Friday, April 1, 2016

Re: लेख

दरकार एक अदद 'स्पेस' की…

मुकेश कुमार साहू

युवा पत्रकार

अभी कुछ दिनों से देख रहा हूं कि लोगों को किसी के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने के लिए हर कदम पर प्रमाण देने की आवश्यकता पड़ रही । कभी तो सच्चे देशभक्त प्रमाण दो तो कभी सच्चे हिन्दु होने का। यहां तक कि सच्चे मुस्लमान होने का भी। इसके अलावा अन्य के प्रति भी जिनमें व्यक्तियों के बीच आपस के संबंध हो । यदि आप प्रमाण नहीं देते तो आप देशद्रोही या अन्य करार दिए जाते हैं। हाल के घटनाक्रमों से कुछ ऐसा ही जाहिर हो रहा है। इसे साजिश कहें या कुछ और...। कई बार लगता है कि इसकी तुलना में कई मुख्य और ज्वलंत मुद्दों पर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ऐसा किया जाता है। पर इस तरह कि गतिविधियां तो देश व समाज में लोगों के बीच का स्पेस ही खत्म कर रही है, जिस 'स्पेस' में नये विचारों और विभिन्नताओं को पल्लवित होने मौका मिलता है । ऐसा लग रहा है कि दुनिया एक ' हार्ड एंड फास्ट रूल ' पर टिकी है और इसी से संचालित होती है। जबकि वास्तविकता में तो ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रकृति भी तो नये पौधों, लताओं और पुष्पों को पल्लवित होने का 'स्पेस' प्रदान करती है। इसी से ही तो वो बहुत खूबसूरत लगती है और जिसे देखने पर आंखों व दिल को सुकुन मिलता है।

  हाल ही में मैं अलग-अलग जगह के बहुत से लोगों से मिला और मिल भी रहा हूं तो मैंने पाया कि अब यह प्रवृत्ति लोगों के व्यवहार में आने लगा है जो अब उनकी लाइफ स्टाइल से जुड़ती जा रही है। जो कि चिंतनीय है। क्योंकि वास्तविक जीवन में तो एक स्पेस की दरकार हमेशा से बनी रहती है जहां नये विचार और जीवन में एक नयापन पल्लवित हो साथ ही कुंठाएं नष्ट हो । यदि ऐसा न हुआ तो ये कुंठाएं ही घर कर जाएंगी।

  यूं तो हमारे साइबर वर्ल्ड की दुनिया को वर्चुअल (आभासी) दुनिया की संज्ञा दी जाती है पर अब यह उस तरह से आभासी नहीं रहा। क्योंकि अब तो खासकर युवा जो इस दुनिया का दीवाना भी है और कर्ता-धर्ता भी। जहां स्पेस तो है अपनी बातों व विचारों को कहने का, पर नहीं है तो ज्यादातर के पास सिर्फ सही विवेक के साथ विचारशील, तर्कशील और आधुनिक समुन्नत समाज बनाने की दृष्टि। चूंकि अब तो इस आभासी दुनिया तेजी से युवाओं के बीच पैर पसार रही है और जिनका असर अब समाज में दिखने लगा है । कहीं कहीं तो यह लोगों के बीच आपसी वैमनस्य को इस हद तक बढ़ा दे रही है कि लोग एक-दूसरे को मरने-मारने लग जाते हैं। जिसकी परिणति कभी दादरी तो कभी शटडाउन जेएनयू में नजर आती है। यदि एक अदद 'स्पेस' हम अपने समाज लेकर व्यक्तिगत संबधों के बीच रहे तो कुंठाएं शायद पनपे ही न, साथ ही नये विचारों व और भी नई चीजों को पल्लवित होने का मौका मिले व पल्लवित हों भी।



2016-04-01 11:17 GMT+05:30 MUKESH KUMAR SAHU <mukesh.ksahu10@gmail.com>:
डियर पलाशदा
               नमस्कार
मैंने राष्ट्रवाद पर एक आर्टिकल लिखा था जिसका जिक्र मैं आपसे संभावना संस्थान में कर रहा था उसे मैं आपके पास मेल कर रहा हूं।
धन्यवाद!
आपका
मुकेश कुमार
मो. 9582751771



--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments: