विष वृक्ष फलने लगा तो भोग लगाइये,जाति मजबूत करने की राजनीति के नतीजे से आग बबूलाहोने के बजाय अब भी वक्त है कि बाबासाहेब के रास्ते चले वरना धर्म बदलने के बाद भी जिस जाति की वजह से यह कयामत है,उसी जाति को ढोने वाले बंदों का खुदा कोई नहीं।बाबा साहेब भी नहीं।और मार्क्स भी नहीं।
पलाश विश्वास
विष वृक्ष फलने लगा तो भोग लगाइये,जाति मजबूत करने की राजनीति के नतीजे से आग बबूलाहोने के बजाय अब भी वक्त है कि बाबासाहेब के रास्ते चले वरना धर्म बदलने के बाद भी जिस जाति की वजह से यह कयामत है,उसी जाति को ढोने वाले बंदों का खुदा कोई नहीं।बाबा साहेब भी नहीं।और मार्क्स भी नहीं।सर्वस्वहाराओं का चौरतरफा सत्यानाश समय है यह।
विडंबना यह है कि वर्ग संघर्ष के जरिये क्रांति का सपना देखने वाले वामपंथी भी सत्तासुख के लिए जाति समीकरण जोड़ते रहे हैं।
बंगाल में तो वर्ण वर्चस्व और मनुस्मृति राज बाकी देश की तुलना में बेहद मजबूत है।बिना केसरिया सुनामी के बंगाल में जीवनयापर मुकम्मल केसरिया है।बंगाल के विभाजन के जरिये सत्ता से बहुजनों को बेदखल तो किया ही गया,दलित शरणार्थियों को बंगाल बाहर करके देशभर में छिड़ककर उनकी बहचान और राजनीतिक ताकत मिटा दी गयी। बहुसंख्य ओबीसी को सत्ता से जोड़कर रखा गया तो अखंड बंगाल में बहुसंख्यक मुसलमान अल्पसंख्यक बनकर वोट बैंक में तब्दील हो गये। सच्चर कमिटी की रपट की भूमिका सिंगुर नंदीग्राम भूमि आंदोलन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है,इस पर चर्चा कम हुई है,लेकिन बाकी देश के केसरिया कायाकल्प को समझने के लिए इसे समझना बेहद जरुरी है। सन 1977 तक बंगाल में अल्पसंख्यक मुसलमान बाकी देश की तरह कांग्रेस के पाले में बने रहे।सत्ता खातिर कामरेड ज्योति बसु की अगुवाई में बाहर छिटका दिये गये दलित शरणार्थिों को बंगाल वापस बुलाकर शरणार्थी वोट बैंंक बनाने का खेल इसीलिए रचा गया क्योंकि मुसलमान कांग्रेस के पास थे और वामदलों का कोई मुकम्मल वोट बैंक नहीं था,लेकिन जबतक मरीचझांपी में शरणार्थी आकर बसे,तब तक 1977 के लोकसभा चुनाव में मुसलमान वामदलों के साथ हो गये।1977 से लेकर 2009 तक मुसलमान वोट बैंक वामदलों के कब्जे में रहा।इस बीच गैरजरुरी शरणार्थियों को मरीचझांपी नरसंहार के जरिये जनवरी ,1979 में वाम सरकार ने बंगाल से खदेड़ बाहर कर दिया ।
खास बात यह है कि 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले सच्चर कमिटी रपट से खुलासा हुआ कि बंगाल में वाम शासन के दौरान मुसलमानों का कल्याण हुआ नहीं है। मुसलमान नंदाग्राम नरसंहार के बाद एकमुश्त ममता बनर्जी के साथ खड़े हो गये तो बंगाल में बजरिये परिवर्तन मां माटी मानुष की सरकार का गठन हो गया।
लेकिन अब ताजा सर्वेक्षण आज ही बांग्ला दैनिक अखबार एई समय में प्रकाशित हुआ है, जिसके तहत परिवर्तन जमाने में भी बंगाल में मुसलमानों के खिलाफ वही साजिशाना धोखाधड़ी का सिलसिला जारी है जैसा कि आईपीएस साहित्यकार नजरुल इस्लाम ने अपनी पुस्तक मुसलमानदेर कि करणीय,में खुलकर पहले ही लिख दिया है कि मुसलिम कट्टरपंथ को संरक्षण देने के अलावा ममता बनर्जी के नमस्ते दोया अभियान से मुसलमानों का कोई कल्याण नहीं हो रहा है।
गौरतलब है कि अखंड बंगाल में मुसलमान ही बहुजन आंदोलन की रीढ़ है तो पश्चिम बंगाल में मुसलमानों और दलितों का कोई गठबंधन नहीं है।आदिवासी और बहुसंख्य ओबीसी अलग अलग हैं।इन सबको खैरात और आरक्षण बांटकर समीकरण साधा जाता रहा है।
गौरतलब है कि बंगाल में तमाम किसान आंदोलनों में मुकम्मल बहुजन समाज का वजूद रहा है। अठारवी सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज शुरु होने के तत्काल बाद हुए चुआड़ विद्रोह से लेकर नील विद्रोह,सन्यासी विद्रोह होकर तेभागा आंदोलन तक।
गौरतल है कि मतुआ आंदोलन का प्रस्थान बिंदू ब्राह्मणवाद का विरोध रहा है और हरिचांद ठाकुर से लेकर गुरुचांद ठाकुर तक मतुआ एजंडा पर स्त्री मुक्ति,कर्मकांड निषेध, शिक्षा आंदोलन,अस्पृश्यता मोचन से भी ऊपर भूमि सुधार का कार्यक्रम सबसे ऊपर था और इसी एजंडे को अपनाकर तेभागा की पकी हुई जमीन पर वाम दलों का जनाधार बना।
गौरतलब है कि बंगाल में अब अबेडकर को संविधानसभा भेजने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल को जैसे याद नहीं किया जाता ,ठीक उसी तरह अखंड बंगल के प्रथम प्रधानमंत्री फजलुल हक को याद करने वाला इस पार उसपार बंगाल में कोई नहीं है।
लेकिन इन्हीं फजलुल हक की कृषक प्रजा पार्टी ने 1901 में ढाका में बनी मुसलिम लीग और उसके बाद बनी हिंदू महासभा दोनों की हवा खराब कर रखी थी और वे बहुजनों के निर्विरोध नेता थे।उनकी पार्टी के एजंडा पर भूमि सुधार सबसे ऊपर था।लेकिन सत्ता में आते ही फजलुल श्यामा हक मंत्रिमंडल ने भूमि सुधार आंदोलन को हाशिये पर रख दिया।नतीजतन बंगाल में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों की चल निकली।
बाकी देश में जो बहुजन आंदोलन मुसलमान समर्थन से ओबीसी को साथ लेकर चल रहा था, वह जाति पहचान पर आधारित था,संशाधनों के बंटवारे और भूमि सुधार के एजंडा मार्फत अबेडकरी जाति उन्मूलन एजंडा के तहत पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद दोनों को दुश्मन मानकर नहीं। विपरीत इसके आरक्षण राजनीति के तहत सत्ता वर्ग ने बंगाली मुसलमानों की तरह बहुजन जातियों को रंग बिरंगी पार्टियों के वौटबेंक में सीमाबद्ध कर दिया।जिसके नतीजे के बतौर बहुजनों की मजबूत दो चार जातियां सत्ता तक पहुंच गयी और सत्ता संरक्षण में उन जातियों के बाहुबलि धनपशुओं ने बाकी छह हजार से ज्यादा जातियों पर कहर बरपाने का सिलसिला जारी रखा है।
बंगल में जाति पहचान की बात कोई करता नहीं है और नकोई जाति पूछता है लेकिन मुकम्मल जाति तंत्र है। बाकी देश में जाति तंत्र ही लोकतंत्र है।अंबेडकर ने हिंदू समाज में जाति उ्मूलन असंभव जानकर बौद्ध धर्म अपनाया तो अब जाति व्यवस्था को बहुजन राजनीति के सत्ता माध्यम बना देने और सत्ता वर्ग की मौकापरस्त सत्ता राजनीति से अस्मिता मजबूत बनाओ अभियान के तहत काशीराम के आवाहन मुताबिक अपनी अपनी जाति मजबूत करने के तहत आरक्षण का लाभ लेने के लिए धर्मान्तरित बहुजनों के मार्फत इस्लाम,ईसाइत, सिखधर्म, बौद्धधर्म में भी जाति वर्चस्व का खेल शुरु हो गया। अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडा को फेल करके बहुजन आंदोलन ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिये कई राज्यों में सवर्णों को जो सत्ता से अलग कर दिया,जवाबी बंगाली ओबीसी सोशल इंजीनियरिंग से उसका पटाक्षेप हो गया।
दलित उत्पीड़न का सिलसिला अनंत है।स्त्री का दमन अनंत है। अब रामराज में खुल्ला सांढ़ बने गये मजबूत जाति के गुंडातंत्र वही गुल खिला रहे हैं , जो बंगाल में परिवर्तान राज का रोजनामचा है।
विडंबना है कि इस गुंडाराज से बचने के लिए बहुजन और वाम कार्यकर्ता नेता भारी पैमाने पर केसरिया तंबू में ही शरण ले रहे हैं जैसे बंगाल में तृणमूली गुंडाराज से बचनेके लिए सुरक्षा की गारंटी अब हिंदू महासभा वंशलतिका भाजपा है,जिसका चालीस के दशक के आखिर तक विशुद्ध आर्थिक एजंडे के तहत बंगाल के अखंड बहुजनसमाज ने मुस्लिम लीग की तरह हाशिये पर रख दिया था।
खास बात तो यह है कि बंगाल और भारत के मुकाबले बांग्लादेश में दलित आंदोलन समूचे बहुजन समाज,प्रगतिशील तबके और धर्मनिरपेक्ष लोकतात्रिक ताकतों के साथ सत्ता वर्ग और कट्टरपंथ के विरुद्ध अब भी लामबंद है क्योंकि वहां सत्ता समीकरण के लिए दलित आंदोलन नहीं है और वजूद बहाल रखना बुनियादी तकाजा है। मार खाने के डर से न कोई मसीहा है और न कोई दुकान।न बहुजन मजबूत जातियों का वहां वजूद है और न उनका कोई गुंडातंत्र है।
अनीता भारती ने सही लिखा हैः
दलित महिलाओं के साथ लगातार बढ रहे उत्पीडिन, शोषण, बलात्कार और हत्याएो को राष्ट्रीय समस्या मानकर उससे युद्धस्तर पर लडना और खत्म करना होगी, ताकि दलित महिलाओं के मान- सम्मान और स्वाभिमान को सुरक्षित किया जा सके.
फिर दुसाध जी का यह फेसबुकिया मंतव्य
गाँव के दबंगों ने,जो जाति से पटेल हैं,उनकी भाई-भाभी की अनुपस्थिति का लाभ उठकर रेप की घटना अंजाम दिया है.आगे कोई कार्रवाई न हो इसके लिए जान से मारने की धमकी दे रहे हैं.घटना मिरजापुर जिले की है.दबंगों के प्रभाव के कारण पुलिस सही एक्शन नहीं ;ले रही है.मिर्जापुर,भगाणा और बदायूं केस की तह में जाने पर पाएंगे की घटना के पीछे हिन्दू समाज की कमजोर का यम बनने की मानसिकता जिम्मेवार है.अनवरत जारी ऐसी घटनाओं पर हाय-तोबा से कुछ नहीं होने वाला.आपको यह बात ध्यान रखकर कार्य योजना बनानी होगी की की हिन्दू सख्त का भक्त भी होते हैं.अतः असशाक्तों को सशक्त बनाकर ही ऐसी बर्बर घटनाओं से राष्ट्र को निजात दिला सकते हैं.अतः सोचे बीमार हिन्दू समाज को कैसे दुरुस्त कर सकते हैं.
लालजी निर्मल का कहना हैः
बहुजनों का आन्दोलन तो सिर्फ आरक्षण तक सिमित हो कर रह गया |देश की चौथाई आबादी तो आज भी बेबस और बदहाल है |दलितों में भी जाति बोध,जाति मोह पनप रहा है |जातियों के किये जा रहे सशक्तिकरण से अम्बेडकर के सपनों का भारत तार तार हो रहा है | सवाल है क्या अम्बेडकरी आन्दोलन कमजोर हो रहा है !सवाल है क्या दलितों के सशक्तिकरण के लिए जमीन वितरण का एजेंडा मुख्य बिंदु बनाया जाना चाहिए,सवाल है क्या हजारों सालों की दासता ने जब दलितों का सब कुछ निगल लिया तो आजादी के बाद दलितों को जीवन यापन के लिए मुआवजा नहीं दिया जाना चाहिए था | दलित आन्दोलन को इन सारे सवालों से जूझना होगा |
इसी सिसलसिले में हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़़े का लिखा भी पढ़ लेंः
अपने अकेले बेटे को क्रूर तरीके से खो देने वाले राजू और रेखा आगे की भयावह मानवीय त्रासदी 'हत्याओं' की संख्या में बस एक और अंक का इजाफा करेगी और भगाना की उन लड़कियों को तोड़ कर रख देने वाला सदमा और जिंदगियों पर हमेशा के लिए बन जाने वाला घाव का निशान एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) की 'बलात्कारों' की गिनती में जुड़ा बस एक और अंक बन कर रह जाएगा. ऐसी सामाजिक प्रक्रियाओं द्वारा पैदा किए गए उत्पीड़न के आंकड़े अब भी 33,000 प्रति वर्ष के निशान के ऊपर बनी हुई हैं. इन आधिकारिक गिनतियों का इस्तेमाल करते हुए कोई भी यह बात आसानी से देख सकता है कि हमारे संवैधानिक शासन के छह दशकों के दौरान 80,000 दलितों की हत्या हुई है, एक लाख से ज्यादा औरतों के बलात्कार हुए हैं और 20 लाख से ज्यादा दलित किसी न किसी तरह के जातीय अपराधों के शिकार हुए हैं. युद्ध भी इन आंकड़ों से मुकाबला नहीं कर सकते हैं. एक तरफ दलितों में यह आदत डाल दी गई है कि वे अपने संतापों के पीछे ब्राह्मणों को देखें, जबकि सच्चाई ये है कि इस शासन की ठीक ठीक धर्मनिरपेक्ष साजिशों ने ही उन शैतानों और गुंडों को जन्म दिया जो दलितों को बेधड़क पीट पीट कर मार डालते हैं और उनका बलात्कार करते हैं….
हमेशा के लिए बन जाने वाला घाव का निशान एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) की 'बलात्कारों' की गिनती में जुड़ा बस एक और अंक बन कर रह जाएगा. इन मानवीय त्रासदियों को आंकड़ों में बदलने वाली सक्रिय सहभागिता, जिनके बगैर वे भुला दी गई होती, गुम हो गई है. ऐसी सामाजिक प्रक्रियाओं द्वारा पैदा किए गए उत्पीड़न के आंकड़े अब भी 33,000 प्रति वर्ष के निशान के ऊपर बनी हुई हैं. इन आधिकारिक गिनतियों का इस्तेमाल करते हुए कोई भी यह बात आसानी से देख सकता है कि हमारे संवैधानिक शासन के छह दशकों के दौरान 80,000 दलितों की हत्या हुई है, एक लाख से ज्यादा औरतों के बलात्कार हुए हैं और 20 लाख से ज्यादा दलित किसी न किसी तरह के जातीय अपराधों के शिकार हुए हैं. युद्ध भी इन आंकड़ों से मुकाबला नहीं कर सकते हैं. एक तरफ दलितों में यह आदत डाल दी गई है कि वे अपने संतापों के पीछे ब्राह्मणों को देखें, जबकि सच्चाई ये है कि इस शासन की ठीक ठीक धर्मनिरपेक्ष साजिशों ने ही उन शैतानों और गुंडों को जन्म दिया जो दलितों को बेधड़क पीट पीट कर मार डालते हैं और उनका बलात्कार करते हैं.
इसने सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों को बरकरार रखने की साजिश की है, इसने पुनर्वितरण के नाम पर भूमि सुधार का दिखावा किया जिसने असल में भारी आबादी वाली शूद्र जातियों से धनी किसानों के एक वर्ग को पैदा किया. वह सबको खाना मुहैया कराने के नाम पर हरित क्रांति लेकर आई, जिसने असल में व्यापक ग्रामीण बाजार को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया. वह ऊपर से रिस कर नीचे आने के नाम पर ऐसे सुधार लेकर आई, जिन्होंने असल में सामाजिक डार्विनवादी मानसिकता थोप दी है. ये छह दशक जनता के खिलाफ ऐसी साजिशों और छल कपट से भरे पड़े हैं, जिनमें दलित केवल बलि का बकरा ही बने हैं. भारत कभी भी लोकतंत्र नहीं रहा है, जैसा इसे दिखाया जाता रहा है. यह हमेशा से धनिकों का राज रहा है, लेकिन दलितों के लिए तो यह और भी बदतर है. यह असल में उनके लिए शैतानों और गुंडों की सल्तनत रहा है.
दलित इन हकीकतों का मुकाबला करने के लिए कब जागेंगेॽ कब दलित उठ खड़े होंगे और कहेंगे कि बस बहुत हो चुका!
Amalendu Upadhyaya with Ajit Pratap Singh and 2 others
27 mins ·
किसी से कम नहीं है। तीनों ही जातियों का जिले के क्षेत्र विशेष में अलग-अलग आतंक है। बदायूँ, एटा और बरेली तीनों ही जिलों में मौर्या मजबूत आर्थिक व बाहुबल वाली जाति है।
घटना जिस कटरा सआदतगंज की है वह पूर्ववर्ती उसहैत विधानसभा क्षेत्र में आता है जहां से भगवान सिंह शाक्य पूर्व मंत्री और पूर्व मंत्री नरोत्तम सिंह शाक्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। नरोत्तम सिंह शाक्य के पुत्र ब्रजपाल सिंह शाक्य भी कई चुनाव लड़े लेकिन कामयाब नहीं हुए। इसी विधानसभा क्षेत्र से सपा के मिनी मुख्यमंत्री कहे जाने वाले बनवारी सिंह यादव व उनके पुत्र आशीष यादव भी विधायक रहे हैं।
कुल मिलाकर लब्बो-लुबाव यह है कि पीड़ित पक्ष किसी दबी-कुचली दलित जाति का नहीं है बल्कि वह भी मजबूत बाहुबली जाति हैं और इस क्षेत्र में यादवों व मुरावों में हमेशा संघर्ष होता रहा है। दोनों ही पक्षों को अपनी-अपनी सरकारों में बनवारी सिंह यादव, भगवान सिंह शाक्य और ब्रजपाल सिंह शाक्य सारी सीमाएं तोड़कर मदद करते रहे हैं। कोई भी इस मामले में बेदाग नहीं है।
इसलिए मीडिया ने जिस तरह से इस घटना को प्रचारित किया वह उसकी नादानी नहीं बल्कि षडयंत्र है। बेशक सरकार पर सवाल उठाए जा सकते हैं जब सरकार का अभियुक्तों को संरक्षण प्राप्त हो, लेकिन प्रथमदृष्टया ऐसा देखने में नहीं आया कि सरकार ने अभियुक्तों को संरक्षण दिया हो। जैसा कि समाजवादी पार्टी के नेता डॉ. इमरान इदरीस का दावा है- "5 आरोपी पकड़ लिए गए हैं। पूरा थाना बर्खास्त कर दिया गया। 2 सिपाहियों को पकड़ा गया। स्वयं मुख्यमंत्री जी ने मामला फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट में दे दिया है। इसके बावजूद भी मीडिया इसको तूल दिए है।"
इमरान का आरोप गलत भी नहीं है। अभी हमारा मीडिया मोदीमीनिया से बाहर नहीं निकला है और भाजपा का भौंपू होने का फर्ज बखूबी निभा रहा है। कानून व्यवस्था को लेकर अखिलेश सरकार से जो सवाल पूछे जा रहे हैं, वही सवाल शिवराज सरकार से क्यों नहीं पूछे जा रहे ? यहां मकसद अखिलेश सरकार का बचाव करना कतई नहीं है बल्कि मीडिया का भाजपा के प्रोपैगण्डा सेल की तरह काम करने को लेकर है। अखिलेश सरकार अगर कानून व्यवस्था के मसले पर खरी नहीं उतरती है तो बेशक उसे फाँसी चढ़ा दीजिए लेकिन मीडिया को अब भाजपा के अफवाहतंत्र की तरह काम करने से बचना चाहिए।
Sudha Raje
7 hrs ·
कितने हैवान """""""
आज जो वातावरण बना हुआ है उस वातावरण में बलात्कारियों दंड तो देना है ही अति आवश्यक और तत्काल भी । साथ ही आवश्यक है कि वे सब कारण दूर किये जायें जिनके होने से "स्त्रियों पर आक्रमण होते हैं ।
1*"मानसिक "
भारत में जिस तेजी से सूचना संचार का विस्तार हुआ है उसी तेजी से अश्लीलता और ब्लू फिल्मों पोर्न बेबसाईटों गंदी अश्लील किताबों फिल्मों टीवी सीरियलोंअश्लील पोस्टरों और चित्रों का आक्रमण भी गाँव गाँव नगर नगर घर घर स्कूल कॉलेज आश्रम अस्पताल सब जगह पहुंच रहा है ।
ये सब देख सुनकर पढ़कर """दैहिक वासना भङकती है ''''लोग बुरी तरह इसी हवस और उत्तेजना से भरे जब होते है तो सेक्स की प्रबल इच्छा विवश करती है """ऐसे मानसिक हालात में विवेक खत्म हो जाता है और अश्लील किताब पढ़कर फिल्म देखकर या विज्ञापन टीवी सीरियल नाच गाना देखकर ""दैहिक वासना की आग में जलता असंयमी पुरुष """आसपास कोई भी स्त्री देखकर तत्काल उसे ही पाकर भूख बुझा लेना चाहता है । ये भूख जब बुझाने को स्त्री नहीं मिलती तो आसान शिकार """छोटे और किशोर बच्चे मिलते हैं या कमजोर लङके ""बलात्कार या कुकर्म ""जैसे अपराध इसी मनोदशा में होते हैं
घरेलू स्त्रियों का घर के नाते रिश्तेदारों द्वारा किये गये बलात्कार कुकर्म और बहला फुसलाकर दुष्कर्म के कारण """सबसे पहले ""मानसिक हालात """बेकाबू और भङकी हुयी वासना की आग है ।
जिसकी वजह है """हर तरह हर समय हर किसी के पास बरसती """अश्लीलता सेक्स और पोर्न सामग्री """
©®सुधा राजे
क्रमशः जारी
सीरीज """""""
S.r. Darapuri
उत्तर प्रदेश दलित महिलाओं पर बलात्कार के मामले में देश भर में दूसरे स्थान पर है. एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में पूरे भारत में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के 1576 मामलों में से 285 अर्थात कुल अपराध का 18.1% उत्तर प्रदेश से थे. इसी प्रकार अपहरण आदि के 490 मामलों में से 258 (52.65%) केवल उत्तर प्रदेश से ही थे. इस से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार की स्थिति शोचनीय है. वैसे तो मायावती के शासन काल में भी दलितों पर अत्याचारों में कोई ख़ास कमी नहीं थी.
यह आंकड़े कुल घटित अपराध का केवल छोटा सा हिस्सा है क्योंकि अधिकतर अपराध तो दर्ज ही नहीं किये जाते. इस का मुख्य कारण यह है कि अपराध दर्ज न करने वाले पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं होती क्योंकि इस में मुख्य मंत्री से लेकर निचले स्तर के अधिकारियों तक की मिली भगत रहती है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूँ ज़िले में दो नाबालिग लड़कियों को गैंगरेप के बाद पेड़ से लटका दिया गया था. पीड़ित परिवारों ने पुलिस पर गंभीर आरोप लगाए हैं.
BBC NEWS
Ashok Azami
बलात्कार एक घृणित अपराध है. लेकिन कभी गौर से सोचियेगा कि दिल्ली के बाद अब उत्तर प्रदेश पर ही इतना जोर क्यों है? तमाम बातों के आगे यह बात भी है कि वहां क़ानूनी कार्यवाही हुई है, अपराधी गिरफ्तार हो रहे हैं और पुलिसकर्मी सस्पेंड, लेकिन कार्यवाही का कहीं ज़िक्र नहीं है. सारा ज़ोर सरकार को घेरने भर पर है.
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दिल्ली में निर्भया काण्ड के बाद बहुत कुछ हुआ है पर उस पर कोई हल्ला नहीं. भगाणा के पीड़ित जंतर मंतर पर हैं और केंद्र सरकार का कोई बंदा नहीं गया पर उस पर एकदम चुप्पी. क्योंकि दिल्ली में उस हल्ले का फल हासिल कर लिया है मीडिया ने. भ्रष्टाचार पर हुए शोर के दौर को याद कीजिए. ज़रा सा अलग बात करने पर आपको कांग्रेसी कांग्रेसी कहकर टूटने वाले लोग आज नई सरकार के हर फैसले को डिफेंड करते नज़र आ रहे हैं. रक्षा क्षेत्र में सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर एकदम चुप हैं वे लोग जो सेना के लिए ऐसे बेकल थे कि उनका चलता तो खुद वर्दी पहन लेते. खुद को "कांग्रेसी नहीं" साबित करने के लिए हमारे प्रगतिशील साथियों ने भी जम कर हल्ला बोला. बिना यह सोचे कि सी ए जी का जो आंकड़ा है वह सिर्फ अनुमानों पर आधारित है. बिना यह सोचे कि मीडिया किस तरह एकतरफा चीजें पेश कर रहा है.
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अब यू पी की बारी है. असल में यह सब सत्रह के चुनाव की तैयारी है. सोचिये मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा बलात्कार के केस आते हैं लेकिन आज तक कभी उस पर कोई मुद्दा क्यों नहीं बना ऐसा? मुलायम का निंदनीय बयान सौ बार दुहराया जाता है लेकिन उसके पहले दिए संघ प्रमुख के बयान या ऐसे अन्य लोगों के बयानों का कोई ज़िक्र क्यों नहीं होता? मध्य प्रदेश में चुनाव से पहले सरकारी अधिकारीयों के सहारे फंड इकट्ठा करने में जिन लोगों का नाम आया उन पर कभी बात नहीं होती. माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर बनी काले धन पर एस आई टी पर नई सरकार का स्वागत करने वाले सूचना के तौर पर भी कभी नहीं बताते कि उस एस आई टी के प्रमुख वह जज हैं जिन्होंने वर्तमान प्रधानमंत्री के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर उन्हें क्लीन चिट दी थी. नई सरकार के हिंदी प्रेम पर बलिहारी होने वाले वाइब्रेंट गुजरात के सम्मलेन में बोली गयी हास्यास्पद अंग्रेज़ी पर कुछ नहीं कहेंगे. भारत सरकार की वेबसाईट के अंग्रेजी में मूल रूप से होने वाले भाजपा सरकारों की ऐसी ही वेबसाइट्स पर चुप लगा जायेंगे.
दुर्भाग्य से यू पी के शासक इसके लिए मौक़ा भी खूब उपलब्ध करा रहे हैं.
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मीडिया और सोशल साइट्स का युद्ध अगले चरण में पहुँच गया है. आप निष्पक्ष होने का प्रयास करते कैसे किसी एक पक्ष की रणनीति का हिस्सा बन जाते हैं पता ही नहीं चलता. अन्ना आन्दोलन याद कर लीजिये जब हम जैसे लोग कह रहे थे अन्ना के संघ प्रेम पर और क्रांतिकारी लोग जनता को देख इतना मगन थे कि अपना अपमान तक बर्दाश्त कर उन्हें डिफेंड करने में लगे थे. जनरल साहब, रामदेव, किरण बेदी और अब अन्ना का स्टैंड देखकर उन्हें शर्म तो क्या आएगी?
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बाक़ी सब होशियार हैं...किसी को क्या सलाह देनी? सोशल मीडिया को इतना समझता हूँ कि यह पता है कि इस पर कमेन्ट नहीं आने वाले. फिर भी सच तो कहना होगा अपने हिस्से का.
International Dalit Solidarity Network (IDSN)
Two teenage Dalit girls gang-raped and hanged in India. Police did not act till villagers blocked the road with the dead bodies of the girls. They had themselves had to cut the dead bodies down from the tree. This is yet another atrocious example of the failing of the justice system when Dalits are the victims and of the brutality faced by Dalit women all over india.
Police are searching for a group of men accused of gang-raping and...
THE INDEPENDENT
गुंडों की सल्तनत का महापर्व: आनंद तेलतुंबड़े
Posted by Reyaz-ul-haque on 6/01/2014 05:44:00 PM
आनंद तेलतुंबड़े का यह लेख दलितों की जिंदगी के एक ऐसे सफर पर ले चलता है, जहां हिंसक उत्पीड़नों, हत्याओं और बलात्कारों को उनकी रोजमर्रा की जिंदगी बना दिया गया है. अनुवाद रेयाज उल हक.
एक तरफ जब मीडिया में लोकतंत्र के महापर्व की चकाचौंध तेज हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ देश के 20.1 करोड़ दलितों को अपने अस्तित्व के एक और रसातल से गुजरने का अनुभव हुआ. उन्होंने शैतानों और गुंडों की सल्तनत का महापर्व देखा. बहरहाल, उनके लिए लोकतंत्र बहुत दूर की बात रही है. इस अजनबी तमाशे में वे यह सोचते रहे कि क्या उन्हें इस देश को अब भी अपना देश कहना चाहिएॽ
'हरेक घंटे दो दलितों पर हमले होते हैं, हरेक दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या होती है, दो दलितों के घर जलाए जाते हैं,' यह बात तब से लोगों का तकिया कलाम बन गई है जब 11 साल पहले हिलेरी माएल ने पहली बार नेशनल ज्योग्राफिक में इसे लिखा था. अब इन आंकड़ों में सुधार किए जाने की जरूरत है, मिसाल के लिए दलित महिलाओं के बलात्कार की दर हिलेरी के 3 से बढ़कर 4.3 हो गई है, यानी इसमें 43 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है. ऐसे में जो बात परेशान करती है वह देश की समझदार आबादी का दोमुहांपन है. यह वो तबका है जिसने डेढ़ साल पहले नोएडा की एक लड़की के क्रूर बलात्कार पर तूफान मचा दिया था, और इसकी तारीफ की जानी चाहिए, लेकिन उसने हरियाणा के जाटलैंड में चार नाबालिग दलित लड़कियों के बलात्कार पर या फिर 'फुले-आंबेडकर' के महाराष्ट्र में एक दलित स्कूली छात्र की इज्जत के नाम पर हत्या पर चुप्पी साध रखी है. इस चुप्पी की अकेली वजह जाति है, इसके अलावा इसे किसी और तरह से नहीं समझा जा सकता. अगर देश के उस छोटे से तबके की यह हालत है, जिसे संवेदनशील कहा जा सकता है, तब दलित जनता बेवकूफी और उन्माद के उस समुद्र से क्या उम्मीद कर सकती है, जिसमें जाति और संप्रदाय का जहर घुला हुआ हैॽ
भगाना की असली निर्भयाएं
भगाना हरियाणा में हिसार से महज 13 किमी दूर एक गांव है जो राष्ट्रीय राजधानी से मुश्किल से तीन घंटे की दूरी पर है. 23 मार्च को यह गांव उन बदनाम जगहों की लंबी फेहरिश्त में शामिल हो गया, जहां दलितों पर भयानक उत्पीड़न हुए हैं. उस दिन शाम को जब चार दलित स्कूली छात्राएं – मंजू (13), रीमा (17), आशा (17) और रजनी (18) – अपने घरों के पास खेत में पेशाब करने गई थीं तो प्रभुत्वशाली जाट जाति के पांच लोगों ने उन्हें पकड़ लिया. उन्होंने उन लड़कियों को नशीली दवा खिला कर खेतों में उनके साथ बलात्कार किया और फिर उन्हें कार में उठा कर ले गए. शायद उनके साथ रात भर बलात्कार हुआ और फिर उन्हें सीमा पार पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन के बाहर झाड़ियों में छोड़ दिया गया. जब उनके परिजनों ने गांव के सरपंच राकेश कुमार पंगल से संपर्क किया, जो अपराधियों का रिश्तेदार भी है, तो वह उन्हें बता सकता था कि लड़कियां भटिंडा में हैं और उन्हें अगले दिन ले आया जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भारी नशीली दवाओं के असर में और गहरी वेदना के साथ लड़कियां अगली सुबह झाड़ियों में जगीं और मदद के लिए स्टेशन तक गईं, लेकिन उन्हें दोपहर बाद 2.30 बजे तक इसके लिए इंतजार करना पड़ा जब राकेश और उसके चाचा वीरेंदर लड़कियों के परिजनों के साथ वहां पहुंचे. लौटते वक्त परिजनों को ट्रेन से भेज दिया गया और लड़कियों को कार में बिठा कर भगाना तक लाया गया. रास्ते में राकेश ने उनके साथ गाली-गलौज और बदसलूकी की, उन्हें पीटा और धमकाते हुए मुंह बंद रखने को कहा. जब वे गांव पहुंचे तो दलित लड़को ने कार को घेर लिया और लड़कियों को सरपंच के चंगुल से निकाला. अगले दिन लड़कियों को मेडिकल जांच के लिए हिसार के सदर अस्पताल ले जाया गया. वहां सुबह से दोपहर बाद डेढ़ बजे तक जांच चली, जो समझ में न आने वाली बात थी. लड़कियों ने बताया कि डॉक्टरों ने कौमार्य की जांच के लिए टू फिंगर टेस्ट जैसा अपमानजनक तरीक अपनाया जिसकी इतनी आलोचना हुई है और सरकार ने बलात्कार के मामले में इसका इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा रखा है. 200 से ज्यादा दलित कार्यकर्ताओं के दबाव और मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि होने के बाद सदर हिसार पुलिस थाना ने (एससी/एसटी) उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज की. हालांकि लड़कियों द्वारा दिए गए बयान में राकेश और वीरेंदर का नाम होने के बावजूद उनको इससे बाहर रखा.
ऐसा हिला देने वाला अपराध भी पुलिस को कार्रवाई करने के लिए कदम उठाने में नाकाम रहा. खैरलांजी की तरह, जब हिसार मिनी सेक्रेटेरिएट पर 120 से ज्यादा दलित जुटे और जनता का गुस्सा भड़क उठा तथा शिकायतकर्ता लड़कियों के साथ भगाना के 90 दलित परिवार दिल्ली में जंतर मंतर पर 16 अप्रैल से धरना पर बैठे तब हरियाणा पुलिस हरकत में आई और उसने 29 अप्रैल को पांच बलात्कारियों – ललित, सुमित, संदीप, परिमल और धरमवीर – को गिरफ्तार किया. दलित परिवार इंसाफ मांगने के मकसद से दिल्ली आए हैं, लेकिन इसके साथ साथ एक और वजह है. वे गांव नहीं लौट सकते क्योंकि उन्हें डर है कि बर्बर जाट उनकी हत्या कर देंगे. इन दलित मांगों को सुनने और न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने के बजाए हिसार जिला अदालत अपराधियों को रिहा करने के मामले को देख रही है. हालांकि ये बहादुर लड़कियां, असली निर्भयाएं, खुद अपनी आपबीती जनता के सामने रख रही हैं, लेकिन दिलचस्प रूप से मीडिया ने बलात्कार से गुजरने वाली महिलाओं की पहचान को सार्वजनिक नहीं करने के कायदे का पालन नहीं किया, जैसा कि उसने गैर दलित 'निर्भयाओं' के साथ बेहद सतर्कता के साथ किया था. राजनेताओं के बकवास बयानों से तिल का ताड़ बनाने में जुटे मीडिया ने इन परिवारों द्वारा किए जा रहे विरोध की खबर को दिखाने के लायक तक नहीं समझा – एक अभियान शुरू करने की तो बात ही छोड़ दीजिए, जैसा उसने उन ज्यादातर बलात्कार मामलों में किया है, जिनमें बलात्कार की शिकार कोई गैर दलित होती है. ऐसी भाषा में बात करने से नफरत होती है, लेकिन उनका व्यवहार इसी भाषा की मांग करता है.
दिसंबर 2012 में जारी की गई पीयूडीआर की जांच रिपोर्ट इसके काफी संकेत देती है कि भगाना बलात्कार महज अमानवीय यौन अपराध भर नहीं है बल्कि ये दलितों को सबक सिखाने के उपाय के बतौर इस्तेमाल किया गया है. वहां दलित परिवार जाटों द्वारा अपनी जमीन, पानी और श्मशान भूमि पर कब्जा कर लेने और अलग अलग तरीकों से उन्हें उत्पीड़ित करने के खिलाफ विरोध कर रहे थे.
महाराष्ट्र के चेहरे पर एक और दाग
हरियाणा की घिनौनी खाप पंचायतों वाले जाट इज्जत के नाम पर हत्या के लिए बदनाम हैं, लेकिन फुले-शाहूजी-आंबेडकर की विरासत का दावा करने वाले सुदूर महाराष्ट्र में एक गरीब दलित परिवार से आने वाले 17 साल के स्कूली लड़के को आम चुनावों की गहमागहमी के बीच 28 अप्रैल को एक मराठा लड़की से बाद करने के लिए दिन दहाड़े बर्बर तरीके से मार डाला गया. यह दहला देने वाली घटना अहमदनगर जिले के खरडा गांव में हुई. फुले का पुणे यहां से महज 200 किमी दूर है, जहां से उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह की चिन्गारी सुलगाई थी. दलित अत्याचार विरोधी क्रुति समिति की एक जांच रिपोर्ट ने उस क्रूर तरीके के बारे में बताया है, जिससे गांव के सिरे पर एक टिन की झोंपड़ी में रहने वाले और एक छोटे से मिल में पत्थर तोड़ कर गुजर बसर करने वाले भूमिहीन दलित दंपती राजु और रेखा आगे से उनके बेटे को छीन लिया गया. नितिन आगे को गांव के एक संपन्न और सियासी रसूख वाले मराठा परिवार से आनेवाले सचिन गोलेकर (21) और उसके दोस्त और रिश्तेदर शेषराव येवले (42) ने पीट पीट कर मार डाला. नितिन को स्कूल में पकड़ा गया, उसके परिसर में ही उसे निर्ममता से पीटा गया, फिर उसे घसीट पर गोलेकर परिवार के ईंट भट्ठे पर ले आया गया, जहां उनकी गोद और पैंट में अंगारे रखकर उसे यातना दी गई और फिर उनकी हत्या कर दी गई. इसके बाद उसका गला घोंट दिया गया, ताकि इसे आत्महत्या के मामले की तरह दिखाया जा सके. नितिन से प्यार करने वाली गोलेकर परिवार की लड़की के बारे में खबर आई कि उसने आत्महत्या करने की कोशिश की और ऐसी आशंका जताई जा रही है उसे भी जाति की बलिवेदी पर नितिन के अंजाम तक पहुंचा दिया गया.
स्थानीय दलित कार्यकर्ताओं के दबाव में, अगले दिन नितिन की लाश की मेडिकल जांच के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर लिया जिसमें उसने आरोपितों पर हत्या करने, सबूत गायब करने, गैरकानूनी जमावड़े और दंगा करने का आरोप लगाया है. यह मामला भारतीय दंड विधान के तहत और उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम की धारा 3(2)(5) और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 7 (1)(डी) के तहत भी दर्ज किया गया है. पुलिस ने सभी 12 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया है, जिसमें दोनों मुख्य अपराधी और एक नाबालिग लड़का शामिल है. लेकिन दलित अब यह जानते हैं कि दलितों के खिलाफ किए गए अपराध के लिए देश में संपन्न ऊंची जाति के किसी भी व्यक्ति को अब तक दोषी नहीं ठहराया गया है. अपनी दौलत के बूते और सबसे विवेकहीन पार्टी में – जिसका नाम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) है – अपनी पहुंच के बूते गोलेकर परिवार को शायद जेल में बहुत दिन नहीं बिताने पड़ेंगे. आखिरकार एनसीपी के दिग्गजों के रोब-दाब वाले इस अकेले जिले में ही, हाल के बरसों में हुए खून से सने जातीय उत्पीड़न के असंख्य मामलों में क्या हुआॽ नवसा तालुका के सोनाई गांव के तीन दलित नौजवानों संदीप राजु धनवार, सचिम सोमलाल धरु और राहुल राजु कंदारे के हत्यारों का क्या हुआ, जिन्होंने 'इज्जत' के नाम पर उनकी हत्या की थीॽ धवलगांव की जानाबाई बोरगे के हत्यारों का क्या हुआ, जिन्होंने बोरगे को 2010 में जिंदा जला दिया थाॽ उन लोगों का क्या हुआ जिन्होंने 2010 सुमन काले का बलात्कार करने के बाद उनकी हत्या कर दी थी या फिर उनका जिन्होंने वालेकर को मार कर उनकी देह के टुकड़े कर दिए थे, या 2008 में बबन मिसाल के हत्यारों का क्या हुआॽ यह अंतहीन सूची हमें बताती है कि इनमें से हरेक उत्पीड़न में असली अपराधी कोई धनी और ताकतवर इंसान था, लेकिन दोषी ठहराया जाना तो दूर, मामले में उस नामजद तक नहीं बनाया गया.
जागने का वक्त
अपने अकेले बेटे को इस क्रूर तरीके से खो देने वाले राजू और रेखा आगे की भयावह मानवीय त्रासदी 'हत्याओं' की संख्या में बस एक और अंक का इजाफा करेगी और भगाना की उन लड़कियों को तोड़ कर रख देने वाला सदमा और जिंदगियों पर हमेशा के लिए बन जाने वाला घाव का निशान एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) की 'बलात्कारों' की गिनती में जुड़ा बस एक और अंक बन कर रह जाएगा. इन मानवीय त्रासदियों को आंकड़ों में बदलने वाली सक्रिय सहभागिता, जिनके बगैर वे भुला दी गई होती, गुम हो गई है. ऐसी सामाजिक प्रक्रियाओं द्वारा पैदा किए गए उत्पीड़न के आंकड़े अब भी 33,000 प्रति वर्ष के निशान के ऊपर बनी हुई हैं. इन आधिकारिक गिनतियों का इस्तेमाल करते हुए कोई भी यह बात आसानी से देख सकता है कि हमारे संवैधानिक शासन के छह दशकों के दौरान 80,000 दलितों की हत्या हुई है, एक लाख से ज्यादा औरतों के बलात्कार हुए हैं और 20 लाख से ज्यादा दलित किसी न किसी तरह के जातीय अपराधों के शिकार हुए हैं. युद्ध भी इन आंकड़ों से मुकाबला नहीं कर सकते हैं. एक तरफ दलितों में यह आदत डाल दी गई है कि वे अपने संतापों के पीछे ब्राह्मणों को देखें, जबकि सच्चाई ये है कि इस शासन की ठीक ठीक धर्मनिरपेक्ष साजिशों ने ही उन शैतानों और गुंडों को जन्म दिया जो दलितों को बेधड़क पीट पीट कर मार डालते हैं और उनका बलात्कार करते हैं.
इसने सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों को बरकरार रखने की साजिश की है, इसने पुनर्वितरण के नाम पर भूमि सुधार का दिखावा किया जिसने असल में भारी आबादी वाली शूद्र जातियों से धनी किसानों के एक वर्ग को पैदा किया. वह सबको खाना मुहैया कराने के नाम पर हरित क्रांति लेकर आई, जिसने असल में व्यापक ग्रामीण बाजार को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया. वह ऊपर से रिस कर नीचे आने के नाम पर ऐसे सुधार लेकर आई, जिन्होंने असल में सामाजिक डार्विनवादी मानसिकता थोप दी है. ये छह दशक जनता के खिलाफ ऐसी साजिशों और छल कपट से भरे पड़े हैं, जिनमें दलित केवल बलि का बकरा ही बने हैं. भारत कभी भी लोकतंत्र नहीं रहा है, जैसा इसे दिखाया जाता रहा है. यह हमेशा से धनिकों का राज रहा है, लेकिन दलितों के लिए तो यह और भी बदतर है. यह असल में उनके लिए शैतानों और गुंडों की सल्तनत रहा है.
दलित इन हकीकतों का मुकाबला करने के लिए कब जागेंगेॽ कब दलित उठ खड़े होंगे और कहेंगे कि बस बहुत हो चुका!
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