समग्रता की कमी है
गोपाल कृष्ण
आखिरकार, भारत सरकार ने महसूस कर लिया कि गंगा को राष्ट्रीय नदी मान लेना चाहिए. राष्ट्रीय होने के लिए जो जरूरी सरकारी उपाय हैं वे पूरे किये जाएंगे और किसी दिन धूमधाम से फाईलों में गंगा की बजाय नेशनल रीवर गंगा लिखा नजर आने लगेगा. लेकिन राष्ट्रीय होने की यह चिंता इतनी देर से क्यों हुई जब यह भविष्यवाणी की जा रही है कि सन २०२५ तक गंगा का पानी सूख जाएगा.
गंगा नदी तो शायद रह भी जाए लेकिन वह गंगा नहीं रह जाएगी. एक सरकारी व्यवस्था ६० साल की कोशिशों के बावजूद भी जितने लोगों का भरण-पोषण नहीं कर पायी उससे ज्यादा लोगों का भरण-पोषण गंगा अपने दम पर करती आयी है. दुनिया की १/८ आबादी गंगा मैया के वरदान पर निर्भर है. हर १० मे ४ भारतीय को मां गंगा पालती है. भारत ही नहीं, अब पड़ोसी देश हो चुके बांग्लादेश में भी गंगा लोगों को रोजी-रोटी देती है. ऊपर नेपाल और भूटान भी गंगा के प्रभाव और प्रसाद से अछूते नहीं है. एक नदी मां का दर्जा ऐसे ही थोड़े पा जाती है. मां होने के लिए जिस समग्र सेवा का भाव चाहिए वह गंगा निर्बाध और अबाध रूप से अपने बेटों के लिए करती आयी है. सदियां आयीं और गयी लेकिन सगरपुत्रों को तारने से लेकर आज तक कोटि-कोटि जनों को गंगा ने पाला-पोसा और इस लोक ही नहीं उस लोक में भी अपने पिता के साम्राज्य में स्थान दिलवाया. लेकिन आधुनिक विकास की अंधी दौड़ ने उस प्राणधारा को ही काटने का काम शुरू कर दिया जिससे कोटि-कोटि जन इस लोक और उस लोक में सम्मानजनक स्थान पाते थे. औद्योगिक पागलपन की एक ऐसी अंधी दौड़ शुरू हुई कि हमारे लिए गंगा बिजली बनाने, नाला गिराने, औद्योगिक कचरा बहाने तक सीमित होता गया. इन्हें रोकने की राजनीति हुई, आंदोलन हुए लेकिन कभी रूका कुछ नहीं. मानों गंगा ने भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था. अगर लोग यही चाहते हैं कि गंगा विदा हो जाए तो फिर गंगा यहां जबर्दस्ती धरती पर क्यों बनी रहे?
ऐसे मुश्किल दौर में गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा क्षणिक तौर पर सुकून तो देता ही है. लेकिन इस घोषणा में वह समग्रता नहीं है जिसकी आज के समय में सबसे ज्यादा जरूरत है. तात्कालिक राजनीतिक परस्थितियां देखें तो गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करके प्रधानमंत्री ने एक तीर से तीन शिकार किया है. उनका पहला शिकार हिन्दू वोट बैंक है. दूसरा शिकार वे हिन्दूवादी नेता और आंदोलनकारी हैं जो गंगा बचाने का आंदोलन चला रहे थे. और इस घोषणा का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण शिकार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं. इस घोषणा से मायावती की बहुउद्देश्यीय गंगा एक्सप्रेसवे खटाई में पड़ सकती है क्योंकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ ही अब बात केवल नदी की धारा और प्रदूषण तक सिमटकर नहीं रहेगी. बात पूरे गंगा बेसिन को बचाने की होगी. लेकिन कैसे? पानी बचाने की योजना बिना माटी बचाए कैसे संभव होगी? माटी और पानी बचाने के लिए जीवन दर्शऩ को भी बचाने की जरूरत होगी, उसे खारिज करके जिस गंगा को राष्ट्रीय बना देंगे तो वह कितनी राष्ट्रीय रह जाएगी?
प्रधामंत्री की इस घोषणा में सोनिया गांधी की सलाह साफ दिखाई दे रही है. सितंबर की शुरूआत में सोनिया गांधी बनारस गयी थीं. इस साल बनारस में एक ऐसी घटना हुई जिसे लेकर गंगा के प्रति संवेदनशील बनारसी लोग बहुत चितिंत हैं. वह यह कि पहली बार शायद गंगा और बनारस के इतिहास में ऐसा हुआ है कि गंगा ने अपना पाट छोड़ दिया था. इसी वक्त में सोनिया गांधी का बनारस जाना अच्छा मौका था कि लोगों ने अपनी गंगा चिंता उनके सामने रखी. वीरभद्र मिश्र ने बहुत कारूणिक अंदाज में सोनिया गांधी को याद दिलाया कि कैसे राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे पहला बड़ा निर्णय यही लिया था कि गंगा नदी को कैसे साफ बनाया जाए. इसके लिए उन्होंने १९८५ में गंगा एक्शन प्लान बनाने की घोषणा की थी. यह एक्शन प्लान सरकार के साथ जनभागीदारी करके गंगा को बचाने की मुहिम थी. बीरभद्र मिश्र ने यही सब सोनिया गांधी को याद दिलाया. सोनिया गांधी भी भावुक हो गयीं.
वे दिल्ली लौटकर आयीं तो जल संसाधन मंत्री से कहा कि वे इस बारे में कुछ करें. जल संसाधन मंत्री ने पर्यावरण मंत्रालय के साथ मिलकर एक बैठक की. बैठक में तय किया गया कि गंगा को समग्र रूप से देखने की जरूरत है. अभी गंगा राज्यों में बंटी हुई है. अगर गंगा को संरक्षित रखना है तो एक ऐसा प्राधिकरण बनाना चाहिए जिससे गंगा रक्षा के लिए लागू की जा रही सारी योजनाओं की समीक्षा हो सके और नयी योजनाओं को लागू किया जा सके. गंगा की कुल लंबाई २५१० किलोमीटर का समग्र रूप से अध्ययन किया जाए. आम सहमति बनने के बाद प्रधानमंत्री ने ४ नवंबर को यह घोषणा कर दी कि जल्द ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया जाएगा. इसका मतलब है कि गंगा को अलग-अलग राज्य सरकारें अभी तक प्रोजेक्ट के रूप में देखती और उसके पानी के उपयोग-दुरूपयोग का निर्णय लेती थी. राष्ट्रीय प्राधिकरण बन जाने के बाद अब यह प्राधिकरण ही गंगा के बारे में ही सारे निर्णय लेगा.
अगर सिर्फ इतना भर होने से ही गंगा राष्ट्रीय नदी हो जाती हैं तो फिर उम्मीद की किरणें एक बार फिर धूमिल हो जाती है. महत्वपूर्ण तो यह है कि क्या गंगा के प्रति सरकार का नजरिया बदल जाएगा? क्या औद्योगीकरण की नीतियों में कोई बदलाव आयेगा? क्या गंगा को केवल गंगा के रूप में ही देखा जाएगा या फिर उसकी सहायक नदियों के बारे में कोई विचार किया जाएगा? उत्तर में गंगा यमुना, रामगंगा, गोमती, शारदा, कोसी, महानंदा, घाघरा और गंडक को अपने साथ लेती है तो दक्षिण से आनेवाली चंबल, केन, बेतवा, सोन, दामोदर को साथ लेकर चलती है. अगर इन नदियों की दुर्दशा जारी रही तो अकेले गंगा को राष्ट्रीय नदी बना देने से क्या हो जाएगा? क्या उस दृष्टिकोण में कोई बदलाव आयेगा जो नदी को संसाधन मानकर उसका दुरूपयोग करता है? यह मानसिकता भी तो इसी प्रणाली की उपज है. अगर सरकारी महकमा गंगा को केवल संसाधन ही मानता रहा तो इस तरह की घोषणाओं का क्या मतलब है?
पहले भी प्रधानमंत्री की देखरेख में बाघों को बचाने का प्राधिकरण काम कर रहा है. क्या हुआ? कितने बाघ बचे? यह बात सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालय का सीधा हस्तक्षेप रहने से प्राधिकरण उतना लापरवाह नहीं हो पायेगा जैसा कि आमतौर पर कोई सरकारी विभाग हो जाता है. फिर भी राष्ट्रीय नदी की राजनीतिक घोषणा से आगे निकलकर बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है. सरकार और राजनीतिक दल दोनों को अपनी नदियों, मिट्टी, साधन और संसाधन के बारे में उधार की मानसिकता से सोचने की जरूरत नहीं है. नदी हमारी है, लोग हमारे हैं, हम लोगों को ही नदी बचानी है ताकि हम बचे रहें. सरकार में बैठे अफसर और कारकून जब तक इस हकीकत को स्वीकार नहीं करेंगे ऐसी घोषणाओं से कुछ खास हासिल नहीं होगा, सिवाय इसके कि अगली बार सरकार में आने के लिए कुछ वोटों की व्यवस्था और हो जाए. ऐसे सतही राजनीतिक दृष्टिकोण से गंगा राष्ट्रीय नदी भले ही जाए आम भारतीय का भरण-पोषण करनेवाली मां शायद ही रह पाये. गंगा के बारे में जब हम सोचें तो यह सोचें कि यह राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय नदी है और सीमाओं में बंटे लोगों में बिना भेदभाव चार देशों के लोगों को सम्मानजक जीवन ही नहीं, मोक्ष का भी रास्ता दिखाती है.
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