Saturday, September 25, 2010

यह लालू, नीतीश और राहुल की अग्निपरीक्षा है

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संतोष भारतीय

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संतोष भारतीय चौथी दुनिया (हिंदी का पहला साप्ताहिक अख़बार) के प्रमुख संपादक हैं. संतोष भारतीय भारत के शीर्ष दस पत्रकारों में गिने जाते हैं. वह एक चिंतनशील संपादक हैं, जो बदलाव में यक़ीन रखते हैं. 1986 में जब उन्होंने चौथी दुनिया की शुरुआत की थी, तब उन्होंने खोजी पत्रकारिता को पूरी तरह से नए मायने दिए थे.



बिहार चुनाव राजनीति की महत्वपूर्ण प्रयोगशाला बन गया है. अगर इसे पुराने बिहार के पैमाने पर देखें तो और मज़ा आएगा. पहले झारखंड के संकेत देखिए. अर्जुन मुंडा ने आडवाणी जी की अनदेखी की. आडवाणी सहित मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज सरकार बनाना नहीं, चुनाव चाहते थे. इनका मानना था कि बिहार के बाद चुनाव यदि झारखंड में होते तो उन्हें बिहार की जीत का फायदा मिलता. इनका मानना है कि बिहार में नीतीश कुमार के साथ उनके गठजोड़ की सरकार बन रही है. लेकिन अर्जुन मुंडा ने और झारखंड भाजपा ने उनकी बात नहीं मानी. सारे भाजपा विधायक झारखंड मुक्ति मोर्चे के साथ मिलकर राज्यपाल के यहां चले गए. इस घटना ने संकेत दिया है कि भाजपा में विचारधारा की प्रतिबद्धता तो ख़त्म हो ही गई है, अब वहां अनुशासन का भी कोई महत्व नहीं रहा. स्थानीय स्वार्थ और बाहरी दबाव अब ज़्यादा मायने रखते हैं.

बिहार में नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. चुनौतियां इसलिए, क्योंकि वह मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के रूप में इन्होंने बिहार में सरकारी तंत्र का पुनर्निर्माण किया है. पर यह काम जनता के प्रतिनिधियों और उनके कार्यकर्ताओं को अलग रखकर ही किया गया है. शायद इस तर्क में कुछ सच्चाई हो कि अगर कार्यकर्ता और जनप्रतिनिधि अलग नहीं रखे जाते तो प्रशासनिक ढांचे का पुनर्निर्माण हो ही नहीं सकता था. पर नीतीश कुमार से यही अपेक्षा थी कि वह इस संतुलन को बनाएंगे.

हमारा मानना था कि अटल जी के पर्दे से हटने के बाद भी उनकी नीतियां आडवाणी जी और जोशी जी के रूप में चलेंगी. पर अब लगता है कि ये दोनों भी धीरे-धीरे अप्रासंगिकता की ओर ढकेल दिए गए हैं. कई राजनैतिक दल हैं, जिनकी बागडोर अदृश्य रूप से कुछ बड़े पैसे वालों के हाथ में है. वैसे ही अब भाजपा की राज्य इकाइयां भी ऐसे ही पैसे वालों के इशारे पर काम कर रही हैं और केंद्रीय संस्कृति केंद्रीय अनुशासन को मुंह चिढ़ाने लगी है.

बिहार में नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. चुनौतियां इसलिए, क्योंकि वह मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के रूप में इन्होंने बिहार में सरकारी तंत्र का पुनर्निर्माण किया है. पर यह काम जनता के प्रतिनिधियों और उनके कार्यकर्ताओं को अलग रखकर ही किया गया है. शायद इस तर्क में कुछ सच्चाई हो कि अगर कार्यकर्ता और जनप्रतिनिधि अलग नहीं रखे जाते तो प्रशासनिक ढांचे का पुनर्निर्माण हो ही नहीं सकता था. पर नीतीश कुमार से यही अपेक्षा थी कि वह इस संतुलन को बनाएंगे. नीतीश कुमार की राजनैतिक शिक्षा बिहार आंदोलन की प्रक्रिया में हुई थी और वह कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय भी रहे थे, पर दो साल बीतते- बीतते वह अधिकारियों के हो गए. कार्यकर्ताओं और विधायकों की सुनवाई बंद हो गई. इसका एक ख़तरनाक परिणाम निकला कि जहां काम एक हज़ार में हो रहा था, वहीं अब उसकी क़ीमत पांच हज़ार हो गई.

नीतीश कुमार की अच्छाइयां गिनाएं तो सूची लंबी बनेगी, पर अब अच्छाइयों को काम की कसौटी पर परखा जाएगा. दिल्ली और पटना से दिखाई देने वाला काम अब वे परखेंगे, जिनके लिए काम किया गया है. उन्हें मालूम है कि जो काम हुए हैं, उसका कितना फायदा उन्हें सचमुच मिलने वाला है. सच्चाई यह है कि बिहार के बारे में सब मानते हैं कि वहां फैसला जातियों के गठजोड़ पर ज़्यादा होता है, शायद इस बार भी हो, लेकिन यह कुछ टूटता भी दिखाई दे रहा है.

इसका पहला संकेत बिहार का नक्सलवादी आंदोलन है. इसे बिहार में नक्सलवादी नहीं, बल्कि पार्टी कहा जाता है. जो नौजवान इसमें शामिल होते हैं, वे गर्व से कहते हैं कि उन्होंने पार्टी ज्वाइन कर ली है. इस आंदोलन में यादव समाज की बड़ी भागीदारी है तथा दूसरी भागीदारी मुसहरों की है. लड़ाकू दस्तों की अगुवाई मुसहर समाज के नौजवान करते हैं. मुसहर समाज बिहार का वह समाज है, जो दलित समाज से भी बदतर है तथा इसे कुछ साल पहले तक बड़ी जातियों के लोग इंसान तक बातचीत में नहीं मानते थे. नक्सलवादियों में लगभग सभी जातियों के नौजवान हैं और गैर बराबरी के ख़िला़फ हथियारबंद संघर्ष की बात खुलेआम अपने गांवों में करते हैं. उनका कितना असर पड़ता है, यह अलग विषय है, पर यह संघर्ष जातियों का बंधन तोड़ने की शुरुआत कर चुका है. यादवों में ज़्यादातर समर्थक लालू यादव के हैं, लेकिन नक्सलवादियों का कोई खुला समर्थन लालू यादव को नहीं है. लालू यादव के आखिरी राज में जहानाबाद पर दो हज़ार के आसपास नक्सलवादियें ने हमला किया था. तीन दिनों तक शहर उनके क़ब्ज़े में था. पुलिस लाइन, कचहरी घिरी थी तथा जेल तोड़ दी गई थी. आम लोगों को उन्होंने परेशान नहीं किया था, बल्कि शहर के लोग छत पर से इस सारे दृश्य को देख रहे थे, बस सड़कों पर नहीं निकले.

इसके बाद नीतीश कुमार की सरकार बनी. कोई भी बड़ी वारदात नीतीश कुमार के शासन के दौरान नहीं हुई. नक्सलवादी अपना संगठन बढ़ाते रहे. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कंपनियां काम करती रहीं. नक्सलवादियों को लेवी देती रहीं. नीतीश कुमार ने नक्सलवादियों का खुला विरोध भी कभी नहीं किया, यहां तक कि वह कोलकाता में गृहमंत्री चिदंबरम की बुलाई बैठक में भी नहीं गए. माना जा रहा है कि नक्सलवादी आम तौर पर नीतीश कुमार के साथ हैं, पर स्थानीय तौर पर वे अलग-अलग उम्मीदवारों से टैक्स ले, या तो उनका साथ देंगे या उन्हें परेशान न करने की गारंटी देंगे.

बिहार में नीतीश कुमार, लालू यादव और चुनाव की लड़ाई में राहुल गांधी भी एक पेंच हैं. राहुल गांधी ने एक सफल संदेश दिया है कि वह बिहार में युवकों को राजनीति में बढ़ाना चाहते हैं. अगर उन्होंने हर वर्ग के युवकों को टिकट दिए तो यह नीतीश कुमार और लालू यादव, दोनों के लिए परेशानी पैदा कर सकता है. अगर कांग्रेस 50 सीटें जीत गई तो बिहार में किसकी सरकार बनेगी, यह आज कहना मुश्किल है.

मुस्लिम समाज कितना नीतीश कुमार का साथ देगा, कहा नहीं जा सकता, क्योंकि भाजपा का आक्रामक रूप उसे डराएगा. लालू यादव के साथ उसके बहुमत का जाना तय है, पर राहुल गांधी और कांग्रेस अगर आक्रामक चुनाव रणनीति बनाते हैं तो मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ भी जा सकता है. यह स्थिति भी बिहार में साफ सरकार बनाने में रोड़ा पैदा करेगी.

सितंबर के तीसरे हफ्ते में तस्वीर अवश्य साफ होगी, क्योंकि अब नेताओं और उनके द्वारा किए कामों के जनता द्वारा आकलन का निर्मम समय आ गया है. बिहार के बाद बंगाल, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के चुनाव हैं. कह सकते हैं कि आने वाला हर साल किसी न किसी राज्य में किसी न किसी पार्टी का भविष्य लिखने वाला है. लेकिन बिहार चुनाव जहां नीतीश कुमार, लालू यादव का भविष्य तय करेगा, उससे ज़्यादा राहुल गांधी का आकलन करेगा, क्योंकि बिहार की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने आप ले ली है. सबसे आराम में रामविलास पासवान रहेंगे, जिनके सामने केवल पचास के आसपास विधायकों को जितवाने की ज़िम्मेदारी है.

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