Tuesday, March 11, 2014

"कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो " और उसी समय किसी वामपंथी मित्र ने कहा था

सन २००७ में जब बंद पड़े बरौनी फर्टिलाइज़र कारखाना टाउनशिप में स्थित सीमा सशस्त्र बल के डी आई जी हेडक्वार्टर छावनी के जवानों ने नंगा नाच शुरू किया हुआ था ज़िले की सारी पार्टियां हतप्रभ थी क्योंकि ज़िले में आंदोलन की पुरानी परम्परा को धीरे धीरे तिलांजली देने की शुरुआत उस समय तक परवान चढ़ चुकी थी और सामाजिक जीवन में घुन एक हद तक लग चुका था मैंने एकला चलो के सिद्धांत के तहत एक पर्चा युद्ध शुरू किया था। उस समय दादा दुष्यन्त मेरे सर पर सवार थे - "कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो " और उसी समय किसी वामपंथी मित्र ने कहा था - इसके लिए पर्चा नहीं मोर्चा चाहिए।

बात तो सच थी मगर मैं तो सार्वजनिक जीवन का वैसा खिलाड़ी भी नहीं था कि मैं चाह कर भी मोर्चा लगा पाता। एक एक्टिविस्ट पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता के पास राजनीतिक दलों की तरह का न तो संगठन होता है और न ही कार्यकर्ता। पी यू सी एल का राज्य उपाध्यक्ष हुआ करता था तब मैं।

मगर अपुन ने हार नहीं मानी। हठयोग में चला गया। मुझे नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा ताई पाटकर और पटना के गांधी संग्रहालय के मेरे आदरणीय बुज़ुर्ग रजी अहमद साहब ने इस मामले में मेरी एकनिष्ठता के मद्दे-नज़र अपना नैतिक समर्थन दिया। रज़ी साहब ने तो बाज़ाब्ता मेरे पर्चे बांटे अपने टेबल से। जो कोई भी उनदिनों उनसे मिलने आता उसे वे यह पर्चा देते थे और पढ़ने का आग्रह करते थे।

आदरणीया मेधा ताई ने अपने मंतव्य के साथ मेरे इस पर्चे को लगाकर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को पत्र लिखा जो महाराष्ट्र के ही थे और ताई की इज़ज़त भी किया करते थे। और इस तरह किला फतह हुआ। पर्चे ने वो काम किया जो मोर्चा के ज़रिये किया जा सकता था। अंततः सीमा सशस्त्र बल के जवानो की गुंडागर्दी से निजात मिली और लोगों का चैन लौटा।

अरुण कुमार

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