विकास का मतलब ? केदारनाथ जल सुनामी!पूरे हिमालय पर धारा 370 लागू होने पर बिल्डर प्रोमोटर राज खत्म हुआ तो विकास बंद।
पलाश विश्वास
आदरणीय हिमांशु कुमार ने मुक्तबाजारी तिसलिस्म खोलने वाली एक चीखती हुई कविता लिखी है।जो नीचे पूरी की पूरी दी जा रही है।आज का रोजनामचा इस कविता की सबसे मारक पंक्तियों के साथ शुरु कर रहा हूंः
आपका विकास हो जाएगा तो आपके पास ज़्यादा पैसा आ जाएगा जिससे आप ज़्यादा गेहूं , सब्जियां , ज़मीन वगैरह खरीद सकते हैं ?
हाँ जी .
क्या आपके लिए प्रकृति ने ज़्यादा ज़मीन बनाई है ?
नहीं जी सबके लिए बराबर बनाई है .
आप ज़्यादा ज़मीन लेंगे तो वो ज़मीन तो किसी दूसरे के हिस्से की होगी ना ?
हाँ बिलकुल .
यानी आपका विकास दूसरे के हिस्से का सामान हड़प कर ही हो सकता है ?
हाँ जी .
तो आपका विकास प्रकृति के नियम के विरुद्ध हुआ ना ?
हाँ बिलकुल .
विकास का मतलब ?
साल भर बाद भी केदरघाटी उतनी ही असुरक्षित है,जितनी हादसे के वक्त थी।भारतीय मीडिया के विपरीत तब बीबीसी ने पूरे पहाड़ का कवरेज किया था। अब भी केंद्र को चालीस चिट्ठियां लिखने के बावजूद मौसम की सही भविष्यवाणी के लिए अत्याधुनिक रडार नहीं मिले।हालांकि केदार जलप्रलय की सही भविष्वाणी केदार यात्रा अबाध रखने के लिए तब रद्दी की टोकरी में फेंक दी गयी थी। हादसे के बाद चारों धामों की यात्रा और कैलाश मानरोवर की यात्रा भी पूरा जोखिम उछाकर संपन्न करायी गयी। मौसम की भविष्यवाणी हो या खड़गसिंह वाल्दिया जैसे बिमालय विशेषज्ञों की चेतावनी,परवाह कौन करता है।पहाड़ के लोगों की जान माल की कोई कीमत ही नहीं ठैरी।
हमने हिंदी और अंग्रेजी में लिखा है कि हिमालय में मनुष्य और प्रकृति के संरक्षण के लिए धारा 370 सर्वत्र लगायी जाये।हमने पहाड़ के जनपक्षधर और आंदोलनकारी दोनों प्राकार के लोगों को या ईमेल से या उनकी बेशकीमती टाइम लाइन पर ये आलेख दाग दिये है।पहाड़ों में हावी केसरिया तत्वों ने मेहरबानी की है कि मुझे अभी राष्ट्रद्रोही घोषित नहीं किया है। बाकी पहाड़ पहाड़ चीखने वाले लोगों ने भी इस मांग पर गंभीरता से विवेचना तो दूर,इसका नोटिस भी नहीं लिया है।
विकास का मतलब ? केदारनाथ जल सुनामी!पूरे हिमालय पर धारा 370 लागू होने पर बिल्डर प्रोमोटर राज खत्म हुआ तो विकास बंद।
इस विकास से जो लोग मालामाल हैं वे जाहिरा तौर पर नहीं चाहते फिजूल जल जंगल जमीन के मुद्दे उठाकर विकास अवरुद्ध कर दी जाये।बाकी देश में भी अबाध पूंजी प्रवाह से जो लोग मालामाल है उनकी नजर में शाइनिंग इंडिया है,बाकी भारत है ही नहीं।
इसलिए देवभूमि में नरक यंत्रणा सी सजायाफ्ता जिंदगी जी रहे आम पहाड़ियों की गुमशुदा जिंदगी पर धारा 370 जैसे विवादास्पद मामले के संदर्भ में भी किसी बहस की शुरुआत नहीं चाहते लोग।
मुजप्फरनगर कांड हो या पहाड़ के लोगों के दमन के दूसरे मामले ,न्याय अभी मिला नहीं है। राजधानी को लेकर राजनीति खूब है।सत्ता को शोयर करने की आपाधापी है।अपने अपने हिसाब से विकास पुरुष तमगा देने लेने की बाजीगरी भी खूब है। तराई के खेतीयोग्य जमीन को कारपोरेट हवाले करके उत्तराखंड का विकासकितना हुआ और कितना रोजगार सृजन हो पाया,यह हिसाब किताब हुआ ही नहीं है।ऊर्जा प्रदेश सह देवभूमि बनाने की कवायद से पहाड़ों में अर्थव्यवस्था में आम पहाड़ी की हिस्सेदारी का क्य हुआ,इसका कोई गुणा भाग नहीं हुआ।इस अंधाधुंध विकास की मलाई कौन चाख रहे हैं और उनमे बिचौलियों के अलावा कितन पहाड़ी है,इसका भी कोई लेखाजोखा नही है।
उत्तराखंड बनने से पहले अखंड यूपी के जमाने में पंडित गोविंद बल्लभ पंत और सीबी गुप्ता के जमाने से लेकर नारायण दत्त तिवारी और हेमवती नंदन के प्रेमरस पगे राजकाज में तराई के बड़े फार्मरों और भूमि माफिया की ही तूती बोलती थी।अलग राज्य बनने के बावजूद भी सत्ता,राजकाज और नीति निर्धारण में उन्हीं तत्वों के अलावा उत्तराखंड में व्यापकपैमाने पर सेंधमारी कर रही कारपोरेट कंपनियों की चांदी है।
न भूमि सुधार के लिए कोई पहल हुई और न राजस्व और कर प्रणाली में कोई सुधार हुआ।न आदिवासी इलाकों में संविधान और लोकतंत्र लागू है और न स्थानीय रोजगार सृजन की कोई दिशा खुली।
धर्म कर्म का दायरा जरुर बढ़ा।बढ़ा केसरिया वर्चस्व।नेताओं, अफसरों और बुद्धिजीवी वर्ग का तामझाम बढ़ गया।लालबत्तियों की आंधी शुरु हो गयी।
न वन संरक्षण है और न पर्यावरण संरक्षण है।न श्रम कानून लागू है और न जमीन की डकैती पर रोक लगी है।
कमाओ और कमाने दो का तत्र मंत्र यंत्र है देवभूमि में जैसा हिमाचल में, वैसा ही उत्तराखंड में। कश्मीर में हिंदू कम हैं और देवभूमि में हिंदू ज्यादा।फर्क सिर्फ इतना है। बाकी कश्मीर से कोई बेहतर हालत नहीं है न हिमाचल में और न उत्तराखंड में।अखंड देव देवी स्तुति यज्ञ होम और योगाभ्यास से पहाड़ों की नियति नहीं बदलने वाली है।
तो जो विशेषाधिकार कश्मीर की जनता को हासिल है कि उनकी जल जंगल जमीन पर कोई बाहरी लोग कब्जा न करे,उनकी जीवन चर्या और संस्कृति में बाहरी हस्तक्षेप नहीं हो, जो धारा 370 के प्रावधान हैं,वैसा हम हिमाचल,उत्तराखंड और बाकी हिमालय के लिए क्यों नहीं मांगे।
मेरी समझ से लुटेरों से हिमालय और हिमालयी जनता और उनकी संस्कृति को बचाने का यही एकमात्र उपाय है।
देखें कि अब फिर केदार जलसुनामी की मीडिया बरसी का शोर है।
बाढ़,भूकंप और भूस्खलन पहाड़ों का रोजनामचा है।पहाड़ी तरह तरह के हादसों में हमेशा मरते खपते बगते रहे हैं।लेकिन किसी घटना की रस्म शायद पहली बार मनायी जा रही है क्योंकि मरने वाले लोगों में अबकी दफा देश के कोने कोने से ज्योतिर्लिंग के दर्शन आराधन के लिए पहुंचे लोग भी हैं।
मीडिया का फोकस जैसे हादसे के वक्त भी पर्यटकों पर केंद्रित था, वैसा अब भी हूबहू वही हो रहा है।
सरकार ने पर्यटकों के बचाव राहत के लिए यथासंभव करके उससे भी ज्यादा प्रयत्न करके केदारनाथ मंदिर के कपाट खोल दिये।
स्थानीय लोगों,लापता गांवों और लगुमशुदा घाटियों की कोई खोज खबर नहीं हुई।
हवाई उड़ानों के मार्फत लाइव कवरेज हुआ तो अखबारों और चैनलों को मालामाल भी कर दिया गया।
इस पूरी कवायद में पहाड़ी कहीं नहीं थे।न कोई तब लापता गांवों,उनमें बसने वाले लोगों और सिरे से गायब घाटियों, शिखरों और ग्लेशियरों को लेकर फिक्रमंद था और न अब है।
उस जलप्रलय की जद में अकेला केदार मंदिर ही नहीं था,उस हादसे का हिस्सेदर हिमाचल भी था हालांकि वहां जानमाल की हानि उतनी नहीं हुई।लेकिन गंगोत्री से लेकर भारत नेपाल,भारत चीन सीमाओं तक कहर बरपाने वाले उस हादसे में आलोकपात फिर उसी केदार पर ही क्यों,यह समझने बूझने वाली बात है।
स्कंद-पुराण के अनुसार, जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय, भक्तों में नारद, गायों में कामधेनु और सभी पुरियों में कैलाश श्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है। और उस दिव्यधाम का परिसर लाशों से पट गया हो, गौरीकुंड व केदारनाथ के बीच यात्रा के प्रमुख पड़ाव रामबाड़ा का नामोनिशान मिट गया हो, शंकराचार्य का समाधि स्थल तक मलबे में दब गया हो तो फिर इसे ईश्वरीय सत्ता को चुनौती का दुष्परिणाम न कहें तो फिर क्या कहें।
देवभूमि में ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने वाले लोग नास्तिक भी नहीं हैं और न विधर्मी हैं।फिरभी उनकी पहचान बताने में प्रत्यक्षदर्शियों का गला क्यों कांप रहा है,यह समझ से परे है।
लेकिन हिंदुत्व का प्रबल प्रताप है कि वास्तव को नकारने के लिए,प्रकृति से निरतर हो रही छेड़छाड़ और जनसंहारी अश्वमेध को मिथकों में तब्दील कर दिया गया है और बार बार कहा गया है कि ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देना खुद के अस्तित्व को मिटाने जैसा है। ऐसे कारोबारी स्थाई बंदोबस्त का कहना है कि श्रीनगर में गंगा की धारा के बीच स्थापित धारी देवी की मूर्ति हटाए जाने से जल प्रलय आया। प्रकृति की हर गतिविधियों को विज्ञान के नजरिये से देखने वाले लोग भले ही इसे अंधविश्वास मान रहे हों, लेकिन भक्तों और संतों का तर्क मानें तो 16 जून को धारी देवी की मूर्ति को हटाया गया था और इसी वजह से जल प्रलय ने देवभूमि में तबाही मचाई। यह निश्चित रूप से धारी देवी का ही प्रकोप है।
आस्थावान लोगों का यह भी मानना है कि अगर धारी देवी की मूर्ति को उनकी जगह से नहीं हटाया जाता तो जल प्रलय नहीं आता। इससे पूर्व 1882 में भी एक राजा ने मंदिर की छत को जब अपने तरीके से बनाने करने की कोशिश की थी तो उस समय भी इसी प्रकार की विनाशलीला देखी गई थी।
ऐसे आस्थावान लोगों की ही महिमा है कि प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध हिमालय देवभूमि है बाहरी लुटेरों के लिए और स्थानीय जनता के लिए जीवनयापर अखंड नरकयंत्रणा है।
उत्तरकाशी और टिहरी के जख्मों पर तो अब भी मलहम लगा नहीं है।उत्तराखंड में 'जलप्रलय' से मची तबाही के बीच मरने वालों का आंकड़ा हजारों तक पहुंच सकता है, बताया गया कि बताया गया है कि बाढ़ और भूस्खलन में 90 धर्मशालाएं बह गईं, जिनमें ठहरे हजारों तीर्थयात्रियों के मरने की आशंका है। केदार घाटी के 60 गांवों के लोगों का कुछ पता नहीं चल रहा है।
राज्य के आपदा राहत एवं प्रबंधन ने केंद्रीय गृहमंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में यह व्यौर दाखिल किया था।लेकिन मंदिर के कपाट खोलने की जल्दी में लापता उन गावों में बिना कुछ बचाव राहत कार्य किये अमानवीय तरकीब से बचाव राहत अभियान का असमय पटाक्षेप कर दिया गया।पहाड़ में भी लोगों को अपने स्वजनों की याद नहीं आयी और न सरकार और प्रशासन को उन्होंने किसी भी स्तर पर घेरा जबकि पहाड़ के चप्पे चप्पे पर आंदोलनकारी और एनजीओ सक्रियता प्रबल है।
उत्तराखंड में आई भीषण जल प्रलय के बाद एक बार फिर से भोले के केदार धाम में घण्टे की आवाज गूँज उठी। सुरक्षा की दृष्टि से 86 दिनों तक केदारनाथ में नियमित पूजा अर्चना पूर्ण रूप से बंद थी।कपाट खोलने के मौके पर मुख्यमंत्री ने बताया जिस शिलापट्ट ने केदार मंदिर को जलप्रलय से बचाया था। उसके और उपर चैराबाड़ी की ओर द्वी स्तरीय सुरक्षा दीवार बनाई जा रही है। उन्होने कहा कि केदारमंदिर की सुरक्षा के लिए दो सुरक्षा दीवार बनाई जा रही है। मुख्यमंत्री को मदिर की सुरक्षा की चिंता सताती रही,बाकी पहाड़ की उन्होंने कोई परवाह नहीं की।मंदिर का पुन: शुद्धिकरण किया गया फिर जहाँ जल प्रलय थी उस मंदिर में जलाभिषेक और दुग्धाभिषेक हुआ, मुख्यपुजारी ने प्रायश्चित के भी मन्त्र पढ़े और फिर बाहर हवन करके विधिवत सरकारी तामझाम के तहत कपाट खोल दिये गये।
अब लीजिये नया तिकड़म भी। नए केदार धाम के निर्माण योजना के तहत निर्णय लिया जाएगा कि जलप्रलय में तबाह हुए केदारधाम के कहां पर बसाया जाए।
अब दैनिक उत्तराखंड की इस रपट पर गौर करेंः
जल प्रलय के एक वर्ष बाद केदार घाटी में मिल रहे नर कंकाल सरकार की नाकामियों और संवेदनहीनता की चुगली कर रहे हैं। एक वर्ष पूर्व सरकार की ओर से किए गए वो दावे भी धराशायी हो गए हैं कि आपरेशन सर्च केदारनाथ पूरा हो गया है और अब वहां कोई शव नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि अब केदारघाटी में कंकाल क्यों मिल रहे हैं? सरकार ने अवाम से झूठ क्यों कहा? कौन है केदारघाटी में मिल रहे नर कंकालों के लिए गुनहगार?
जब कोई हादसा होता है तो सबसे पहले राहत अभियान शुरू होता है और उसके बाद जिम्मेदारी तय की जाती है। उस शख्स को दंडित किया जाता है जिसकी वजह से हादसा हुआ। दुनिया के तमाम देशों की यही व्यवस्था है। उत्तराखंड में पिछले वर्ष जून माह में आई आपदा के बाद दुर्भाग्य से ये दोनों काम नहीं हुए। 16 जून को आई त्रासदी के चार दिन बाद ही पता चला गया था कि जलप्रलय से बचने के लिए हजारों र्शद्धालु पहाड़ की चोटियों और घने जंगलों की ओर चले गए। विभिन्न सूत्रों से मिली इन सूचनाओं पर सरकार ने तनिक भी ध्यान नहीं दिया और सिर्फ उन लोगों को बचाने के प्रयास में लगी रही जो किसी शहर या कस्बे के पास मदद के इंतजार में खड़े थे। इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ की चोटियों पर जान बचाकर भागे लोग या तो भूख से या ठंड से या जहरीली वनस्पतियां खाकर मौत का निवाला बनते गए। सरकार की संवेदनहीनता यहीं खत्म नहीं हुई। तिल-तिल कर मौत का निवाला बने इन आभागे र्शद्धालुओं के शवों की अंत्येष्टि या उन्हें उनके परिजनों तक पहुंचाने का भी कोई प्रयास नहीं किया। तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत बंसल ने जब अपनी ओर से शवों की तलाशी के लिए अभियान चलाया तो सरकार ने उसे बंद करा दिया। इतना ही नहीं तत्कालीन सीएम विजय बहुगुणा ने यह घोषणा कर दी कि केदारघाटी या आसपास के इलाके में अब कोई शव नहीं है। इसी दावे के साथ सरकार ने केदारनाथ में पांच सितम्बर से पूजा भी शुरू करा दी। सरकार की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा देखिये कि उन लोगों को भी पहाड़ की ओर जाने नहीं दिया गया जिनके परिजन आपदा के दौरान गायब हो गए थे। कुल मिलाकर यह तय है कि सरकार ने यदि जरा सी भी संवेदना दिखाई होती तो आज एक वर्ष बाद घाटी में जो नरकंकाल मिल रहे हैं वे नहीं मिलते। उन शवों का बहुत पहले अंतिम संस्कार हो जाता और यह भी संभव है उनकी शिनाख्त भी हो जाती। घाटी में बिखरे शवों को जंगली जानवर नोंचते रहे और सरकार के कारिंदे आपरेशन केदार की कामयाबी पर इठलाते रहे। सरकार ने तो इस मिशन को इतना कामयाब मान लिया कि आपदा से जुड़े एक-एक अफसर और कर्मचारी को वीरता का मेडल तक दे दिया। सम्मानित करने में उन अफसरों को भी नहीं छोड़ा गया जिन्होंने केदारनाथ का रुख तक नहीं किया। अब सवाल यह है कि यदि मिशन की कामयाबी पर अफसर व कर्मी सम्मानित हुए तो अब जब, उसकी नाकामी सामने आई है तो क्या उन्हें दंडित किया जाएगा। क्या उन गुनहगारों को बेनकाब किया जाएगा जिनकी वहज से सैकड़ों शव पहाड़ पर सड़ते रहे? बहरहाल तत्कालीन सीएम विजय बहुगुणा और मौजूदा सीएम हरीश रावत सरकार की इस नाकामी पर पर्दा डालने के प्रयास में लगे हुए हैं। अलबत्ता एक टीम जरूर बना दी गई है जो केदारघाटी में फिर से शवों (कंकालों) की तलाशी के लिए अभियान चलाएगी।
दैनिक जागरण की यह रपट भी गौरतलब हैः
जंगलचट्टी के आसपास के जंगलों में शनिवार को आठ और मानव कंकाल बरामद हुए। हालिया दिनों में इन्हें मिलाकर 26 कंकाल मिल चुके हैं। डीएनए लेने के बाद इन सभी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। इधर, आपदा के एक साल बाद केदारघाटी में मानव कंकाल मिलने का सिलसिला जारी होते देख राज्य सरकार भी हरकत में आई है। तय हुआ कि लापता लोगों की तलाश में सोनप्रयाग से केदारनाथ तक केदारघाटी में फिर से सर्च अभियान चलाया जाएगा। इसके लिए स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया गया है। महानिरीक्षक संजय गुंज्याल इसके प्रभारी बनाए गए हैं। टीम अगले 20 दिनों तक सर्च अभियान चलाएगी।
शुक्रवार देर शाम जंगलचट्टी के जंगलों में दर्जनभर मानव कंकाल मिलने के बाद पुलिस यहां सर्च में जुटी है। रुद्रप्रयाग के पुलिस अधीक्षक बीजे सिंह ने बताया कि शनिवार को इसी क्षेत्र में आठ और कंकाल मिले हैं। सभी का डीएनए सुरक्षित रख लिया गया है, खोजबीन जारी है।
गौरतलब है कि गत वर्ष 16 व 17 जून को केदारघाटी में आई आपदा में सैकड़ों लोग मारे गए, जबकि हजारों लापता हो गए थे। तब इनकी तलाश में केदारनाथ की आसपास की पहाड़ियों पर अभियान चलाया गया। उस दौरान पुलिस ने तकरीबन 350 शव खोजकर उनका दाह संस्कार किया था। आपदा के एक वर्ष बाद जंगलचट्टी के आसपास मानव कंकाल मिलने से सरकार की सक्रियता भी बढ़ गई।
केदार घाटी में आए जलप्रलय के बाद यमकेश्वर प्रखंड के कसाण गांव में भय व्याप्त है। 14 अगस्त 2007 को बादल फटने के बाद आपदा झेल चुके इस गांव के 62 परिवारों को कोई मलहम अभी तक नहीं मिला है।
जलप्रलय, भूस्खलन और भूकंप की इस तिकड़ी के बीच उत्तराखंड पूरी तरह फंस कर रह गया है।सरकार आपदा के बाद केदार और यमुना घाटी के तबाह हो चुके इलाक़ों के पुनर्निर्माण की बात तो कर रही है,लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात।
उत्तरकाशी से लेकर पिथौरागढ़ तक फिर सालाना आपदाओं की भृकुटी तनी हुई है।
केदार जलप्रलय से सबक लेकर आपदा प्रबंधन तंत्र में क्या सुधार किये गये सालभर में,बहस इस पर भी नहीं हो रही है।
पहाड़ और पहाड़ियों की सेहत के माफिक विकास कैसे हो,इस पर भी कोई बहस हो नहीं रही है।
कश्मीर में बाहरी लोगों पर संपत्ति खरीदने पर रोक है।इसीलिए वहां कारपोरेट राज अभी कायम नहीं हो सका है।
दंडकारण्य और मध्यभारत से लेकर सारे देश में आदिवासी इलाकों में संवैधानिक रक्षाकवच और कानून की धज्जियां उड़ाकर जनसंहार नीति के तहत जल जंगल जमीन से बेदखली का आलम है क्योंकि वहां धारा 370 जैसा कुछ नहीं है।
सिक्किम में धारा 370 नहीं है,लेकिन बाहरी लोगों को संपत्ति खरीदने की इजाजत वहां भी नहीं है। लेकिन वहां मुख्यमंत्री पवन चामलिंग अपने हिसाब से विकास कर रहे है।थोकभाव से लीजमाध्यमे जमीन का हस्तांतरण हो रहा है अबाध और गांतोक का विस्तार तीस्ता नदी तक हो गया है।
पूर्वोत्तर में उग्रवादी इतने प्रबल हैं कि बिल्डरों प्रोमोटरों और कारपोरेट कंपनियों को सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता राष्ट्र,इसलिए वहां बाकी हिमालय की तुलना में प्रकृति से छेड़छाड़ कम है।
कारपोरेट राज के शिकंजे से बचे हुए पूर्वोत्तर में लेकिन सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून है और जनता का दमन निरंकुश है।
देवभूमि बतौर महिमामंडित हिमाचल और उत्तराखंड में न धारा 370 है और न प्रबल उग्रवाद। न संपत्ति हस्तांतरण पर रोक।
उत्तराखंड और हिमाचल की देवभूमि में हिदंत्व धर्म नहीं है महज न राजनीति है केवल, धर्म धार्मिक पर्यटन में तब्दील है और इसीकी आड़ में उत्तुंग हिमाद्रि शिखरों में विकास के नाम पर प्रोमोटरों,बिल्डरों और माफिया का राज सर्वत्र ।
हिमालय वध कथा अनंत है।
दोनों राज्यों में जनता के लिए रोजगार का कोई बंदोबस्त हुआ नहीं है विकास के गोरखधंधे के बावजूद।
दोनों राज्य आर्थिक मामलों में बाकी हिमालय की तरह हत दरिद्र है और नौजवानों के लिए मैदान भाग जाने या फिर सेना में रंगरुट बन जाने के अलावा कोई दूसरा चारा है ही नहीं नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के बावजूद।
बाकी देश के लिए अच्छे दिन आये या न आये,पहाड़ों में रातें अब भी लंबी हैं और कड़ाके की सर्दी है।
प्राकृतिक विपदाएं भी बारंबार हैं।
मौसम और प्रकृति की प्रतिकूल परस्थितियों में फंसे पहाड़ियों के लिए सर्दी की सुहावनी धूप की तरह विकास कमल कब खिलेंगे,उनके देवता भी नहीं बता सकते।
कांगड़ा हो या लाहौल स्पीति या जौनसार भाबर टौंस यमुना आरपार या चीन से लगे सीमा क्षेत्र, आदिवासी न पांचवीं अनुसूची जानते हैं और न छठीं अनुसूची।
कानून का राज फिर वहीं पटवारी राज।
अलग राज्य बनने से कुछ अफसर और राजनेता तबके के लोग मलाईदार जरुर बन गये हैं लेकिन बाकी जनता तो अबभी पटवारी राज के औपनिवेशिक शासन के मातहत हैं।
पर्यटन और धार्मिक पर्यटन पर भी बाहरी लोगों का कब्जा हो गया है जिनके हितों के लिए केदार जलप्रलय में लापता तमाम घाटियों और गांवों की सुधि नहीं ली गयी,हादसे का सालभर गुजर जाने के बाद भी।
केदारघाटी की जंगल पट्टी में मिल रहे गुमनाम नरकंकाल दरअसल पहाड़ के वजूद को ही चीख चीख कर बता रहे हैं।
बीबीसी के मुताबिकः
हिमालय की केदार घाटी में जो जल प्रलय आया उसमें करीब 6000 लोग मारे गये।
हिमांशु कुमार
विकास का मतलब ?
और भी अमीर हो जाना .
अमीर हो जाना मतलब ?
मतलब हमारे पास हर चीज़ का ज़्यादा हो जाना .
मतलब पैसा ज़्यादा ,ज़मीन ज़्यादा, मकान ज़्यादा हो जाना ?
हाँ जी .
आपका विकास हो जाएगा तो आपके पास ज़्यादा पैसा आ जाएगा जिससे आप ज़्यादा गेहूं , सब्जियां , ज़मीन वगैरह खरीद सकते हैं ?
हाँ जी .
क्या आपके लिए प्रकृति ने ज़्यादा ज़मीन बनाई है ?
नहीं जी सबके लिए बराबर बनाई है .
आप ज़्यादा ज़मीन लेंगे तो वो ज़मीन तो किसी दूसरे के हिस्से की होगी ना ?
हाँ बिलकुल .
यानी आपका विकास दूसरे के हिस्से का सामान हड़प कर ही हो सकता है ?
हाँ जी .
तो आपका विकास प्रकृति के नियम के विरुद्ध हुआ ना ?
हाँ बिलकुल .
जो लोग बहुत मेहनत करते हैं जैसे किसान मजदूर क्या वो भी अमीर बन जाते हैं ?
नहीं वो अमीर नहीं बन पाते .
यानी अमीर बनने के लिए मेहनती होना ज़रूरी नहीं है ?
हाँ उसके लिए दिमाग की ज़रूरत होती है .
आप मानते हैं कि खेती और मजदूरी के लिए बुद्धि की ज़रूरत नहीं है ?
हाँ नहीं है .
आपने कभी खेती या मजदूरी करी है ?
नहीं करी .
फिर आपको कैसे मालूम कि खेती और मजदूरी के लिए बुद्धि की ज़रूरत नहीं है ?
वो मजदूर किसान लोग पढ़े हुए नहीं होते ना .
अच्छा वो क्यों नहीं पढ़े हुए होते ?
क्योंकि उनके गाँव में अच्छे स्कूल नहीं होते और उन्हें काम करना पड़ता है इसलिए वो स्कूल नहीं जा पाते .
यानि उनका ना पढ़ पाना अपने स्थान और जनम के कारण होता है ?
हाँ जी .
तो इसमें उन किसान मजदूरों का दोष है क्या ?
नहीं उनका दोष नहीं है .
अगर उनका दोष नहीं है तो उनका आप जैसा विकास क्यों नहीं होना चाहिए ?
क्योंकि वो मेरे जैसा काम ही नहीं कर सकते .
आप क्या काम कर सकते हैं जो किसान मजदूर नहीं कर सकता ?
मैं कम्प्युटर पर काम कर सकता हूँ .
आप घर पर कम्प्यूटर पर काम करेंगे तो आप अमीर हो जायेंगे ?
नहीं घर पर अपना काम करने से अमीर नहीं होंगे उसके लिए हमें कहीं कम्पनी वगैरह में काम करना पड़ेगा .
अच्छा तो कम्पनी आपको पैसा देगी तब आप अमीर बनेंगे ?
हाँ कम्पनी के पैसे से मेरा विकास होगा .
कम्पनी के पास पैसा कहाँ से आता है ?
कम्पनी माल का उत्पादन करती है उसमे से पैसा हमें देती है .
कम्पनी माल बनाती है तो उसके लिए ज़मीन पानी वगैरह कहाँ से आता है .
ज़मीन पानी तो कम्पनी को सरकार देती है .
सरकार ने ज़मीन पानी बनाया है क्या ?
नहीं सरकार लोगों से ज़मीन पानी ले कर कम्पनी को देती है .
क्या सरकार को लोग प्रेम से अपनी ज़मीन और पानी दे देते हैं ?
नहीं लोग प्यार से सरकार को ज़मीन और पानी नहीं देते सरकार पुलिस भेज कर लोगों से ज़मीन और पानी छीन लेती है ?
अच्छा जिनकी ज़मीन और पानी सरकार छीन कर कम्पनी को देती है वो बहुत अमीर लोग होते होंगे ?
अरे नहीं सरकार तो गरीबों का पानी और ज़मीन छीन कर कम्पनी को देती है .
अच्छा मतलब आपका विकास तब होता है जब गरीबों की ज़मीन छीनी जाय ?
हाँ जी बिलकुल .
मतलब आपके विकास के लिए आपको गरीब की ज़मीन चाहिए ?
हाँ जी .
ज़मीन छीनने के लिए पुलिस भी चाहिए ?
हां जी पुलिस तो चाहिए .
निहत्थी पुलिस या हथियारबंद पुलिस ?
निहत्थी पुलिस किस काम की हथियारबंद पुलिस चाहिए .
यानी आपके विकास के लिए बंदूकें भी चाहियें ?
हाँ जी बंदूकें भी चाहियें .
मतलब आप सरकारी हिंसा के बिना विकास नहीं कर सकते ?
हाँ जी नहीं कर सकते ?
यानी आपका ये विकास हिंसा के बिना नहीं हो सकता ?
हाँ नहीं हो सकता .
तो आप इस सरकारी हिंसा का समर्थन करते हैं ?
हाँ विकास करना है तो हिंसा तो होगी .
अच्छा अगर आपकी इस हिंसा के कारण अगर गरीब लोग भी आप की पुलिस से लड़ने लगें तो आप क्या करेंगे .
हम और भी ज़्यादा पुलिस भेजेंगे .
अगर गरीब और भी ज्यादा जोर से लड़ने लगें तो ?
तो हम सेना भेज देंगे .
यानी आप अपने ही देश के गरीबों के खिलाफ देश की सेना का इस्तेमाल करेंगे ?
क्यों नहीं करेंगे . विकास के लिए हम सेना का इस्तेमाल ज़रूर करेंगे .
देश की सेना देश के गरीबों को ही मारेगी तो क्या उसे गृह युद्ध नहीं माना जाएगा ?
हाँ हम विकास के लिए कोई भी युद्ध लड़ सकते हैं . हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है कि जो हमारे विकास में बाधा पहुंचाता है वह आतंकवादी है .
ओह तो आप अपने विकास के लिए देशवासियों के विरुद्ध सेना का उपयोग करेंगे ?
हाँ ज़रूर करेंगे .
क्या इस दिन के लिए देश आज़ाद हुआ था की एक दिन इस देश के विकसित लोग अपने देश के गरीबों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल करेंगे ?
हाँ विकास के लिए हम कुछ भी करेंगे .
गरीब जनता के विरुद्ध सेना का इस्तेमाल करेंगे ?
हाँ ज़रूर करेंगे .
(तो दोस्तों यही है विकास का हमारा माडल .बधाई हो )
Thursday, June 20, 2013
हिमालय के वध की हरिकथा अनंत है!
हिमालय के वध की हरिकथा अनंत है!
पलाश विश्वास
'केदारनाथ में लाशें ही लाशें, मंदिर में बस शिवलिंग'
बबीता मोदी ने देहरादून में बताया कि केदारघाटी में
सैलाब के समय उन्होंने कई लोगों को बहते देखा
केदारनाथ से आते समय उन्होंने
हजारों शव जहां-तहां बिखरे देखे
उन्होंने केदारनाथ में कम से कम
दो हजार लोगों के मरने की आशंका जाहिर की है
बकौल बबीता केदारनाथ मंदिर को भारी नुकसान हुआ है
केदारनाथ मंदिर के परिसर में मौजूद
नंदी और मंदिर के अंदर पांडवों की मूर्ति बह गई हैं
मंदिर के अंदर बस शिवलिंग ही बचा है
हमारा हिंदुत्व रस्मोरिवाज तक सीमाबद्ध है
गायत्रीमंत्र सिर्फ मोबाइल पर बजता अनवरत जिंगल है
हिमालय के वध की हरिकथा अनंत है
अश्वमेध के घोड़े पहाड़ों में सबसे तेज दौड़ते हैं,कोई शक?
राज्य आपदा राहत और प्रबंधन केंद्र ने कहा है कि
90 धर्मशालाओं के अचानक आई बाढ़ में बह जाने के कारण
प्रभावित क्षेत्र में मरने वालों की संख्या हजारों तक
पहुंच सकती है। हालांकि आधिकारिक तौर पर
मरने वालों की संख्या 150 बतायी गई है
हजारों लोगों के मारे जाने की आशंका के बीच
राहत और बचाव कार्य तेज कर दिया गया है तथा
केदारनाथ में फंसे लोगों को वहां से निकालने के लिए
भारतीय वायु सेना के आठ अतिरिक्त हेलीकॉप्टर लगाए गए हैं
हमारे चारों ओर लाशें हैं स्वजनों की और हम खुले बाजार में
देवादिदेव को वैज्ञानिक तरीके से प्रतिस्थापित करने के तौर तरीके और तकनीक का जश्न मना रहे हैं
हमारी आस्था पर मौत और सर्वनाश का कहर बरपा है,पर
हमें पिघतले ग्लेशियरों की सेहत का क्या,
चारों तरफ मारे जाते लोगों की तनिक नहीं परवाह
हम जश्न माना रहे हैं कि चाहे कितनी भारी हो विपदा,
चमत्कार देखिये, कि आस्था के केंद्र अटूट है!
केदारनाथ तबाह हुआ तो क्या,
क्या हुआ कि मारे गये हजारों, पांच या बीस हजार
या फिर बीस लाख, शिवलिंग अक्षत है
सब हो गये तबाह, बच गये बाबा केदारनाथ
कुदरत ने बाबा केदारनाथ धाम में ऐसा कहर बरपाया कि मंदिर परिसर लाशों, मलबे से पट गया। गौरीकुंड और रामबाड़ा पूरी तरह तबाह हो गये। होटल, लॉज और पूरा का पूरा बाजार बह गया। साढ़े 11 हजार फीट की ऊंचाई पर बाबा केदारनपाथ विराजते हैं और बस ये ही मंदिर अब बाकी बचा है। बादल फटने से यहां ऐसी तबाही मची कि पूरे केदारनाथ मंदिर परिसर दुनिया के नक्शे से साफ हो गया। 6 फीट के जिस चबूतरे पर यह मंदिर बना है वो भी नहीं बचा है। आखिर ऐसा क्या है इस मंदिर में। हजारों साल प्राचीन इस मंदिर को कुदरत का कहर भी नहीं हिला सका, जबकि आसपास मॉडर्न टेक्नोलॉजी से बने भवन, होटल, लॉज पत्ते की तरह बह गये। क्या ये सिर्फ कुदरत का करिश्मा है या फिर प्राचीन भवन निर्माण शैली की आधुनिक तकनीक को खुली चुनौती।
पहाड़ों में आपदाओं तो आती रहती हैं,
लोग सदियों से मरते रहते हैं और
जीते भी ही हैं तो वे आखिर मरे हुए हैं
भारत के लिए या दक्षिण एशिया के लिए
जीवित होने चाहिए चारों धाम और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद
ताकि जारी रहे हैलीकाप्टर दौरा,
शोक संदेश का सिलसिला और
मृतकों की गिनती, बचाव और राहत अभियान
ताकि चलती रही सियासत और
प्रकृति से बलात्कार का सिलसिला,
क्योंकि इस राष्ट्र को नदीवक्ष में तैरती लाशों
की खबर नहीं होती कभी,
सद्गति के लिए ही तो लाशें
बहायी जाती है नदियों में
नदियों में बहता खून हमें सिर्फ
अमृत जल नजर आता है और
खून की नदियों में स्नान से हम
मनाते हैं धर्मिक, राजनीतिक और आर्थिक महाकुंभ
मैदानों की शापिंग माल हाईवे दुनिया में
बसने वालों को पगडंडियों की क्या खबर होगी
जब पहाड़ को पहाड़ कीखबर नहीं
अपने ही रगों से रिसते खून का अहसास नहीं
पर्यटन स्थलों में सुहागरात मनाने वालों और
धर्मकेंद्रों को भी हानीमूनस्थल बनाने वालों को
क्यों नदियों और ग्लेशियरों की सेहत का ख्याल होगा
कारपोरेट गुलामी के आलम में अब कोई फर्क नहीं है
नियमागिरि और हिमालय में
कोई फर्क नहीं है गंगा और
सलवाजुड़ुम मार्फत बंट गयी
बस्तर की आदिवासी नदी इंद्रावती में या
शीतलपेय कंपनियों को बेच दी गयी नदियों में
अभी ग्लेशियर पिघला नहीं है पूरी तरह,
बांध अभी बना है सिर्फ टिहरी में
वे चीन में बांध रहे हैं ब्रह्मपुत्र को भी
ऊर्जा प्रदेश उत्तराखंड है तो ऊर्जा देश बन रहा नेपाल
पहाड़ को चीरकर गांतोक की हर गली में पहुंचती हैं कारें
और जंगलों की कटान तो अबाध है ,अबाध पूंजीप्रवाह की तरह
अभी अनबंधी हैं डेरों नदियां
बंधी नदियों के बंधन टूटने से राजधानी में
सिरफ खलबली है, चेतावनी है
और बहुत बिजी हो गये राजनेता और पत्रकार
यह तो बस झांकी है
राम मंदिर अभी बाकी है
फिलहाल शरश्या प्रकऱम से
उबरा नहीं देश,जबकि हकीकत है
कि किसी भीष्म पितामह के होने न होने से
रुकता नहीं कुरुक्षेत्र का विध्वंस
अब फिलहाल हिमालय में स्थानांतरित है कुरुक्षेत्र
और वही से निर्णायक स्वर्ग यात्रा
बाबाओं, साधुसंतों के प्रवचन और रथयात्राओं के बिना
यहां तक कि बिना नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के
मोक्षलाभ का महाराजमार्ग खुला बाजार
हम गैरसैण राजधानी की रट लगाते रहे
अलग उत्तराखंड की लाटरी निकलने के बाद से
हिमालय की धड़कनों में सुलगते
एटम बम की खबर नहीं ली किसी ने
सत्ता की आंधी में बह निकली पर्यावरण चेतना
अब सत्ता से चिपको के अलावा कोई चिपको नहीं है कहीं
चेतना है तो भोग की चेतना है
संभोग से समाधि तक
और अवचेतन में है
अनंत पापबोध
अनंत अपराधकर्म का जहर,
जिससे नीले पड़ते दिलोदिमाग के लिए
हम पहाड़ को देवभूमि बताता अघाते नहीं
जैसे हमारे तमाम लोग हो देव या देवादिदेव
मनुष्यता की नियति भूल चले थे हम
तबाही वहां भी मची जो कल तक हिंदू राष्ट्र था, उस नेपाल में भी
जिसे अब फिर हिंदूराष्ट्र बनने के लिए
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व की प्रतीक्षा है
तबाही का आलम है वहां भी
जहां देवताओं के फैसले
से चलता है जीवन
हिमाचल, उत्तराखंजड और नेपाल को
एकाकार कर दिया
प्रकृति के रोष ने, जिन्हें
राजनीति और अर्थव्यवस्था ने रखा
अलग थलग बाकी उपमहादेश से सदियों से
विषमता की विषबेल फलने लगी है और फैलने भी लगी है
नस्ली भेदभाव से जो थे अछूत सर्वव्यापी हिंदुत्व के बावजूद
उनकी त्रासदी के स्पर्श से लाशे छितरा गयी हैं हर कोने में देश के
मैदानों के मंत्री लाशों पर रात बिताने को मजबूर
कुदरत के कहर से बचकर मंत्रीजी
सही-सलामत लौट आए हैं
बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री ने
उत्तराखंड से लौटकर आपबीती सुनाई है
उनका कहना है कि केदारनाथ में भारी तबाही मची हुई है
और प्रशासन की ओर से कुछ खास नहीं किया जा रहा है
उन्होंने यह भी कहा कि केवल केदारनाथ में ही
15 से 20 हजार लोगों के मारे जाने की आशंका है
पूर्व मंत्री अपने परिवार के साथ
केदारनाथ दर्शन के लिए गए थे
लेकिन बाढ़ के चलते वे वहां फंस गए
आंखों देखा हाल हर चैनल पर और हजारों के मारे जाने के दावे
विपक्ष का रणहुंकार हिंदुत्व का शंखनाद
संतों की भविष्यवाणी शिवलिंगप्रवाह पर विलाप
जैसे सत्ता में शामिल हो सिर्फ सत्तादल ही और
सत्यानाशी व्यवस्था में साझेदार नहीं कोई
जैसे अल्पमत सरकारे राजकाज चलाती रही हैं
विपक्ष की सहमति के बिना
और जैसे कारपोरेट चंदे से नहीं चलता कोई
राजनीतिक दल,होता नहीं धार्मिक आयोजन
सुकमा का जंगल वरनम वन बनकर फैल गया है
एवरेस्ट तलक और जल्द ही वह चला जायेगा तिब्बतपार
घात लगाकर हमले यकीनन नहीं होंगे
पर विनाश का जवाब अब भी महाविनाश होगा
1978 में भागीरथी की बाढ़ के बावजूद जूं नहीं रेंगी कानों में
विकास का विनाश राजकाज हो गया और हम विकास पुरुषों,
लौह पुरुषों के देव अवतारों के पुजारी बने रहे
हिमालय ने जब भी करवट बदली
तबाही का आलम हुआ और
हम आस्था का फूल चुनते हुए गंगास्नान से निवृत्त
खुले बाजार में अपनी अपनी कामना वासना और लालसा से
फारिग होते रहे, उदित भारत और
भारत निर्माण का सपना जीते रहे
हिमालय के सीने में क्रूर बूटों की
धमक से बेखबर रहे हम
1970 में भी अलकनंदा घाटी में आयी थी बाढ़
तब भी विपर्यस्त थे वद्रीनाथ और केदारनाथ
पर कारोबार बाधित न हुआ
मारे गये सिर्फ पहाड़ी
और पहाड़ी तो बेमौत मारे जाते हैं
हर दिन कहीं भी कभी भी
जैसे वे एकमुस्त मारे गये 1991 में
उत्तरकाशी के भूकंप में
भूकंप के गर्भ में हिचकोले खाते ग्लेशियरों की
खबर किसने ली कब
आखिर भूकंप के गर्भ से ही निकला नैनीताल
जिसकी शोभा नैनीझील भी सूखने लगी तो पर्यटन का क्या
पर्यटन और तीर्थाटन के सिवाय, माफ करें
डीएसबी के प्राचीन मित्रों
इस हिंदुस्तान के उत्कट हिंदुत्व का
हिमालय से कोई संबंध हो तो बतायें
अब तो डीएसबी में भी नहीं होती पर्यावरण चर्चा
नैलीताल समाचार अब भी निकलता है
गिरदा नहीं है और नहीं हैं उनके तमाम जंगी साथी तो क्या
शेखर पाठक हैं, हैं शमशेर, बूढ़े बीमार हुए तो क्या
प्रताप शिखर और कुंवर प्रसून के बिना अब भी हैं
सुंदर लाल बहुगुणा, हां, भवानी भाई भी हैं
कुमायूं विश्वविद्यालय हैं
है गढ़वाल विश्वाविद्यालय
हैं लाखों छात्र और युवा
और उनसे भी ज्यादा हैं नराई में लथपथ
हमारे जैसे प्रवासी पहाड़ी दुनियाभर में छितराये हुए
जिंदा लाशों की तरह, फिरभी न आंदोलन है और न प्रतिरोध है
बल्कि अलग राज्य है,अलग सरकार है
और हैं ऐसे कवि भी जिनका सौंदर्यबोध सिरे से बदल गया है
अब किसी धार में नहीं गूंजती पेड़ गिरने की आवाज
और कहीं कोई गौरा पंत नहीं बांधती राखी किसी पेड़ को
सरकारें व्यथित हैं और अखबार सुर्खियों से लबालब
वीडियो फुटेज से पूरे देश में सनसनी है
पर किसी को खबर नहीं कि समुंदर से ही नहीं
सुनामी दहक सकती है जंगल की आग की तरह
और ग्लेशियरों से निकलकर पिघल सकती है पूरे देश में,
पूरे महादेश में,आखिर उफनती नदियों को समुंदर में ही समाना है
और नदियां कोई हिमालय की तरफ नहीं बहतीं
लाशें केदारनाथ परिसर,गौरीकुंड,भरत सेवाश्रम, हरसिल
और उत्तरकाशी से लेकर अल्मोड़ा पिथौरागढ़, हिमाचल
और नेपाल और चीन से भी बहकर निकलेंगी
और और लाशों की तलाश में
हमारा हिंदुत्व रस्मोरिवाज तक सीमाबद्ध है
गायत्रीमंत्र सिर्फ मोबाइल पर बजता अनवरत जिंगल है
हिमालय के वध की हरिकथा अनंत है
अश्वमेध के घोड़े पहाड़ों में सबसे तेज दौड़ते हैं,कोई शक?
माना जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने केदरानाथ मंदिर की स्थापना की थी। इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने हजारों वर्ष पहले करवाया था। मंदिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये 12-13वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली राजा भोज स्तुति के अनुसार मौजूदा मंदिर उनका बनवाया हुआ है जो 1076-99 काल के थे। एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाए गए पहले के मंदिर के बगल में है। मंदिर के बडे धूसर रंग की सीढियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं।
पंचकेदारों में प्रमुख केदारनाथ मंदिर में भगवान शिव के धड़ रूप के दर्शन होते हैं। माना जाता है कि भगवान केदारनाथ का सिर नेपाल में और उनकी भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुईं, इसलिए इन चार स्थानों सहित केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है, जिनकी आराधना समस्त पाप-कष्ट से मुक्ति देती है।
यह मन्दिर एक छह फीट ऊंचे चौकोर चबूतरे पर बना था, लेकिन 16 जून को हुई तबाही में चबूतरा बह गया, लेकिन मंदिर अभी बाकी है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। नंदी को पकड़कर कई भक्तों ने अपनी जान बचाई। श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है।
धारा 370: भाजपा और उसके मिथक
हालियां में राज्य मंत्री जीतेन्द्र सिंह का धारा 370 को समाप्त करने को
लेकर आए बयान को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पाकिस्तान के
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मुलाकात को हमें जोड़कर देखना होगा। क्योंकि
संघी 'राष्ट्रवाद' पाकिस्तान विरोध और जम्मू और कश्मीर को लेकर ही हमारे
देश में 'फल-फूलता' है। क्योंकि इनके 'पूर्वज' श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने
कश्मीर संबन्धी धारा 370 के खिलाफ एक अभियान चलाकर 7 अगस्त 1952 में एक
नारा दिया 'एक देश दो निशान, एक देश दो विधान, नहीं चलेगा'। इस अनुच्देछ
के विरुद्ध मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो 1980 में भाजपा के
रुप में परिवर्तित हो गया। वस्तुतः भाजपा का उदय ही धारा 370 के विरोध
में हुआ। ऐसे में जब भी भाजपा राजनीति की चक्रव्यूह में फंसती है तो वह
धारा 370 की 'संजवनी' का इस्तेमाल करती है।
राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह कहना है कि केन्द्र सरकार जम्मू और कश्मीर
के हर वर्ग के साथ बात-चीत के माध्यम से असहमति को सहमति में बदलने की
कोशिश करेगी। असहमति को सहमति में बदलने के खिलाफ कश्मीर की अवाम का
विरोध प्रदर्शन साफ करता है कि जम्मू और कश्मीर उनके लिए किसी आस्था का
नहीं बल्कि स्वायत्ता व स्वतंत्रता से जुड़ा मसला है। बहरहाल, श्यामा
प्रसाद मुखर्जी से लेकर जीतेन्द्र सिंह तक इस धारा को समाप्त करने का
तर्क 'देश हित' के रुप में देते हैं, आखिर यह 'देश हित' क्या है। दर्शन
शास्त्र में ऐसे अमूर्त विचारों और सिद्धांतों को निरंकुशता के रुप में
चिन्हित किया जाता है। दक्षिणपंथी राजनीति का यही 'देश हित' राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी की हत्या को वध बताकर तर्क संगत साबित करता है। यही 'देश
हित' 2002 गुजरात दंगे को क्रिया की प्रतिक्रिया बताता है। गौरतलब है कि
ऐसे तमाम शब्दों के आडंबर निरंकुशता व फासीवाद के पोषक होेते हैं।
लोकसभा चुनावों के मद्देनजर दिसंबर 2013 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
ने एक रैली में धारा 370 के लाभ-हानि को अपने 'विवेक' के तराजू पर तौलकर
उसे समाप्त करने की घोषणा कर दी थी। दक्षिणपंथी हिन्दुत्वादी गुट धारा
370 को लेकर लगातार एक भ्रामक प्रचार करते हैं कि यह महिला विरोधी है। वे
भ्रम फैलाते हैं कि जम्मू और कश्मीर की कोई महिला यदि देश के अन्य किसी
व्यक्ति से शादी करती है तो वो अपनी सम्पत्ति के अधिकार के साथ ही साथ
उसकी कश्मीर की नागरिकता भी समाप्त हो जाती है। जबकि महिला की सम्पत्ती
और नागरिकता का संबन्ध धारा 370 से नहीं बल्कि जम्मू और कश्मीर के राज्य
के संविधान के कानून से था, जिसे जम्मू और कश्मीर के उच्च न्यायालय ने
2002 में ही समाप्त कर दिया था। परन्तु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित
तमाम भाजपा व संघ के नेताओं द्वारा यह मिथक प्रचारित किया जाता रहा है।
एक तरफ जहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को आने का न्योता दिया जाता है तो
वहीं दूसरी तरफ जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को चिढ़ाने के लिए जिस तरह
से धारा 370 को समाप्त करने का बयान दिया गया उससे स्पष्ट होता है कि यह
सरकार इस मुद्दे का कोई तार्किक हल नहीं चाहती। जहां तक राज्य मंत्री
जीतेन्द्र सिंह का कुछ सीटों और वोट प्रतिशत का हवाला देकर धारा 370 की
समाप्ती की बात करते हैं तो उन्हें यह जानना चाहिए कि भारत सरकार ने नोटा
के अधिकार को जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को नहीं दिया है। क्योंकि
जम्मू और कश्मीर के नागरिक जनमत संग्रह की बात लगातार करते आए हैं और
भारत सरकार को यह खतरा था कि अगर वह वहां नोटा के अधिकार को देगी तो वह
उसके खिलाफ एक जनमत संग्रह का प्रमाण पत्र हो सकता है। इसलिए भाजपा को यह
समझ लेना चाहिए कि देश जुमलों से नहीं चलता हैं, जम्मू और कश्मीर की अवाम
को सेना से नहीं बल्कि उनके अधिकारों के संरक्षण व उनकी स्वयतत्ता और
स्वतंत्रता जैसे मसलों पर हमें गंभीर होना होगा। कश्मीर से जुड़े मुद्दों
पर सेवानिवृत्त न्यायाधीश सगीर अहमद के नेतृत्व में मनमोहन सिंह की सरकार
द्वारा गठित पाचवी कार्य समिति ने अपनी अनुसंशा में कहा है कि कश्मीर के
लोगों को ही तय करना है कि वह धारा 370 के तहत विशेष दर्जा चाहते हैं या
नहीं। कश्मीर मसले का हल 'संघ कार्यालय' से नहीं बल्कि कश्मीर की अवाम से
बात-चीत पर ही संभव है। जीतेन्द्र सिंह को बताना चाहिए कि अगर उनकी
कश्मीर के लोगों से बात-चीत थी तो उनके इस बयान के बाद वहां हो रहे विरोध
प्रदर्शन का आधार क्या है। राज्य मंत्री के अतार्किक बयान के आधार को हम
पा´चजन्य के सोशल साइट्स पर देख सकते हैं। पर मंत्री महोदय को जानना
चाहिए कि देश पा´चजन्य से नहीं बल्कि डा0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित
संविधान से चलता है।
हिन्दुत्वादी धारा कहती है कि धारा 370 वास्तविकता के मुकाबले एक मानसिक
बाधा है। जम्मू और कश्मीर में आखिर बाधा क्या है? प्रसिद्ध मानवाधिकार
नेता गौतम नवलखा द्वारा जारी रिपोर्ट 'अत्याचार और पीड़ा' में बताया गया
है कि पिछले दो दशक में उत्तर कश्मीर के मात्र दो जिलों- कुपवाड़ा और
वारामूला के पचास गांव से 500 व्यक्ति या तो मार दिए गए हैं या तो अभी तक
लापता हैं। सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार जग जाहिर है। जम्मू और
कश्मीर तथा धारा 370 पर बहस करने वालों को यह जान लेना चाहिए कि यह धारा
भारत और कश्मीर का एक पुल है, इसे खत्म करने का अर्थ कश्मीर से अलग होना
ही है, इन सारे तथ्यों को नजरंदाज कर भाजपा दूसरा मुद्दा उठा रही है।
भाजपा के घोषणा पत्र या संघ के मुखपत्र इस बात की पुष्टि करतें हंै कि
भाजपा की नीति में हथियारों का खेल खेलना प्रमुख एजेंडा होगा। देश की
तमाम सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों को सशक्त बनाने के नाम पर देश में तनाव
का वातावरण कायम कर जनता के बुनियादी सवालों से ध्यान हटाने की कोशिश
मात्र है धारा 370 खत्म करने का बयान।
अनिल यादव
द्वारा- मोहम्मद शुऐब एडवोकेट
110/46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट
लाटूश रोड
नया गांव ईस्ट
लखनऊ उत्तर प्रदेश
मोबाइल-09454292339
उत्तराखंड: अलमोड़ा के एसडीएम नदी के तेज़ बहाव में बहे
शालिनी जोशी
बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए, देहरादून
बुधवार, 31 जुलाई, 2013 को 18:44 IST तक के समाचार
हिमालय की केदार घाटी में जो जल प्रलय आया उसमें करीब 6000 लोग मारे गये
केदारनाथ में आपदा के डेढ़ महीने बाद भी हादसों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. प्रदेश सरकार का इस बात पर जोर है कि कैसे केदारनाथ में जल्दी से जल्दी सफाई करके किसी भी तरह से सावन के महीने में वहां पूजा शुरू हो जाए.
इसी सिलसिले में आज दिन में एमआई 17 हेलीकॉप्टर से वहां 31 लोगों का दल भेजा गया था उनमें अलमोड़ा के एसडीए अजय अरोड़ा भी शामिल थे.
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चार बजे के करीब जब अजय अरोड़ा मंदाकिनी नदी को पार कर केदारनाथ मंदिर तक पंहुचने की कोशिश कर रहे थे तो उनका पांव फिसल गया और वो मंदाकिनी के तेज बहाव में बह गये.
गढ़वाल के आयुक्त सुवर्धन ने बीबीसी को फोन पर बताया कि, "आपदा के बाद केदारनाथ मंदिर तक जाने के लिये लकड़ी का अस्थाई पुल बनाया गया है और उसी के रास्ते मंदिर तक पंहुचा जाता है.आज मौसम काफी खराब था और नदी का बहाव भी बहुत तेज था."
उन्होंने बताया कि, "पुल पर जाते हुए शायद अजय अरोड़ा का संतुलन बिगड़ गया और वो नदी में गिर गये.केदारनाथ में तैनात एनडीएरएफ के गोताखोर उनकी तलाश कर रहे हैं."
16 जून और 17 जून को मध्य हिमालय और ऊंचे हिमालय की केदार घाटी में जो जल प्रलय आया उसमें करीब 6000 लोग मारे गये.
बारिश और भूस्खलन
इस आपदा के बाद भी लगातार हो रही भारी बारिश और भूस्खलन से राहत और बचाव का काम बहुत चुनौती पूर्ण रहा है और दुर्गम रास्तों से जान जोखिम में डालकर सेना और नागरिक सुरक्षाकर्मियों के जवान इस काम को अंजाम दे रहे हैं. इस दौरान अब तक तीन हेलीकॉप्टर दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं .
ध्यान देने की बात है कि केदारनाथ का अध्ययन करने गये भारतीय पुरात्त्व सर्वेक्षण विभाग की टीम पहले ही कह चुकी है कि केदारनाथ टापू की तरह हो गया है और वहां अभी काम के हालात ही नहीं हैं.
ऐसे ही अस्थाई पुलों से बाढ़ग्रस्त इलाके में सैकड़ों लोगो को बचाया गया.
दरअसल केदारनाथ में सबसे बड़ी चुनौती वहां बाढ़ और भूस्खलन से दूर-दूर तक बहकर आया मलबा है जिसे कैसे हटाया जाएगा और कहां डाला जाएगा. क्योंकि इस मलबे को हटाए बिना कोई काम शुरू ही नहीं किया जा सकता.
मलबा हटाने के लिये जेसीबी मशीनों को ले जाने की बात कही जा रही है लेकिन वहां जेसीबी जा ही नहीं पा रही है और भूविज्ञानी भी इस बारे में चेतावनी दे चुके हैं कि ये एक ग्लेशियल डिपोजिट है और उसे हटाने की हड़बड़ी फिलहाल नहीं करनी चाहिये.
इस बीच आपदा के कारणों को समझने और हिमालयी भूगर्भ के बारे में बुनियादी अध्ययन के लिये भूगर्भविज्ञानी, भूकंप के जानकार, पर्यावरणविद और दूसरे कई विशेषज्ञों की वाडिया इन्स्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियोलजी में एक बैठक बुलाई गई.
हिमालय से छेड़छाड़
बारिश और भूस्खलन से आपदाग्रस्त इलाके के पुनर्निर्माण में बाधा पहुंची है.
देहरादून में हुई इस बैठक में कहा गया है कि हिमालय से छेड़छाड़ की रोकथाम हो और एक दीर्घकालीन विकास का ढांचा बनाया जाए जिसमें कुदरत और इंसान दोनों के लिए जगह हो.
विशेषज्ञों ने इस बात पर जोर दिया है कि सरकार को धार्मिक पर्यटन का स्वरूप भी अब इस लिहाज से रखना चाहिए कि उससे हिमालयी इकोलॉजी और पर्यावरण को किसी भी तरह की ठेस न पहुंचे.
मिसाल के लिए पर्यटकों की आमद और वाहनों को नियंत्रित किया जा सकता है. निर्माण कार्य नियंत्रित किए जा सकते हैं और इकोफ्रेंडली विकास को तरजीह दी जा सकती है.
हिमालय क्योंकि नया पहाड़ है और लगातार तिब्बत की ओर खिसक रहा है तो उसके नीचे भूगर्भीय हलचलें लगातार जारी हैं. भूकंप और भूस्खलन और त्वरित बाढ़ के लिहाज से संवेदनशील पहाड़ों में विकास और निर्माण के कदम फूंकफूंक कर रखे जाने की जरूरत है. तभी हिमालय बचा रह पाएगा, पहाड़ बचे रह पाएंगे तो मैदान भी बचेंगे. वरना नहीं.
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