उत्तराखण्ड के मुँह पर 'हे ब्वारी' का तमाचा
लेखक : नवीन जोशी ::अंक: 01-02 || 15 अगस्त से 14 सितम्बर 2014:: वर्ष :: 38:
त्रेपन सिंह चैहान का नया उपन्यास 'हे ब्वारी' उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन पर केंद्रित उनके पहले उपन्यास 'यमुना' का अगला भाग है। 'यमुना' में उत्तराखण्ड राज्य बनाने की लड़ाई है और जनता के सपने हैं तो 'हे ब्वारी' अपने राज्य से मोहभंग की त्रासद कथा है। सन 2000 में उत्तराखण्ड नए राज्य के रूप में देश के नक्शे पर उभरा। जनता की 'माँग पूरी' हुई, लेकिन क्या उसकी लड़ाई 'सफल' भी हुई ? जनता के सपनों का क्या हुआ ? राज्य बने 14 वर्ष हो गए, किस हाल में है यमुना, यानी उत्तराखण्ड की जनता ?
इन्हीं सवालों का उत्तर तलाशने के लिए त्रेपन ने यमुना की आगे की कहानी कही है। 'हे ब्वारी' लुधियाना में रह रही यमुना की बेचैनी से शुरू होता है, जहाँ वह मनोचिकित्सक की मदद से अपनी मानसिक यंत्रणा से उबरते हुए गाँव लौटने के लिए बेचैन है और पति की आनाकानी के बावज़ूद लौटने में कामयाब होती है। लेकिन 'अपने उत्तराखण्ड' से उसका पहला ही साक्षात्कार ज़बर्दस्त झटके के साथ शुरू होता है, जब वह पाती है कि गाँव के बाज़ार में शराब की दुकान खुल रही है और इसमें गाँव ही के कुछ दबंग, स्वार्थी लोग प्रशासन के साथ मिले हुए हैं। यमुना फिर लड़ाई के लिए कमर कसती है और महिलाओं को एकजुट होने के लिए ललकारती है। शराब की दुकान के खिलाफ धरना शुरू होता है तो दूसरी तरफ आंदोलन के खिलाफ साजिशें भी शुरू हो जाती हैं। तब धीरे-धीरे यमुना समझने लगती है कि अलग राज्य बन जाने के बाद तरह-तरह के तत्व उसे नोचने-खसोटने में लग गए हैं। विधायक हों या प्रधान, बीडीओ हों या बैंक, मीडिया हो, एनजीओ हों या 'आंदोलनकारी', सभी नवप्राप्त राज्य को भुनाने में लग गए हैं और किसी को भी उन सपनों की चिंता नहीं है, जिनके लिए राज्य की बड़ी लड़ाई लड़ी गई थी और बेहतर भविष्य की आस में बढ़-चढ़ कर बलिदान दिए थे।
यमुना यह देख कर भी स्तब्ध है कि राज्य बन जाने के बाद शहरों-कस्बों से होता हुआ तथाकथित विकास का अपसांस्कृतिक राक्षस बहुत तेज़ी से गाँवों की नई पीढ़ी को निगल रहा है। जैसे, शादियों में अब लोकगीत नहीं सुनाई देते। डीजे नया चलन है। कैटरर आएगा और 'कैटल'(कॉकटेल) पार्टी होगी। उधर, जवान पहाड़ी छोकरों का सीमा पर मारा जाना जारी है। उनके लिए गाँव-पड़ोस में ही नौकरी मिलने के सपने कहीं से पूरे होते नहीं दिख रहे। बेहद अफसोस और गुस्से के साथ यमुना गाँव की महिलाओं से कहती है-
"…..हमने सोचा, अब हमारी अपनी सरकार बन गी है तो वह हमारी किल्लतें दूर करेगी। हमें लगा कि हमारे बच्चांें के सुनहरे भविष्य के दिन आ गए हैं। लेकिन ये क्या…? या सरकार हमको दारू की दुकान दे री है…..हम चाते, हमारे गौं का विकास करे सरकार, वह तो उलटा हमारे गौं को ही उगटाने पर आ गई है। अब इस सरकार के खिलाफ भी हमको लड़ना होगा। अपने गौं को बचाना है तो लड़ना पड़ेगा, मरते दम तक।"
अब यमुना की दूसरी लड़ाई शुरू होती है। और भी कठिन लड़ाई। पहली लड़ाई अपने राज्य के लिए दूर के दुश्मन से थी। यह नई लड़ाई अपना कहलाने वाले राज्य के भीतर अपनों ही के खिलाफ है और इन अपनों के भी कितने ही स्तर हैं। यमुना की एक लड़ाई अपनी सरकार के खिलाफ है, एक लड़ाई गाँव के उन लोगों के खिलाफ है जो छोटे-छोटे स्वार्थों में अंधे हो कर अपने ही दुश्मन बन गए हैं और एक लड़ाई उसे अपने ही घर के भीतर अपनी बहू से भी लड़नी पड़ती है। उसकी ब्वारी यानी बहू मीना नई पीढ़ी की प्रतीक है जो गाँव में रुकने को ही तैयार नहीं है जबकि यमुना चाहती है कि उसका बेटा मनोज अपने पिता की तरह नौकरी के लिए परदेस न जाए। यमुना गाँव के स्कूल के मास्टर संजीव की सलाह से, जो राज्य आंदोलन के दिनों का उसका परिचित है तथा मज़बूत संकल्प और जुझारू प्रवृत्ति के लिए उसका बहुत सम्मान करता है, मनोज के लिए बैंक से व्यवसाय वास्ते कजऱ् लेने की कोशिश करती है लेकिन सचिव और बीडीओ से लेकर बैंक मैनेज़र तक सभी आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं। बिना रिश्वत दिए बैंक-लोन पाने के लिए भी यमुना को लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ती है। इस संघर्ष का लाभ यह भी होता है कि यमुना को संजीव मास्टर के रूप में एक विश्वस्त सलाहकार मिल जाता है जो व्यवस्था की जटिलताएँ और उससे लड़ने के सम्भावित उपाय क्रमशः उसके सामने खोलता रहता है। खुद पर्दे के पीछे रहकर इस क्रूर व मारक तंत्र के खिलाफ संघर्ष के लिए यमुना का मानस तैयार करने वाले संजीव मास्टर के पात्र को लेखक ने बहुत समझदारी के साथ गढ़ा है।
बैंक के लोन से मनोज ने छोटी-सी डेरी खोल ली है। असन्तोष के बावज़ूद बहू साथ दे रही है। जब यमुना के निजी संसार में सुख की कुछ बूँदें बरसने को होती हैं कि तभी गाँव पर वज्रपात होता है। बुलडोजर के आने की सूचना के साथ यमुना और गाँव वालों के पैरों के नीचे से सचमुच ही ज़मीन सरकने लगती है।
बुलडोजर ने आते ही गाँव की नदी का किनारा तहस-नहस करना शुरू कर दिया है। अपनी नदी और पेड़ों पर बुलडोजर चलते देख लोगों के होश उड़ने लगते हैं और यमुना उसे रोकने के लिए पागलों की तरह बुलडोजर के आगे कूद पड़ती है। तब कहीं जाकर ग्रामीणों को पता चलता है कि सुदूर दक्षिण भारत की किसी कम्पनी को यहाँ बाँध बनाने का ठेका दिया गया है। लोगों के भारी विरोध के कारण उस समय बुलडोजर वापस भेज दिया जाता है और यमुना को लगता है कि "….अब कम्पनी वापस नी आएगी। इतनी जनता को देख कर देहरादून में जो लोग सत्ता की कुर्सी में बैठे हैं वे भी डर जाएंगे।" लेकिन मामला इतना आसान नहीं है। समझाता है संजीव मास्टर-"मामी, जिस सत्ता की आप बात कर रही हो, वह उद्दण्ड साँड जैसी होती है। वह जहाँ पर सींग गाड़ देता है, अपने लोगों की बर्बादी पर भी वह उसे हासिल करके छोड़ता है। हाँ, उसकी नकेल पूँजीपतियों के हाथ में होती है…. आपके यहाँ जो बुलडोजर आया है वह भी उसी विकास नीति के तहत आया है जो दिल्ली और देहरादून के हमारे राजनेताओं ने देश के विकास के नाम पर इन अमीरों के लिए बनाई है।"
संजीव की बातें सुनकर घबरा रही है यमुना लेकिन संजीव का मकसद लोगों को डराना नहीं है, उनका मनोबल बढ़ाना है, उनको संघर्ष के लिए तैयार करना है-"गरीब की एकता उसकी ताकत है और इसी ताकत से सत्ता भयभीत रहती है। आप सब एक हो जाएँ तो फिर कम्पनी ही क्या, देहरादून की सत्ता में बैठा कम्पनी का एजेण्ट, हमारा मुख्यमंत्री खुद भी बाँध बनवाने आ जाए तो वह बाँध नहीं बनवा सकता।"
तो ठीक है, नहीं बनने दिया जाएगा बाँध। अब यह एक गाँव का नहीं, आसपास के सभी प्रभावित गाँवों के अस्तित्व का सवाल बन जाता है। और शुरू होता है एक संग्राम। एक तरफ सीधे-सरल गाँव वाले हैं, दूसरी तरफ बड़ी कम्पनी है जिसके साथ समूचा प्रशासन और सरकार खड़े हैं। लोग एकजुट होते हैं, जुलूस, धरना, प्रदर्शन होते हैं। कम्पनी और प्रशासन तरह-तरह के हथकण्डे अपनाते हैं, गाँव वालों की एकता तोड़ने के प्रयास करते हैं, फुसलाते हैं, लालच देते हैं। लेकिन संघर्ष से जनता भी समझदार होती जाती है। गाँव वाले बाँध की सर्वे रिपोर्ट और कम्पनी के बारे में जानकारी माँगते हैं तो पता चलता है कि बहुत बड़ी साजिश रची गई है। बाँध के लिए तैयार प्रोजेक्ट रिपोर्ट में गाँवों का अस्तित्व ही नहीं दिखाया गया है। यानी जहाँ बाँध बनाना प्रस्तावित है, कागज़-पत्तर में वहाँ गाँव दिखाए ही नहीं गए हैं। किस बात का विरोध और कैसा विरोध !
साजिश की पोल खुलती देख कम्पनी और प्रशासन पैंतरा बदलते हैं और गाँव वालों से समझौता करना चाहते हैं। प्रशासन कम्पनी के मालिक को गाँव वालों के बीच लाता है और कहता है- ''माँग लो जो भी आपको चाहिए। कम्पनी के मालिक आपकी सब माँगें पूरी करने को तैयार हैं।''
यमुना जो जवाब देती है वह जनता की तरफ से एक ज़बर्दस्त चाँटा है प्रशासन और सरकार के गाल पर- "ये धरती, जंगल, खेत, ये हमारे पूर्वजों ने भौत मेहनत से बनाए हैं। इन खेतों को हमने इसलिए बचाए रखा कि वे हमारा पेट पालते हैं। हमारे गाँव के सब लोग इस जंगल के मालिक हैं। हम इनको प्यार, सम्मान और सुरक्षा देते हैं। ये हमको प्राण देते हैं….और आज एसडेएम साब एक आदमी को अपने साथ लाए हैं। और हमसे कै रे हैं कि हम इनके सामने अपनी माँग रखें। हम अपने गौं में, अपने घर पर ही माँगने वाले हो गए हैं…..और ये जिनको हम पैली बार देख रे हैं, वह हमारा दाता हो गया….हमारे गाँव, हमारे खेतों, हमारे जंगलों का और हमारी जिनगी का मालिक हो गया….यह कैसा नियाय है ?…."
बात लाख टके की हो लेकिन सुन कौन रहा है? उत्तराखण्ड की 'अपनी' सरकार, प्रशासन, बड़ी कम्पनियाँ, उनके एजेण्ट, सब मिलकर विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ने में लगे हैं। उन्हें आंदोलन को तोड़ना-कुचलना आता है। इस तंत्र का फौज-फाटा उनके साथ है। तो, जैसे-जैसे आंदोलन उग्र होता जाता है वैसे-वैसे दमन भी बढ़ता है। जो लालच और भय से नहीं मानते उन्हें जेल में ठूँस दिया जाता है। यमुना और कई ग्रामीण जेल में हंै और कम्पनी ने यमुना के पति को पंजाब से बुला कर उसे और उसके बेटे को कम्पनी में नौकरी दे दी है। कुछ और लोगों को भी इसी तरह पटा लिया है। इस खबर से यमुना को साँप सूँघ जाता है लेकिन वह टूटती नहीं। यहाँ उसके चरित्र को नई ऊँचाई मिलती है जब वह जेल में मिलने आए अपने पति का मुँह देखने से भी इनकार कर देती है-"इस आदमी से बोलो कि वह यहाँ से चला जाए। मैं इसका कभी मूँ नी देखूँगी।" वह कब से यह चाहती रही थी कि उसके पति को गाँव में ही कोई नौकरी मिल जाए और सब साथ में रहें लेकिन अपने गाँव, जंगल और जमीन की बर्बादी की कीमत पर तो कतई नहीं।
यहाँ से कथा अपने चरम पर पहुँचने लगती है और तेज़ी से घटनाएँ घटती हैं। बाँध का काम जारी है और आंदोलन भी। यमुना जेल से लौटती है तो बहुत बीमार पड़ जाती है। यहाँ लेखक ने बहुत मार्मिक प्रसंग रचा है। बहू मीना बीमार यमुना की मालिश कर रही है। उसे अपनी सास की जाँघों-स्तनों में नोंच-खसोट के पुराने घाव दिखाई देते हैं तो थरथराते हुए पूछती है- "ये क्या है जी?"
वेदना से भरी क्षीण मुस्कान यमुना के होंठों पर उभर आई- "यही है उत्तराखण्ड राज। यही है उत्तराखण्ड आंदोलन का हमारा सर्टीफिकेट…तभी तो इस राज में सजा भुगत री हूँ।'' यह सुनकर मीना के भीतर भी बहुत कुछ टूटता-बदलता है। पहली बार वह अपनी सास और उसके संघर्ष को समझना शुरू करती है।
एक और मर्मांतक प्रसंग आता है जब मीना के नन्हे बेटे, यमुना के पोते गमदी को, जिस पर वह जान छिड़कती है, बाघ उठा ले जाता है। यमुना की निजी दुनिया लुट जाती है। कम्पनी और प्रशासन इस कमजोर मौके पर यमुना को खरीदने की कोशिश में फौरन तीन लाख का चेक लेकर उसके आँगन में हाजि़र हो जाते हैं लेकिन यमुना अब तक परिपक्व आंदोलनकारी बन चुकी है। वह सारा खेल समझती है। असह दःुख के बावज़ूद वह भीतर से अपने सारे गहने लाकर तहसीलदार के हाथ में रख देती है- "यह आपकी सरकार के लिए हैं….अपनी सरकार से कैना साब, वो हमारी शांति लौटा दे। हमारे बच्चों का भविष्य लौटा दे।" मीना भी अपने दो टाॅप्स लाकर तहसीलदार को थमा देती है और सीना तान कर अपनी सास की बराबरी में खड़ी हो जाती है।
इस प्रसंग से लेखक कहना चाहता है कि 'अपनी सरकार' की जल-जंगल-जमीन और जन विरोधी नीतियों से आज उत्तराखण्ड की जनता इतनी आजि़ज़ आ चुकी है कि वह गिड़गिड़ाकर इस राज्य को वापस करना चाहती है। जिस राज्य को उसने बड़ी लड़ाई और बलिदान से पाया था, उसकी सत्ता पर काबिज़ हो गए नेता जनता को ही उजाड़ने पर उतारू हैं। नहीं चाहिए उसे ऐसा राज्य।
उपन्यास जहाँ खत्म होता है वह आज के उत्तराखण्ड की निर्मम सच्चाई है। भारी पुलिस बल ने गाँव को घेर लिया है। यमुना और उसके निकट लोगों पर संगीन धाराएँ लगाने की तैयारी है। संजीव मास्टर के रूप में 'असली मुज़रिम' की पहचान भी कर ली गई है जो जनता को सचेत करने का मास्टर का असली धर्म निभाता पाया गया। उसे कठोर सज़ा मिलना तय है।
त्रेपन ने आज के उत्तराखण्ड की सत्ता का, व्यवस्था का, विकास के जन विरोधी ढाँचे का और जनप्रतिनिधियों का असली चेहरा उजागर कर दिया है। इसी के साथ पोल खुलती है मीडिया की जो सच नहीं लिख/दिखा रहा, एनजीओ की जो बहती गंगा में हाथ धोने का ही काम कर रहे हैं और उन 'आंदोलनकारियों' की भी जो आंदोलनकारी का 'सर्टीफिकेट' हड़प कर अब राज्य की मलाई चाटने की जुगत में आगे-आगे हैं। उधर यमुना जैसी समर्पित और प्रतिबद्ध जनता की लड़ाई बाँध बनने से नहीं रोक पा रही है लेकिन उनकी लड़ाई जारी है। इस लड़ाई को और ज़्यादा व्यवस्थित, व्यापक और वैचारिक बनाने की तड़प के साथ उपन्यास पूरा होता है।
उपन्यास के 366 पेज कुछ अनावश्यक विस्तारों से भी भरे हैं। जैसे, शुरू के एक सौ पन्ने लुधियाना में गबरू के मालिक और यमुना की मनोचिकित्सा और गाँव वापसी के विस्तृत वर्णन में खर्च कर दिए गए हैं जबकि कथानक के चरमोत्कर्ष वाली घटनाएँ अंत में बहुत तेज़ी से समेट दी गई हैं। चुस्त सम्पादन से 50-60 पेज कम किए जाते तो कथानक में कसाव के साथ रवानी भी बढ़ जाती। गढ़वाली मिश्रित हिंदी उत्तराखण्ड के पाठकों को तो प्यारी लगती है लेकिन कई स्थानों पर उसकी अधिकता बाकी पाठकों के लिए दिक्कत पैदा कर सकती है। कुछ अशुद्धियाँ और काल-क्रम की विसंगतियाँ भी रह गई हैं लेकिन सबसे ज़्यादा असहमति मुझे उपन्यास के नाम पर है। 'हे ब्वारी' शीर्षक व्यवस्था से जनता के संघर्ष से भरे विशाल फलक वाले कथानक पर सटीक नहीं बैठता बल्कि लोक गीतों में बहुप्रचलित सम्बोधन 'हे ब्वारी' पाठक का ध्यान उधर भी भटकाता है। लेकिन त्रेपन ने कथानक इतना सशक्त उठाया है और उसे वास्तविक घटनाओं से इस तरह बुना है कि ये कमजोरियाँ ढकी रह जाती हैं।
लेखक के साथ-साथ प्रकाशक 'साहित्य उपक्रम' के विकास नारायण राय को भी ज़रूर बधाई दी जानी चाहिए कि इतना बड़ा उपन्यास सुंदर छपाई में उन्होंने मात्र 150 रुपए में उपलब्ध कराया है। उत्तराखण्ड में ही नहीं, देश में सभी जगह और व्यापक हिंदी समाज को यह उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए।
उपन्यास: हे ब्वारी / लेखक: त्रेपन सिंह चैहान / प्रकाशक: साहित्य उपक्रम, बी-7, सरस्वती कॉम्प्लेक्स, सुभाष चैक, लक्ष्मी नगर, दिल्ली-110092 / पृष्ठ-366, मूल्य- 150 रुपए
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