राष्ट्रगान, टैगोर और कॉमन सेंस
पंकज श्रीवास्तव
राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने राष्ट्रगान से 'अधिनायक' शब्द को हटाने की बात कहकर जो विवाद छेड़ा है, वह नया नहीं है। यह सवाल पूछा जाता रहा है कि राष्ट्रगान में किस अधिनायक की बात की गयी है। एक तबका साफतौर पर मानता है कि यह अधिनायक और कोई नहीं इंग्लैंड के सम्राट जार्ज पंचम हैं जो 1911 में भारत आये थे और कलकत्ता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उनके स्वागत में ही 'जन-गण-मन' गाया गया। सोशल मीडया के प्रसार के साथ यह प्रचार और भी तेज़ हो गया है।
तो क्या सचमुच भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वालों ने अंग्रेज सम्राट का गुणगान करने वाले गीत को राष्ट्रगान का दर्जा दे दिया? क्या नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कविगुरु और जलियांवाला बाग कांड के बाद नाइटहुड की उपाधि लौटाने वाले रवींद्रनाथ टैगोर ने जॉर्ज पंचम की स्तुति की थी? कल्याण सिंह के बयान और सोशल मीडिया के वीरबालक पूरी ताकत से इसका जवाब "हाँ' में देते हैं, जबकि इस पर खुद टैगोर का स्पष्टीकरण मौजूद है। उनके हिसाब से राष्ट्रगान में अधिनायक शब्द, राष्ट्र की जनता, उसका सामूहिक विवेक या फिर वह सर्वशक्तिमान है जो सदियों से भारत के रथचक्र को आगे बढ़ा रहा है। मूल रूप से संस्कृतनिष्ठ बांग्ला में लिखे गये इस पांच पदों वाले इस गीत का तीसरा पद ग़ौर करने लायक है-
पतन-अभ्युदय-वन्धुर पन्था, युग युग धावित यात्री।
हे चिरसारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि।
दारुण विप्लव-माझे तव शंखध्वनि बाजे संकटदुःखत्राता।
जनगणपथपरिचायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
इस बंद में एक भीषण विप्लव की कामना कर रहे टैगोर भाग्यविधाता के रूप में कम से कम जार्ज पंचम की बात नहीं कर सकते। न अंग्रेज सम्राट की कल्पना भारत के चिरसारथी के रूप में की जा सकती है। जाहिर है, टैगोर ऐसे आरोप से बेहद आहत थे। वे इसका जवाब देना भी अपना अपमान समझते थे। 19 मार्च 1939 को उन्होंने 'पूर्वाशा' में लिखा– 'अगर मैं उन लोगों को जवाब दूंगा, जो समझते है कि मैं मनुष्यता के इतिहास के शाश्वत सारथी के रूप में जॉर्ज चतुर्थ या पंचम की प्रशंसा में गीत लिखने की अपार मूर्खता कर सकता हूँ, तो मैं अपना ही अपमान करूंगा।'
टैगोर की मन:स्थिति का कुछ अंदाज़ 10 नवंबर 1937 को पुलिन बिहारी सेन को लिखे उनके पत्र से भी पता चलता है। उन्होंने लिखा- " मेरे एक दोस्त, जो सरकार के उच्च अधिकारी थे, ने मुझसे जॉर्ज पंचम के स्वागत में गीत लिखने की गुजारिश की थी। इस प्रस्ताव से मैं अचरज में पड़ गया और मेरे हृदय में उथल-पुथल मच गयी। इसकी प्रतिक्रिया में मैंने 'जन-गण-मन' में भारत के उस भाग्यविधाता की विजय की घोषणा की जो युगों-युगों से, उतार-चढ़ाव भरे उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए भारत के रथ की लगाम को मजबूती से थामे हुए है। 'नियति का वह देवता', 'भारत की सामूहिक चेतना का स्तुतिगायक', 'सार्वकालिक पथप्रदर्शक' कभी भी जॉर्ज पंचम, जॉर्ज षष्ठम् या कोई अन्य जॉर्ज नहीं हो सकता। यह बात मेरे उस दोस्त ने भी समझी थी। सम्राट के प्रति उसका आदर हद से ज्यादा था, लेकिन उसमें कॉमन सेंस की कमी न थी।"
टैगोर इस पत्र में 1911 की याद कर रहे हैं जब जॉर्ज पंचम का भारत आगमन हुआ था। इसी के साथ 1905 में हुए बंगाल के विभाजन के फैसले को रद्द करने का ऐलान भी हुआ था। बंगाल के विभाजन के बाद स्वदेशी आंदोलन के रूप में एक बवंडर पैदा हुआ था। 1857 की क्रांति की असफलता के बाद यह पहला बड़ा आलोड़न था जिसने पूरे देश को हिला दिया था। आखिरकार अंग्रेजों को झुकना पड़ा था। उस समय कांग्रेस मूलत: मध्यवर्ग की पार्टी थी जो कुछ संवैधानिक उपायों के जरिये भारतीयों के प्रति उदारता भर की मांग कर रही थी। ऐसे में अचरज नहीं किबंगाल विभाजन रद्द करने के फैसले के लिए सम्राट के प्रति आभार प्रकट करने का फैसला हुआ। 27 जुलाई 1911 को इस अधिवेशन में सम्राट की प्रशंसा मे जो गीत गाया गया था वह दरअसल राजभुजादत्त चौधरी का लिखा "बादशाह हमारा" था। लेकिन चूंकि अधिवेशन की शुरुआत में जन-गण-मन भी गाया गया था इसलिए दूसरे दिन कुछ अंग्रेजी अखबारों की रिपोर्ट में छपा कि सम्राट की प्रशंसा में टैगोर का लिखा गीत गाया गया। भ्रम की शुरुआत यहीं से हुई।
समय के साथ यह भ्रम राजनीतिक कारणों से बढ़ाया गया। कहा गया कि वंदे मातरम को राष्ट्रगान होना चाहिए था, लेकिन जन-गण-मन को यह दर्जा दिया गया जो अंग्रेज सम्राट के स्वागत में रचा गया था। आशय यह बताना था कि आजाद भारत को मिला पं.नेहरू का नेतृत्व कम राष्ट्रवादी था और उसने असल राष्ट्रवादियों को अपमानित करने के लिए ऐसा किया। यह बात भुला दी जाती है कि 24 जनवरी 1950 को जब डा.राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के सामने जन-गण-मन को राष्ट्रगान घोषित किया था तो अपने बयान में वंदे मातरम को भी
समान दर्जा देने का ऐलान किया था।
जाहिर है, कल्याण सिंह का बयान अनायास नहीं है। आरएसएस के पुराने स्वयंसेवक और यूपी के मुख्यमंत्री बतौर अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाने के लिए दोषी ठहराये जा चुके कल्याण सिंह ऐसे तमाम विवाद उठाते रहे हैं जो आरएसएस के एजेंडे में हैं। महात्मा गाँधी के राष्ट्रपिता कहे जाने पर भी वे सवाल उठा चुके हैं। राष्ट्रगान के बाद राष्ट्रध्वज पर भी सवाल उठ सकता है। 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइजर में छपा ही था—" वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह साबित होगा। "
राष्ट्रगान में अधिनायक शब्द पर चर्चा करते हुए सोचना होगा कि यह अधिनायकवादी अभियान के निशाने पर क्यों है? यह तो नहीं कह जा सकता कि सवाल उठाने वालों में उतना भी कॉमन सेंस नहीं जितना कि टैगोर के मित्र में था।
(वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार डॉ. पंकज श्रीवास्तव, आईबीएन7 से अपने इस्तीफे के हालिया मामले से चर्चा में रहे, इसके पहले तकरीबन दो दशक का जनसरोकारी पत्रकारिता का लम्बा अनुभव और उससे पहले वाम छात्र नेता और थिएटर एक्टिविस्ट भी रहे।)
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