Saturday, April 12, 2014

Rashtriya Sahara publishes stories debunking aadhaar

Stories on debunking aadhaar published in Rashtriya Sahara's supplement Hastkshep on April 12, 2014.

http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=17

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आधार का पुंजीवादी मकसद

पाँच साल पहले जब यूनिक आइडेन्टिफेकशन अथारिटी आफ इंडिया का गठन किया गया था तब भी सब कुछ धुंधला नही था। उदारवादी व पुंजीवादी व्यवस्था की आधार शिला असीमित व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर रखी गयी थी मगर अब जब वह उसके मकसद मे बाधक प्रतित हो रहा है तो उसकी तिलांजली देना इस व्यवस्था के लिये जरूरी हो गया है। योजना आयोग ने जनवरी 2009 मे  देश को बताया था कि देश में यूनिक आइडेन्टिफेकशन अथारिटी आफ इंडिया का गठन कर दिया गया है। यह बताया गया कि आजादी के पहले और बाद मे भी इंसान होना कोई पहचान नहीं, भारत गणराज्य का नागरिक होना भी कोई पहचान नहीं, दर्जनों प्रकार के अलग अलग लाइसेन्स और मतदाता पहचानपत्र भी एक भारतीय के लिए पहचान नहीं है। लिहाजा मंत्रिमंडल सभा ने निर्णय लिया कि हर देश वासी को एक बारह अंकों की पहचान दी जाएगी, ताकि उसकी पहचान यूनिक यानी की अनूठी हो सके।
योजना आयोग आज भी इस परियोजना का टोटल बजट निर्धारित नहीं कर पाया है। अगर किया भी होगा तो वह बताने को तैयार नहीं है। सिर्फ इतना बताया है कि मार्च 2014 तक इस परियोजना पर 5440 करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है। खर्चा सिर्फ वही नहीं है जो बताया जा रहा है। आधार अंक को अमली जामा पहनाने के लिये जिस फिंगरप्रिंट मशीन, आइरिस स्केनर, बीओमेट्रिक डाटा को एलेक्ट्रॉनिक डाटा मे बदलने के लिये कन्वर्टर, हार्डवेयर, सॉफ्टवेर, रायल्टी और सलाना देखभाल सम्बंधी कांट्रॅक्ट आदि को अगर जोड़ा जाये तो यह परियोजना कई लाख करोड़ का हो जाता है. गौर तलब है कि ये तो वो खर्चा है जो यूनिक आइडेन्टिफेकशन अथारिटी आफ इंडिया करेगी, इसके अलावा बैंको, विभिन् विभागो और संस्थाओ मे भी फिंगरप्रिंट मशीन, आइरिस स्केनर, बीओमेट्रिक डाटा को एलेक्ट्रॉनिक डाटा मे बदलने के लिये कन्वर्टर, हार्डवेयर, सॉफ्टवेर, रायल्टी और सलाना देखभाल सम्बंधी कांट्रॅक्ट आदि की जरूरत है. बात इतनी ही नहीं है देशवासियो का पंजीकरण करने का काम भी निजी कंपनियो के जिम्मे है.  इस तरह से यह पूरा मामला सूचना प्रोद्योगिकी उद्योग को एक सनातन बेल आउट पॅकेज की तरह है.
एक आम भारतीय को बारह अंकों के कोड में तब्दील करने की यह योजना बहुत लाभ वाला सौदा है. उस वक्त जब नीलकेणी इस सरकारी महकमें में आये थे तो सवाल उठा कि आखिर इतनी बड़ी कंपनी का मालिक मुख्तार इतने छोटे से सरकारी डिपार्टमेन्ट का मुखिया बनने के लिए क्यों चला आ रहा है? नीलकेणी भी इतने अक्लमंद तो हैं ही की वे लाभ हानि का गणित करने के बाद ही उन्होने कोई निर्णय लिया होगा। और लाभ हानि के इस गणित में नीलकेणी तो व्यक्तिगत रूप से फायदे में हैं ही, लेकिन इस परियोजना को संचालित करते हुए वे दुनिया के उन कारपोरेट घरानों के लिए फायदे का एक ऐसा डाटाबेस भी तैयार कर रहे हैं जो नागरिक को पहचान का आधार दे या न दे उनके व्यापार को बड़ा मजबूत आधार दे दिया है.
मुद्दा कारपोरेट घरानों के व्यापार को आधार देने का है जो देश वासियो को उनकी पहचान के अधिकार नाम पर दिया जा रहा है। यह यु ही नही है कि देश के सबसे अमीर घराना भी इसका समर्थन कर रहा है। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि अमीरो और गरीबो के हित एक हो गया है। सरकार ने यह विश्वास दिलाने का असफल प्रयास किया कि देशवासी यह मान ले कि आधार नाम का पहचान संख्या दोनों के हित मे है.  नागरिकों को पहचान देनेवाला यह आधार नंबर अगर इतना ही महत्व का है तो क्या महत्वपूर्ण और अमीर लोगों ने इस पर अपना चेहरा क्यो नहीं चिपकाया?
खुद नंदन नीलकेणी ने प्रतीक के रूप में भी अपना आधार नंबर नहीं निकलवाया. आखिर क्या कारण है कि सूचना का अधिकार देकर नागरिकों को मालिक बनानेवाली सरकार यह छोटी सी सूचना भी नहीं देना चाहती है कि देश सबसे आला लोगों ने अपना आधार बनवाया है या नहीं? अगर बनवाया होता तो सरकार प्रचार करने से पीछे भला क्यों रहती? लेकिन गोपनीयता का यह गड़बड़झाला सिर्फ आला लोगों के आधार नंबर देने पर ही नहीं है। यह पूरी की पूरी परियोजना अपने आप में ही एक पूंजीवादी गड़बड़झाला है। 
आमतौर पर खुफिया एजंसियों को लेकर ही ऐसा होता है कि उनका बजट कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता है और कई बार उनके असल खर्चों को भी गोपनीय रखा जाता है। तो क्या यह परियोजना भी कोई ऐसी गुप्त परियोजना है जिसका टोटल बजट सरकार सार्वजनिक नहीं करना चाहती?
जिस तरह की कंपनियां इस परियोजना के पीछे काम करने में लगी हैं उसे देखकर तो यही शक ज्यादा पुख्ता होता है कि यह नागरिकों का डाटाबेस तैयार करनेवाली यह सबसे गोपनीय सार्वजनिक परियोजना है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उन सारी परियोजनाओं को आधार के अधीन क्यों जोड़ा जा रहा है जो अलग अलग स्तर पर नागरिकों की गतिविधियों पर नजर रखती हैं? इस पूरी परियोजना में ऐसी संदिग्ध कंपनियों को जगह कैसे मिल गई है जो घोषित तौर पर विदेशी खुफिया एजंसियों के लिए काम करती रही हैं?
यूनिक पहचान देने के नाम पर उनके आंख की पुतलियों और हाथ की अंगुलियों की छाप लेकर उनको पहचान देना कहीं से भी स्वीकार्य कदम नहीं माना जा सकता है। आंख की पुतलियों और हाथ की अंगुलियों के निशान अपराधियों के इकट्ठे किये जाते हैं और सख्त कानूनी हिदायत होती है कि अपराधी की सजा खत्म होने के साथ ही वे निशान भी मिटा दिये जाते हैं। अगर कानूनन किसी व्यक्ति की जैव पहचान को किसी भी तरह से सरकार अपने पास नहीं रख सकती है तो आधार परियोजना के नाम पर हर नागरिक की जैव पहचान क्यों अंकित की जा रही है? नागरिकों के सेवक सिर्फ नागरिकों के मालिक ही नहीं बन गये हैं बल्कि नागरिकों की निजता को खुलेआम बाजार में नीलाम भी कर रहे हैं।
विकिलीक्स और स्नोडन द्वारा मुहैया कराए गए खुफिया दस्तावेज खुलासा करते है कि पुंजीवादी देशो, बैंको और कम्पनियो ने ऐसी योजनाएं बना रखी हैं जिनके तहत खुफिया एजेंसियों को नागरिकों के वित्तीय आंकड़ों और ऐसे अन्य लोगों के डाटाबेस तक अपनी पहुच को पुख्ता किया जा सके. इस परियोजना का शुरूआती खर्च और रेकर्रिंग खर्च बहुराष्ट्रीय कम्पनियो को सनातन मुनाफा पहुंचाने की जुगत है. 


विधायिका के बनाए कानूनों की परवाह तक नहीं

यूपीए-2 ने इस देश की विधायिका का परवाह नहीं किया। यूपीए-2 को संसदीय व्यवस्था में विश्वास नहीं था। इसका सबसे बड़ा सबूत आधार कार्ड है। इस कार्ड के माध्यम से सरकारी खजानों से हजारों करोड़ रुपये का सिर्फ चूना ही नहीं। देश के विधायिका दवारा बनाए गए कानूनों की धज्जियां उड़ायी गई। वैसे तो आधार को वैकलपिक बताया गया था। क्योंकि इसे संसद ने मान्यता नहीं दी थी। लेकिन चालाकी से कई प्रशासनिक आदेशों के माध्यम से अनिवार्य किया गया। ताकि ज्यादा से ज्यादा आधार कार्ड बने और सरकारी खजानों से पैसे का चूना लगाया जा सके। क्योंकि जितना ज्यादा आधार कार्ड बनता उतना ही इससे जुड़े कंपनियों को पैसे मिलता। क्योंकि प्रति आधार कार्ड कंपनियों को 40 से 50 रुपये का भुगतान किया गया है। हाल ही में पेश बजट के दौरान देश के वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने दावा किया कि इस देश में अब तक 54 करोड़ आधार कार्ड बन चुके है। यानि की हजारों करोड़ रुपये का खेल सरकार में शामिल लोग और आईटी कंपनियां कर चुकी है।
5 दिसंबर 2012 को चंडीगढ़ प्रशासन ने एक आदेश जारी किया। यह आदेश भारत के संसद दवारा पास मोटर व्हिकल कानून का सीधा अवहेलना था। चंडीगढ़ प्रशासन दवारा जारी आदेश में कहा गया था कि जिस व्यक्ति के पास आधार कार्ड नहीं होगा उसके वाहन का पंजीकरण और लाइसेंस नहीं बनेगा। साथ ही अधिकारियों को चेतावनी के लहजे में कहा गया था कि जो अधिकारी इस आदेश को नहीं मानेंगे उसपर कार्रवाई होगी। मोटर व्हिकल एक्ट 1988 और सेंट्रल मोटर्स रूल्स 1989 साफ कहता है कि वाहन पंजीकरण के लिए पासपोर्ट, बिजली बिल, टेलीफोन बिल, मतदाता कार्ड आदि में से एक की जरूरत होगी। यानि की प्रशासन को संसद दवारा पारित इस कानून की भी चिंता नहीं थी क्योंकि वो आधार को अनिवार्य कर चुके थे। दिलचस्प बात थी कि आधार कार्ड परियोजना से जुड़े अधिकारी खुद इसे वैकलपिक बता रहे थे। दूसरी तरफ प्रशासन के अधिकारी इसे अनिवार्य करते जा रहे थे। यह एक नया खेल था, जिसकी जांच होने पर कई मामले सामने आएंगे।
 
वाहन पंजीकरण के साथ ही अन्य पब्लिक यूटिलिटी सर्विसेज में भी प्रशासनिक आदेश जारी कर आधार को अनिवार्य किया गया। गैस सिलेंडर के कनेक्शन लेने के लिए आधार को अनिवार्य बनाया गया। जमीन के पंजीकऱण के लिए आधार को अनिवार्य बनाया गया। यहां पर भी संसद दवारा पारित विभिन्न कानूनों की धज्जियां उड़ायी गई। चंडीगढ़ प्रशासन दवारा वाहन पंजीकरण को लेकर जारी आदेश को पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दवारा चुनौती दी गई। कोर्ट दवारा मामले को संज्ञान लेने के बाद चंडीगढ़ प्रशासन ने कोई संतोषजनक जवाब कोर्ट को नहीं दिया। क्योंकि उनके पास कोई जवाब नहीं था। अंत में चंडीगढ़ प्रशासन ने इस असंवैधानिक आदेश को वापस लेने संबंधी शपथपत्र माननीय हाईकोर्ट में दायर किया।   
 
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका में 28 जनवरी 2009 के उस नोटिफिकेशन को गैरकानूनी बताया गया था जिसके तहत यूआईडीएआई का गठन किया गया था। याचिका में कहा गया था कि प्रशासनिक आदेशों दवारा आधार कार्ड को पब्लिक यूटिलिटी सर्विस के लिए अनिवार्य बनाया जाना संविधान की अनुच्छेद 21 का सीधा उल्लंघन है। क्योंकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 सिर्फ शारीरिक उपस्थिति की बात नहीं करता बल्कि जीवन को सम्मान और जरूरी सुविधाओं के साथ जीने का अधिकार भी देता है।
दरअसल आधार कार्ड की तरह व्यक्ति के निजता के उल्लंघन संबंधी प्रोजेक्टों को दुनिया के कई देशों ने अपनाया। लेकिन कई देशों में यह प्रोजेक्ट विफल रहा। पाकिस्तान में आधार की तरह कई साल पहले नादरा प्रोजेक्ट शुरू किए थे। हाल ही में रिपोर्ट मिली की वजीरस्तान इलाके में कई अफगानी आतंकियों को स्थानीय अधिकारियों ने पैसे लेकर नादरा कार्ड जारी कर दिया। इन अधिकारियों ने पाकिस्तान सरकार ने जांच के बाद निलंबित किया। पाकिस्तान के अंदर बड़े पैमाने पर अफगान शरणार्थियों ने नादरा घूस देकर जारी करवा दिया। यही कुछ भारत में भी कई जगहों पर सामने आया है। यहां पर भी बांग्लादेशी घुसपैठियों दवारा आधार कार्ड हासिल करने के मामले सामने आ रहे है। पाकिस्तान में तो और दिलचस्प मामला सामने आया। जिन कंपनियों को नादरा का ठेका दिया गया उन विदेशी कंपनियों पाकिस्तानी नागरिकों से संबंधित सारा डार्टा अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को हवाले कर दिया। ग्रीस में भी इस समस्या सामने आयी। यहां पर नागरिक संबंधी सारे आकंड़े चोरी कर लिए गए थे। जबकि मिश्र में आरोप लगाया गया कि इस तरह के नागरिक संबंधी सारे आंकड़े बेच दिए गए। फिलिपिंस के सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के प्रोजेक्टो को जनता के निजता में सीधा दखल माना और इसे रद्द कर दिया।
आधार कार्ड की अनिवायर्ता भारतीय जनगणना कानून 1948  का उल्लंघन करता है। इसमें पूरी तरह से भारतीय नागरिक के निजता और आंकड़े को गोपनीय रखने का प्रावधान है। जबकि आधार प्रोजेक्ट में बॉयोमीट्रिक आंकड़ा इकठा करने का काम विदेशी कंपनियों को दिया गया, जिसके संबंध भारत के विरोधी मुल्कों के खुफिया एजेंसियों और रक्षा मंत्रालय से रहा है। इससे भारतीय नागरिकों के गोपनीयता को सुरक्षित रखे जाने पर भी सवाल उठ गया। हालांकि भारत में बनाए गए अन्य कानून भारतीय नागरिकों के आंकड़े इकटठा करने की अनुमति देता है। इसमें जणगनना कानून 1948, नागरिकता कानून 1955 और नागरिकता नियम 2003 शामिल है। साथ ही चुनाव आयोग दवारा तैयार मतदाता सूची भी भारतीय नागरिकों का पूरा आंकड़ा इकठा करता है। अगर सरकार चाहती चुनाव आयोग दवारा इकठे आंकड़े को भी पब्लिक यूटिलिटी सर्विस से जोड़ अरबों रुपये बचा सकती थी। 

आधार नही है संविधान के मुताबिक। फिर भी विधानसभा प्रस्ताव के विपरीत बंगाल सरकार का आधार अभियान तेज।

पश्चिम बंगाल सरकार आधार की अनिवार्यता के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रही है। बंगाल विधानसभा में सर्वदलीय आधार विरोदी प्रस्ताव भी वाम समर्थन से सत्तापक्ष ने ही पास करवाया। लेकिन इसके बावजूद आधार परियोजना को खारिज करने की मांग बंगाल से अभी तक नहीं उठी है।इस पर तुर्रा यह कि अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की जनगणना परियोजना के तहत बंगाल में जिस आधार का काम सबसे ज्यादा सुस्त रहा है,वह बाकायदा नागरिकों को बायोमैट्रिक पहचान दर्ज कराना अनिवार्य बताते हुए आम चुनाव से पहले आधार फोटोग्राफी तेज कर दी गयी है,जबकि बंगाल सरकार अपनी तरफ से डिजिटल राशनकार्ड का कार्यक्रम अलग से चला रही है।आधार व्यस्तता और आसन्न चुनाव की वजह से अनिवार्य डिजिटल राशन कार्ड बनाने का काम हालांकि रुका हुआ है।

गौर करें कि पश्चिम बंगाल विधानसभा ने यह मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया कि केंद्र को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम से आधार कार्ड को जोड़ने का अपना फैसला तुरंत वापस लेना चाहिए।न विधानसभा में पारित प्रस्ताव में और न सरकारी या राजनीतिक तौर पर किसी ने आधार परियोजना को खत्म करने की कोई मांग उठायी है।इसलिए आधार प्रकल्प स्थगित तो हो सकता है,खत्म नहीं हो सकता।राज्य सरकार के मौजूदा युद्धस्तरीय आधार अभियान की जड़ें दरअसल अधूरे सर्वदलीय विधानसभा प्रस्ताव में ही है,जिसमें कहा गया था कि राज्य के केवल 15 फीसदी लोगों को ही आधार कार्ड मिल पाया है ऐसे में 85 फीसदी लोग नौ सब्सिडी वाले सिलेंडर नहीं ले पाएंगे। प्रस्ताव के मुताबिक केंद्र ने सीधे ही संबंधित बैंकों में सब्सिडी पहुंचाने के लिए आधार कार्ड डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम से जोड़ दिया है।

प्रस्ताव के अनुसार इस फैसले से आम जनता भारी परेशानी में आ जाएगी। संसदीय कार्य मंत्री पार्थ चटर्जी ने सदन में यह प्रस्ताव रखा था। विपक्ष के नेता सूर्य कांत मिश्रा ने यह कहते हुए इसका समर्थन किया कि आधार कार्ड से जुड़े कई मुद्दे अब भी अनसुलझे हैं।  

अब दरअसल आधार का अधूरा काम पूरा करके राजकाज पूरा करने का ही दावा कर रही है राज्य में सत्तारूढ़ मां माटी मानुष की सरकार अपने नागरिकों की निजता,गोपनीयता और संप्रभुता का अपहरण करते हुए।
डिजिटल राशनकार्ड प्रकल्प राज्य सरकार का है और प्रतिपक्ष को भी इस पर ऐतराज नहीं है।तो जाहिर है कि आधार परियोजना की बायोमेट्रिक डिजिटल प्रक्रिया पर तकनीकी तौर पर न सत्ता पक्ष को और न विपक्ष को कोई एतराज है। कांग्रेस और भाजपा तो पंजीकृत डिजिटल नागरिकता के पैरोकार हैं ही,वामपक्ष ने भी देश में कहीं इस परियोजना का विऱोध नहीं किया है।

जाहिर है कि बंगाल विधानसभा में पारित आधार विरोधी प्रस्ताव राज्यसरकार के निर्विरोध आधार अभियान से सिरे से गैर प्रासंगिक हो गया है।लेकिन अब तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो बार बार कहती रही हैं कि आधार गैरजरुरी है और भारी प्रचार के मध्य आधार विरोदी सर्वदलीय प्रस्ताव जो विधानसभा में पारित हो गया है,उससे नागरिकों में बारी विभ्रम की स्थिति है।मीडिया में एकतरफ तो असंवैधानिकता के आधार पर नागरिक सेवाओं  के लिए आधार की अनिवार्यता खत्म करने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खबर है तो दूसरी तरफ गैस एजंसियों की ओर से नकद सब्सिडी के लिए बैंक खाते आधार से लिंक कराने का कटु अनुभव है और दूसरे राज्यों में तमाम अनिवार्य सेवाओं से आधार को अनिवार्य बनाने का भोगा हुआ यथार्थ सच।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना बंगाल शायद एकमात्र राज्य है,जहां आम नागरिक आधार को फालतू और आईटी कंपनियों के मुनाफे का फंडा मानते हैं।नंदन निलेकणि के चुनाव मैदान में उतर जाने से लोग आधार प्राधिकरण के अस्तित्व को भी मानने को तैयार नहीं है।लेकिन फिर भी लोग आधार फोटोग्राफी की कतार में खड़े सिर्फ राज्य सरकार की नोटिस में इसे अनिवार्य बताये जाने के कारण हो रहे हैं।दूसरी ओर, लोगों को राजनीतिक अस्थिरता की वजह से जोखिम उठाने की हिम्मत भी नहीं हो रही है क्योंकि न जाने केंद्र में कौन सी सरकार बनें और नई संसद में कौन सा कानून बन जाये।जनगणना दस साल में एक बार होती है तो जनसंख्या रजिस्टर में अपने आंकड़े दर्ज करवा रहे हैं लोग आधार विरोध के बावजूद।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ऐसे तमाम नोटिफिकेशन तुरंत वापस लेने के आदेश दिए, जिनमें सरकारी सर्विस की सुविधा पाने के लिए आधार कार्ड जरूरी किया गया है। कोर्ट ने एक बार फिर साफ कहा कि आधार कार्ड किसी भी सरकारी सेवा को पाने के लिए जरूरी नहीं है। इस बाबत सर्कुलर तमाम विभागों को तुरंत जारी करने को कहा गया।

सुप्रीम कोर्ट ने यूआईडीएआई (यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया) से भी कहा कि वह आधार कार्ड की कोई भी जानकारी किसी भी सरकारी एजेंसी से शेयर नहीं करे। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बी. एस. चौहान की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि बायोमेट्रिक या अन्य डेटा किसी भी अथॉरिटी से शेयर नहीं किया जा सकता। आरोपियों का डेटा भी तभी साझा किया जा सकता है, जब आरोपी खुद लिखित में इसकी सहमति दे।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी अपने अंतरिम आदेश में कहा था कि सरकारी सेवाओं के लिए आधार कार्ड अनिवार्य नहीं होगा। उस मामले में हाई कोर्ट के पूर्व जज और अन्य की ओर से अर्जी दाखिल कर कहा गया था कि सरकार कई सेवाओं में आधार कार्ड अनिवार्य कर रही है। ऐसे में सरकार को निर्देश दिया जाना चाहिए कि आधार कार्ड अनिवार्य न हो।

Authors include Gopal Krishna, Anil Chaudhary, A.S. Biswas, Usha Ramanathan, Vickram Crishna, Bezwada Wilson, Hartosh Singh Bal, Col. Mathew Thomas, Nandan Nilekani

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