आधार जैसी योजनाये भारत, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में नाजायज
नागरिको को खुफिया तंत्र का गुलाम बनाने की
तरकीब से लोकतंत्र को खतरा
सरकार की निरंतरता
और संविधान और कानून की अनदेखी के सम्बन्ध में बायोमेट्रिक विशिष्ट पहचान संख्या
(आधार) का मामला एक नजीर के रूप में प्रकट हुआ है. सियासी विरोधो के बावजूद पश्चिम
बंगाल के अलावा सभी विधान सभाओ की चुप्पी और पडोसी देशो में हो रहे ऐसी ही कवायद से
अनभिज्ञता भी हैरतअंगेज है. देशी-विदेशी कंपनियो के चंदे और विज्ञापन का असर भी
हज़ार रंग में नुमाया होती है. के लिए अपने विचार व्यक्त किये.
लोक सभा से पारित
होने के बाद संविधान के अनुच्छेद 110 के तहत लोक सभा अध्यक्ष ने आधार विधेयक 2016 को धन विधेयक होने का प्रमाण पत्र दे दिया. इसके बाद उसे राज्य सभा में भेजा
गया. राज्य सभा ने विधेयक के धन विधेयक चरित्र पर सवाल उठा. राज्य सभा ने विधेयक
में पांच संशोधन पारित कर दिया. लोक सभा ने राज्य सभा के संशोधन को मानने से मना
कर दिया और उसे मूल रूप में पारित कर दिया. राष्ट्रपति के सहमती बाद आधार कानून, 2016 को गजट में 26 मार्च को प्रकाशित कर दिया गया है.
लोक सभा के
पूर्व महासचिव, पि. डी. टी. आचारी ने स्पष्ट कर दिया है कि
आधार विधेयक, 2016 को धन विधेयक नहीं माना जा सकता है. उनके
अनुसार, “विधेयक का सम्बन्ध टैक्स लागू करने, टैक्स खत्म करने, टैक्स बदलने आदि से नहीं है; न ही इसका सम्बन्ध सरकार द्वारा कर्ज के संचालन या सरकार द्वारा कोई गारंटी
लेने या सरकार की वित्तीय जिम्मेवारी में संशोधन से है. इस विधेयक का सम्बन्ध कंसोलिडेटेड फंड आफ इंडिया आदि से है.
जो धन इस फण्ड में दिया जाता है या इससे निकला जाता है वह आकस्मिक है. यह विनियोग
विधेयक (appropriation
bill) जिसके जरिए फंड से पैसा निकला जातात है. यह
किसी ऐसे खर्च से सम्बन्ध नहीं रखता जो फण्ड से जुड़ा हो. न ही यह फण्ड के कारण
किसी धन के मिलने से या पब्लिक अकाउंट से, ऐसे धन की कस्टडी से या ऐसे धन से जुड़े मुद्दे
या केंद्र या राज्य के ऑडिट से संबधित है. गौरतलब है
कि कोई भी विधेयक तभी धन विधेयक बनता है जब उपरोक्त बातो से
संबधित हो. यदि किसी विधेयक में कोई और बाते हो तब वह धन
विधेयक नहीं है.”
आधार विधेयक 2016 एक छद्यम या आभासी (cololorable) विधेयक का मामला है. इसकी मंशा है कि येन-केन प्रकारेण आधार योजना को जायज और वैध बनाया जाए. इसकी वैधता पर देश के बहुत सारे उच्च न्यायालयो और सुप्रीम कोर्ट में उठाये गए है. आधार की अवैधता पर सवाल उठाने वालो में पूर्व न्यायाधिश, फौजी वैज्ञानिक, शिक्षाविद, कानूनविद औए समाज सेवी शामिल है. पश्चिम बंगाल विधान सभा ने आधार के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया है. लोक सभा में 3 मार्च को इसे धन विधेयक के रूप में इस डर से पेश किया गया है कि कही इसका हश्र भी आधार विधेयक 2010 की तरह न हो जाये. इस विधेयक को धन विधेयक के रूप में पेश करना संविधान के साथ धोखा है.
आधार विधेयक, 2016 का धन विधेयक होने का दावा विधेयक की धारा 7 पर निर्भर है जिसमे कहा गया है कि विधेयक सरकार को आधार के प्रयोग द्वारा अनुदान बाटने
के लिए अधिकृत करता है. लेकिन विधेयक की धारा 57 इसकी पोल खोल देता है. यह धारा यह तय करता है
कि बायोमेट्रिक आधार पहचान संख्या का प्रयोग अनुदान बाटने के अलावा किसी अन्य काम
के लिए भी किया जा सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि यह विधेयक धन विधेयक की श्रेणी
के योग्य नहीं है. धन विधेयक के चरित्र को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 109, 110 और 111 में तय किया गया है. अनुच्छेद 110 में धन विधेयक की स्पष्ट परिभाषा उपलब्ध है. इसके तहत सात मापदंड दिए गए है.
ऐसे में जो विधेयक इन मापदंडो पर खरे उतरते है वही धन विधेयक की श्रेणी में आते
है. इन मापदंडो के अध्ययन से साफ़ हो जात है कि आधार विधेयक, 2016 इन मापदंडो के अनुसार नहीं है.
लोक सभा से पारित
होने के बाद धन विधेयक को राज्य सभा में भेजा जाता है मगर अनुच्छेद 109 के अनुसार धन विधेयक के सम्बन्ध में राज्य सभा
की भूमिका एक औपचारिकता मात्र तक सिमित है क्योकि उन्हें ऐसे विधेयको को 14 दिनों के अन्दर अपने अनुशंसा के साथ भेजना होता
है लेकिन लोक सभा के ऊपर अनुशंसा नहीं मानने की छूट है और विधेयक को उसी रूप में
पारित माना जाता है जिस रूप में उसे लोक सभा द्वारा पारित किया जाता है.
मगर आधार विधेयक
के सम्बन्ध में लोक सभा अध्यक्ष के हाथ संविधान द्वारा बंधे हुए थे. क्योकि लोक
सभा अध्यक्ष के निर्देश पर ही वित्त की संसदीय स्थायी समिति द्वारा आधार विधेयक 2010 का अध्ययन किया गया था और उसने इसे गैर कानूनी और संसद की
अवमानना वाला योजना बताते हुए इसे वापस भेज दिया था और अपनी रिपोर्ट को लोक सभा और
राज्य सभा में पेश किया था. आधार और आधार विधेयक के सम्बन्ध में लोक सभा अध्यक्ष नामक संस्था अपने अतीत के विवेक और
निर्णय की विस्मृति का स्वांग नहीं कर सकता. लोक सभा अध्यक्ष की तार्किक बाध्यता थी कि वह संसदीय
स्थायी समिति की दिसम्बर 2011 की रिपोर्ट और आधार विधेयक 2010 के चरित्र का संज्ञान ले और आधार विधेयक 2016 के धन विधेयक होने के दावे की पड़ताल करे.
मार्क्सवादी
कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद सीताराम येचुरी ने भी लोक सभा अध्यक्ष के धन विधेयक
सबंधी अधिकार के मामले को 9 मार्च को राज्य सभा में उठाया था. उन्होंने 16 मार्च को संविधान सम्मत निर्णय लेने के लिए सात
मापदंडो का हवाला दिया. उन्होंने इसे नागरिको के निजता के मौलिक अधिकार के खिलाफ
बताया. उन्होंने राज्य सभा में कहा कि आधार मामला सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के
सामने लंबित है इसलिए इसमें जल्दबाजी से यह शक होता है कि सरकार अदालत के निर्णय
को पलटने जैसा है जो स्वीकार्य नहीं है. उन्होंने ने राज्य सभा और संसद द्वारा इस
विधेयक को पारित करने के अधिकार पर सवाल उठाया. इसके जवाब में वित्त मंत्री अरुण
जेटली ने राज्य सभा में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से पहले ही यह विधेयक यह
मान कर तैयार किया गया है की निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है. उन्होंने कहा, “मैं मानता हूँ कि संभवतः निजता का अधिकार, मौलिक अधिकार है.”
भारत सरकार के इस
नए रुख से ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के 15 अक्टूबर, 2015 के संविधान पीठ गठन करने वाला आदेश का अब कोई
महत्व नहीं रह गया है क्योकि यह आदेश भारत के अटॉर्नी जनरल के अनुरोध पर दिया गया था. सरकार ने आधार से निजता के मूलभूत अधिकार के उल्लंघन की सुनवाई के लिए एक
बड़े संविधान पीठ के गठन के लिए मुख्य न्यायधीश की अध्यक्षता वाली पांच जजों के पीठ
से अनुरोध किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि उंगलियों और आंखों की
पुतलियों की तस्वीर पर आधारित 12 अंको की विशिष्ट पहचान आधार संख्या मामले में 23 सितंबर 2013 से लेकर 11 अगस्त, 2015 तक दिए गए आदेशों का सख्ती से अनुसरण किया जाए।
आधार परियोजना
दुनिया की सबसे बड़ी बायोमीट्रिक संग्रहण और पहचान परियोजना है जिसमें इसके स्वामित्व, प्रौद्योगिकी और निजता से जुड़े खतरे शामिल
हैं। इसका दावा है कि इन जोखिमों को कम करने के लिए यह कुछ रणनीतियों को अपना रहा है लेकिन इसे संसद और देश के नागरिकों के साथ अब तक साझा
नहीं किया गया है। संसदीय समिति का कहना है कि आधार परियोजना में उद्देश्य की स्पष्ट्ता का अभाव है और अपने क्रियान्वयन में यह दिशाहीन है, जिससे काफी भ्रम फैल रहा है। आधार के मामले में बायोमीट्रिक आंकड़ा बगैर केसी
संवैधानिक या कानूनी मंजूरी के स्थायी तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है।
गौरतलब है कि आधार और अन्य जनविरोधी नीतियों के खिलाफ
पिछली सरकार में प्रधानमंत्री को 3.57 करोड़ लोगों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन दिया गया
था। यह योजना आम आदमी की निजी जिंदगी में दखलअंदाजी
है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी जब इसके कानूनी वैधता पर सवाल उठाया तो भारत सरकार के चंडीगढ़ प्रशासन ने आधार को अनिवार्य बनाने वाला
अपना आदेश वापस ले लिया। 11 अगस्त, 2015 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भारतीय
चुनाव आयोग ने भी मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने वाला
आदेश वापस ले लिया। इसी तरह दिल्ली सरकार ने भी एक आदेश जारी कर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को पालन करने का आदेश दिया है।
भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी के डी. राजा ने राज्य सभा में कहा कि आधार विधेयक 2016, धन विधेयक बिलकुल नहीं है. धन विधेयक के सदर्भ
में वित्त मंत्री ने कहा कि कोई भी शक्ति लोक सभा के धन विधेयक प्रमाण पत्र पर
सवाल नहीं उठा सकती है.
गौर तलब है कि
सुप्रीम कोर्ट ने K.C. Gajapati Narayana Deo
And Other v. The State Of Orissa के मामले में अपना फैसला दिया है कि कोई भी विधायिका परोक्ष रूप से ऐसा कोई
कानून नहीं बना सकती जिसे प्रत्यक्ष रूप से बनाना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
कौर्ट ने ऐसे कृत्य को संविधान के साथ धोखा बताया है. इस सम्बन्ध में में लैटिन
कानूनी कहावत: “Quando aliquid prohibetur
ex directo, prohibetur et per obliquum” समीचीन है. इसका अर्थ है जब किसी चीज पर प्रत्यक्ष रूप से
प्रतिबन्ध है तब उस चीज पर अप्रत्यक्ष रूप में भी प्रतिबन्ध है. सरकार को जब आधार
विधेयक 2010 प्रतिबंधित लगा तो वह आधार विधेयक 2016 के धन विधेयक के रूप में लेकर आ गयी है.
पूर्व वित्त
मंत्री यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली वित्त की संसदीय स्थायी समिति ने लोक सभा
अध्यक्ष के निर्देश पर आधार विधेयक, 2010 और आधार योजना का अध्ययन किया था और इसे गैर कानूनी और संसद की अवमानना
वाला योजना बताते हुए इसकी तीखी आलोचना की थी. समिति ने इस सम्बन्ध में अपना 48 पृष्ठ की रिपोर्ट को लोक सभा और राज्य सभा में 13 दिसम्बर 2011 को पेश किया. इस रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि सरकार के पास नागरिकों के उंगलियों
के निशान और आँखों की पुतलियो की तस्वीर लेना का कानूनी अधिकार नहीं है.
ऐसे बायोमेट्रिक
आकडे कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत मजिस्ट्रेट की अनुमति से लिये जाते है
जिसे कैदी के सजा पूरा करके या बाइज्जत रिहा होने पर नष्ट करना होता है. आधार विधेयक नागरिको को कैदियों से भी बदतर
स्थिति में खड़ा कर देता है क्योकि इसके तहत लिए गए बायोमेट्रिक आकडे सनातन रूप से सरकार के सरकार से आशीर्वाद प्राप्त विदेशी और
देशी कम्पनियों और विदेशी सरकारो के पास उपलब्ध रहेगी. आधार विधेयक, 2016 की धारा के अनुसार कोई भी संयुक्त सचिव स्तर या उससे ऊपर का अधिकारी किसी भी
भारतवासी के सम्बन्ध में जानकारी का खुलासा राष्ट्रहित में कर सकता सकता है मगर एक
बार खुलासा होने के बाद उसे दुबारा गोपनीय कैसे बनायेंगे इसके बारे में कोई
प्रावधान नहीं है. विधेयक इन जानकारियों को कंपनियों को देने का भी प्रावधान कर
रही है है जिसे देश हित में कटाई नहीं मन जा सकता है.
विधेयक में
सब्सिडी (अनुदान), फायदे (बेनिफिट) और सेवाओ (सर्विसेज) की
परिभाषा इतनी विस्तृत है कि उसके तहत दुनिया की हर बात आ सकती है. भारतवासी
(रेसीडेंट) का परिभाषा भी विचित्र है. इसके अनुसार भारतवासी केवल उसे मन जायेगा जो कम से कम 182 दिन आधार संख्या के पंजीकरण के पहले 12 महीने तक भारत में रहा हो. इसे कौन सत्यापित
करगा.
विधेयक के धारा 2 में बताया गया है कि पहचान सम्बन्धी जानकारी
में बायोमेट्रिक जानकारी शामिल है. बायोमेट्रिक जानकारी के तहत व्यक्ति के उंगलियों के निशान, आखो की पुतलियो की तस्वीर और अन्य जैविक
विशिष्टता बताने वाले तथ्य आता है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि इसमें डीएनए और आवाज़
के सैंपल की जानकारी शामिल है. सभी भारतवासियों के बायोमेट्रिक जानकारी एकत्रित होने के दूरगामी परिणाम के बारे में अभी तक संसद
में अभी तक कोई चर्चा नहीं हुई है. ऐसे संवेदनशील जानकारियों से व्यापक पैमाने पर
भेद-भाव और नरसंहार की संभावना बढ़ गयी है. ऐसे जानकारियों के एकत्रित होने से
तानाशाही प्रव्रितियो का काम आसान होगा. ऐसा जर्मनी, मिश्र और पाकिस्तान जैसे देशो में हो चुका है. आधार विधयेक से सरकार को यह
अधिकार मिल रहा है कि वह किसी का ‘सिविल डेथ’ कर सकती है यानी कि किसी देशवासी को सरकार के
रिकॉर्ड में मृत कर सकती है.
गौर तलब है कि
आधार सरीखे बायोमेट्रिक आकडे आधारित योजनाओ को चीन, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, फ्रांस और फ़िलीपीन्स जैसे देशो में रोक दिया
गया है.
संसद को विदेशी
कंपनियों के हितो के लिये उनके दवाब में और उनके ही मदद से वर्तमान और भविष्य के
नागरिको के अत्यंत संवेदनशील आकड़ो और संपत्ति को आधार के नाम पर विदेशी सरकारो को
मुहैया कराने की अदूरदर्शी कवायद से बचना चाहिए. राष्ट्रपति ने भी देश हित को दरकिनार कर विदेशी सरकारो और विदेशी कंपनियों के हित में
फैसला ले लिया. उन्हें गुमराह किया गया है.
सियासी दलों और
नागरिको को ऐसे पहलों की भोगौलिक और दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में उसके संवैधानिकता
एवं उनके जायज वजूद की पड़ताल करना चाहिए. यह मामला भारतीय सुप्रीम कोर्ट के
विचाराधीन है. अदालत के आदेश का पालन करते हुए भारतीय चुनाव आयोग ने आधार को
मतदाता पहचान पत्र के साथ जोड़ने से मना कर दिया है. ऐसा लगता है कि भारत, बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान की सरकारों को अपने
देशवासियों के लिए बायोमेट्रिक पहचान के लिए मजबूर किया जा रहा है. इस बात को
नजरंदाज किया जा रहा है कि ऐसी बायोमेट्रिक परियोजना को चीन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, यु.एस.ए और यु.के जैसे देशो में रोक दिया गया
है. ऐसी बायोमेट्रिक परियोजना तहत उंगलियों के
निशान, आँखों की पुतलियो की तस्वीर और अन्य जैविक
विशेषताओ की जानकारी के आधार पर पहचान तय लिया जाता है. ऐसी जानकारिया अत्यंत
संवेदनशील होती है. लेकिन ऐसी परियोजना को भारत, बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान जैसे विकासशील देशो पर
थोपा जा रहा है. विकिलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन, ग्लेंन ग्रीन्वाल्ड, और लॉक्ड आई फ़ोन की निजता में दखलंदाजी के
बाद स्पष्ट है कि बहुराष्ट्रीय तत्वों के नाजायज कदमो को वैध बयाया जा रहा है.
जनता की जासूसी से लोकतंत्र का नुक्सान हो रहा है. यह कदम हरेक रंग और रूप के
अल्पसंख्यको को खामोश कर रहा है.
सिटीजन्स फोरम
फॉर सिविल लिबर्टीज बायोमेट्रिक पहचान तकनिकी के प्रभाव के मुद्दे और उससे जुड़ें
योजना पर काम करता रहा है. यह फोरम वित्त की स्थायी संसदीय समिति के समक्ष अपना
पक्ष रखने के लिए पेश हुआ था. इस समिति ने आधार विधेयक, 2010 का अवलोकन किया था और बायोमेट्रिक आधार
परियोजना को संविधान के विरुद्ध बताया था.
पि.डी.टी. अचारी, भूतपूर्व महासचिव, लोक सभा, डॉ उषा रामानाथन, कानूनविद, डॉ ऍम. विजयाउन्नी, भूतपूर्व महापंजीयक और जनगणना आयुक्त, भारत सरकार, कर्नल मैथयु थॉमस, भूतपूर्व, सैन्य वैज्ञानिक आदि ने आधार से जुड़े
कंपनियों को देश की खतरनाक बताया है. अमरीकी संविधान निर्माता थॉमस जेफ़र्सन ने कहा
था कि जिस जगह सरकार जनता से डरती है वह स्वतंत्रता है मगर जहा सरकार से जनता डरती
है वहा तानाशाही है.
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