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नई दिल्ली, 13 सितंबर- विकास के नाम पर वोट मांग रहे नीतिश कुमार ने वायदा किया था कि वे जंगल की जमीन आदिवासियों के नाम कर देंगे। पूरे पांच साल बिहार में विकास का डंका बजता रहा। नीतिश कुमार को देश और विदेश से प्रमाण पत्र मिलते रहे मगर वन अधिकार कानून के तहत नीतिश कुमार ने एक भी आदिवासी को एक भी इंच जमीन आवंटित नहीं की। इस झूठ का जवाब और कारण क्या हो सकता है?
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी - वनाधिकार मान्यता कानून 2006 की सबसे नई प्रगति रिपोर्ट में कहा गया है बिहार में किसी भी आदिवासी को कोई जमीन नहीं मिली। जो हजारों दावे आए थे उनमें से सिर्फ तेरह पर विचार किया गया और दस पर फैसला हुआ कि जमीन दी जाएगी मगर जमीन किसी को नहीं दी गई। माओवादी इसे बहुत बड़ा मुद्दा बना रहे है।
यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बिहार उन कई राज्यों में से एक हैं जहां माओवादी वनवासियों के अधिकारों के बहाने ही अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। वन अधिकार कानून का पालन नहीं कर के नीतिश कुमार असल में माओवादियों की ही मदद कर रहे हैं और वैसे भी उन्हें बहुत वीर होने के लिए जाना नहीं जाता। बिहार में वन अधिकार कानून लागू नहीं होने का कारण स्थानीय अधिकारी यह बताते हैं कि वनवासियों को कानून का पता ही नहीं है। इन जड़ मूर्ख अधिकारियों को कौन बताए कि वनवासी तो खैर अनपढ़ हैं मगर आप लोग तो पढ़ कर, इम्तिहान दे कर या रिश्वत खिला कर नौकरी में आए हो, आपको कानून पता क्यों नहीं हैं और उसे लागू क्यों नहीं करते?
बिहार में पूरी आबादी में सिर्फ एक प्रतिशत आदिवासी हैं। वनवासी एक लाख हैं और वे भी आबादी का एक प्रतिशत के आस पास होते हैं। ज्यादातर वनवासी पश्चिमी चंपारण, कैमूर, रोहतास, बांका, नवादा, औरंगाबाद, गया, जमुई, मुंगेर और नालंदा में रहते हैं। बिहार में जिम्मेदारियां टालने का खेल हो रहा है। वन विभाग कहता है कि यह कल्याण विभाग का काम है। वन मंत्री भाजपा के हैं और कल्याण मंत्री जनता दल यूनाईटेड के। वन विभाग का कहना है कि कल्याण विभाग के पास एक हजार से ज्यादा आवेदन पिछले साल पड़े हुए थे और इस साल की संख्या और बढ़ गई है।
उधर विपक्ष को एक चुनावी मुद्दा मिल गया है। राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रामकृपाल यादव ने तो पूरी आंकड़ेबाजी दे कर बताया है कि पिछले दो वर्षों में कितनी बड़ी संख्या में आदिवासी और वनवासी माओवादियों के साथ चले गए हैं। झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ में वन अधिकार कानून का भरपूर पालन किया गया है और इसमें छत्तीसगढ़ सबसे आगे आता है।
नीतिश कुमार दरअसल विकास के मनमोहन सिंह वाले जाल में फंस गए। उन्हें निवेश, सकल घरेलू उत्पादन निर्यात और संसाधनाें के विकास यानी रईसों के सारे कामों में दिलचस्पी है। जंगलों की तरफ वे मुड़ कर भी नहीं देखते। जिन विभागों का बजट सबसे कम हैं उनमें से वन विभाग सबसे नीचे आता है। वनवासियों के लिए अस्पताल तक नहीं खुले। गरीबों के लिए बांटा जाने वाला अनाज या तो वहां तक पहुंचा ही नहीं या चावल खाने वाले आदिवासियों को गेहूं और चने भेज दिए गए जो उन्होंने जानवरों को खिला दिए। नीतिश कुमार जातियों के समीकरण पर चाहे जितना भरोसा कर रहे है, सच यह है कि विकास का उनका मुहावरा बुरी तरह पिट गया है।
नई दिल्ली, 13 सितंबर- विकास के नाम पर वोट मांग रहे नीतिश कुमार ने वायदा किया था कि वे जंगल की जमीन आदिवासियों के नाम कर देंगे। पूरे पांच साल बिहार में विकास का डंका बजता रहा। नीतिश कुमार को देश और विदेश से प्रमाण पत्र मिलते रहे मगर वन अधिकार कानून के तहत नीतिश कुमार ने एक भी आदिवासी को एक भी इंच जमीन आवंटित नहीं की। इस झूठ का जवाब और कारण क्या हो सकता है?
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी - वनाधिकार मान्यता कानून 2006 की सबसे नई प्रगति रिपोर्ट में कहा गया है बिहार में किसी भी आदिवासी को कोई जमीन नहीं मिली। जो हजारों दावे आए थे उनमें से सिर्फ तेरह पर विचार किया गया और दस पर फैसला हुआ कि जमीन दी जाएगी मगर जमीन किसी को नहीं दी गई। माओवादी इसे बहुत बड़ा मुद्दा बना रहे है।
यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बिहार उन कई राज्यों में से एक हैं जहां माओवादी वनवासियों के अधिकारों के बहाने ही अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। वन अधिकार कानून का पालन नहीं कर के नीतिश कुमार असल में माओवादियों की ही मदद कर रहे हैं और वैसे भी उन्हें बहुत वीर होने के लिए जाना नहीं जाता। बिहार में वन अधिकार कानून लागू नहीं होने का कारण स्थानीय अधिकारी यह बताते हैं कि वनवासियों को कानून का पता ही नहीं है। इन जड़ मूर्ख अधिकारियों को कौन बताए कि वनवासी तो खैर अनपढ़ हैं मगर आप लोग तो पढ़ कर, इम्तिहान दे कर या रिश्वत खिला कर नौकरी में आए हो, आपको कानून पता क्यों नहीं हैं और उसे लागू क्यों नहीं करते?
बिहार में पूरी आबादी में सिर्फ एक प्रतिशत आदिवासी हैं। वनवासी एक लाख हैं और वे भी आबादी का एक प्रतिशत के आस पास होते हैं। ज्यादातर वनवासी पश्चिमी चंपारण, कैमूर, रोहतास, बांका, नवादा, औरंगाबाद, गया, जमुई, मुंगेर और नालंदा में रहते हैं। बिहार में जिम्मेदारियां टालने का खेल हो रहा है। वन विभाग कहता है कि यह कल्याण विभाग का काम है। वन मंत्री भाजपा के हैं और कल्याण मंत्री जनता दल यूनाईटेड के। वन विभाग का कहना है कि कल्याण विभाग के पास एक हजार से ज्यादा आवेदन पिछले साल पड़े हुए थे और इस साल की संख्या और बढ़ गई है।
उधर विपक्ष को एक चुनावी मुद्दा मिल गया है। राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रामकृपाल यादव ने तो पूरी आंकड़ेबाजी दे कर बताया है कि पिछले दो वर्षों में कितनी बड़ी संख्या में आदिवासी और वनवासी माओवादियों के साथ चले गए हैं। झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ में वन अधिकार कानून का भरपूर पालन किया गया है और इसमें छत्तीसगढ़ सबसे आगे आता है।
नीतिश कुमार दरअसल विकास के मनमोहन सिंह वाले जाल में फंस गए। उन्हें निवेश, सकल घरेलू उत्पादन निर्यात और संसाधनाें के विकास यानी रईसों के सारे कामों में दिलचस्पी है। जंगलों की तरफ वे मुड़ कर भी नहीं देखते। जिन विभागों का बजट सबसे कम हैं उनमें से वन विभाग सबसे नीचे आता है। वनवासियों के लिए अस्पताल तक नहीं खुले। गरीबों के लिए बांटा जाने वाला अनाज या तो वहां तक पहुंचा ही नहीं या चावल खाने वाले आदिवासियों को गेहूं और चने भेज दिए गए जो उन्होंने जानवरों को खिला दिए। नीतिश कुमार जातियों के समीकरण पर चाहे जितना भरोसा कर रहे है, सच यह है कि विकास का उनका मुहावरा बुरी तरह पिट गया है।
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