Monday, May 5, 2014

मार्च और फ्लैग मार्च के बीच: अभिषेक श्रीवास्‍तव

कल रात शहर में पुलिस का फ्लैग मार्च हुआ। रात साढ़े दस बजे के करीब जब हमने दुर्गाकुंड से लंका की ओर जाते हुए नीली-पीली बत्तियों वाली सायरन बजाती पुलिस की करीब दो दर्जन गाडि़यां देखीं, तो किसी अनिष्‍ट की आशंका में मन सिहर उठा। दुर्गाकुंड पर अरविंद केजरीवाल रुके हैं और लंका पर बीएचयू है। मैंने अरविंद केजरीवाल का प्रचार करने और बनारस के चुनाव पर एक फिल्‍म बनाने आए पूर्व पत्रकार अविनाश दास को फोन लगाया। उन्‍होंने पहले तो दो मिनट बाद कॉल बैक करने को कहा, फिर काफ़ी देर बाद बाद बात होने पर शहर में किसी हत्‍या के होने की खबर सुनाई। फिर उन्‍होंने हत्‍या और पुलिस के काफि़ले के बीच संबंध तलाश कर मुझे दोबारा कॉल कर के बताया कि अरविंद केजरीवाल सुरक्षित हैं और यह तो पुलिस का फ्लैग मार्च था। इस सूचना के काफ़ी पहले जब हम इस काफि़ले का पीछा करते लंका पहुंचे थे तो एक सिपाही ने पूछने पर बताया था कि यह पुलिस का 'बल प्रदर्शन' है। दूसरे सिपाही ने कहा, ''भ्रमण'' है। लंका पर चाय पी रहे बीएचयू के एक सज्‍जन ने बताया कि शहर में 'फांसीवाद' आया है। मैंने पूछा कहां है, तो उन्‍होंने जवाब दिया, ''सुने कि दिनवा में कबीर मठ में रहा।''
दिमाग फलैशबैक में चला गया। दरअसल, दिन में हुआ यों कि कबीर मठ में आयोजित सांप्रदायिक फासीवाद विरोधी कन्‍वेंशन 'विरासत कबीर' में जब हमारे अजीज़ मित्र नवीन कुमार न्‍यूज़ एक्‍सप्रेस के लिए वॉक थ्रू करने जा रहे थे, तो पृष्‍ठभूमि से हमारे एक और मित्र इरफ़ान भाई ने एक पंचलाइन फेंकी थी, ''एक मोदी को हराने के लिए दिल्‍ली से सौ मोदी आए हैं।'' नवीन ने उसे लपक लिया, लेकिन अपने तरीके से बदल भी दिया। ऑन एयर बोले, ''एक मोदी को हराने के लिए दिल्‍ली से बनारस में जनता के दस्‍ते आए हैं।'' मैंने सोचा, जनता से ही बात की जाए। सो, जहां दोपहर का खाना बन रहा था, उस आंगन में अनमनी सी बैठी एक महिला के पास जाकर बैठ गया। यह महिला कबीर मठ के महंतजी के ड्राइवर की पत्‍नी थी। कुछ शुरुआती बातचीत के बाद उन्‍होंने कहा, ''ये सब सीखे-सिखाए लोग हैं। आपसे में एक-दूसरे को भाषण दे रहे हैं। अरे, जनता के बीच जाएं तो समझ में आवै कि उसकी क्‍या प्राब्‍लम है।'' मैंने कहा, ''लेकिन मोदी को तो नहीं आना चाहिए न?'' उन्‍होंने कहा, ''ऊ तो जनते न तय करेगी भइया। जिसको जवन बटन दबाना होगा, दबइबे करेगा। ई सब तो पढ़े-लिखे लोग हैं। ज्‍यादातर तो यहां के वोटर भी नहीं हैं। आए हैं तो मेहमान हैं। खाना बन गया है। खा के जाएं। बेमतलब मोदी मोदी कर रहे हैं। इससे तो मोदी को अउरो बल मिलेगा, चाहे ऊ कइसनो होए।''
पास में चबूतरे पर कबीरमठ के एक महराजजी उखड़े से बैठे थे। मैं सट कर बैठ गया। पूछा, ''महराज, ई सब क्‍या हो रहा है?'' करीब दो मिनट तक पहले तो मुझे घूरते रहे, फिर बाएं हाथ में बंधी एचएमटी की पुरानी घड़ी दिखाते हुए दाएं हाथ की अंगुली 12 पर ले जाकर बोले, ''ए टाइम रोज खाना मिलता है। आज देखिए, दू बज रहा है।'' इस वाक्‍य को उन्‍होंने तीन बार बोला। मैंने ज़ोर दिया, ''लेकिन प्रोग्रमवा के बारे में कुछ बोलिए। कइसा लगा?'' वे फिर दो मिनट मौन रहे और अचानक ताली पीट-पीट कर बोलने लगे, ''भरा हो पेट तो संसार जगमगाता है/खाली हो पेट तो ईमान डगमगाता है।'' यह वाक्‍य भी उन्‍होंने तीन बार बोला। ताली की आवाज़ से महंत देवशरणजी की नज़र  उन पर गई और वे उन्‍हें चुप करवाने लगे। ताली रुकी, तो बैकग्राउंड से एक बेहद महीन सी आवाज़ आई, ''हमें फासीवादी ताकतों को रोकना ही होगा।'' जाकर देखे, तब पता चला, तीस्‍ता सीतलवाड़ बोल रही थीं।
दरअसल, सवेरे से लेकर दो बजे तक तकरीबन सभी लोग खाली पेट ही कन्‍वेंशन में बैठे, खड़े या टहल रहे थे। बहुत लोग बोल चुके थे और बहुत से बोलने बाकी थे। अधिकतर लोग वक्‍ता को लाउडस्‍पीकरों से सुन रहे थे, लेकिन देख कहीं और रहे थे, बतिया कहीं और रहे थे और कुछ नामी-गिरामी लोग चैनलों को बाइट देने में व्‍यस्‍त थे। टीवी वाले सामान्‍यत: चर्चित चेहरों को पहचान जा रहे थे या फिर हर चैनल एक-दूसरे को फॉलो कर रहा था। दिल्‍ली और अन्‍य जगहों से नरेंद्र मोदी का विरोध करने यहां आए गणमान्‍य लोगों में सिर्फ एक व्‍यक्ति था जिसने अब तक बाइट नहीं दी थी, न ही भाषण दिया था। सहारा समय चैनल का एक ठिगना सा लोकल रिपोर्टर उस व्‍यक्ति की पर्सनाल्‍टी देखकर हतप्रभ उसे घूरे जा रहा था। वह कहीं से उसका नाम जानने की फि़राक़ में था। ऐसा लहीम-शहीम गोरा-चिट्टा दाढ़ीदार आदमी किसी का भी स्‍वाभाविक तौर से ध्‍यान आकृष्ट कर सकता है। मैंने रिपोर्टर से पूछा, ''का घूरत हउवा?'' उसने मुंह बा कर पूछा, ''ई के हौ भाय?'' ''अरे, जावेद नक़वी यार... बहुत भारी पत्रकार हउवन दिल्‍ली क। अरे, पाकिस्‍तान क अखबरवा ना हौ डान, वही क संपादक हउवन...।'' पाकिस्‍तान का नाम सुनते ही उसकी आंखों में ''ला रजा एक्‍सक्‍लूसिव'' टाइप चमक आ गई। जावेद तक पहुंच कर उसने अपना माइक उनके मुंह में दे दिया। अब तक मैं ''जनता के दस्‍ते'' को समझने की कोशिश कर रहा था, तो सोचा जावेद से भी सट लिया जाए। बाइट खत्‍म होने के बाद मेरी जावेद से बात होने लगी, तो बोले, ''यार ये बताओ, मैं तीन दिन से हूं, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तुम्‍हें क्‍या समझ में आ रहा है?'' मैं कुछ ज्‍यादा कहने की स्थिति में नहीं था क्‍योंकि पान तकरीबन घुल चुका था। मेरा संकट समझते हुए वे बोले, ''एक डेथ विश होती है, जिसमें आदमी मरने की इच्‍छा करता है। कुछ जानवरों में यह पाई जाती है। मुझे लगता है कि यह कन्‍वेंशन, इसमें बैठे लोग एक ऐसी डेथ विश के शिकार हैं जो बिना कुछ सोचे-समझे टीले के मुहाने से कूद कर मर जाना चाहते हैं। इन्‍हें समझ ही नहीं आ रहा कि दरअसल क्‍या होने वाला है।'' मैंने मूड़ी हिलाई और कबीर मंदिर के चबूतरे पर भोजन करने का प्रयास करते जावेद भाई को ज़मीन पर लगती पांत में दरी पर बैठाकर नवीन के साथ लिट्टी-चोखा खाने कबीरचौरा निकल गया।''
तीन बजे के आसपास संसार जगमगा रहा था। मेरा भी पेट भर चुका था। वक्‍ताओं का भी। श्रोताओं का भी। ईमान डगमगाने की सब्‍जेक्टिव स्थिति गायब हो चुकी थी। महराजजी खाकर सोने चले गए थे। ड्राइवर की घरवाली कुछ और मुखर हो चली थी और महंत देवरशरणजी तेज़-तेज चक्‍कर काटते हुए मेरी ओर आ रहे थे। उन्‍हें देखकर मैं रुक गया। आते ही बोले, ''अइसा है, आठ बजे तक ये प्रोग्राम खतम करवाइए, जीटीवी वालों का प्रोग्राम होना है।'' मैंने कहा, ''लेकिन आठ से नौ तो दास्‍तानगोई है। कइसे होगा? आप अइसा है कि संजयजी (कन्‍वेंशन के संयोजक और प्रलेस के सचिव) से बात करिए एक बार... वही संयोजक हैं।'' वे बोले, ''काSSS संयोजक? डोनेसन तो दिए नहीं... जीटीवी वाले डोनेसन दिए हैं चंदा... और ई लोग खा-पी के प्‍लेट फैला दिए, पूरा प्रांगण गंदा कर दिए। अब कौन साफ़ करेगा? अरे भाई, दूर-दूर से आए हैं तो आपका सम्‍मान है, लेकिन कुछ हमारे बारे में भी तो सोचिए। इसीलिए हम ई सब प्रोग्राम के लिए मठ नहीं देते हैं। उस पर से राजनीतिक बात कर रहे हैं लोग...।'' मैंने उनके डगमगाते ईमान और भरे पेट के अंतर्सम्‍बन्‍ध को दोबारा खंगालते हुए कुछ झूठे आश्‍वासन देते हुए उन्‍हें शांत कराया और संजयजी को बुलाने के बहाने से मंच की ओर बढ़ गया और चुपचाप जाकर कथाकार वीरेंद्र यादव के बगल में बैठ गया। अचानक मंच पर नज़र पड़ी कि कवि विष्‍णु खरे भी विराजमान हैं और संयोग से उनके वक्‍तव्‍य की बारी है। जाने क्‍या सूझी, मैं उठकर लाउडस्‍पीकर के पास चला गया और उनका वक्‍तव्‍य रिकॉर्ड करने लगा।
इस रिफ्लेक्‍स ऐक्‍शन का बनारस के चुनाव से जुड़ा एक हालिया संदर्भ हालांकि है, लेकिन उसे बताना यहां ठीक नहीं होगा। विष्‍णु जी हमेशा की तरह असहमत स्‍वर में बोले, ''... असल में क्‍या है कि ये सुबह से जो मैं यहां इस सभा में सुन रहा हूं, मुझे लगता है कि एक बनमानुस हमारे घर में बैठा हुआ है। उस बनमानुस की लंबाई पर, चौड़ाई पर, जातियों-प्रजातियों पर तो हम चर्चा कर रहे हैं, लेकिन उस बनमानुस का आज यहां बनारस से क्‍या करें, ये कोई बतला नहीं पा रहा है या बतलाना नहीं चाहता। एक और दिलचस्‍प बात ये है कि लगता है कि हमने वड़ोदरा को वाकओवर दे दिया। मतलब नरेंद्र मोदी का ये हक़ है कि वड़ोदरा से वो चुनकर आए, बनारस से ना आए। ये भी एक सवाल है। मैं चूंकि realpolitik से वास्‍ता रखता हूं, सच्‍चे पॉलिटिक्‍स से, दैनंदिन पॉलिटिक्‍स से, इसलिए बनारस की आज की राजनीति की बात करना चाहता हूं और यह बात मैं ऐसे कर रहा हूं जैसे कि मैं बनारस का आदमी हूं। कल्‍पना कीजिए मैं बनारस का हूं... मैं अपने को एग्‍जामिन कर रहा हूं कि अगर मैं बनारस का आदमी होता तो मैं क्‍या करता। इस पर बात नहीं हो रही है, शायद... मैं यह निवेदन करना चाहूंगा कि सबसे पहले तो मैं मोदी की मुखालिफ़त करता हूं। दोबारा मैं मोदी से पूछता कि जिस तरह तुमने अपनी पत्‍नी छोड़ दी है, क्‍या बनारस को भी छोड़ दोगे। क्‍या बनारस के साथ सात फेरे लेकर तुम बनारस को भी दोड़ दोगे, इसकी गारंटी कहां है? वो non-commital है, कुछ कह नहीं रहा है इस बारे में। तो मोदी को तो यहां से जीतने नहीं देना है, ये बात साफ़ हो गई। आप मोदी की तमाम खामियां निकालते हैं... मैं मान लेता हूं। जब आप कहते हैं कि बनारस से मोदी को नहीं जीतना चाहिए, मैं मान लेता हूं, मैं बनारस का आदमी हूं। लेकिन मेरे अंदर जो बनारस का आदमी बैठा हुआ है, वो पूछता है कि साहब, मोदी को हमने वोट नहीं दिया। इसके बाद किसको दें?''
''किसको वोट दें कि मोदी हार जाए? वोट न देने का मतलब तो मोदी की जीत होगी... क्‍या हमारे पास कोई फॉर्मूला है? हां है। पिछले चुनाव में मुरली मनोहर जोशी 17000 वोट से हारा था। मान लीजिए कि कोई कांग्रेस का सपोर्ट कर रहा है... वो माफिया, गुंडा, हत्‍यारा है... मान लिया। क्‍या ये लोग मोदी से गिरे हुए हैं? क्‍या इन्‍होंने मोदी से ज्‍यादा हत्‍याएं की हैं? क्‍या इनसे मोदी से भी ज्‍यादा खतरा है आगामी पांच साल में आपको? यदि नहीं है, तो बनारस के व्‍यक्ति के तौर पर मैं ये देखूंगा कि मैं बसपा को वोट दूं, सपा को वोट दूं या कांग्रेस को वोट दूं। मेरा गणित कहता है, बतौर बनारसी, कि सपा को वोट देने से मोदी नहीं हार सकता... बसपा भी मोदी को नहीं हरा सकती... अकेले मुसलमान भी मोदी को नहीं हरा सकता। सुनिए, मैं रियालपॉलिटिक बात कर रहा हूं... बहुत जरूरी बात कर रहा हूं... ये बेकार की बाल की खाल निकालना... मोदी को ऐसे हराओगे क्‍या? बतौर बनारसी, मैं कांग्रेस को समर्थन करूंगा। मैं अपील करूंगा कि मुसलमान भी कांग्रेस का समर्थन करें, रियालपॉलिटिक लोग भी कांग्रेस का समर्थन करें... मेरे ड्राइंगरूम में एक बनमानुस बैठा है... मुझे उसे खत्‍म करना है और हम लोग फालतू की आदर्शवादी बातें करें, ये कहें कि जिसको वोट देना है उसको दें। इससे बड़ी जहालत की बात क्‍या हो सकती है? नहीं भाई... ये तो देखो, मोदी के लिए केकवॉक है। इसलिए मेरे बनारसी सहधर्मियों, कांग्रेस-मुसलमानों का समर्थन प्राप्‍त करो, सपा को तोड़ो, बसपा को तोड़ो, और मोदी को हराओ।''
बनारस के ऐतिहासिक साम्‍प्रदायिक फासीवाद विरोधी सम्‍मेलन में इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास नहीं बन पाया है। पहले तो विष्‍णु खरे के धन्‍यवाद बोलने के बाद सबने ताली बजाई, उसके बाद अचानक अवधेश प्रधान की ओर से तेज़-तेज़ आवाज़ आने लगी, ''ये आपने कैसे कह दिया? ये बयान आपको वापस लेना होगा। ये तो कांग्रेस को केकवॉक देने जैसा हो गया। कांग्रेस ने ही इस देश में भाजपा को इतना बढ़ाया है...।''' और देखते-देखते अवधेश प्रधान के अगल-बगल सटे कुछ लोग उन्‍हीं की आवाज़ में बोलने लगे। करीब आधा दर्जन लोग मंच पर चढ़ने की कोशिश करने लगे। भारत की संसद जैसा कुछ-कुछ अहसास होने लगा। सबसे आगे की पंक्ति में बैठे पूर्व पुलिस अधिकारी विभूति नारायण मंद-मंद मुस्‍काने लगे। विष्‍णु खरे का चेहरा कड़ा हो आया। अचानक मीरा कुमार की भूमिका में आए युवा कवि व्‍योमेश शुक्‍ल, जिन्‍होंने छूटते ही कह डाला कि यह विष्‍णु खरे का निजी बयान है और आयोजन समिति को इस पर खेद है। फिर पीछे से किसी ने कहा कि अजय राय का ही समर्थन करना था तो सबसे पहले इस बात को सवेरे कह देना चाहिए था। दिल्‍ली से आए कुछ एनजीओवाले भी उद्वेलित होने की कोशिश करते दिखे, लेकिन पीछे से मुफ़ीद मौका पाकर धारीदार टी-शर्ट वाला एक नौजवान चिल्‍ला उठा, ''मोदी-मोदी''। हुंकारी में दूसरी आवाज़ के नितान्‍त अभाव के चलते दो सेकंड बाद वह खिसक लिया।     
फिर व्‍योमेश शुक्‍ल ने स्‍पष्‍टीकरण दिया कि विष्‍णु खरे आयोजन समिति के सदस्‍य नहीं हैं, इसलिए इनके बयान को निजी माना जाए। अवधेश प्रधान पुराने फॉर्म में लौट आए थे। वे चुप होने को तैयार नहीं थे। उनसे सटे कुछ लोग उन्‍हीं के बराबर गुस्‍सा होना चाह रहे थे। विभूतिजी अब भी मंद-मंद मुस्‍का रहे थे। मास्‍टर रामाज्ञा शशिधर सबसे पीछे बैठे उन्‍हीं की नकल में आत्‍मलीन थे। स्थिति नियंत्रण के बाहर जाती दिखी और दबाव सघन होने लगा तो मैंने मंच पर जाकर विष्‍णु खरे को चुपके से ढांढस बंधाया कि लोकतंत्र है और आपने अपनी बात कही है, दबाव में वापस मत लीजिएगा। अविनाश दास कई साल से मेरे सार्वजनिक प्रसारण में एक अदद ब्‍लैक फ्रेम की तलाश में थे, सो उन्‍होंने तड़ से अपने अत्‍याधुनिक मोबाइल से फेसबुक पर मुझे कांग्रेसी एजेंट करार दे दिया और विष्‍णु खरे को मेरा संरक्षक। व्‍योमेश शुक्‍ल की हृष्‍ट-पुष्‍ट काया विवाद को संभाल ले गई, लेकिन भरे पेट लोगों का ईमान तो अब डोल चुका था। अवधेश प्रधान ने गांधीजी की मूर्ति के दाएं वाले चबूतरे पर एक कोना पकड़ा और चार लोगों के साथ एक कोना चर्चा शुरू हुई, ''हम लोग जो चंदा दिए हैं से संजय से वापस मांग लेना चाहिए।'' दूसरे ने कहा, ''लगता है कांग्रेसी पैसे से आयोजन हो रहा है।'' एक तीसरे ने कहा, ''अरे, सवेरे तो शबनम हाशमी ने मोदी के खिलाफ राष्‍ट्रीय पार्टी को वोट देने की बात कह के हिंट तो दिया ही था।'' कन्‍वेंशन जारी था, लेकिन लाइन-लेंथ पर्याप्‍त बिगड़ चुकी थी।
बहरहाल, किसी तरह सबने मिलकर एक बैनर समेत शाम पांच बजे सांस्‍कृतिक मार्च निकाला। मार्च के लहुराबीर पहुंचते ही पहले से तैनात पुलिसवालों ने उसे रोक लिया। हमेशा की तरह यहां वीरेंद्र यादव की संयत भाषा नहीं, गया सिंह का चेहरा नहीं, बल्कि पूर्व पुलिसकर्मी विभूति नारयण राय की मौजूदगी काम आई। कई नए लोगों को साहित्‍य जगत में उनकी अहमियत पहली बार पता चली। जुलूस आगे बढ़ा। व्‍योमेश की शर्ट का बायां बाजू पसीने से लथपथ हो चुका था। क्रांतिकारी गीत गाए जा रहे थे और कारवां लहुराबीर चौराहे के गोले में लिपटने ही वाला था, कि अचानक मुझे याद आया कि माल्‍यार्पण तो मुंशी प्रेमचंद की मूर्ति पर होना है जो जगतजंग की तरफ मुड़े रास्‍ते पर है, गोलंबर में नहीं। गोलंबर में तो मूंछ पर ताव देते चंद्रशेखर आजाद खड़े हैं। मैं भागा-भागा काशीनाथ सिंह के पास गया और यह बात बताई। तब तक कुछ लोग गोलंबर के भीतर घुस चुके थे। मैंने व्‍योमेश से कहा कि भाई साब ये चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति है। जवाब आया, ''यहां ज्‍यादा लोगों के खड़े होने की जगह है, प्रेमचंद के पास जगह कम है...।''
प्रेमचंद जगतगंज के उस कामेश होटल की ओर ताकते रह गए जहां विभूति नारायण राय रुके हुए हैं। इधर मालाएं चंद्रशेखर आज़ाद को चढ़ गईं। दास्‍तानगोई सुनने जुलूस कबीर मठ लौट गया। ''कार्यक्रम बेहद कामयाब रहा'', ऐसी कई आवाज़ें सुनाई दीं। शाम ढलते-ढलते दास्‍तानगोई के बीच पत्रकार रवीश कुमार पधार लिए और कुछ उत्‍साही लोग उनसे चिपटने की कोशिश करते पाए गए। मठ के द्वार पर जीटीवी का सेट लग चुका था। पौने आठ बजे महंत देवशरणजी आए और पूछे, ''आठ तक खतम हो जाएगा न''। इस बार मैंने सच्‍चा आश्‍वासन दिया। डोनेशन-मुक्‍त सम्‍मेलन ठीक आठ बजे निपट लिया और डोनेशन वाले में हर-हर मोदी गूंजने लगा। संजय श्रीवास्‍तव बोले, ''अब आगे का आप लोग बताइए क्‍या करना है।'' मैंने पूछा, ''मंच के कार्यक्रमों का क्‍या शिड्यूल है?'' उन्‍होंने कहा, ''बस, यही था। ये मामूली थोड़ी था। जिस शहर में कोई नहीं बोल रहा मोदी के खिलाफ़, वहां यह एक बड़ा हस्‍तक्षेप था जिसकी आवाज़ दूर तक जाएगी।'' डॉ. गया सिंह ने मुंह में पान दबाए मुस्‍कराते हुए उनसे पूछा, ''और कोई बचा है?'' उनका आशय प्रांगण खाली होने से था। दरअसल, उन्‍हें अंत में प्रांगण खाली होने तक जीटीवी के प्रोग्राम में आई जनता से सम्‍मेलन की 'जनता के दस्‍ते' को सुरक्षा देने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई थी। उन्‍होंने बताया, ''असल में भाजपा वाले ई सब हमके जानेलन न... हमरे रहते कोई क हिम्‍मत न होई कि हमरे आदमी पर कोई हाथ छोड़ दे। एहि से खड़ा हई कि सब लोग निकल जाएं सेफ़ तब हम चलीं।'' ''और गुरुजी, ई विष्‍णु खरे का मामला क्‍या रहा? अचानक कांग्रेस को सपोर्ट?'' बोले- ''जाएदा, अराजक हैं।'' मैंने पूछा, ''ई त सब जानेलन कि अराजक हैं, लेकिन फिर उनका इतना विरोध क्‍यों?'' मशहूर डॉ. गया सिंह उमर के भार से पक चुकी चेहरे की मज़बूत सिलवटों में मुस्‍कराए और बोले, ''कांग्रेस का नाम नहीं लेते तो ठीक रहता न... मन में जवन भी सॉफ्ट कार्नर रहल अजय राय के प्रति ई लोगन में, ओके बिगाड़ देलन न विष्‍णु खरे नाम लेके। नाम लेके तो ई अजय राय को ही नुकसान पहुंचाए हैं। वइसे तो यहां सबका मन कांग्रेस पर ही बना था।''
मेरे ज्ञान चक्षु खुल चुके थे। चलते-चलते गया सिंह ने पूछा, ''परसाद लेबा?'' मैंने ना में जवाब दिया। सेवन के बगैर ही भीतर पर्याप्‍त प्रकाश आ चुका था। मठ के सम्‍मेलन वाले हिस्‍से में अंधेरा छा रहा था। सम्‍मेलन में कविता पोस्‍टर बनाने वाले एक चर्चित बनारसी कलाकार के छोटे से बच्‍चे ने उनसे कहा, ''पापा, उधर चलो... वहां ज्‍यादा लाइट है। वहां मोदी वाला प्रोग्राम है।''
रात का नौ बज चुका था। पेट खाली हो रहा था। मठ के महराजजी बरतन बजा रहे थे, ''भरा हो पेट तो संसार जगमगाता है/खाली हो पेट तो ईमान डगमगाता है।'' खाली पेट की शांति और भरे पेट की भ्रांति को देखने के बाद मैंने और मेरे मशहूर दक्षिणपंथी दोस्‍त व्‍यालोक ने सामूहिक निर्णय लिया कि आज रात हम खाना नहीं खाएंगे। इसलिए पहले हमने केशरी के यहां टमाटर चाट चखा, फिर एक ठंडई ली, उसके बाद पप्‍पू के यहां नींबू की एक चाय ली और फिर संकटमोचन पर आम का एक पना पीकर ही काम चला लिया। लौटती में पुलिस का काफि़ला दिखा रात साढ़े दस बजे। अविनाश दास की छानबीन से पता चला कि शहर में किसी की हत्‍या हुई है, अलबत्‍ता अरविंद केजरीवाल सुरक्षित हैं।
पता चला कि रात में पुलिस बेमतलब ऐसे ही दौड़-भाग कर रही थी। वे इसे फ्लैग मार्च कहते हैं। हमने दिन में किया। हम उसे सांस्‍कृतिक मार्च कहते हैं। दोनों मार्च के आपसी संबंध को सबसे गहरे आत्‍मसात करने वाला हिंदी का लेखक वह है जो कभी पुलिस रहा हो। 
(नोट: यह श्रृंखला बनारस में चुनाव की पृष्‍ठभूमि में वास्‍तविक पात्रों, लोकेशन और घटनाओं पर केंद्रित है। इसमें सच के सिवा और कुछ नहीं है। चूंकि यह सच लेन्‍स की बयान क्षमता से बाहर का है, इसलिए पोस्‍ट के साथ एक भी तस्‍वीर की अपेक्षा न करें।) 

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