Thursday, September 16, 2010

कांग्रेस के हाथ लगेगी सत्ता की चाबी (चौथी दुनिया की रिपोर्ट )

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पांच साल पहले रामविलास पासवान सत्ता की चाबी लेकर घूम रहे थे. बहुमत न मिलने के कारण नीतीश और लालू उन्हें मनाते रहे, लेकिन उन्होंने सत्ता की चाबी किसी को नहीं सौंपी. नतीजा यह हुआ कि किसी की सरकार नहीं बनी और सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. आज हालात बदल गए हैं. पासवान का लालू के साथ गठबंधन है और नीतीश कुमार सत्ता में हैं, मगर सूबे के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि इस बार भी सत्ता की चाबी का सवाल सामने आ गया है. ज़मीनी स्तर पर जनता का मिजाज़ भांपने से लगता है कि कांग्रेस इस बार सरकार बनाने में अहम भूमिका निभा सकती है. सी वोटर के एक सर्वे में कांग्रेस के खाते में 26 सीटें दिखलाई गई हैं. सर्वे से अलग बात करें तो अब तक जो तैयारी कांग्रेस की तऱफ से दिख रही है, उससे यही लगता है कि पिछले चुनाव की तुलना में इस बार पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहेगा. ज़िलों से आ रहे संकेत भी कांग्रेस के लिए शुभ हैं. कांग्रेसी नेता सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं, पर हक़ीक़त यह है कि पार्टी की पूरी कोशिश है कि कम से कम इतनी सीटों पर जीत हासिल कर ली जाए कि पार्टी के समर्थन के बिना बिहार में कोई सरकार न बन पाए. कांग्रेसी जानते हैं कि संगठन के मामले में अब भी पार्टी का़फी कमज़ोर है और उसके पास चुनाव जीतने वाले नेताओं का भी अभाव है. दूसरे दलों के दमदार नेताओं पर पार्टी की नज़र है. टिकट वितरण से नाराज़ दूसरे दल के दमदार नेता अंतिम समय में कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं. कांग्रेसी चाहते हैं कि बिहार में जो अगली सरकार बने, वह कांग्रेस की शर्तों पर बने. मतलब कांग्रेसी हर हाल में सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखना चाहते हैं और इसकी पूरी तैयारी में वे लगे हैं.

मौजूदा राजनीतिक हालात में अगर कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ तो दोनों बड़े गठबंधनों को सौ-सौ का आंकड़ा पार करने में मुश्किल होगी. कांग्रेस के पक्ष में अगर मतदाताओं की गोलबंदी जारी रही तो तीस से चालीस सीटों पर उसके प्रत्याशी जीत कर आ सकते हैं.

कांग्रेस की इसी रणनीति को ध्वस्त करने के लिए जदयू एवं राजद ने हर एक मोर्चे पर उसे घेरने का काम शुरू कर दिया है. तैयारी यह है कि कांग्रेस के हर हथियार को भोथरा करके यह साबित कर दिया जाए कि राजद गठबंधन एवं जदयू गठबंधन ही चुनाव के दो धु्रव हैं और जनता को इन्हीं दोनों में से किसी एक पर अपना फैसला सुनाना चाहिए. आंकड़ों व मुद्दों को ढाल बनाकर जनता को यह समझाया जाए कि कांग्रेस केवल वोटकटवा की भूमिका में है और इसे वोट देने का मतलब वोट को बर्बाद करना है. कांग्रेस का पहला हथियार है बिहार के विकास में केंद्र का भरपूर सहयोग. इस हथियार को भोथरा करने के लिए महीनों से तीर चलाए जा रहे हैं. नीतीश कुमार एवं जदयू के दूसरे बड़े नेताओं का कहना है कि सूबे को केंद्र ने केवल इसका हक़ दिया है, इसके अलावा कुछ नहीं. बिहार का विकास नीतीश कुमार के सुशासन की देन है, जबकि केंद्रीय मंत्रियों एवं कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की दलील है कि बिहार के विकास के लिए मनमोहन सरकार ने तिजोरी खोल दी. कांग्रेस एवं जदयू की इस बहस ने तब और ज़ोर पकड़ लिया, जब सोनिया गांधी ने भी बिहार में विकास के लिए केंद्र सरकार के प्रयासों को सराहते हुए कह दिया कि कांग्रेस बिहार में गंभीरता से चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है. इस पर नीतीश कुमार तिलमिला गए और उन्होंने कांग्रेस को खुली बहस की चुनौती दे डाली. दोनों तऱफ से बयानबाज़ी चल ही रही थी कि रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट ने कांग्रेसी नेताओं के चेहरे खिला दिए. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच बिहार को मिलने वाली केंद्रीय सहायता में 214 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. आरबीआई हैंडबुक ऑफ स्टैटिसटिक्स आन स्टेट गवर्नमेंट फाइनेंसेज के अनुसार, 2005-06 में 12,286 करोड़ की सहायता बिहार को मिली थी, जो 2009-10 में बढ़कर 34,353 करोड़ हो गई. 2009-10 में बिहार को जो यह राशि मिली, उसमें केंद्रीय करों में राज्य का हिस्सा, योजना मद, प्राकृतिक आपदाओं के लिए सहायता एवं ब्याज चुकाने की राशि शामिल थी. 2004-05 में कुल ट्रांसफर्ड शेयर 50 फीसदी था, जो 2009-10 में बढ़कर 72 फीसदी हो गया, जबकि अन्य राज्यों का औसत 34 फीसदी ही रहा.

इस रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस जदयू को चुप कराने में लगी है तो जदयू के नेता कहने में जुटे हैं कि बिहार को इसके हक़ के अलावा कुछ नहीं मिला. केंद्र के सौतेले व्यवहार के कारण सूबे का विकास प्रभावित हुआ. ललन सिंह के कांग्रेस को वोट देने की अपील और नीतीश सरकार हटाओ अभियान को जदयू लालू को मदद पहुंचाने की कोशिश बता रहा है. ललन सिंह की सभाओं में उमड़ रही उनकी बिरादरी की भीड़ ने जदयू एवं भाजपा नेताओं की नींद उड़ा दी है. पिछले चुनाव में भूमिहारों ने एनडीए को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात एक कर दिया था. अगर इस चुनाव में भूमिहार दूसरे खेमे में चले गए तो एनडीए को करारा झटका लग सकता है. इसी तरह मुसलमानों की कांग्रेस की तऱफ हो रही गोलबंदी ने लालू प्रसाद को परेशान कर रखा है. यही वजह है कि कभी वह रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की बात कह रहे हैं तो कभी इमामों को वेतन देने का मामला उठा रहे हैं. कांग्रेस को वोटकटवा बताकर वह मुसलमानों से अपना वोट बर्बाद न करने की अपील भी कर रहे हैं. मतलब दोनों ही खेमों में कांग्रेस को लेकर बेचैनी है, क्योंकि कांग्रेस सूबे में का़फी तेज़ी से चुनावी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने में लगी है. कांग्रेस की इस हैसियत का मतलब है कि कुछ क्षेत्रों में नीतीश को ऩुकसान होगा तो कुछ इलाक़ों में लालू को. कांग्रेस के बड़े नेता जानते हैं कि पार्टी अगर इस हैसियत में आ गई तो सत्ता की चाबी हर हाल में उसके हाथ लग जाएगी. बिहार की राजनीति को ज़मीनी स्तर पर समझने वाले विश्लेषकों की राय का निचोड़ निकालें तो यह बात सामने आती है कि अगर कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ तो दोनों बड़े गठबंधनों को सौ-सौ का आंकड़ा पार करने में मुश्किल होगी. अगर कांग्रेस के पक्ष में मतदाताओं की गोलबंदी जारी रही तो तीस से चालीस सीटों पर उसके प्रत्याशी जीत कर आ सकते हैं. कांग्रेस की कोशिश तो दूसरे पायदान पर आने की है, पर संगठन की कमज़ोरी एवं पार्टी के भीतर की लड़ाई के कारण फिलहाल ऐसा संभव नहीं लग रहा है. कांग्रेस जानती है कि 29 सीटें लेकर रामविलास पासवान ने फरवरी 2005 के चुनाव के बाद गदर मचा दी थी. अगर तीस से चालीस सीटें कांग्रेस के हाथ लग गईं तो वह बिहार में अगली सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभा सकती है.

कांग्रेस के भरोसेमंद सूत्रों की बातों पर भरोसा करें तो दरअसल पार्टी की नज़र 2014 के लोकसभा और उसके बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव पर है. इस चुनाव को कांग्रेस बोनस के तौर पर देख रही है. पूरी कोशिश सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपनी मज़बूत मौजूदगी दिखाने की है. गोलबंदी त़ेज होने पर अप्रत्याशित चुनाव परिणामों की उम्मीद भी कांग्रेस के कुछ नेता कर रहे हैं, लेकिन लक्ष्य हर हाल में सत्ता की चाबी अपने हाथ में करने की है. कांग्रेस प्रवक्ता प्रेमचंद्र मिश्रा कहते हैं कि हमारी लड़ाई सत्ता की चाबी पाने की नहीं है, बल्कि यहां अपनी सरकार बनाकर सही मायनों में सूबे का विकास करने की है. लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार दोनों को ही जनता आज़मा चुकी है, अब बारी कांग्रेस की है. प्रदेश की जनता कांग्रेस का इंतजार कर रही है. दूसरी तरफ राजद सांसद रामकृपाल यादव कहते हैं कि सवाल चाबी और ताले का नहीं है, असल सवाल बिहार को बचाने का है और इसे राज्य की जनता अच्छी तरह समझ रही है. इसलिए जनता ने नीतीश कुमार की निकम्मी सरकार को उखाड़ फेंकने का मन बना लिया है. सूबे में लालू प्रसाद के नेतृत्व में राजद-लोजपा गठबंधन की सरकार बनना तय है. खैर दावा जो भी हो, पर सूबे की मौजूदा राजनीतिक सच्चाई यह बता रही है कि कोई भी गठबंधन स्पष्ट बहुमत की तऱफ नहीं बढ़ रहा है और इसी का फायदा कांग्रेस को मिलता दिख रहा है.

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