Tuesday, July 14, 2015

रामलीला में राम का अभिनय करने वाला व्यक्ति मंच से बाहर भी राम जैसी हरकत करेगा तो कैसा लगेगा?

मैं बार-बार सोचता यदि रामलीला में राम का अभिनय करने वाला व्यक्ति मंच से बाहर भी राम जैसी हरकत करेगा तो कैसा लगेगा? विद्यालय प्रशासन भी मेरे लिए एक रामलीला ही था। रामलीला में यदि बेटा राजा बने और पिता मंत्री, तो राजा के पुकारने पर मंत्री को 'जो आज्ञा राजन्!' तो कहना ही पडे़गा। यदि घर में भी बेटा अपने पिता को मंत्री! कहने लगे तो....। इसलिए मैं विद्यालय से बाहर निकलने से पूर्व प्रधानाचार्य का चोला उनकी कुर्सी पर ही छोड़ आता था।
साथियों से एक चाय.क्लब बनाने का अनुरोध किया। मध्यान्तर में प्राचार्य से लेकर स्वच्छक तक एक साथ बैठ कर जलपान करते थे और विद्यालय की समस्याओं पर विचार.विमर्श करते थे। परिचारक भी क्लब में सामान्य सदस्य की तरह बैठें, यह अध्यापकों को अजीब सा लगता था। उनके विचार से प्राचार्य के सामने परिचारकों को बैठना नहीं चाहिए। यदि बैठना ही हो, तो जमीन पर बैठें। फिर प्रधानाचार्य के लिए तो कुर्सी भी गद्दीदार होनी चाहिए। 
चाय-क्लब में आते समय भी मैं 'प्रधानाचार्य' को उनकी कुर्सी पर ही छोड़ आता था और एक सहज पारिवारिक परिवेश बनाने का प्रयास करता। आरंभ में यह प्रयास साथियों को कुछ अजीब सा लगा पर धीरे.धीरे आत्मीयता विकसित हुई और उन अध्यापकों ने, जिनकी कीर्ति महाउपद्रवी और बवाली के रूप में मेरे पास पहुँची थी, कालान्तर में मुझे सबसे अधिक सहयोग दिया।
अपने प्रथम प्रधानाचार्य डा. इन्द्रकृष्ण गंजू के व्यवहार से मैंने सीखा था कि प्रबंधक को अपनी टीम के प्रत्येक सहकर्मी के दोषों की छानबीन करने की अपेक्षा उनकी विशिष्ट प्रतिभा को समझने और उसे उभारने का प्रयास करना चाहिए। विद्यालय में हर शिक्षक शिक्षण.कला में माहिर नहीं होता। ज्ञान और छात्रों को अनुशासित रखने के मामले में भी भिन्नता होती ही है, पर विद्यालय के लिए दूसरे प्रकार से उनका सहयोग लिया जा सकता है। (मेरी पुस्तक 'ग्यारह वर्ष- एक प्रधानाचार्य के अनुभव और प्रयोग का एक अंश)

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