Tuesday, March 11, 2014

साथी अरुणप्रकाश की याद में


साथी अरुणप्रकाश की याद में 

अरुण कुमार

अरुण प्रकाश नही रहे. वे मेरे राजनीति के शोध के साथी थे, बड़े भाई थे, साहित्य के गुरु थे - क्या थे अभी तक कुछ तय नहीं ही हो पाया. शायद कभी हो भी नहीं पायेगा. क्यूंकि शायद जीवन परिभाषाओं से नहीं चलता. जीवन एक नदी है, अविरल बहती रहती है. भाष्यकारों पर रह जाती है जवाबदेही कि वे इसे परिभाषित करते रहें. मगर जीवन को या जीवन जीने वाले को -अगर वे प्रोग्राम्ड चाइल्ड नहीं हैं तो - इसकी चिंता नही होती. वो मस्ती से जीते चले जाते हैं जैसे और जिस प्रकार जिन्दगी उनके सामने आती जाती है. समय के साथ रहते, समय से जूझते हुए. इसी जीवन संघर्ष में व्यक्ति का व्यक्तित्व क्रमशः और उसके लिए शायद अनायास ही, विकसित होता जाता है. ठीक उसी तरह जिस तरह अमूर्त रेखाओं के जरिये चित्रकार के हाथों धीरे धीरे चित्र स्पष्ट होता जाता है. सन 1977 से लगातार उनसे मिलता रहा. उस समय मेरी उम्र 22 वर्ष की हुआ करती थी. बिला किसी योजना के. बस ऐसे ही. यह मिलना जुलना उनकी मौत के कुछ हफ्तों पहले तक चलता रहा.हमारे सम्बन्धों में कोई मिलावट नहीं थी क्योंकि हम दोनों ही एक-दूसरे से कोई अपेक्षा नहीं पालते थे. शायद यही वजह रही हो कि हमारे सम्बन्धों में कभी ज्वार-भाटे की स्थिति नहीं रही. सिवाय उन कुछ तरंगों के जो कभी कभी कुछ मामूली कारणों से वक्ती तौर पर तैर जाया करते थे.

अजीबोगरीब संयोग है.मेरी और अरुण प्रकाश दोनों की ही परिवारिक पृष्ठभूमि खांटी राजनीतिक थी. मगर कुछ फ़र्कों के साथ. मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि अपरम्परागत तरीके से बिलकुल राजनीतिक रही. अपरम्परागत इसलिए कि मेरे पिताजी स्वर्गीय रामचन्द्र सिंह (मधुरापुर पुरवारी टोला), कभी किसी चुनाव में खड़े नहीं हुए. खड़े होना भी नही चाहते थे. पूरी जिंदगी वे एक राजनीतिक दल में रहते हुए और बकायदा राजनीति की मुख्य धारा में रहते हुए भी सरकार की नौकरी में बने रहे. मगर उन्होंने शायद ही कभी सरकारी नौकरी के "कोड ऑफ़ कन्डक्ट" को माना. सरकारी नौकरी करते हुए भी सरकारी नौकरी के कोड ऑफ़ कन्डक्ट की उन्होंने कभी परवाह नहीं की. इसलिए जहां जहां भी वे तबादला किये जाते रहे वहीँ वहीँ वे अपनी राजनीति करते रहे. "गवर्नमेंट ट्रेजरी पेड़, फुल टाइम रोविंग पोलिटिकल वर्कर". मेरे पिताजी का सरकारी क्वार्टर ही उनका राजनीतिक दफ्तर हुआ करता था. मगर उस वक्त की सत्ताधारी दल कांग्रेस को छोड़ कर लगभग सभी दलों के नेता मेरे पिताजी के अतिथि हुआ करते थे.भाकपा के बैक रूम बॉय की हैसियत से उनके निर्देशन में संयुक्त बिहार के कई जिलों में पार्टी शाखाओं का गठन हुआ.

पाचवीं-छठी क्लास से ही मैं भी उस समय की राजनीतिक पत्र-पत्रिकाओं से मुखातिब रहा. दिनमान, जन, मैंन्काइंड, जनयुग, जनशक्ति, न्यू एज, लोकयुद्ध, फ्रोंटिएर और न जाने कितने क़ानूनी और सरकार की नजरों में गैर-कानूनी पत्र -पत्रिकाएँ. इनमे से बहुतों के तो नाम भी अब मुझे उतने याद नहीं. इस तरह सम्पूर्ण बिहार - बल्कि अब कहें तो तब के पूरे संयुक्त बिहार जिसमे आज का झारखंड भी शामिल हुआ करता था - मेरे पिताजी की राजनीतिक कर्मभूमि रही. पटना, रांची, बिक्रम, हंसडीहा, लथलथ, पूसा से लेकर अपने गृह जिला बेगुसराय तक. इसी क्रम में मेरे पिताजी के पास वाम दलों के विभिन्न धड़ों - मोडरेट वाम से धुर वाम तक और समाजवादी पृष्ठभूमि के नेताओं का आना-जाना अविरल चलता रहता था. और मेरे पिताजी का सरकारी क्वार्टर एक किस्म का सराय हुआ करता था. मैं और मेरे और भाई-बहन ही इस सराय के "वेटर" हुआ करते थे. मेरे परिवार में सिर्फ मैं ही इन पत्रिकाओं को पढने और मेरे पिता और इन राजनीतिक नेताओं के बीच की चर्चाओं में रूचि लेता था. मेरे पिता से मिलने जुलने वालों में उनकी पार्टी भाकपा के नेताओं - कामरेड चन्द्रशेखर सिंह, इन्द्र्दीप सिंह, समाजवादी नेताओं - कपिलदेव सिंह, कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी, एक कोई जोशी जी जो शायद जन पत्रिका के भी सम्पादक हुआ करते थे, नक्सली धारा के नेताओं में - सत्यनारायण सिंह, एक कोई बख्सी जी वगैरह उनके बराबर मिलने जुलने वालों में हुआ करते थे. इनमे तो कई उस वक़्त भी एम्.एल.ए वगैरह हुआ करते थे. इनकी राजनीति पर बह्शें बड़ी शिद्दत वाली और कभी कभी बहुत ही तल्ख़ भी हो जाया करती थीं. मेरे पिताजी अपनी स्पष्टवादिता के लिए मशहूर थे और राजनीति पर बातें करते वक्त तो वो और भी बहुत ही निष्ठुर और निर्मम विश्लेषक हो जाया करते थे.कई बार यह बातें उनसे बहस कर रहे उन नेताओं को भी शायद पसंद नहीं आती थीं.यह भाव उनके चेहरों पर झलक-झलक भी जाया करता था. मगर मेरे पिता पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ करता था. अपनी इन बातों के लिए मेरे पिता तब के गैर-कांग्रेस राजनीतिक कर्मियों के बीच जाने जाते थे.

उधर अरुण प्रकाश जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो और भी विशुद्ध राजनीतिक थी. खांटी राजनीतिक. परम्परागत तौर पर राजनीतिक. उनके पिताजी स्वर्गीय रुद्रनारायण झा जी (निपनिया , बेगुसराय)समाजवादी आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में थे. अपनी असामयिक मृत्यु के वक्त तो वे राज्य सभा के सांसद भी थे. उस वक्त राजनीति का इतना अवमूल्यन नहीं हुआ था और राजनीति एक करियर के रूप में भी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ था.करीब करीब बुद्ध कालीन बौद्ध भिक्खुओं की तरह राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जीवन हुआ करता था. शायद यही कारण था कि उनकी आवभगत गृहस्थ परिवारों में कुछ -कुछ भिक्खुओं की तरह ही हुआ भी करती थीं.आज की तरह नहीं था कि यदि कोई राजनीतिक कार्यकर्त्ता किसी के घर पहुँच जाये तो परिवारजनों को लगे कि एक अनचाहा तत्व आ गया हो. फकीरी उस वक्त की राजनीति का मूल जीवन-दर्शन हुआ करती थी. शायद यही कारण था कि वे जनता के लिए ग्राह्य और सहज स्वीकार्य हुआ करते थे. उस वक़्त राजनीति का मतलब करियर और माल बनाना नहीं था. राजनीतिक कार्यकर्ताओं में भी ब्राह्मण-तत्व अधिक था. यानि देश और समाज के बारे में चिंता और चिन्तन. आर्थिक चिन्तन की वणिक प्रवृति को तबतक राजनीति के ब्राह्मण-तत्व को राजनीति की दुनिया से पूरी तरह बाहर करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई थी. कम-अज-कम फकीरी कान्ग्रेसेत्तर पार्टियों की राजनीति के लिए एक आवश्यक योग्यता तो मानी ही जाती थी. इसी से शायद गैर कांग्रेसी नेताओं को कांग्रेस के नेताओं पर नैतिक बढ़त भी हासिल हुआ करती थी वरना वे उनके सामने धन-बल में क्या खा कर उनका मुकाबला कर पाते ? ऎसी ही खांटी राजनीतिक पृष्ठभूमि में अरुण प्रकाश पले-बढ़े. फकीरी के आलम में ही उनकी परवरिश हुई. कुछ-कुछ जंगली पौधों की तरह. खुद-मुख़्तार. परिवार में अपने पिता से उन्होंने पढने लिखने और राजनीतिक समाज चिन्तन का ब्राह्मण-तत्व (यहाँ ब्राह्मण तत्व का सन्दर्भ - ब्रह्म चिंतन यानि समाज चिन्तन से जुडा है और कबीर, रैदास सभी इस परम्परा में आते हैं) वाला रोग विरासत में लिया था. मेरी उनसे समय समय पर होती रही अनगढ़ रोजमर्रे की बातचीत में यह बात वे मुझसे बराबर कहा करते थे.

22 वर्षों की तब तक की अपनी जिंदगी में मुझे भी राजनीति और आंदोलनों को कुछ नजदीक से देखने, जानने, समझने और कुछ-कुछ जीने का भी मौका मिला. वे 1974 आन्दोलन के आसपास के तूफानी दिन थे. हवा में राजनीति की महक तेज़ थी. उधर नक्सलबारी में क्रांति की वसंत-गर्जना की खुशबू, इधर इमरजेंसी के खिलाफ दूसरी आज़ादी के आन्दोलन की गंध. कुल मिला जुला कर हवा में सिर्फ राजनीति ही राजनीति. उधर मेरी अपनी राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि भाकपा की थी. जयप्रकाश के छात्र-आन्दोलन के समय मैं तत्कालीन बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कालेज मुज़फ्फरपुर में पढ़ा करता था. मेरी याददाश्त के मुताबिक छात्र-आन्दोलन के शुरुआती दौर में मेरे पिता की पार्टी भाकपा की छात्र-आन्दोलन के बारे में कोई स्पष्ट समझ नहीं बन पा रही थी. कभी वो छात्र-आन्दोलन में भी होते थे, फिर उसपर प्रश्न भी उठाया करते थे. शायद इसलिए कि वे जनता से कट न जाएँ इस स्थिति से बचने की कोशिश कर रहे थे.

ऐसे ही माहौल में भाकपा से निराश मैं अपने एक समाजवादी पृष्ठभूमि के स्कूली मित्र - जिसके पिता उस वक़्त बिहार विधान परिषद के सदस्य थे और कर्पूरी जी के काफी निकट थे और जो खुद भी बाद में बिहार विधान परिषद का सदस्य बना - के सान्निध्य में छात्र आन्दोलन से जुड़ गया. आन्दोलन के शुरूआती दिनों में मुजफ्फरपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट स्टीयरिंग कमिटी में वामपंथी रुझान वाले समाजवादी,नक्सलवादी, सी.पी.एम् और मेरे जैसे पार्टी-लेस वामपंथी भी थे जो जनता के हक में डी-होर्डिंग केम्पेन वगैरह चलाया करते थे. उसी वक्त मैंने भी मुजफ्फरपुर से पह्लेज़ा घाट से स्टीमर से गंगा पार आकर पटना में 18 मार्च के विधान सभा पर हुए प्रदर्शन में हिस्सा भी लिया था.पटना के बाकरगंज मुहल्ले में अपने उसी मित्र के साथ किसी मकान में ठहरा था.

जनता के उस हिस्से को जो गरीब और मजलूम थी उनको किरासन तेल, चीनी जो उस वक्त एक दुर्लभ सामग्री मानी जाती थी छात्र आन्दोलन के इन डि-होर्डिंग केम्पेनों से राहत मिलती थी. बाद के दिनों में पटना से एक सज्जन वहां छात्र आन्दोलन संचालित करने के लिए भेजे गए. उन सज्जन को यह डिहोर्डिंग केम्पेन वगैरह पसंद नहीं आया और यह सब मुजफ्फरपुर में बंद कर दिया गया. आन्दोलन धीरे धीरे गहरा हो रहा था. उधर मेरी नजर में इस आन्दोलन की दिशा गरीब जनता को राहत दिलाने के विपरीत जा रही थी. इसके लिए मुख्य मुद्दा बनता दिख रहा था गैर-कांग्रेसवाद जिसमे जनता के सरोकार कम हो रहे थे. बाद में तत्कालीन प्रधानमन्त्री मिसेज गाँधी ने देश पर इमरजेंसी थोप कर इन आन्दोलनकारियों को शहीद बनाने और शहादत का दर्जा दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. मगर तबतक मुजफ्फरपुर में मेरी नजर में इस आन्दोलन में आये इस गरीब विरोधी परिवर्तन ने मेरे दिलो-दिमाग में इस आन्दोलन के प्रति कुछ शक पैदा कर दिया था. इसी बीच कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन नेता इन्द्र्दीप सिंह की एक पुस्तिका आई "सम्पूर्ण क्रांति बेनकाब" जिसमे छात्र आन्दोलन और आन्दोलनकारियों के नेताओं को पूंजीपति-पक्षी बताया गया था. अपने दिमाग में चल रहे द्वंद्व और इस पुस्तिका में छपी बातें कुछ सामंजस्य पूर्ण लगी. मुझे लगा था ठीक ही लिखा गया है.

और मैं कोई प्रेक्टिसिंग राजनीतिज्ञ तो था नहीं जो लाभ हानि का गुना भाग देखता. रातो-रात मैंने अपना पक्ष बदल लिया. और अचानक ही मैं उस वक्त की भाकपा की लाइन के साथ खड़ा हो गया. बल्कि कहिये कि मैंने अपने को उस आन्दोलन के खिलाफ खड़ा पाया. मगर अभी कल तक जिन मित्रों के साथ आन्दोलन में शामिल था उन सब को मैंने अचानक अपने खिलाफ पाया. मेरे लिए यह काफी दुखदायी भी था. क्योंकि मैं यह तो जानता ही था कि उनमे से अधिकांश व्यक्तिगत तौर पर काफी इमानदार और संजीदे हैं. हालाँकि इसका फायदा भी मेरे उन कुछ मित्रों को मिला जिनके खिलाफ आपत्काल में डी.आइ.आर और मीसा के तहत वारंट निकला था और जो पुलिस से बचते फिरते थे. उनमे से कुछ लोग मेरे कमरे का उपयोग रात में अपने सोने के लिए किया करते थे क्योंकि पुलिस अब मेरे कमरे की तलाशी नहीं किया करती थी. मुझे आज तक यह पता नहीं चल सका कि ऐसा क्यों और किसके आदेश से होता था.मगर यह सही है कि पूरे होस्टल में जब तलाशी ली जाती थी मेरे रूम को छोड़ दिया जाता था. धीरे-धीरे यह बात आन्दोलनकारी भी समझने लगे और उनमे से कुछ मित्र आन्दोलनकारी रात में ठहरने के लिए मेरे कमरे को सेफ-सेल्टर के रूप में इस्तेमाल भी करने लगे थे.

इसी बीच 1977 में जनता पार्टी की सरकार केंद्र में बन गई. बिहार राज्य मे भी कांग्रेस समाप्त हो गई. और तब तक मैं भी लंगट सिंह कालेज से अंग्रेजी में स्नातक की पढाई समाप्त कर स्नातकोत्तर पढाई के लिए पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अपना नामांकन कराया. बेगुसराय में हमारे ही इलाके के वरेण्य कवि -एक्टिविस्ट रामेश्वर प्रशांत पटना आते जाते रहते थे. उनसे मेरा परिचय पहले से ही था. उनकी ही वजह से पटना में मेरा सम्पर्क धीरे-धीरे साहित्य और पत्रकारिता में तब के सक्रिय वाम जनवादी धारा के करीब रहने वाले - प्रकाश चन्द्रायण, आलोकधन्वा, शशिभूषण, अरुण रंजन, अरुण सिन्हा, हेमेन्द्र नारायण,शेखर, महेश्वर, राणाप्रताप, जितेन्द्र राठौर, प्रेम कुमार मणि, मधुकर सिंह, सुरेन्द्र स्निग्ध, विद्यानंद सहाय, रविन्द्र भारती और अन्य ढेर सारे लोग. इनमे से अधिकांश अरुण प्रकाश जी के हमउम्र थे. सभी मुझसे तकरीबन दस वर्ष बड़े.

इनमे से उस वक्त प्रकाश चन्द्रायण जी के साथ मेरा समय ज्यादा बीतता था. एक तो वे मेरे पड़ोस के खगडिया जिले के थे और दूसरे उनमे कुछ स्वाभाविक सिखलाने की प्रवृति भी थी. मुझे याद है पहली बार मैं प्रकाश जी के साथ ही अरुण प्रकाश से उनके बरौनी खाद कारखाना टाउनशिप में उनके एक बेडरूम वाले क्वार्टर में मिला था. उनका यह क्वार्टर खाद कारखाना टाउनशिप में स्थित गेस्ट हॉउस के कैम्पस में ही था जहाँ वे तब असिस्टेंट गेस्ट हॉउस मैनेजर के रूप में काम करते थे. प्रकाश जी और मैं पटना से गये थे और प्रशांत जी को इस अवसर पर गडहाडा से वहाँ बुला लिया गया था. प्रशांत जी सीनिअर होने की वजह से प्रकाश चन्द्रायण जी के भी आदरणीय थे.

वहीँ मुझे पता चला कि ये लोग इमरजेंसी के दिनों से ही तकरीबन भूमिगत जैसे रहकर सक्रिय थे. यानि नौकरी करते हुए बैक-रूम बॉय की भूमिका में इमरजेंसी के खिलाफ गतिविधियां चलाना. इमरजेंसी के दरम्यान ये सभी एस.आर. भाई जी के नेतृत्व वाली सी.पी. आई. एम-एल के साथ थे. प्रशांत जी के ज़रिये इनका सम्पर्क इस पार्टी के साथ था. भाई जी और अभय जी (भूमिगत नाम) इनके पास-आते जाते रहते थे. वस्तुतः अभय जी ही उत्तर बिहार में खासकर खगडिया-बेगुसराय के इलाकों में पार्टी का काम देख रहे थे. और इस तरह मैं अरुण प्रकाश जी एवं प्रकाश चंद्रायण जी और प्रशांत जी के साथ उनकी राजनीतिक यात्रा में सहयात्री बना.

बाद में लोकल होने की वजह से ज्यादासे ज्यादा मिलने जुलने की वजह से मेरे और उनके सम्बन्ध राजनीतिक के साथ-साथ निजी भी होते चले गये. बल्कि यूँ कहिये कि हमारे सम्बन्धों में ही नहीं हमारे सोच में भी समरूपता बनती गई. दोनों की पारिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि, दोनों ही अपने पिताओं की पार्टियों की लाइनों से असंतुष्ट. दोनों ही गरीबों के पक्ष में और मूलतः वाम और जनवाद समर्थक.मगर "एथेंस के सत्यार्थी " की तरह अनाध्यात्मिक रूप से पार्टियों की गतिविधियों को देखने और समझनेवाले - प्रश्नों से लबालब. अरुणप्रकाश जी का अनुभव-संसार मुझसे काफी विस्तृत - जिसकी वजह से मेरे जैसे प्रश्नार्थी के विमर्श के लिए वहां काफी गुंजाइश हुआ करती थी. उन्हें तो भूमिगत और संसदीय दोनों ही किस्मों की राजनीति को देखने का विस्तृत अनुभव था. राजनीतिक विमर्श की यही निरन्तरता हमें निरंतर एक दूसरे के करीब लाती चली गई.

बाद में चलकर एस. आर. भाई जी की पार्टी में विलगाव हुआ. अभय जी के नेतृत्व में बेगुसराय और खगडिया के इलाकों वाली पार्टी का बड़ा हिस्सा पार्टी यूनिटी के साथ चला गया. प्रशांत जी भाई जी के साथ रह गए थे. मगर अरुणप्रकाश अभय जी के साथ हो लिए. मैं इन डेवलपमेंट्स का साक्षी रहा. इधर प्रशांत जी और उधर अरुणप्रकाश जी के धड़े के लोग दोनों ही मुझसे अपनी बातें खुल कर बताते रहे
क्योंकि इन सब में मैं तटस्थ जैसा ही रहा.लेकिन इस पूरे प्रकरण में अरुण प्रकाश मुझसे लगातार विमर्श करते रहे क्योंकि शायद तबतक उनको मेरी विश्लेष्णात्मक क्षमता पर यकीन आने लगा था. वैसे इस बात का कोई सर्टिफिकेट तो उन्होंने मुझको कभी नहीं दिया मगर आस-पास के दोस्त और परिचितों के जरिये ये बात मुझतक पहुँचती रही कि वे मेरी विश्लेशनात्म्कता को लेकर मुझे काफी पसंद करने लगे थे.

राजनीति के प्रति उनकी शोधपरकता को इसी बात से समझा जा सकता है कि जिस भाकपा की राजनीति के खिलाफ वे भूमिगत रूप से काम करते रहे उसी भाकपा की ट्रेड यूनियन बरौनी खाद कारखाना मजदूर यूनियन के साथ वे ट्रेड यूनियन फ्रंट पर लगातार काम करते रहे. यह इसलिए कि वहां अन्य यूनियन के साथ काम करना या समानांतर यूनियन बनाना मजदूर आन्दोलन को तोड़ने जैसा होता.
मगर बाद के दिनों में वहीँ उन्होंने मजदूर एकता केंद्र नाम से एक यूनियन बनाया जब उन्हें लग गया कि भाकपा की यूनियन के साथ मिलकर काम नहीं किया जा सकता है. यह सब हुआ ए.आइ.टी.यू. सी के नेता और भाकपा विधायक सीताराम मिश्र की हत्या के बाद जब उस यूनियन के स्थानीय नेता संकीर्न्तावाद के शिकार हो गये और उनपर पार्टी नेतृत्व का नियन्त्रण ढीला हो गया.

उधर कुछ दिनों बाद डाक्टर विनयन के पार्टी यूनिटी के नेतृत्व वाली मजदूर किसान संग्राम समिति से निकाले जाने के सवाल पर और जनांदोलन में शस्त्र पर निर्भरता ज्यादा हो या विचारों की प्रधानता के सवाल पर अरुण प्रकाश और उनके अन्य मित्रगण विनयन के साथ खड़े मिले. इस विमर्श में भी उन्होंने मुझसे रात-रात भर बहसें की और अंततः इस नतीजे पर पहुंचे कि शस्त्र पर निर्भरता वस्तुतः विचारों को दूर रखने में ही सहायक होती है और बंदूक विचारों को दरकिनार कर देती है.

तीसरा वाकया उस समय का है जब जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा बन रहा था. पार्टी यूनिटी की तरफ से ही वे पूरे देश में हिंदी और अन्य भाषाओँ के लेखकों,कलाकारों, फिल्म आर्टिस्टों, थिएटर आर्टिस्टों आदि को संगठित करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में यात्रायें कर रहे थे ठीक उसी वक्त उस समय की भाकपा माले लिबरेशन का नेतृत्व आइ.पी.ऍफ़ को आगे कर भूमिगत से उपरिगत हो रही थी राजनीतिक संकीर्णता से उपर उठकर अरुण प्रकाश ने उस वक्त की राजनीतिक आवश्यकता को देखते हुए इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वहां वे पार्टी की संकीर्णता से ऊपर उठ गए, इस पूरे प्रकरण में मैं उनका राजदार रहा.यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मेरे अन्य वरिष्ठ मित्रों में से वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मेरी निर्णयात्मक क्षमता को ज्यादा तरजीह दी.शायद उसकी वजह उनके साथ मेरा ज्यादा मिलना जुलना रहा हो जिससे कि उन्हें मुझे समझने का ज्यादा मौका मिला.

लब्बो-लुआब यह है कि पार्टियाँ और पार्टियों की बंदिशें उनको कभी बाँध नहीं पायीं. देश और गरीबों के पक्ष का जनांदोलन उनके लिए हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण रहा. वे हमेशा जनता के आदमी, जनता के लेखक और जनता के ही कार्यकर्ता बने रहे. शायद इसी प्रवृति ने उन्हें कभी अध्यात्मिक तौर पर बंधुआ पार्टी कार्यकर्ता बनने नहीं दिया. मगर गरीबों की पक्षधरता उन्हें हमेशा जनता के पक्ष में खड़ी करती रही. जनता और जनांदोलनों के पक्ष में अडिग और अविचल. साथी अरुण प्रकाश को क्रन्तिकारी सलाम.

(य़ह आलेख अरुण प्रकाश जी की मृत्यु के तुरत बाद दिल्ली से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका बया के सम्पादक गौरीनाथ जी के आदेश पर मेरे द्वारा लिखी गयी थी जिसका सम्पादित संस्करण बया में छपा था। लेखक प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया (XI th ) के सदस्य हैं) अरुण प्रकाश का जन्म 18 जुलाई 1948 को बेगूसराय (बिहार) के नितनिया गांव में हुआ था।अरुण प्रकाश हिन्‍दी कहानी, पत्रकारिता व अनुवाद क्षेत्र से जुडे रहे। उन्‍होंने ने दूरदर्शन की बहुचर्चित टीवी सांस्कृतिक पत्रिका ‘परख’ के करीब 450 एपीसोड लिखे थे और युग धारावाहिक महत्व्पूर्ण शोध कार्य किया था। वह साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय स्टार पर प्रतिस्थित साहित्यिक पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के संपादक रहे।: भैया एक्सप्रेस, जलप्रांतर, मँझधार किनारे, लाखों के बोल सहे, विषम राग आदि उनकी महत्व्पूर्ण कहानियां रहीं। उपन्यास : कोंपल कथा,कविता संकलन : रक्त के बारे में आदि उनकी महत्व्पूर्ण रचनायें हैं। उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी कई महत्व्पूर्ण रचनाएं आयी हैं। अभी अभी उनकी पुस्तक कहानी का फलक दिल्ली के पुस्तक मेले में विमोचित हुआथा।

No comments: