Friday, June 19, 2015

इंसाफ कहां है? आनंद तेलतुंबड़े

इंसाफ कहां है?

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/18/2015 11:06:00 PM


आनंद तेलतुंबड़े
''यह अदालत बड़े अपराधियों के लिए सुरक्षित स्वर्ग बन गई है।''
-सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान और न्यायमूर्ति एस.ए. बोडबे की पीठ।[1]

भारत के संविधान की प्रस्तावना में बाकी चीजों के साथ 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक इंसाफ' शामिल है जो यकीनन आम जनता को दिया गया सबसे अहम आश्वासन है। लेकिन विरोधाभास यह है कि ज्यों-ज्यों हम 'विकास' के राजमार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं, ये तेजी के साथ दूर होते चले जा रहे हैं। संविधान का पहला पन्ना भारतीय जनता के लिए एक कड़वा व्यंग्य बन गया है और संविधान का भाग चार, 'राज्य के नीति-निर्देशक तत्व', जो इस पर और भी जोर देते हैं कि देश के शासक किस तरह शासन करेंगे, सिवा 'पवित्र गाय' के प्रावधान को छोड़ कर एक मुर्दा दस्तावेज बन गया है। गरीब लोग, जो संवैधानिक रूप से इस मुल्क के मालिक हैं, इंसाफ के लिए तरसते हैं जबकि अमीर लोग अपराध करते हैं और वीवीआईपी की तरह बेधड़क घूमते हैं। पूरी की पूरी न्यायिक प्रक्रिया थैलीशाहों द्वारा अगवा कर ली गई है, जैसा कि इस मुल्क की सबसे बड़ी अदालत ने भी कबूल किया है:
''यह कहते हुए हमें अफसोस होता है कि अदालत का वक्त वरिष्ठ वकीलों और बड़े अपराधियों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है...हम शपथ लेकर कह सकते हैं कि सिर्फ पांच फीसदी वक्त ही आम नागरिकों के लिए इस्तेमाल में आता है, जिनकी अपीलें 20 या 30 बरसों से इंतजार कर रही हैं...।'[2]

बदकिस्मती से यह बात सिर्फ वक्त तक ही सीमित नहीं है; यह गरीबों और मजलूमों के खिलाफ न्यायिक पूर्वाग्रहों की गहराई तक जाती है, जिन्हें इंसाफ की जरूरत सबसे ज्यादा है। एक ओर जब सरकार केइस पांव (न्यायपालिका) के बारे में कहा जा सकता है कि इसने दूसरे दोनों पांवों—विधायिका और कार्यपालिका —से बेहतर प्रदर्शन किया है, या ऐसा दिखता है क्योंकि लोग बेचारगी में इस पर भरोसा करते हैं, लेकिन अक्सर इंसाफ ही है जो नहीं मिल पाता। इसे साफ-साफ देखना हो कि कैसे इंसाफ को नकारा जाता है तो इसे दलितों, आदिवासियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के मामलों में देखा जा सकता है, और कैसे इसकी ज्यादती होती है तो इसे राजनेताओं, शोहरत वाले अपराधियोंऔर कॉरपोरेट घपलेबाजों के मामले में देखा जा सकता है। पिछले महीने जल्दी-जल्दी, एक के बाद एक आए दो फैसले, जो वैसे तो गैरमामूली नहीं थे, निश्चित रूप से इस बात को मजबूत करते हैं। दो अलग-अलग राज्यों  के उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए फैसलों से जुड़े ये मामले थे सलमान खान का 'हिट एंड रन केस' जिसने इंसाफ पर अमीरों के असर को जाहिर किया और जे. जयललिता का 'आमदनी से अधिक संपत्ति का मामला' जो इंसाफ पर राजनीति के असर का इशारा करता है।

सलमान बनाम साईबाबा

'जमानत कायदा है, अपवाद नहीं', विचाराधीन कैदियों को जमानत देने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की हिदायत यह है। लेकिन अदालतों द्वारा किस तरह इसे भेदभाव के साथ अमल में लाया जाता है इसकी मिसालों की भरमार है। पैसे वाले अपराधी भारी-भरकम वकीलों को लगाते हैं जो उनके लिए गिरफ्तार होने से पहले या इसके फौरन बाद जमानत हासिल कर लेते हैं और फिर इसकी अवधि को जितना संभव हो लंबा खींचा जाता है। जैसा सलमान के मामले में हुआ। तब तक ज्यादातर गवाह मर जाते हैं या मरने की हालत में पहुंचा दिए जाते हैं। अपराध को साबित करने वाले जो भी सबूत मौजूद होते हैं वे या तो हल्के बना दिए जाते हैं या मिटा दिए जाते हैं। तफ्तीश करने वाली एजेंसी के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना बेहतर है, जो कि इस मामले में पुलिस है। बॉलीवुड के दबंग, सलमान ने 28 सितंबर 2002 की आधी रात के बाद, बिना लाइसेंस के, नशे की हालत में अपनी टोयटा लैंड क्रूजर को उन लोगों के ऊपर दौड़ा दिया जो सड़क की पटरी पर सो रहे थे। एक आदमी मारा गया और दूसरे चार गंभीर रूप से जख्मी हुए। सलमान मौके से भाग गए और बाद में एक वकील के घर से गिरफ्तार हुए। हालांकि वह ऐसे 'दंडनीय कत्ल जो हत्या के बराबर नहीं' था के लिए पकड़े गए, इसलिए उन्हें जमानत मिल गई और उन्होंने अगले 13 वर्ष एक सेलिब्रिटी की जिंदगी जी। जब आखिरकार उनका कसूर साबित हुआ और उन्हें पांच साल कैद की सजा मिली, तब कुछ घंटों के भीतर ही बंबई उच्च न्यायालय ने उनके वकील की अर्जी सुनी और उन्हें सुपरसोनिक गति से जमानत दे दी गई। यह वह अदालत है जहां मामूली इंसानों को अपना मामला सुनवाई के लिए आने के लिए बरसों तक इंतजार करना पड़ता है। अपने आप में जमानत नहीं, बल्कि उसको दिए जाने का तरीका न्यायपालिका के उस रवैए को उजागर करता है, जो वह अमीरों के प्रति अपनाती है और इसके उलट गरीबों से नफरत करती है। 

इसके बरअक्स आप डॉ. जी.एन. साईबाबा के मामले को रखें, जो 90 फीसदी अक्षमता वाले शरीर के साथ व्हीलचेयर पर चलने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में प्रोफेसर हैं। वह कुछ साल पहले तक सिर्फ अपने हाथों से रेंगते थे और वह बिना मदद के जिंदा नहीं रह सकते हैं, उन्हें बार-बार जमानत देने को नकारा जा रहा है, जबकि उनकी गिरती हुई सेहत को लेकर सार्वजिनक तौर पर काफी चिंताएं हैं। वर्षों के शारीरिक तौर पर पडऩे वाले प्रभाव ने उनके दिल और फेफड़ों पर गंभीर नुकसान पहुंचाया है और यह लगातार उनकी रीढ़ (स्पाइनल सिस्टम) को नुकसान पहुंचा रहा है। इसके अलावा, खबर है कि जेल में अनियमित और अनुपयुक्त इलाज ने, जिसके लिए उनके वकीलों को लगातार जद्दोजहद करनी पड़ती है, उनके दोनों गुर्दों को खराब कर दिया है। साईबाबा ने कभी अपने राजनीतिक नजरिए को छिपाया नहीं और जैसा कि पुलिस दावा करती है, उनके माओवादियों के साथ संपर्क भी हो सकते हैं, लेकिन यह अकल्पनीय है कि उन्होंने कोई अपराध किया है। संविधान आस्था रखने और बोलने की आजादी देता है और सर्वोच्च न्यायालय ने यह साफ-साफ कहा है कि महज किसी प्रतिबंधित संगठन के साथ जान-पहचान होना या महज उसके उद्देश्यों से सहानुभूति रखना कोई अपराध नहीं है। एक प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना भी अपराध नहीं है, जब तक व्यक्ति संगठन की गैर कानूनी गतिविधियों में भागीदारी न करे। पुलिस ने अब तक रत्तीभर सबूत मुहैया नहीं किया है कि साईबाबा माओवादियों की किसी गैरकानूनी गतिविधि में शरीक थे, तो जब कोई ऐसा इंसान भयावह गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार हो जाता है और कुख्यात नागपुर जेल की एकाकी अंडा-सेल में कैद कर लिया जाता है तो इसका क्या मतलब है? जब न्यायपालिका सलमान जैसे लोगों को लगातार जमानतें देती है लेकिन साईबाबा को देने से लगातार इनकार करती है, जो गरीबों की हिमायत में बोलते हैं तो इसका क्या मतलब है? क्या वो यह सोचती है कि अगर उन्होंने एक अपराध किया है तो वह जमानत तोड़कर भाग जाएंगे और कसूरवार साबित होने पर सजा से बच जाएंगे?

अम्मा की रिहाई

11 मई को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा जून 1996 में दायर किए गए 'आमदनी से अधिक संपत्ति' रखने के मामले में विशेष अदालत द्वारा जे. जयललिता को कसूरवार साबित किए जाने को पलट दिया। मुकदमा 19 बरस तक चला और इस बीच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे चेन्नई से बेंगलुरु भेज दिया गया। विशेष अदालत ने 27 सितंबर 2014 को फैसला सुनाया, जिसने जयललिता और उनके तीन सहयोगियों, शशिकला नटराजन, इलावरसी और वी.एन. सुधाकरण को कसूरवार पाया। उन्हें चार साल की साधारण कैद और जयललिता पर 100 करोड़ का जुर्माना और बाकियों में से हरेक पर 10 करोड़ का जुर्माना लगाया गया। जयललिता तीसरी बार कसूरवार साबित हुई थीं और दूसरी बार उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोडऩा पड़ा था। सभी चारों कसूरवार साबित व्यक्तियों को गिरफ्तार करके पोरापन्ना अग्रहार केंद्रीय जेल में रखा गया। उनकी जमानत की अर्जी कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी गई, लेकिन इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में उसे मंजूर करके जमानत दे दी गई। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उनकी जमानत की अर्जी पर फैसला करते हुए उन सभी को सभी मामलों में बरी कर दिया। अब जयललिता ने औपचारिक तरीके से राज्य की मुख्यमंत्री का पद संभाल भी लिया है। 

खबरों के मुताबिक यह रिहाई जज द्वारा संपत्तियों और देनदारियों का गलत हिसाब लगाए जाने पर आधारित है। अगर इस मामले में शामिल जायदाद की सिर्फ फेहरिश्त ही पढ़ ली जाए (चेन्नई में फार्म हाउस और बंगला, तमिलनाडु में खेतिहर जमीन, हैदराबाद में फार्म हाउस, नीलगिरी पहाडिय़ों में चायबागान, बहुमूल्य गहने, औद्योगिक शेड, जमा नकदी, बैंकों में निवेश और लक्जरी कारों का सेट; 800 किलो चांदी, 28 किलो सोना, 750 जोड़ी जूते, 10, 500 साडिय़ां, 91 घडिय़ां और चेन्नई के भारतीय रिजर्व बैंक की तिजोरी में रखी गई बहुमूल्य चीजें) तो कोई भी साफ कह सकता है कि यह भ्रष्टाचार का मामला है। लेकिन अदालत को यह कहने में 18 साल लगे और उच्च न्यायालय को उसे पलटने में महज एक साल। इस फैसले का तर्क भाजपा की राजनीतिक जरूरत से जुड़ा हुआ है। लोकसभा में 37 और ऊपरी सदन (राज्य सभा) में 11 सांसदों वाली जयललिता भाजपा के लिए अनमोल सहयोगी हैं, जिसके लिए पहले उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों से छुटकारा दिलाना जरूरी है। और जब ऐसा कर दिया गया, तब किसी और ने नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले उन्हें मुबारकबाद देने के लिए फोन किया। भाजपा, राज्य सभा में अपनी कमजोरी से पार पाने के लिए बेकरार है जैसा कि उत्तर प्रदेश में मुलायम को लुभाने और पश्चिम बंगाल में ममता से दोस्ती बनाने की इसकी कोशिशों में देखा जा सकता है। ऐसे हालात में जयललिता पर से दाग हटाने के लिए जज यह अंदाजा लगाते हुए हिसाब में कुछ गोलमाल कर सकेकि इसको चुनौती नहीं दी जाएगी। सुब्रमण्यम स्वामी ने भी साफ कर दिया है कि वह कुछ नहीं करेंगे। अगर राज्य (कर्नाटक) की कांग्रेस सरकार ऐसा करती है, तो फैसला होने में लंबा समय लगेगा।

न्यायिक आजादी

हमें सिखाया गया है कि भारतीय लोकतंत्र तीन बराबर और स्वतंत्र पैरों पर खड़ा है: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, जो एक दूसरे के कामों पर अंकुश रखने वाली संवैधानिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। आजादी की यह सैद्धांतिक धारणा, सिद्धांत के रूप में अपने आप में ही समस्याजनक है क्योंकि जो सरकार सदन में बहुमत वाले दल द्वारा बनाई जाती है, वह विधायिका और कार्यपालिका के विलय का प्रतिनिधित्व करती है; यह कार्यपालक शक्तियों को अपने पास रखती है और नौकरशाही पर सीधा नियंत्रण करती है, जबकि यह विधायिका के काम भी साथ में जारी रखती है; उनका बेमेल वजूद मायने नहीं रखता। एक अरसे से, सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली हमारी चुनावी प्रणाली द्वारा बनाए गए राजनीतिक आदर्श ने दलों के बीच के बुनियादी अंतर को धुंधला कर दिया है और नौकरशाही ने विधायिका (राजनेताओं) के आदेश को लागू करना सीख लिया है। अशोक खेमका जैसे इक्के-दुक्के उदाहरण असल में इस पूरी गतिकी को जाहिर करते हैं। जो कुछ भी आजादी मौजूद थी वह न्यायपालिका में थी, जो संविधान की सर्वोच्च संरक्षक और कानून के शासन की गारंटी करने वाली है। यह कार्यपालिका और विधायिका के कामों को संविधान द्वारा दिए गए अख्तियार से बाहर करार देकर खारिज कर सकती थी। देरियों और मौके-बेमौके होने वाले विवादों के बावजूद, भारतीय जनता इंसाफ के लिए ज्यादातर न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा करती थी। 

मौजूदा संसद ने संवैधानिक (99वें संशोधन) अधिनियम, 2014 के तहत राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया है जो 13 अप्रैल 2015 से काम करने लगा है। आयोग ने जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए पहले के कॉलेजियम सिस्टम की जगह ली है। जबकि सिद्धांत में आयोग के अध्यक्ष भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश होंगे और सर्वोच्च न्यायालय के दो और जज इसके सदस्य होंगे; केंद्रीय कानून मंत्री इसके पदासीन सदस्य होंगे और दो गणमान्य व्यक्तियों का मनोनयन प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता की सदस्यता वाली समिति करेगी, जिनमें से किन्हीं भी दो सदस्यों को समिति के फैसले पर वीटो का इस्तेमाल कर सकने का प्रावधान है। इन मनोनीत दो सदस्यों में से एक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यक समुदाय या एक महिला होंगी। ऊपर से यह बदलाव ठीक दिखता है, लेकिन इसने बुनियादी तौर पर राजनीति के लिए जगह बना दी है और इसने न्यायपालिका की आजादी को संभावित रूप से नुकसान पहुंचाया है। आयोग ने बस काम करना शुरू ही किया है लेकिन इसका असर उन फैसलों में दिखने लगा है जो सत्ताधारी राजनीति को फायदा पहुंचाते दिख रहे हैं।

अनुवाद: रेयाज उल हक

नोट्स:

1. http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-2449211/Top-judges-admit-Indias-justice-tragedy-common-citizens-ignored-favour-high-profile-cases.html#ixzz3ajoMZPpZ पर उपलब्ध। आखिरी बार 20 मई 2015 को देखा गया.
2. वही.

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