Saturday, July 18, 2015

जिन्दगी जितनी प्यारी होती है उतनी ही निदारुण भी होती है.


जीवन की उत्तरजीविता अगली पीढ़ी के पोषण और उसे जीने की कला या अस्तित्व रक्षा के गुर सिखाने पर निर्भर है. इसीलिए जीव प्रजाति की हर पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी का पोषण करने और जीने की कला या अस्तित्वरक्षा के गुर सिखाती है. नयी पीढ़ी के सक्षम होते जाने के साथ पुरानी पीढ़ी की उपादेयता कम होती जाती है और एक दिन जब वे जीवन संघर्ष में अनुपयुक्त हो जाते हैं, या साथ नहीं दे पाते, समूह उन्हें छोड़ कर आगे बढ़ जाता है और वे अपनी नितान्त अकेलेपन और बढ़्ती हुई असमर्थता में जीवित रहते हुए भी परभक्षियों के आहार बन जाते हैं. इस सहज प्राकृतिक क्रम में न कोई नैतिकता है, न अनैतिकता. 
यह भी जीवन की सहज वृत्ति है कि पुरानी पीढ़ी, चाहे वह पशुओं की हो या मनुष्यों की, यह लालसा तो रखती ही होगी कि जैसे-जैसे वे असमर्थ होते जाँय, नयी पीढ़ी उनको असहाय न छोड़े. बहुत से पशु एक सीमा तक अपने झुंड के वृद्ध और असमर्थ सदस्यों को सहारा देने यहाँ तक उनके भोजन की व्यवस्था करने का प्रयास करते हुए दिखते है. यहाँ तक कि उनके दिवंगत हो जाने पर उनके निकट उदास खड़े दिखाई देते हैं. हाथी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है.
मानव समूह जैसे-जैसे सभ्यता के क्रम में आगे बढ़े, आत्मरक्षा के अवान्तर साधन, घर, कृषि आदि जुटते गये, पुरानी पीढ़ी का संकट तो कम हुआ, पर उनके उपेक्षित होते जाने की अपरिहार्य अंशत: बनी रही. फलत: अपने भी उपेक्षित होते जाने से बचने के लिए नैतिकता का आविर्भाव हुआ, स्वर्ग की कल्पना हुई और पुरानी पीढ़ी की उपेक्षा पर उनके पारलौकिक जीवन से अगली पीढ़ियो के जीवन के प्रभावित होने की आशंका का सृजन हुआ. इस आशंकाबोध ने एक हद तक मानवों की पुरानी पीढ़ियों को सहारा दिया और वे अनुपयोगी होते जाने के बाद भी आंशिक संरक्षण पाते रहे. 
सभ्यता और आगे बढ़ी, कबीलाई सामाजिक नियंत्रण शिथिल हुए, लोग क्या कहेंगे का डर भी कम होता गया. फलत: अगली पीढ़ी के भरोसे रहने की अपेक्षा बुढ़ापे के लिए विहित और अविहित किसी भी तरीके से साधन जोड़्ने, बीमा कराने, यहाँ तक कि अपने अंतिम संस्कार का भी बीमा कराने की वृति भी बढ़ी.
सभ्यता के विकास के साथ मानव-समूहों में प्रौढ़ अवस्था में ही अकेले पड़्ते जाने की भी वृद्धि होने लगी. उच्चतर शिक्षा, अधिक साधन सम्पन्नता की प्रतिस्पर्धा में नयी पीढ़ी, देश-देशान्तरों की ओर उन्मुख होती गयी. गाँव छूटा, समवयस्क साथी छूटे और अन्तत: बच्चे भी दूर चले गये, एक दूसरे का अस्तित्व केवल संदेशों के सहारे संसूचित होता रहा और वह भी धीरे-धीरे मद्धिम होता गया. ग्राम समाज तो फिर भी एक सहारा था. पर नगर और महानगर की ओर बढ़्ती सभ्यता में साधन हुए तो वृद्धाश्रम, साधन नहीं हुए तो सद्दाम हुसेन की कोठरी का ही अवलम्ब रह जाता है. इस पर संगी का सहारा भी न रहे या संगी स्वयं असहाय होता जाय तो?
जिन्दगी जितनी प्यारी होती है उतनी ही निदारुण भी होती है.

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