Monday, December 8, 2008

घर बैठो और घाव चाटो

हमारी मुंबई कहती है कि पाकिस्तान पर तत्काल हमला करो और उसे मिट्टी में मिला दो। आतंकवाद से लड़ने का यही अमेरिकी तरीका है. लेकिन अमेरिका कहता है कि पागलपन मत करो। हमारी तरह तुम उसके लायक नहीं हो। पागल होने के लिए हथियार और पैसे चाहिए जो तुम्हारे पास नहीं है। घर बैठो और घाव चाटो।

पढ़ी-लिखी और खाती-पीती मुंबई बुधवार की शाम मोमबत्ती लेकर गेट वे ऑफ इंडिया पहुंची। हजारों की तादाद में। कहते हैं, लाख से दो लाख लोग वहां शाम से रात तक एक साथ नहीं तो अलग-अलग समय पर आए। जिन टीवी एंकरों और उनके संपादकों ने भारत में जन आंदोलन में जनता का शामिल होना नहीं देखा है उनने इस उमड़ाव को अभूतपूर्व कहा।सही है कि इस मुंबई को कोई राजनीतिक पार्टी या संगठन ढो के नहीं ले गया था। वहां जो भी आए थे अपनी आंतरिक मजबूरी और मर्जी से आए थे। आंतकवाद के विरूद्ध घर से निकल कर अपना गुस्सा निकालने और आक्रोश जताने का आवाहन उनसे सभ्य समाज की स्वयंसेवी संस्थाओं ने किया था। हाथ में जलती मोमबत्तीयां लेकर चलना-हम होंगे कामयाब जैसे अंग्रेजी से अनुदित गीत गाना, हाथ में तख्ती पर अपना संदेश या नारा लिखना- ये- सब जन आंदोलनों के नहीं- विशेष अभियानों के दृश्य हैं। संतोष की बात यही है कि ऐसे अभियानों में शामिल होने वाले सभी लोग वहां आए थे इससे वह जन उभार लग रहा था।

सभी कुछ न कुछ कहना चाहते थे। सभी टीवी चैनलें माइक लिए उनके सामने खड़ी थीं। दिक्कत यही थी कि उनके पास कुछ सेंकेंड से ज्यादा समय नहीं होता था और बोलने वालों में घंटों के बारूद भरी थी। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह अपने फलीभूत होने और धन्यता महसूस करने का अवसर होता है जब लोक- महत्व की भयावह दुर्घटना के बाद लोग अपनी एकजुटता दिखाने और अपनी बात कहने को खुद ही इस तरह इकट्ठा हों। यह भावना निश्चित ही सलाम करने लायक है। लेकिन वहां जो कहा और चाहा गया उससे साफ है कि संकट के क्षणों में हमारा पढ़ा-लिखा सभ्य समाज भी कितना विचलित और दिग्भ्रमित हो सकता है।

आंतकवादी हमले के शिकार ताज होटल के सामने गेट वे ऑफ इंडिया पर आए लोगों और उनकी मांगों के बारे में उन्हीं में से अंग्रेजी भाषी एक जवान ने एक चैनल पर कहा- मैं अपने पर शर्मिंदा हूं। यहां आए इन सभी लोगों पर शर्मिंदा हूं। भारत में आतंकवादी दुर्घटनाएं बरसों से हो रही हैं। चौराहों, सड़कों, रेलों, बाजारों में बम फटते आ रहे हैं और हजारों लोग मरे हैं। लेकिन यह पहली बार हुआ है पांच सितारा होटलों पर हमले हुए हैं और अमीर लोग मारे गए हैं और ये लोग मोमबत्तियां लेकर यहां इकट्ठे हो गए हैं. अभी कुछ महीनों पहले दिल्ली में बम फटे थे तो कौन आया था यहां? आज के बाद ये लोग भी यहां नहीं आएंगे। इस पर उसके पास खड़े लोगों नं कहा- आएंगे। लोग उसका बोलते जाना पसंद नहीं कर रहे थे। वह अपनी बात पूरी करता इसके पहले ही माइक उसके सामने से हटा लिया गया।

उस जवान ने ठीक कहा था। आंतकवाद का सीधा हमला पहली बार इंडिया पर हुआ है और खाते-पीते सुरक्षित लोगों का सभ्य संसार टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे भयभीत और चिंतित हैं और सुरक्षा की मांग करते हुए सड़कों पर निकल आए हैं। भीड़ में खड़े हैं, क्योंकि भीड़ बड़ी सुरक्षा देती है। वे लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए निकम्मे नेताओं का खून मांग रहे हैं। उन्हें जेड सिक्यूरिटी और मेरे स्कूल जाते बच्चों की कोई सुरक्षा नहीं-गुससे में एक मां ने अंग्रेजी में पूछा।

कॉलेज जाते एक लड़के ने कहा- ये मनमोहन सिंह क्या बोलता है, मुझे समझ नहीं आता। ऐसे काम नहीं चलेगा। हमें मुशर्रफ जैसा कोई स्मार्ट डिक्टेटर चाहिए, जो तत्काल कड़ी कार्रवाई कर सके। एक तगड़े डिक्टेटर की मांग कई लोगों ले की, क्योंकि मुंबई पर हुए आतंकी हमले का मुंहतोड़ और सबसे लोकप्रिय जवाब यही था कि पाकिस्तान पर तत्काल हमला करके उसे मिट्टी में मिला दिया जाए। अमेरिका पर 9/11 हुआ तो उसने इराक और अफगानिस्तान पर हमला करके उन्हें मिट्टी में मिला दिया। उसके बाद अमेरिका पर हमला करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई।

उस शाम गेट वे ऑफ इंडिया पर आतंकवाद से लड़ने में सफल होने वाला देश अमेरिका ही था। इराक और अफगानिस्तान पर बुश के हमले आदर्श थे, जिनका अनुसरण भारत को करना चाहिए। अमेरिका और ब्रिटेन पर एक के बाद आंतकवादी हमला नहीं कर सके, क्योंकि उनने मुंहतोड़ जवाब दिए। कड़े कानून बनाए। भारत को भी यही करना चाहिए। तत्काल। हम सब उसके साथ हैं। भारत माता की जय। वंदे मातरम। पाकिस्तान मुर्दावादी के नारे चारों तरफ से लग रहे थे। पढ़ी-लिखी और खाती-पीती मुंबई को एक स्मार्ट और शक्तिशाली डिक्टेटर की तलाश थी जो पाकिस्तान पर हमला करके उसके धुर्रे बिखेर दे, ताकि मुंबई के भले लोग सुरक्षित महसूस कर सकें और उन पर हुए हमले का बदला लिया जा सके।
हमारे राजनेता निकम्मे हैं और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में ठीक से काम नहीं होते तो किया क्या जाए? चैनल वालों ने लोगों से पूछा। किसी ने भी नहीं कहा कि कोई राजनेता और लोकतंत्र काम कर सकता है। पढ़े- लिखे डिग्रीधारी लोगों की लोकसेवी पार्टी बनाने से लेकर अनेक सुझाव दिए गए। कुछ लोगों ने कहा कि कॉरपोरेट और सिलेब्रिटीज को साथ आना चाहिए। कोई अंग्रेजी चैनलों के एंकरों और संपादकों को कुछ करने को कह रहा था। दो-तीन लोगों ने बड़ी गंभीरता के साथ सुझाव दिया कि टाटा को महाराष्ट्र, अंबानियों को गुजरात और इस तरह के एक-एक कॉपोरेट को एक-एक राज्य मैनेज करने को दिया जाना चाहिए। बाबुओं के बजाय सिपाहियों और कमांडो की तनखा बढ़ा देनी चाहिए। शहीदों के परिवारों को लाखों नहीं करोड़ों रूपए दिए जाने चाहिए। देश का कामकाज चलाने के लिए बिलकुल दफतरी ढंग के सुझाव और व्यवस्था बताई गई। राजनेता निकम्मे और कॉपोरेट जिम्मेदार, लोकतंत्र अप्रभावी और तानाशाही और कंपनी व्यवस्था बेहतर बताई गई।
इक्का-दुक्का लोग लोकतंत्र को सुधार कर प्रभावी बनाने वाले भी निकले। एक सज्जन तो माहात्मा गांधी बन कर ही आए। अंग्रेजी बोलने-चालने और गुस्साए उन लोगों में गांधी ही एक प्रतीक था जो खड़ा रह सका और चल-फिर सका। नहीं तो पाकिस्तान पर हमला करने और डिक्टेटर को राज सौंपने की मांग करने वाले उन लोगों में समझदारी बड़ी मुश्किल से मिल सकती थी। चैनलों की मांग थी कि इन लोगों का गुस्सा समझो और उनकी आहत भावनाओं का सम्मान करो। ये लोग बता रहे थे कि टीवी चैनल अपने पढ़े-लिखों और खाते-पीते लोगों में कैसा समाज बना रहे हैं। कितनी और कैसी इनकी जानकारी है और चीजों की कितनी और केसी समझ है। अपनी सुरक्षा की भावना के चूर-चूर हो जाने के बाद अच्छे-भले लोग भी किस तरह घबरा जाते हैं। और अपने टीवी चैनल?

ताज और ओबराय होटलों में आतंक मचाने के पहले दो आतंकवादी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस गए थे। यह स्टेशन ताज से भी बड़ी धरोहर है और लाखों लोग रोज इससे आते जाते हैं। इस भीड़ भरे रेलवे स्टेशन पर आंकतवादियों ने देखते-देखते छप्पन लोगों को मार दिया। वहां बाबा आदम के जमाने की बंदूकों वाले सिपाही थे। वह तो उद्घोषणा करने वाले एक झेंडे साब ने आतंकवादियों को गोली चलाते देख लिया और बार-बार चिल्ला कर लोगों से भागने और आती रेलगाड़ियों में यात्रियों से पीछे लौटने की अपील की। लोग बच गए और खाली प्लेटफार्म छोड़ कर आतंकवादी बाहर निकले। यहीं से वे कामा हास्पिटल गए। करकरे, काम्टे, सालस्कर आदि पर लोलियां चलाईं। गाड़ी लेकर भागे। गिरगांव चौपाटी पर एक मार गया और दूसरा पकड़ा गया। लेकिन इस हमले की न तो किसी के पास फुटेज थी न तीन दिन तक किसी ने सीसीटीवी को फुटेज प्राप्त करने की कोशिश की। सब ताज और ओबराय पर कैमरे लगाए बैठे रहे। नरीमन हाउस पर भी उतना ध्यान नहीं दिया गया।

अंग्रेजी चैनलों पर तो छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हमले का जिक्र तक नहीं होता था। आखिर एनडीटीवी की बरखा दत्त को फिल्मकार और सांसद श्याम बेनेगल ने कहा कि `आपके कवरेज तक में वर्ग चरित्र प्रकट होता है। पहली और सबसे बड़ी दुर्घटना छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हुई और वहीं सबसे ज्यादा लोग-छप्पन-मारे गए। लेकिन उन चेहराविहीन लोगों को आप दिखाते तक नहीं।´ कहां से दिखाते? न फुटेज था न सहानुभूति थी न आतंकवादी हमले की समझ थी। वे तो इसे भारत का 9/11 कह रहे थे। ताज होटल वल्र्ड ट्रेड सेंटर और ओबराय पेंटागन। आतंकवादी इन्हीं को नष्ट करने आए थे। अमेरिका में वे सफल हुए। हमारे वीर कमांडों ने यहां उन्हें मार गिराया।

मुंबई का ताज होटल इंडिया के धनपतियों और खाते-पीते लोगों के गर्व और संपत्ति का प्रतीक है। वह बड़े लोगों की धरोहर है, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस भी धरोहर है, पर ऐसे लोगों की जिनके पास अपने मृतकों को दफनाने के पैसे नहीं हैं। वह उन्हीं लोगों की धरोहर है जो सन अस्सी से किसी न किसी तरह के आतंकवाद के शिकार हो रहे हैं। मुंबई में भी उत्तर प्रदेश जाती रेलगाड़ी के छप्पन लोगों को मार कर आतंकवाद ताज और ओबराय होटलों में पहुंच सका। गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्ती जलाने वालों को छत्रपति शिवाजी टर्मिनस में मरने वाले किसी असहाय शिकार की याद थी? किसे थी? आतंकवादी वहां आठ किलो का बम छोड़ गए थे। जो ठीक सात दिन वाद लावारिस सामान में मिला और नाकाम किया गया, क्योंकि इस्तीफा देते मुख्यमंत्री वहां आए थे। नहीं तो लावारिस सामान में वह फटता और न जाने कितने लावारिस लोगों की जान ले लेता।

प्रभाष जोशी
08 December, 2008
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