Tuesday, September 14, 2010

लालू-पासवान का मुख्यमंत्री हो मुसलमान!

पंकज कुमार युवा पत्रकार और पिछले पांच सालों से हिंदी पत्रकारिता जगत से जुड़े हैं। दूरर्शन के जागो ग्राहक जागो के लिए असिस्टेंट प्रोड्यूसर, विराट वैभव में संवाददाता, एमएच वन न्यूज में असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर काम कर चुके हैं। राष्ट्रीय पाक्षिक अखबार शिल्पकार टाइम्स में (जुलाई 2010 से) असिस्टेंट एडिटर के पद पर कार्यरत।



बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है लेकिन उससे पहले पाटलिपुत्र के युद्ध में हर दल या मोर्चा-दूसरे मोर्चे की राजनीतिक जमीन अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटा है। राजनीति के इस खेल में कौन किस पर भारी पड़ेगा, इसकी कुंजी तो जनता जनार्दन के पास है। लेकिन उससे पहले नेता वोट की राजनीति को जात-पात, सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द केंद्रित करने की कोशिश में जुटे हैं। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में मात खाए लालू यादव और रामविलास पासवान ने राजनीतिक इच्छा व्यक्त की है कि राज्य में एक मुस्लिम उपमुख्यमंत्री हो?

इसका सीधा मतलब हुआ कि अगर विधानसभा चुनाव के बाद लालू-पासवान के गठजोड़ वाली सरकार बनी तो राज्य में मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री भी होंगे। लेकिन लालू-पासवान की इस मंशा पर शक और सवाल उठना लाजिमी है। सबसे अहम सवाल कि सत्ता में आने पर मुस्लिम उपमुख्यमंत्री ही क्यों, मुख्यमंत्री क्यों नहीं? दूसरा सवाल क्या यह मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति नहीं है? तीसरा सवाल क्या यह जनभावना है? चौथा सवाल जब संयुक्त तौर पर सीट और कुर्सी का बंटवारा हुआ उस वक्त घोषणा क्यों नहीं की गई? पांचवा सवाल सामाजिक ध्रुवीकरण के बदले विकास के मुद्दे चुनावी एजेंडा क्यों नहीं?

ऐसे कई सवाल है जो लालू-पासवान की टीम द्वारा मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की वकालत को कटघरे में खड़े करते हैं। सवाल यह भी है कि किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री पद पर आसीन करने के मुद्दे पर फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद लालू यादव और रामविलास पासवान आपस में भिड़ गए और इस प्रकरण के बाद पासवान ने समर्थन देने से मना कर दिया। आखिर 2010 विधानसभा चुनाव आते-आते पासवान का मुस्लिम प्रेम पीछे क्यों छूट गया? यह लालू-पासवान की राजनीतिक अवसरवादिता नहीं तो और क्या है? फरवरी 2005 में लालू यादव अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, जबकि रामविलास पासवान किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाने पर अड़े थे। नाक की इस लड़ाई की वजह से राज्य को राष्ट्रपति शासन और साल के भीतर दूसरी बार चुनाव का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि पांच साल पहले पासवान ने ही मुस्लिम मुख्यमंत्री का नारा दिया। लेकिन इस बार जब भावी मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी का मौका आया तो लालू के नाम पर सहमति दे दी। इतना ही नहीं उपमुख्यमंत्री पद पर अपने छोटे भाई पशुपति पारस की दावेदारी करने में जरा भी देरी नहीं की। इस ऐलान पर जब खलबली मची तब जाकर पासवान ने गठबंधन सरकार बनने पर मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दिया।

2005 में बिहार विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री किसी मुस्लिम को बनाने को लेकर कई दिनों तक सियासी ड्रामा चलता रहा, उसके पीछे भी लालू-पासवान की वोट बैंक की सियासत ही थी। रामविलास पासवान मुस्लिम मुख्यमंत्री का पाशा फेंककर लालू प्रसाद यादव के मुस्लिम वोट पर काबिज होना चाहते थे। उनकी मंशा बिहार में लालू प्रसाद यादव से बड़े जनाधार वाला नेता के तौर पर उभरने की थी। इतना ही नहीं वह अपनी छवि दलित नेता तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। 2005 मंे लोजपा प्रमुख का गुप्त एजेंडा यह था कि मुस्लिम-दलित समीकरण के जरिए राज्य के करीब 32 फीसदी वोट पर सेंध लगा सके। लेकिन लालू यादव ने रामविलास पासवान के इस राजनीतिक दांव को कामयाब नहीं होने दिया। उन्होंने एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को बनाए रखने के लिए सरकार नहीं बनाना ही बेहतर समझा और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।

दोनों दलों के प्रमुखों का यह ऐलान उनके आत्मविश्वास में कमी, कमजोर पड़ती सियासत और चुनाव पूर्व हार के डर को भी दिखाता है। 1980 में लालू यादव ने जब बिहार की सत्ता संभाली तो उस वक्त मुस्लिमों ने भागलपुर दंगों की वजह से कांग्रेस से दूरी बनाई और जनता दल को वोट दिया। 1997 में लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का गठन किया और अल्पसंख्यकों को बीजेपी के संाप्रदायिक चेहरे का डर दिखाकर वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे। लेकिन 2005 विधानसभा चुनाव में एनडीए ने जेडीयू नेता नीतीश कुमार का सेक्युलर चेहरा पेश किया, तो आरजेडी का एमवाई (मुस्लिम-यादव) तिलिस्म टूट गया। लालू से मोहभंग हो चुके अल्पसंख्यकों ने न सिर्फ आरजेडी से बल्कि एलजेपी से भी किनारा कर लिया। पिछले पांच साल में नीतीश सरकार की कार्यशैली से अल्पसंख्यक समाज में रोजगारोन्मुख, भयमुक्त और गैर संप्रदायवाद का संदेश गया है। मुस्लिम वोटरों के इस रूख से लालू-पासवान की परेशानी बढ़ना लाजिमी है। यही वजह है कि दोनों नेता एमवाईडी (मुस्लिम-यादव-दलित) समीकरण का हथकंडा अपना रहे हैं। राजनीति के माहिर दोनों नेता जातीय समीकरण की बदौलत करीब 11 फीसदी यादव, 16 फीसदी दलित और राज्य की आबादी के करीब 16 फीसदी मुस्लिम वोटरों को गोलबंद कर सत्ता का सुख भोगना चाहते हैं। इस पूरी आबादी को जोड़ा जाए तो यह कुल आबादी का 43 फीसदी है। मुस्लिम उपमुख्यमंत्री का शिगूफा इसी कड़ी का एक हिस्सा भर है। आरजेडी-एलजेपी का कहना है कि राज्य में दो-दो उपमुख्यमंत्री का होना कोई नई बात नहीं है। अगर दोनों नेताओं को लगता है कि इस समीकरण से मुस्लिम-यादव-दलित मतदाता एक हो जाएंगे, और उनका गठबंधन जीत जाएगा, तो वह इस तरह के दर्जनों उपमुख्यमंत्रियों की घोषणा कर सकते हैं।

आरजेडी प्रमुख लालू यादव की पार्टी ने बिहार में लगातार 15 साल तक एमवाई, (माइ) यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के भरोसे शासन किया, पिछड़े समुदाय के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदाय ने भी लालू यादव का पूरा साथ दिया। जातीय-धार्मिक भावना उभारकर आरजेडी लगातार तीन बार सत्ता में बनी रही और इस बार भी रोजी-रोटी, सामाजिक बराबरी के बदले जज्बाती सवालों पर गोलबंदी की जा रही है। अच्छा तो यह होता कि लालू-पासवान जनभावनाओं को ख्याल में रख कर रोजी-रोटी, गरीबी, बिजली, सड़क, पानी, भ्रष्टाचार, सूखा, लालफीताशाही को मुद्दा बनाते और बिहार की जनता के सामने बेहतर विकल्प पेश करते। इसमें कोई शक नहीं कि विधानसभा चुनाव में जाति का प्रभाव रहेगा ही।

दोनों नेता भले ही अक्टूबर 2005 विधानसभा चुनाव की हार को आरजेडी-एलजेपी गठबंधन का टूटना और लोगों में भ्रम की स्थिति को कारण बता रहे हो। लेकिन सच यह है कि बिहार की जनता तुच्छ राजनीति से तंग आ चुके थे और उन्हें जनता से जुड़े सरोकार वाली सरकार चाहिए। यही वजह है कि अक्टूबर में विधानसभा चुनाव के बाद हुए लोकसभा चुनाव में आरजेडी चार सीटों पर सिमट गई, जबकि रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा का सूपड़ा साफ हो गया। राज्य में इसके बाद हुए उपचुनाव में भी एनडीए गठबंधन को बड़ी जीत मिली। इस बीच यह जरूर हुआ कि सितंबर 2009 में बिहार विधानसभा के 18 क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में एनडीए गठबंधन 13 सीटों पर हार गया। बटाईदारी विवाद से उत्पन्न विशेष उन्मादपूर्ण परिस्थिति में वे उपचुनाव हुए थे। तब से अब तक राज्य की राजनीतिक परिस्थिति व मनःस्थिति बदल गई लगती है।

लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने राजनीति के गुर समाजवादी जननेता जय प्रकाश नारायण और लोहिया जी से भले ही सीखे हो, लेकिन सत्ता सुख के लालच ने दोनों नेताओं को अपने सिद्धांतों से भटका दिया है। मौजूदा राजनीति को देखकर लगता है कि आरजेडी प्रमुख लालू यादव और लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान सामाजिक सरोकारों के मुद्दों से दूर होते जा रहे है। लालू-पासवान की जोड़ी जब से राज्य और केंद्र की सत्ता से दूर हुई है तब से दोनों कदमताल मिलाते चल रहे है। उन्हें पता है कि जब तक उनके पास संख्या बल नहीं होगा, तब तक दिल्ली और पटना में उन्हें पूछनेवाला कोई नहीं। लेकिन संख्या बल जन समर्थन से जीता जाता है जिसको पाने के लिए जातिगत फॉर्मूला हर चुनाव में फिट बैठे यह जरूरी नहीं। होना तो यह चाहिए था कि 2005 विधानसभा चुनाव में हार से सबक सीखते और अपने राजनीतिक नजरिए पर पुनर्विचार कर बिहार की जनता के विश्वास को दोबारा हासिल करते। लेकिन चुनावी दस्तक के साथ ही लालू- पासवान जाति-धार्मिक समीकरण के बलबूते विकासीय जरूरतों को पटखनी देकर चुनाव जीतना चाहते हैं। फैसला बिहार की जनता को करना है कि वह राज्य की तकदीर अगले पांच साल तक किसके हाथों में सौंपना चाहती है?

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