Thursday, August 24, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श- नौ रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे? खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं। पुरखों के भारतवर्ष की हत्या कर रहा है डिजिटल हिंदू कारपोरेट सैन्य राष्ट्र! पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श- नौ

रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे?

खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं।

पुरखों के भारतवर्ष की हत्या कर रहा है डिजिटल हिंदू कारपोरेट सैन्य राष्ट्र!

पलाश विश्वास

हमने समकालीन ज्वलंत सवालों के संदर्भ में रवींद्र के दलित विमर्श पर संवाद का प्रस्ताव रखा था।इसी सिलसिले में रवींद्र की भारत परिकल्पना की आज चर्चा कर रहे हैं।इसी सिलसिले में निराधार आधार पर आधारित कारपोरेट डिजिटल हिंदू राष्ट्र की चर्चा जरुरी है जो हमारे पुरखों के भारत वर्ष की हत्या कर रहा है।

निजता का अधिकार  मौलिक अधिकार है,सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है।अब इस फैसले से पहले नागरिकों के शरीर पर नागरिकों के हक न होने का हलफनामा दायर करने वाली भारत सरकार का दावा है कि यह फैसला उसके नजरिये के मुताबिक है।इसका सीधा मतलब है कि निजता को मौलिक अधिकार मान लिये जाने के बावजूद आधार परियोजना के तहत नागरिकों के निजता के अधिकार का हनन करते हुए उनके निजी तथ्यों को कारपोरेट कंपनियों को शेयर करने का सिलसिला रुकने वाला नहीं है।क्योंकि यह गैरजरुरी जनसंख्या के सफाये के नरसंहारी एजंडा है जिसके मार्फत अर्थव्यवस्था और राष्ट्रव्यवस्था पर नस्ली वर्चस्व बहाल रखकर जीवन के हर क्षेत्र में नस्ली रंगभेद के तहत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों,गैर नस्ली और विधर्मी समुदायों,किसानों,मेहनतकशों के बहिस्कार और निगरानी की योजना है।

नागरिकों की न निगरानी न सिर्फ राष्ट्र कर रहा है बल्कि देशी विदेशी निजी कंपनियां और दुनियाभर के आपराधिक माफिया गिरोह को भी नागरिकों की निजी जानकारियां दी जा रही हैं क्योंकि जरुरी सेवाओं के लिए आधार की अनिवार्यता की वजह से गैरसरकारी अज्ञात तत्वों के हवाले नागरिकों के आधार तथ्य के साथ साथ उनकी उंगलियों की छाप भी हैं जिससे साइबर जालसाजी से लेकर जान माल का गंबीर खतरा भी है क्योंकि नागरिकों की क्रयशक्ति के आधार पर बैंक बैलेंस और चल अचल संपत्ति की जानकारियां भी निजी कंपनियों के साथ साथ अज्ञात और आपराधिक तत्वों तक शेयर करने की अनिवार्यता है।

मोबाइल,फोन,मेल के जरिये क्रेडिट कार्ड,बैंक लोन और खरीददारी के तमाम आफर इन्हीं तथ्यों के आधार पर नागरिकों को चौबीसों घंटे थोकभाव से मिल रहे हैं क्योंकि मोबाइल और गैस कनेक्शन से लेकर यात्रा टिकट तक आधार की अनिवार्यता है।आधार परियोजान जारी रहा तो निजता का अधिकार का कोई मतलब नहीं है।

इस सिलसिले में हम लगातार चर्चा करते रहे हैं और आप हस्तक्षेप के पुराने आलेखों को पढ़ सकते हैं।

अब सवाल यह है कि कारपोरेट फंडिंग से चलने वाली राजनीति क्या कारपोरेट नस्ली  वर्चस्व के डिजिटल इंडिया के खिलाफ नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हक में खड़े होने की हिम्मत करेंगी क्योंकि राजनीति ने अभी तक इसका विरोध नहीं किया है क्योंकि सत्ता वर्ग की राजनीति दरअसल नस्ली वर्चस्व की राजनीति है और वह अन्याय,असमानता,उत्पीड़न,अत्याचार,बेदखली और नरसंहार संस्कृति के समर्थन में खड़ी है।उसके तमाम तर्क भी अंध राष्ट्रवाद और सैन्य हिंदू राष्ट्र के वर्ण वर्ग वर्चस्व के हित में हैं।

गौरतलब है कि एक बेहद अहम फैसले के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार, यानी राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकारों, यानी फन्डामेंटल राइट्स का हिस्सा करार दिया है। नौ जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा कि राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है। राइट टू प्राइवेसी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आती है। अब  लोगों की निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी। हालांकि आधार को योजनाओं से जोड़ने पर सुनवाई आधार बेंच करेगी। इसमें 5 जज होंगे।

रवींद्रनाथ ने 7 अगस्त,1941 को अपनी मृत्यु से पहले 14 मई,1941 को शांतिनिकेतन में पढ़े अपने निबंध सभ्यता के संकट में भारतीय मानस के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के आधार पर फासीवादी राष्ट्रवाद के खिलाफ चेतावनी दे गये।इस निबंध के पहले ही वाक्य में खंडित भारतीय राष्ट्रीयता का चित्र इस तरह प्रस्तुत किया हैः

আজ আমার বয়স আশি বৎসর পূর্ণ হল, আমার জীবনক্ষেত্রের বিস্তীর্ণতা আজ আমার সম্মুখে প্রসারিত। পূর্বতম দিগন্তে যে জীবন আরম্ভ হয়েছিল তার দৃশ্য অপর প্রান্ত থেকে নিঃসক্ত দৃষ্টিতে দেখতে পাচ্ছি এবং অনুভব করতে পারছি যে, আমার জীবনের এবং সমস্ত দেশের মনোবৃত্তির পরিণতি দ্বিখণ্ডিত হয়ে গেছে, সেই বিচ্ছিন্নতার মধ্যে গভীর দুঃখের কারণ আছে।

(अनुवादःआज मेरे जीवन के अस्सी साल पूरे हो गये,मेरे जीवनक्षेत्र की विस्तीर्णता आज मेरे सामने प्रसारित है।पूर्वतम दिगंत पर जिस जीवन का आरंभ हुआ,उसके दृश्य दूसरे सिरे से निःसक्त दृष्टि से देख रहा हूं और मुझे इसका अनुभव हो रहा है कि मेरे जीवन और समूचे देश की मानसिकता द्विखंडित हो गयी है और इस विभाजन में दुःख के कारण है।)

रवींद्रनाथ की यह चेतावनी भारत विभाजन की भी चेतावनी है क्योंकि खंडित राष्ट्रीयता की नियति अंततः विभाजन की त्रासदी है।वे इस सच को जानचुके थे कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का अंत दूर नहीं है और इससे भय़ंकर सछ उनके सामने शायद यह था कि जिस भारतवर्ष की परिकल्पना वे बना रहे थे,सत्ता हस्तातंरण के बाद वह भारत धर्म और राष्ट्रवाद के शिकंजे में सभ्यता के संकट का पर्याय बनने वाला है।हम बार बार यह निवेदन कर रहे हैं कि हमारा लिखा कोई शोध प्रबंध नहीं है और न यह किसी प्रकाशन के माध्यम से कहीं प्रकाशित होने वाला है। यह सोशल मीडिया पर रवींद्र के दलित विमर्श पर एक संवाद है,जिसकी अपनी सीमा है।हम विस्तार से संदर्भ और प्रसंग के साथ बातें रख नहीं सकते।इसलिए संदर्भ संबंधी नेट पर उपलब्ध सारी सामग्री मूल पाठ और वीडियो अलग से शेयर कर रहे हैं।उन्हें देखे बिना इस संवाद में शामिल होना मुश्किल है।

आज हमने सभ्यता के संकट का मूल बांग्ला पाठ शेयर किया है और इसका हिंदी अनुवाद मुझे नेट पर मिला नहीं है।कोलकाता के आलोचक अरुण माहेश्वरी ने दिल्ली में रवींद्रनाथ पर 2011 में आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार में इस निबंध के अंतिम हिस्से का अनुवाद अपने वक्तव्य में शामिल किया है और वह वक्तव्य जनपक्ष में प्रकाशित हुआ है।संवाद के इस क्रम में अंत में वह हिस्सा हम दे रहे हैं।

इस निबंध में बारत की आजादी के बाद की स्थितियों के बारे में उन्होंने जो आशंका जतायी है,वह उनके जीवन काल में ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान फासीवादी नाजीवादी शक्तियों के धार्मिक राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक राजनीति के उथल पुथल परिदृश्य के संदर्भ में है,यह समझना मुश्किल नहीं है क्योंकि वे खंडित राष्ट्रीयता की बात शुरु में ही उसी तरह कर रहे हैं जैसे कि संविधान सभा में अपने पहले भाषण में बाबासाहेब भीमराव अबेडकर ने आपस में लड़ रहे कैंप के हवाले खंडित राष्ट्रीयता की बात की है।

रवींद्र ने भारती की स्वतंत्रता की भविष्यवाणी करते हुए जो अंदेशा जताया है,वर्तमान चुनौतियां उसी को सही साबित करती हैं।रवींद्र ने लिखा हैः

ভাগ্যচক্রের পরিবর্তনের দ্বারা একদিন না একদিন ইংরেজকে এই ভারতসাম্রাজ্য ত্যাগ করে যেতে হবে। কিন্তু কোন্‌ ভারতবর্ষকে সে পিছনে ত্যাগ করে যাবে, কী লক্ষ্মীছাড়া দীনতার আবর্জনাকে? একাধিক শতাব্দীর শাসনধারা যখন শুষ্ক হয়ে যাবে তখন এ কী বিস্তীর্ণ পঙ্কশয্যা দুৰ্বিষহ নিস্ফলতাকে বহন করতে থাকবে। জীবনের প্রথম-আরম্ভে সমস্ত মন থেকে বিশ্বাস করেছিলুম যুরোপের সম্পদ অন্তরের এই সভ্যতার দানকে। আর আজ আমার বিদায়ের দিনে সে বিশ্বাস একেবারে দেউলিয়া হয়ে গেল। আজ আশা করে আছি, পরিত্রাণকর্তার জন্মদিন আসছে আমাদের এই দারিদ্র্যলাঞ্ছিত কুটীরের মধ্যে; অপেক্ষা করে থাকব, সভ্যতার দৈববাণী সে নিয়ে আসবে, মানুষের চরম আশ্বাসের কথা মানুষকে এসে শোনাবে এই পূর্বদিগন্ত থেকেই। আজ পারের দিকে যাত্রা করেছি—পিছনের ঘাটে কী দেখে এলুম, কী রেখে এলুম, ইতিহাসের কী অকিঞ্চিৎকর উচ্ছিষ্ট সভ্যতাভিমানের পরিকীর্ণ ভগ্নস্তূপ! কিন্তু, মানুষের প্রতি বিশ্বাস হারানো পাপ, সে বিশ্বাস শেষ পর্যন্ত রক্ষা করব। আশা করব, মহাপ্রলয়ের পরে বৈরাগ্যের মেঘমুক্ত আকাশে ইতিহাসের একটি নির্মল আত্মপ্রকাশ হয়তো আরম্ভ হবে এই পূর্বাচলের সূর্যোদয়ের দিগন্ত থেকে। আর-একদিন অপরাজিত মানুষ নিজের জয়যয়যাত্রার অভিযানে সকল বাধা অতিক্রম করে অগ্রসর হবে তার মহৎ মৰ্যাদা ফিরে পাবার পথে। মনুষ্যত্বের অন্তহীন প্রতিকারহীন পরাভবকে চরম বলে বিশ্বাস করাকে আমি অপরাধ মনে করি।

अरुण माहेश्वरी का अनुवाद इस प्रकार हैः

"एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...

इससे पहले फासीवादी नाजी खतरे को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैंः

इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?

रवींद्र अपने जीवन में भारत के भविष्य को लेकर इतने चिंतित क्यों थे?

खंडित राष्ट्रीयता,विभाजन की नियति और फासीवाद की दस्तक इसकी मुख्य वजहें हैं।

रवींद्रनाथ का भारतवर्ष भारत के इतिहास,दर्शन और सांस्कृतिक लोकतंत्र की समग्र विरासत पर आधारित है जिसे वे खंडित होते हुए देख रहे थे।

डा.अमर्त्यसेन ने रवींद्र की आशंका और चेतावनी के मद्देनजर नेहरु की जेल डायरी के हवाले से नोबेल प्राइज डाटआर्ग पर रवींद्र की भारत परिकल्पना और गांधी और रवींद्र के बीच निरंतर जारी संवाद पर लिखे अपने आलेख में लिखा हैः


In his prison diary, Nehru wrote: "Perhaps it is as well that [Tagore] died now and did not see the many horrors that are likely to descend in increasing measure on the world and on India. He had seen enough and he was infinitely sad and unhappy." Toward the end of his life, Tagore was indeed becoming discouraged about the state of India, especially as its normal burden of problems, such as hunger and poverty, was being supplemented by politically organized incitement to "communal" violence between Hindus and Muslims. This conflict would lead in 1947, six years after Tagore's death, to the widespread killing that took place during partition; but there was much gore already during his declining days. In December 1939, he wrote to his friend Leonard Elmhirst, the English philanthropist and social reformer who had worked closely with him on rural reconstruction in India (and who had gone on to found the Dartington Hall Trust in England and a progressive school at Dartington that explicitly invoked Rabindranath's educational ideals):5

"It does not need a defeatist to feel deeply anxious about the future of millions who, with all their innate culture and their peaceful traditions are being simultaneously subjected to hunger, disease, exploitations foreign and indigenous, and the seething discontents of communalism."

How would Tagore have viewed the India of today? Would he see progress there, or wasted opportunity, perhaps even a betrayal of its promise and conviction? And, on a wider subject, how would he react to the spread of cultural separatism in the contemporary world?

(Tagore and His India

by Amartya Sen*,/www.nobelprize.org)


इस निबंध में रूस,चीन और जापान में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व के आधार पर पश्चिम के साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद के विपरीत नये सिरे से राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की उन्होंने विस्तार से चर्चा की है।

भारत में मुसलमानों,अस्पृश्यों को बराबरी का द्रजा न दिये जाने की चर्चा वे बार बार करते रहे हैं और भारती की मुख्य समस्या वे नस्ली विषमता मानते हुए विविधता में एकता को इस समस्या का समाधान बताते रहे हैं।यूरोप के नस्ली संघर्षों और रंगभेदी विषमता के विपरीत सोवियत संघ और चीन में मुसलमानों को बराबारी देने की बात वे सिलसिलेवार कहते हैं तो पश्चिम एशिया के इस्लामी राष्ट्रों के नस्ली सामाजिक य़थार्थ को सामने रखते हुए नये भारत की परिकल्पना पेश करते हैं।


पश्चिम में अंध राष्ट्रवाद के फासीवाद और नाजीवाद से हिंसा और युद्ध से ध्वस्त पृथ्वी का कोना कोना घूमने के बाद गुरुदेव विश्वयुद्धों के विध्वंस का सच का सामना करते हुए सभ्यता के खतरों से बेहद चिंतित थे।मनुष्यता का धर्म और राष्ट्रवाद पर लिखे निबंधों में इसीलिए उन्होंने बार बार सहिष्णुता,विविधता और बहुलता की भारतीय विरासत की बात करते हुए समानता और न्याय पर आधारित मनुष्यता के वैश्विक भूगोल और विश्व मानव की बात करते हुए अंध राष्ट्रवाद और धार्मिक कटट्रता के खिलाफ मनुष्यता के आदर्शों औऱ भारतीय साझा विरासत के आध्यात्म के जरिये विश्वशांति की बातें की हैं।



अरुण माहेश्वरी ने लिखा हैः

इसमें शक नहीं कि यह विश्वयुद्ध  रवीन्द्रनाथ के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना था। वस्तुतः 1939 से लेकर अपनी मृत्यु (7 अगस्त 1941) तक वे इस युद्ध की परिस्थितियों के बारे में लगातार चिंतित रहे। इस युद्ध में वे साफ तौर पर पूरी मनुष्यता के अस्तित्व पर खतरे को देख रहे थे और इसीलिये फासिस्ट ताकतों के खिलाफ मित्र शक्तियों के प्रति उनकी सहानुभूति और समर्थन में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं था। रूस का अनुभव उनके साथ था और उसके प्रति प्रकट सहानुभूति भी। अपने अंतिम दिनों के इसीकाल में कवि ने अंतिम इच्छा के रूप में 'सभ्यता का संकट' ऐतिहासिक लेख लिखा जिसे 14 मई 1941 के दिन शान्तिनिकेतन में पढ़ा गया। कवि तब अस्सी साल के हो गये थे। इस लेख का प्रारंभ वे इन शब्दों से करते हैंः


"आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण हुए। अपने जीवन-क्षेत्र का दीर्घ विस्तार आज मेरे सामने आता है।                   ...  "पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब असंभव होगया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी। मनुष्य का मनुष्य के साथ वह सम्बन्ध, जो सबसे अधिक मूल्यवान है और जिसे वास्तव में सभ्यता कहा जा सकता है, यहां नहीं मिलता। ...


इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?


"एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...


महामानव का आगमन है।

दिशा-दिशा में घास का तिनका-तिनका रोमांचित है।

देवलोक में शंख बज उठा...

'जय-जय-जय रे मानव अभ्युदय' -"


रवीन्द्रनाथ के जीवन के इस पूरे आख्यान को यदि कोई गहराई से देखेगा तो उसे इसमें शुरू से अंत तक महाविश्व के महामानव की प्रतिमा का एक ऐसा सूत्र पिरोया हुआ दिखाई देगा जिस प्रतिमा को उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभ में ही अपने आध्यात्मिक संस्कार से हृदय में बहुत गहरे बसा लिया था, और उम्र की अंतिम घड़ी तक वे उसी महामानव की जयकार का गीत गाते रहे। उसमें किसी भी प्रकार की लघुता का कोई स्थान नहीं था।


रवीन्द्रनाथ टैगोर की आध्यात्म-आधारित विश्व-दृष्टि ( जनपक्ष में प्रकाशित) से साभार

(यह लेख हाल में दिल्ली में इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसिअलिस्ट एजुकेसन द्वारा आयोजित रवीन्द्रनाथ पर राष्ट्रीय सेमिनार (१६-१७ दिसम्बर २०११)में पढ़ा गया था. )


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