तोडने की ओर ले जा रहे हैं? क्या आप भी राज ठाकरे के सपने को पूरा करना चाहते हैं? इस देश के लाखों-करोड़ों युवाओं ने आजादी के लिए कुर्बानी दी है। गर्व की बात है कि आजादी की लड़ाई में हिंदी इलाके अग्रिम मोरचे पर थे। लगभग 2500 वर्षों के ज्ञात इतिहास में भारत में स्थिर केंद्रीय शासन के चार संक्षिप्त दौर हैं। मौर्य काल, मुगल काल, ब्रिटिश काल और आजादी के बाद के 60 वर्ष। इनमें पहला और अंतिम शासन देश की धरती से निकले थे। तीसरा पूरी तरह विदेशी था। दूसरा शुरू में विदेशी था। तीन पीढ़‍ियों बाद देशी बनने लगा। भारत की इस एका को किसी कीमत पर आप युवा खंडित न होने दें। महाराष्ट्र की परंपरा आज युवा नहीं जानते। यह राज ठाकरे का राज्य नहीं रहा है। यह लोकमान्य तिलक, दादा भाई नौरोजी से लेकर साने गुरुजी, अच्युत पटवर्धन, मधु लिमये, मधु दंडवते, एसएम जोशी, एनजी गोरे, मृणाल गोरे जैसे देशभक्तों का राज्य है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे अपवाद और इस समाज की विकृतियां हैं। यह महाराष्ट्र की मुख्यधारा नहीं है।

मधु लिमये के लेख से राजनीति के बारे में एक अंश उद्धृत कर रहा हूं। वही मधु लिमये जिन्हें बिहार ने बार-बार लोकसभा में भेजा और गौरवान्वित महसूस किया। अमेरिका के एक लेखक जॉन एस सलोमा का वह हवाला देते हैं कि आज राजनीति, राजनेता, राजनीतिज्ञ और दलीय, ये सब शब्द लोगों में तिरस्कार की भावना पैदा करते हैं। इनमें संकीर्ण स्वार्थवादिता की बू आती है। आप बिहार के युवा एक क्रांतिकारी परंपरा के वाहक हैं। क्या आप इस सड़ी राजनीति का हिस्सा बनना चाहते हैं? एक कविता की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए...

कई बार मरने से जीना बुरा है
कि गुस्से को हर बार पीना बुरा है
भले वो न चेते हमें चेत होगा
हमारा नया घर, नया रेत होगा

मुक्तिबोध की यह पंक्ति भी याद रखिए

एक पांव रखता हूं, हजार राहें फूट पडती हैं!

(इस लेख को तैयार करने में निम्न पुस्तकों से मदद ली गयी है। मेरा आग्रह है कि आप इन सभी पुस्तकों को पढ़ें। पढ़ने-पढ़ाने का अभियान चलाएं ताकि आपके शासक (शासन चलानेवाले, राजनीति करने वाले) इन्हें पढ़ें और जानें कि दुनिया कहां चली गयी है। भारत के अन्य राज्य कहां पहुंच गये हैं और हम हिंदी इलाके कहां हैं। पहले यह कहावत थी, इग्नोरेंस इज ब्लिस (अज्ञानता वरदान है)। पर ग्लोबल विलेज के इस दौर की बुनियादी शर्त है, इनफॉरमेशन इज पावर (सूचना ही ताकत है)। इसे नॉलेज एरा कहा जाता है। क्या इन पुस्तकों को पढ़ कर, इनके निचोड़ निकाल कर, आप छात्र बिहार के गांव-गांव, स्कूलों और संस्थाओं में इसके मर्म बताने का अभियान चला सकते हैं? इससे लोग बदलती दुनिया की हकीकत समझेंगे और तथ्य जान कर बिहारियों-झारखंडियों में आकांक्षाएं पैदा होंगी, जिनसे नया राज्य बनेगा।
1. The World Is Flat: Thomas L Friedman
2. Rising Elephant: Ashutosh Sheshabalaya
3. Building A Vibrant India: M M Luther
4. India: Aaron Chaze
5. Made in India: Subir Roy
6. Banglore Tiger: Steve Hamm
7. India Booms: John Farndon
8. India Arriving: Rafiq Dossani
9. Remaking India: Arun Maira
10. Mantras of Change: Daniel Lak
11. India Express: Daniel Lak
12. Inspite of Gods: Edward Luce
13. India: The Most Dangerous Decades: Selig S Harrison
14. India's New Capitalists: Harish Damodaran
15. संक्रमणकालीन राजनीति: मधु लिमये
16. भारतीय राजनीति का नया मोड़: मधु लिमये
17. The New Asian Hemishpere: Kishore Mehbubani
18. Transforming Capitalism: Arun Maira
19. 20 : 21 Vision: Bill Emmott
20. The Second World: Parag Khanna
21. Rivals: Bill Emmott

Posted by avinash तारीख़ Wednesday, October 29, 2008


http://mohalla.blogspot.com/2008/10/blog-post_29.html

Tuesday, October 28, 2008

Thackrey's Fact File


Note: In an interview to Shobha De in Mumbai mirror on Mahatma Gandhi's birthday, Raj Thackrey praised Narendra Modi. He wished to emulate him in Maharasthra Shobha De says, The interview was conducted in Marathi at Raj and Sharmila's Shivaji Park residence. Ironically, it was Gandhi Jayanti — non-violence day! She suspects that Raj agreed for interview because she is a Marathi manoos.

Thackeray says, "Those who had experience, have ruined this country for last 60 years. Let's ruin it for five more years by giving it to new people " but then he goes to support L K Advani as the Prime Minister.

This guy talks about Marathi manoos pride!

Consider this. Most of Maharashtra Navnirman Sena chief Raj Thackeray's business associates are non-Marathis. His confidante, Sunil Harshe, is based in Dubai, looking after Raj's vast business interests in the UAE. Both Thackeray's children are at English-medium schools. His son, who entered college this year, chose to study German instead of Marathi. When Thackeray was part of the Shiv Sena, he would often oblige non- Marathi contractors looking for work with the Sena-controlled Mumbai municipal
corporation. Thackeray also smokes the best imported cigarettes and sips high-end Scotch and cognac. He loves to drive a Mercedes or Pajero and is a charming host even if his guests don't speak Marathi. Raj Thackeray is the most cosmopolitan Mumbaikar one could meet at Shivaji Park, where he lives in an elegant penthouse.

But give him a microphone and he becomes a bhaiyya-basher. Bhaiyya is the term for migrants from UP and Bihar. Thackeray's rabid verbal attacks on bhaiyyas and his supporters' physical assaults, have in one fell blow, tried to undermine Mumbai's cosmopolitan foundations.

Raj appears to be following in the footsteps of his uncle, Shiv Sena chief Bal Thackeray. But there is a crucial difference. In the sixties and seventies, Thackeray senior accused south Indians of robbing Marathis of jobs in banks, the insurance sector and elsewhere.

It was a rant with a reason. The Maharashtrian middle class faced a very real problem. Over the years, the Shiv Sena took corrective steps to recruit lakhs of Marathis to large organizations. Thackeray senior's protest had a political sub-text. At the instigation of the ruling Congress, it was meant to strike at the communists who were controlling many trade unions in the metropolis.

The nephew is marching to a different drummer. Raj has had virtually to invent an enemy - the hapless bhaiyya. First and most important, there just aren't many jobs available in the commercial capital of India facing recession. Migrants to Mumbai work in sweatshops; drive cabs and autorickshaws. They are not a major threat to unemployed
sons-of-the-soil.

So why is Raj getting the bhaiyyas beaten up? He claims that the railways don't advertise vacancies in the Marathi press, which prevents local youths from finding out about jobs available. But railway officials insist the recent examinations were advertised in Marathi newspapers.

Raj's outbursts have a political background. The state's Democratic Front government comprises Congress and the Nationalist Congress Party (NCP). But as Shiv Sena executive president and Raj's bete noire, Uddhav Thackeray, says, the government is a non-performing one. He has consistently evoked an excellent response on his extensive tours of the state's different districts precisely because he lambasts the state government for its "failure on every front."

The government has not added a single MW to the state's power generation capacity. Maharashtra is facing a 5,500-MW shortage of power. Fuel shortage means the mega power plant at Dabhol on the Konkan coast hardly produces any electricity at all. Hundreds of farmers in Vidarbha's cotton belt continue to commit suicide. Maharashtra's infrastructure is almost, but not quite, on a par with Bihar.

In addition, rallies addressed by Uddhav and BJP leaders have evoked huge response from the masses, says state BJP president Nitin Gadkari, ensuring many sleepless nights for Congress and NCP leaders. So what better way of preventing the saffron alliance from returning to power than weakening the principal opposition party, the Shiv Sena? Raj's exit from the Shiv Sena gave the Congress-NCP alliance a chance to weaken Bal Thackeray's 43-year-old party.

In a cynical move, the state government decided to look the other way when Raj and his men attacked the north Indian migrants, to demonstrate their commitment to the Marathi manoos. Though Raj wanted to show he was the real champion of Marathi interests, the government had a different calculation in order to ensure the Marathi vote is split. It let him have his share of the political fun. Film director and activist Mahesh Bhatt says, "The government is playing with fire for short-term electoral gains. Mumbai's cosmopolitanism is under threat."

Viren Shah who was at the forefront of the traders' campaign to counter Raj's coercive tactics says, "We all respect Marathis and Marathi culture. But leaders like Raj are giving a bad name to Mumbai and all that it stands for. The problem for Marathis is the same as for non-Marathis - water shortage, poor sanitation, pathetic
infrastructure and poverty. But Raj is allowing himself to be used by vested interests bent on weakening the Shiv Sena."

Raj's anxiety levels must have risen when the press started to speculate that Uddhav would be chief minister if the Shiv Sena-BJP combine wins next year's assembly elections. He must hope he never sees that day. If the bhaiyyas are to be targeted to prevent this, so be it.

http://timesofindia.indiatimes.com/Opinion/Editorial/Holding_Mumbai_to
_ransom/articleshow/3641431.cms
_._,_.___

Sunday, October 19, 2008

Kosi (Mithila) Crisis: "Kusaha Breach and Thereafter"

At a talk & a day long Panel Discussion in Patna on "Kusaha Breach and Thereafter", heated exchanges between pro-"kosi high dam" engineers and proponents of "living with floods" ended with an apparent conclusion that high dams & embankments are less of an engineering interventions and more of a political intervention. On 17 October, on the eve of two months of the Kosi breach, the talk was delivered by Dr Dinesh Kumar Mishra, a well known voice of sanity with regard to Kosi crisis.

Failure of dams as flood control structures has been demonstrated in Orissa, Gujarat, Maharasthra and Jharkhand.

Disaster management and relief centric narrative that has become the dominant factor came in for severe criticism.

A white paper was demanded, while sharing the Hindi version of the Fact Finding Report on Kosi “Kosi “Pralay”: Bhayaavah Aapada Abhi Baaki Hai” sought accountability of Kosi High Level Committee (KHLC) and provide a remedy for the drainage crisis in North Bihar as was promised by the UPA government's Common Minimum Programme. All the activities of KHLC should be put in suspension till the time their liability is fixed and Justice Rajesh Balia Judicial Commission of inquiry set up on September 9, 2008 is completed. The commission’s recommendations must not meet the fate of several dozens of committees and it must recommend criminal charges against acts of omission and commission.

It is noteworthy that Union Water Resources Department Secretary, in a letter to the Bihar Irrigation Secretary on September 24, 2008 has questioned the locus standi of the judicial commission. The letter read: “The Kosi agreement is a bilateral agreement between two sovereign states, India and Nepal, and Bihar is not a party to either 1954 or the 1966 agreement.”

Water and Power Consultation Services (WAPCOS), a central government’s public sector undertaking has provided technical inputs to the Bihar government on possible ways to plug the breach at Kusaha in Nepal.

Participants included victims of embankments who expressed their anguish at the Delhi, Kathmandu and Patna centric deliberations and decision making. They called for a movement against Kosi High Dam, embankments and changing the current course of Kosi.

Amid news reports that Kosi's course will be restored by December 15 and the breach would be plugged by March 31, 2009 citing Kosi Breach Closure Advisory Technical Committee chairman Nilendu Sanyal and Ganga Flood Control Commission chairman R C Jha on 14 October, 2008 to finalise modalities on plugging the breach, some participants were opposed to the repair of the breach in Kusaha. Government must hear the views of these people before undertaking repair works.

Meanwhile, central government has sanctioned Rs 40 crore for the project and Bihar Cabinet has sanctioned Rs 197 crore. Bihar Water Resources Minister Bijendra Yadav has said tenders for the breach closure have been invited and bidding will take place after October 21.

Kosi is an international river and all interventions must show utmost sensitivity that does not bring a bad name to our country. The onus is the central government to avoid a situation which makes our country a laughing stock for mismanagement of rivers.

It emerged from the discussions that a list of "what not to do in Kosi basin" must be prepared before relying on the suggestions of retired and tired officials like Nilendu Sanyal and his ilk. Post-retirement enlightenment of engineers has more to do with their own rehabilitation less to do with kosi victims welfare.

People of Kosi basin are victims of development and the arrogance of governmental knowledge that are used to scare common people into silence and submission by their declarations such as "I Know the facts".

From K L Rao, Kanwar Sen, K N Lal to Nilendu Sanyal all of them gave flood control solutions...people in Kosi basin are victims of their solution.

Dr Mishra explained why Kosi has been flowing at a level higher than its adjoining mainland. The reduced cross-section of the river due to embankments was expected to facilitate the dredging of its bed. Instead, the Kosi offloaded silt into the river and raised the level of its bed. That the Kosi is among one of the highest silt-laden rivers in the country makes matters worse. Had the river been free to meander, it would have deposited fertile silt, collected from the slopes of Mount Everest and Kanchenjunga, across the plains of north Bihar. But that was not to be, as most of the silt carried over the years lies trapped between river banks, reducing the stream flow on the one hand and making the embankments vulnerable to breach on the other.

He also revisited historical records and official documents arguing that floods caused by this river are not man-made, they are devil-made. Devils being the nexus between politician-engineer-contractors that feeds on the status quo.

Participants included Himanshu Thakkar, Sudhirendar Sharma, Gopal Krishna, Arvind Chaudhary, Kuber Nath Lal, K P Kesari, R K Singh, S K Sinha, Ram Chandra Khan, Shaibal Gupta, PP Ghosh, Rakesh Bhatt, Vijayji, Shivanand Bhai, C P Sinha, C Uday Bhaskar, V N Sharma, RK Sinha, A K Verma, N Sharma, B Singh, Chandrashekhar, T Prasad, Kavindra Pandey, Prem Kumar Verma, Raj Ballabh and several others.

Kosi is synonymous with the history, culture of not only Mithila but whole of the Indian sub-continent. One cannot think of the Indian sub-continent without thinking about Ramayana (Sita) and Mahabharata (Karna). Ramayana and Mahabharata cannot be even imagined in the absence of Mithila. The structural solutions have already distorted the landscape of the Kosi-Mithila region, Kosi High Dam would turn out to be a monument of foolishness for generations to come. Like the villains of embankment proposal, all the kosi high dam proponents must be identified and dealt with by something like a Kosi Sansad.

The proposal to raise a 269-meter-high dam in Sunakhambi Khola on the Sapta Kosi river, 5 km north of Barahachhetra temple in Sunsari district appeared to be an unsound proposition of people who are caught in a time warp. Proposed "Sapta Kosi Multi Purpose Project" claims to irrigate 68,450 hectares in Nepal and provide remedy for drought-prone areas measuring 1,520,000 hectares in India. It is claimed that alongwith irrigation and flood control, about 3,500 MW of electrical power would also be generated from water stored in the 269-meter-high reservoir.

According to a preliminary impact study, the proposed high dam will displace 75,000 people from about 79 Village Development Committees (VDCs) in nine districts of Nepal alone. About 111 settlements in the 79 VDCs, sprawling over the banks of the Sun Kosi, Tamor, and Arun rivers, will be totally submerged, while 47 settlements will face partial submergence, and 138 will become fractionally submerged.

Opinions available in public domain say, "If the dam is going to cause such upheaval, can the crops produced from the 68,450 hectares of irrigated land in Nepal compensate for this huge loss?" argued the bimonthly magazine, Pro Public/Good Governance, in its report. Estimated losses in the North Bihar are yet to be ascertained.

Elsewhere on the web Vinay Jha, Editor, Mithila Times argues that the kosi High Dam is actually a population-control plan by the government; a dam break in an earthquake prone zone will eradicate poverty in a vast region by eradicating the poor. Narural flow of rivers and natural habitats must not be tampered with, which we must maintain if we want life to exist on Earth. Instead of a gigantic dam, what we need is a gigantic network of very small scale water management schemes, including a vast network of small dams in Himalayas. But Indian officials can never think or manage such schemes.

Earlier, the meeting of the Indo-Nepal Joint Committee on Water Resources in Kathmandu on October 2, 2008 agreed to expedite work on preparation of the Detailed Project Report (DPR) on Saptkosi High Dam on the Kosi.
Both sides reiterated their commitment to expediting the work on preparation of the DPR of Saptkosi High Dam project during the meeting which concluded on Wednesday in Kathmandu. Nepal assured full administrative support and security to Indian engineers.

After the breach, on August 18-19, 2008 Nepal government had said that Kosi treaty is a "historic blunder" but Nepal government's inconsistent and ambiguous position now on the Kosi High Dam proposal based on the same treaty must be exposed in the Nepali parliament and media.

In order to save Kosi region from an ecological and human disaster, Nepali and Indian legislators must take a categorical position based on a referendum on Kosi.

Wednesday, September 3, 2008

Unprecedented human migration and misery due to manmade floods

Unprecedented human migration and misery due to manmade floods

Preliminary findings of the Fact Finding Team on Bihar floods

Nearly 73.06 per cent of the area of Bihar is prone to flooding. It is
estimated that about half a million have migrated from the embanked Kosi
region alone. In the face of mass exodus from the state, the resumption of
flood control embankments aggravates the situation of countrywide
condemnation and humiliation that migrant Biharis face. These structures
have compelled them to migrate in search of livelihood.

A multidisciplinary 14 member Fact Finding Team has concluded its 8 daylong
travel of the flood affected regions of North Bihar wherein it traversed
along the embanked parts of Kosi, Kamala, Bhutahi Balan and Baghmati rivers.
The visit from March 1-8, 2008, entailed visiting Khagaria, Saharsa, Supaul,
Saptari, Kunauli, Kamalpur, Mahadeo Math, Nirmali, Ghoghardiha, Kosi
barrage, Runni Saidpur, Sitamarhi, Vaishali and other places.

The manner in which floods have been amazingly sustained in this region
despite over five decades of relentless efforts have been the core idea
behind this voluntary mission.

Backed by volume of secondary literature but limited primary exposure of
ground realities, this team is anguished to conclude that not only are these
floods manmade but that the worse is yet to come should the political
economy of flood control continue to pivot itself around `temporary
embankment' as the only solution to the scourge of floods. The state
pretends that it is afflicted by the colossal ignorance regarding the
primary function of floodwater--draining out excess water and the fact that
no embankment has yet been built or can be built in future that will not
breach.

The team is outraged to report that the government's investment of over Rs
1600 crores since the early 1950's has helped increase the flood prone area
from 25 lakh hectare during the pre-plan era to over 68.8 lakh hectare
today, an unprecedented three-fold increase. Proposed as temporary measure
to control floods in the 1950s and having had failed on all fronts, the team
is bewildered to note that the business of embankment construction has
resumed after a lapse of 17 years with a Rs 792 crores package to tame the
Bagmati. There is another proposal to embank the tributaries of Mahananda at
an estimated cost of Rs 850 crores. Clearly, the lessons in human misery
have not been learnt.

That over 2 million people are permanently trapped between the flood control
embankments and an equal number of people faced with acute water logging in
the so-called flood protected areas, only exposes the stark failure of the
state's democratic governance. The team observed the inevitability of
migration due to loss of livelihood that is a consequence of state's benign
intervention and its callousness. This exposes the migrant Bihari population
to the wrath of perverted political monsters in Assam, Maharasthra, Punjab,
and Delhi. Sporadic incidents across the country demonstrate state's
collusive inaction. The team is astounded to observe that the state remains
a mute spectator to the denial of basic rights of livelihood and instead it
accentuates their misery by pretending ignorance about the outdated, tried,
tested and failed technology of embankments as if it is caught in a time
warp.

The team observed state's arrogance and misplaced faith in engineering that
has stopped the natural process of `landbuilding' by these rivers, a process
that had ushered in necessary socio-cultural conditions for emergence of
`civilisation'. Need it be said that the marriage of natural capital and
social capital had made Bihar the apex knowledge center. The total collapse
of this knowledge culture within the state is a result of embankment of this
capital.

The team notes that 8.36 lakh hectare of land in North Bihar is permanently
waterlogged, which is nearly 16 per cent of the North Bihar's total area.
Some 8 million people have been directly hit by water logging, earning the
state the dubious distinction of being the leading claimant of this kind of
manmade submergence. Draining vast stretches of waterlogged land is
technologically and financially unfeasible. Can any welfare state afford to
keep its most fertile lands under water?

The team witnessed how the poor and the powerless are obviously the main
victims. It emerged from the narratives of the villagers that embankments
are for the benefit of the contractor politicians and the technocratic
development ideology to deal with flood suits them unmindful of the
environmental and social mess.

As the embankment lobby has gained momentum once again, the fact that such
interventions will raise river levels by several meters, making the land
between the embankments uninhabitable for millions of people displacing them
for good. The bitter experience of flood control embankments has given birth
to a strong sentiment against it.

The team shockingly wondered about the land use change that has adversely
affected the ecosystem of the region contributing to the rupture of its
carrying capacity. It makes a classic case requiring urgent measures to undo
the damages that appear beyond redemption.

The team examined the impact of flood control measures and the trends in
consequent losses in the region. The team has inferred that migration is an
indicator of the enormity of glaring state failure. Embankments remain the
main loss-determining factor. The team calls for a white paper on the impact
of existing embankments.

Those living today in the flood-affected region are promised other
ecologically disastrous projects like Barahkshethra Dam and Interlinking of
Rivers is like proposing one catastrophe to solve another a la devil and the
deep sea.

The observations made by the team are its preliminary findings. The final
and detailed report of the Fact Finding Team would be shared in due course.

How relevant is Kosi treaty of 1954

Note: How relevant is the agreement in the event of the breach in the east Kosi
embankment at Kusaha in Nepal on August 18?

According to Bihar government, flood has hit the state's 14 districts of Saharsa, Muzaffarpur, Katihar, West Champaran, Patna, Nalanda, Khagaria, Sheikhpura, Purnia, Saran, Begusarai, Supaul, Araria and Madhepura. The worst hit districts are Supaul, Araria and Madhepura where over 60 relief camps have been set up.

Kosi Agreement between India and Nepal

THIS Agreement made this twenty fifth day of April 1954, between the Government
of the Kingdom of Nepal (hereinafter referred to as the 'Government') and the
Government of India (herein after referred to as the 'Union')

WHEREAS the Union is desirous of constructing a barrage, head-works and other
appurtenant work [s] about 3 miles upstream of Hanuman Nagar town on the Kosi
River with afflux and flood banks, canals and protective works, on land lying
within the territories of Nepal, for the purpose of flood control, irrigation,
generation of hydroelectric power and prevention of erosion of Nepal areas on
the right side of the river, upstream of the barrage (hereinafter has referred
to as the 'Project');

AND WHEREAS the Government has agree to the construction of the said barrage,
head-works and other connected works by and a the cost of the Union, in
consideration of the benefits hereinafter appearing;

1. Now the parties agree as follows:

(i) The barrage will be located about 8 miles upstream of Hanuman Nagar town.

(ii) Details of the Project - The general layout of the barrage, the areas
within afflux bank, flood embankments and the lines of communications are shown
in the plan annexed to this agreement as Annexure A1.

(iii) For the purpose of clauses 3 and 8 of the agreement, the land under the
ponded areas and boundaries as indicated by the plan specified in sub-clauses
(ii) above, shall be deemed to be submerged.

2. Preliminary Investigations and Surveys

(i) The Government shall authorise and give necessary facilities to the canal
and other officers of the Union or other persons acting under the general or
special orders of such officers to enter upon such lands as necessary with such
men, animals, vehicles, equipment, plant, machinery and instruments as necessary
and undertake such surveys and investigations required in connection with the
said Project before, during and after the construction, as may be found
necessary from time to time by the Chief Engineer, Public Works Department (Kosi
Project ) in the Irrigation Branch of the Bihar Government. These surveys and
investigations will comprise aerial and ground surveys, hydraulic, hydrometric,
hydrological and geological surveys including construction of drillholes for
surface and sub-surface explorations; investigations for communications and for
materials of construction; and all other surveys and investigations necessary
for the proper design, construction and maintenance of the barrage and all its
connected works mentioned under the Project.

here
(ii) The Government will also authorise and give necessary facilities for
investigations of storage or detention dams on the Kosi or its tributaries, soil
conservation measures such as check dams, afforestation, etc., required for a
complete solution of the Kosi problem in the future.

3. Authority for Execution of Works and Occupation of Land and other Property.
(i) The Government will authorise the Union to proceed with the execution of the
said Project as and when the Project or a part of the Project receives sanction
of the said Union and notice has been given by the Union to the Government of
its intention to commence work on the Project and shall permit access by the
engineer(s) and all other officers, servants and nominees of the Union with such
men, animals, vehicles, plants, machinery, equipment and instruments as may be
necessary for the direction ad execution of the project to all such lands and
places and shall permit the occupation, for such period as may be necessary of
all such lands and places as may be required for the proper execution of the
Project.

(ii) The land required for the purposes mentioned in the clause 3(i) above shall
be acquired by the Government and compensation thereof shall be paid by the
Union in accordance with provisions of clause 8 hereof.

(iii) The Government will authorise officers of the Union to enter on land
outside the limits or boundaries of the barrage and its connected works in case
of any accident happening or being apprehended to any of the said works and to
execute all works which may be necessary for the purpose of repairing of
preventing such accident: compensation, in every case, shall be tendered by the
Union to the proprietors or the occupiers of the said land for all damages done
to the some through the Government in order that compensation may be awarded in
accordance with clause 8 hereof.

(iv) The Government will permit the Union to quarry the construction materials
required for the Project from the various deposits as Chatra, Dharan Bazar or
other places in Nepal.

4. Use of water and power

(i). Without prejudice to the right of Government to withdraw for irrigation or
any other purpose in Nepal such supplies of water, as may be required from time
to time, the Union will have the right to regulate all the supplies in the Kosi
River power at the Barrage site in to generate power at the same site for the
purpose of the Project.

(iii) The Government shall be entitled to use up to 50 percent of the
hydro-electric power generated at the Barrage site Power House on payment of
such tariff rates as may be fixed for the sale of power by the Union in
consultation with the Government.

5. Sovereignty and Jurisdiction

The Union shall be the owner of all lands acquired by the Government under the
provisions of clauses 3 hereof which shall be transferred by them to the Union
and of all water rights secured to it under clause 4 (i)

Provided that the sovereignty rights and territorial jurisdiction of the
Government in respect of such lands shall continue unimpaired by such transfer.

6. Royalties

(i)The Government will receive royalty in respect of power generated and
utilized in the Indian Union at rates to be settled by agreement hereafter.
Provided that on royalty will be paid on the power sold to Nepal.

(ii) The Government shall be entitled to receive payment of royalties from the
Union in respect of stone, gravel and ballast obtained from the Nepal territory
and used in the construction and future maintenance of the barrage and other
connected works at rated to be settled by agreement hereafter.

(iii) The Union shall be at liberty to use and remove clay, sand and soil
without let or hindrance from lands acquired by the Government and transferred
to the Union.

(iv) Use the timber from Nepal forests, required for the construction shall be
permitted on payment of compensation.

Provided to compensation will be payable to the Government for such quantities
of timber as may be decided upon by the Government and the Union to be necessary
for use on the spurs or other training works required for the prevention of
caving and erosion of the right bank in Nepal.

Provided likewise that no compensation will be payable by the Union for any
timber obtained from the forest lands acquired by the Government and transferred
to the Union.

7. Customs Duties

The Government shall charge no customs duty or duty of any kind during
construction and subsequent maintenance, on any articles or materials required
for the purpose of the project and the work connected therewith or for the bona
fide use of the Union.

8. Compensation for Land and Property

(i) For assessing the compensation to be awarded by the Union to the Government
in cash (a) lands required for the execution of the various works as mentioned
in clause 3(ii) and (b) submerged lands, will be divided into the following
classes:

1. Cultivated lands

2. Forest lands

3. Village lands and houses and other immovable property standing on them.

4. Waste lands (i) All lands recorded in the register of lands in the territory
of Nepal as actually cultivated shall be deemed to be cultivated lands for the
purposes of this clause.

(ii) The Union shall pay compensation (a) to the Government for the loss of land
revenue as at the time of acquisition in respect of the area acquired and (b) to
whomsoever it may be due for the Project and transferred to the Union.

(iii) The assessment of such compensation, and the manner of payment shall be
determined hereafter by mutual agreement between the Government and the Union.

(iv) All lands required for the purposes of the project shall be jointly
measured by the duly authorised officers of the Government and the Union
respectively.

9. Communications

(i) The Government agrees that the Union may construct and maintain roads,
tramways, ropeways etc. required for the Project in Nepal and shall provide land
for these purposes on payment of compensation as provided in clause 8.

(ii) Subject to the territorial jurisdiction of the Government the ownership and
the control of the metalled roads, tramways, and railway shall vest in the
Union. The roads will be essentially departmental roads of the irrigation
Department of the Union and any concession in regard to their use by commercial
and non-commercial vehicles of Nepal shall not be deemed to confer any right of
way.

(iii) The Government agreed to permit, on the same terms as for other users, the
use of all roads, waterways and other avenues of transport and communication in
Nepal for bona fide purposes of the construction and maintenance of the barrage
and other connected works.

(iv) The bridge over Hanuman Nagar Barrage will be open to public traffic but
the Union shall have the right to close the traffic over the bridge for repairs,
etc.

(v) The Government agrees to permit the use of telephone and telegraph in the
project area to authorised servants of the Government for business in
emergencies provided such use does not in any way interfere with the
construction and operation of Projects.

10. Use of River Craft

All navigation rights in the KosiRiver in Nepal will rest with the Government.
The use of water-craft like boat launches and timbe rafts within two mils of the
Barrage and headworks shall not be allowed except by special licence under
special permits to be issued by the Executive Engineer, Barrage. Any
unauthorised watercraft found within this limit shall be liable to prosecution.

11. Fishing Rights

All the fishing rights in the KosiRiver in Nepal except within two miles of the
Barrage shall vest in the Government of Nepal. No fishing will be permitted
within two miles of the Barrage and Headworks.

12. Use of Nepali labour

The union shall give preference to Nepali labour, personnel and contractors to
the extent available and in its opinion suitable for the construction of the
Project but shall be at liberty to import labour of all classes to the extent
necessary.

13. Administration of the Project Areas in Nepal

The Union shall carry out inside the Project areas in the territory of Nepal
functions such as the establishment and administration of schools, hospitals,
provision of water-supply and electricity, drainage, tramway lines and other
civic amenities.

14. The Government shall be responsible for the maintenance of laws and order in
the Project areas within the territory of Nepal. The Government and Union shall,
from time to time consider and make suitable arrangements calculated to achieve
the above object.

15. If so desired by the Union, the Government agrees to establish special court
or courts in the Project area to ensure expeditions disposal of cases arising
within the Project area. The Union shall bear the cost involved in the
establishment of such courts, if the Government so desires.

16. Future Kosi Control Works

If further investigations indicate the necessity of storage or detention dams
and other soil conservation measures on the Kosi and its tributaries, the
Government agree to grant their consent to them on conditions similar to those
mentioned herein.

17. Arbitration

If any question, differences or objections whatever shall arise in any way,
connected with or arising out of this agreement or the meaning or operation of
any part thereof or the rights, duties or liabilities of either party, except as
to decisions of any such matter as therein before otherwise provided for, every
such matter shall be referred for arbitration to two persons-one to be appointed
by the Government and the other by the Union-whose decision shall be final and
binding, provided that in the event of disagreement between the two arbitrators,
they shall refer the matter under dispute for decision to an umpire to be
jointly appointed by the two arbitrators before entering on the reference.

18. This agreement shall be deemed to come into force with effect from the date
of signatures of the authorised representatives of the Government and the Union.
respectively.

IN WITNESS WHEREOF the undersigned being duly authorised thereto by their
respective Governments have signed the present agreement.
DONE at Kathmandu, in duplicate, this twentyfifth day of April 1954.

Government
Sd/-

GULZARILAL NANDA

For the Government of India.

Sd/-

MAHA BIRSHUMSHER
For the Government of Nepal.2008-08-21 07:32:09