हरेले की चिट्ठी – 2015
अघा सबसे पहले तो मेरी स्यों स्वीकार कीजिये। अत्र कुशलं च तत्रास्तु। हरेले की चिट्ठी लिखने बैठा तो मन में डर का भाव भी आया, क्योंकि नैनीताल समाचार का संपादक मंडल जरा धीर, गंभीर किस्म का है और इधर आधी से ज्यादा उम्र घर से बाहर भटकने के बाद भी मेरे भीतर कुछ 'सल्टियापन' बचा रह गया है। दिन में एकाध बार किसी को मरच्याणी भाषा में खरी-खोटी सुनाकर रीस नहीं फेर लेता, रात को भूख नहीं लगती। अतएव मुख में फचक मार-मार कर चिठ्टी लिख रहा हूँ। फिर भी कहीं खौंसेन जैसी आ ही जाए तो नादान समझ कर माफ कर देना हो !
संपादकज्यू अगर मैं भूल नी रहा तो हम सब इस बार अपना अड़तीसवाँ हरेला मना रहे हैं। क्या-क्या नहीं देख लिया हमने इन अड़तीस सालों में ? हम जवान से बूढ़े हो गए। बार-बार अपने भीतर से उमड़ती अच्छे भविष्य की उम्मीद, फिर मोहभंग; फिर उम्मीद और फिर मोहभंग के क्रम से गुजरते हुए हम 2015 के हरेले तक आ गए हैं।
इस हरेले में भी हम अच्छी बारिश के साथ पहाड़ के डाँड्यों-काँठियों में उमगती हरियाली, फसलों से भरे; खेतों, जिनकी तादाद कम होती जा रही है; गाड़-गधेरों, नौलों-धारों, तालाबों में पानी; घसियारिनों के चेहरों पर चमक और गोरू-भैंसों के थनों से उतरते दूध का स्यौंण देख रहे हैं। देख रहे हैं कि एक अच्छी बारिश हमारे नालों, और नदियों में बजबजाती गंदगी को बहा ले गई है। देख रहे हैं कि पहाड़ों के साथ हमारे मैदान भी लहलहा रहे हैं, फलफूल रहे हैं।
लेकिन संपादकज्यू, पुराने दुःस्वप्न तो हमें डरा रहे हैं। यद्यपि मौसम विभाग औसत से कम बारिश की बात कर रहा है, लेकिन उत्तराखंड तो अतिवृष्टि में रड़ता, बगता, डूबता और उजड़ता ही रहा आज तक! अंधाधुंध निर्माणों के कारण हमारे सभी शहरों का जल निकासी तंत्र ध्वस्त हेा चुका है। इस चौमास में इनके मैले तालाब में बदलने और बीमारियाँ फैलने की आशंका बनी हुई है। पता नहीं हमारे सपने सच होंगे या उन पर ये दुःस्वप्न उन पर भारी पड़ेंगे ? राजनीति, सत्ता और प्रशासन का चरित्र और हमारे अब तक के अनुभव तो ज्यादा उम्मीदें जगाते नहीं।
संपादकज्यू, यह लिखते हुए मेरे भीतर अंतर्राराष्ट्रीय राजनीति का उमाव भी आ रहा है कहा, जिसे बिना कागज पर उतारे चिठ्ठी आगे नहीं बढे़गी। इस बात को मैं शायद हजारवीं बार कह रहा हूँ कि लगभग एकध्रुवीय हो चुकी इस दुनियाँ में बाजारवादी देशों को समय-समय पर आईना दिखाने वाले रूस, चीन के समाजवादी राज्य कब के ढह चुके। ये देश आर्थिक-सामाजिक उपलब्धियों के शानदार रिकार्ड बना कर साबित करते रहते थे कि यारो, सारे काम पैसे से और पैसे के लिए नहीं किए जाते। जनपक्षीय राजनीति और मानवश्रम ऐसी बेजोड़ ताकत है, जिनसे बड़े-बड़े काम किये जा सकते हैं। शर्त सिर्फ जनता का विश्वास जीतने की है। सोवियत रूस ने जार के शासन से मुक्ति के 13 साल बाद अपना आखिरी रोजगार पंजीयन दफ्तर बंद कर दिया था। चीन ने 1948 में आजादी हासिल कर 1965-70 तक प्रति परिवार 400 किलो राशन की गारंटी कर दी थी। अपराध नियंत्रण और जन स्वास्थ्य के उत्थान की इनकी उपलब्धियोँ को समाजवाद के आलोचकों तक ने सराहा था। लेकिन समाजवादी राजनीति को तिलांजलि देकर ये भी अब विश्व बाजार और उदारवादी विश्व अर्थव्यवस्था की घपरोल में शामिल हो चुके हैं, जिसके नतीजे देर-सबेर ये भुगतेंगे। बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी ?
संपादकज्यू, विश्व बाजार और विश्व व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी है। मध्य एशिया में चीन को टर्की से जोड़ने वाला रेशम मार्ग सात सौ वर्ष से ज्यादा पुराना बताया जाता है। भारत के पूर्वी एशिया से सामुद्रिक और पश्चिमी एशिया से स्थलीय व्यापारिक संबंध सदियों पुराने हैं। लेकिन जिस विसंगत, बेढब और हिप्पोक्रेट दौर में आज क कॉर्पोरेट विश्व बाजार है उस पर मुझे अपने नैनीताल-ओखलकांडा के लोक कलाकार मास्टर ताराराम की टोली का एक गीत बार-बार याद आता है- ''दस रुपैं बिलौजा बीस रुपैं बटना, देखि ल्यौ इजा बौज्यू आपणि ब्वारि-लछना।'' गीत में बेटा माँ-बाप से शिकायत कर रहा है कि तुम्हारी लाई यह बहू तो दस रुपए के ब्लाउज पर बीस-बीस रुपए का एक बटन टाँक रही है।
संपादकज्यू इस ब्वारी को जेंडर बायस से थोड़ा अलग करके देखा जाए तो तुम्हीं बताओ कि क्या हमारी कॉर्पोरेट अर्थ व्यवस्था इसी बिलौज-बटन फार्मूले पर काम नहीं कर रही है ? कपड़े से ज्यादा खर्च बटन पर, उत्पादित माल की गुणवत्ता से ज्यादा खर्च विज्ञापन पर, श्रम की प्रक्रिया से ज्यादा खर्च मैनेजरी शानशौकत और ठसके पर किए जा रहे हैं। आम जनता की जेबों में पैसा आ नहीं रहा तो उत्पादित माल खरीदे कौन ? पैसा आया भी तो अपनी जरूरत से ज्यादा कोई क्यों खरीदेगा ? नतीजा मंदी, उद्योगबंदी और बेरोजगारी। हमारे उद्योगपति और कॉर्पोरेट घराने कभी भी जनता की जरूरतों के आधार पर उत्पादन नियोजित नहीं करते। यदि एक को किसी चीज में फायदा हो गया तो सारे उद्योगपति उसी चीज में पैसा लगाने दौड़ पड़ते हैं, नतीजा होता है अति उत्पादन और माल डंपिंग। अब कपड़ा बाजार को ही लें। कोई आदमी साल में चार-छः जोड़े कपड़ों से काम चला लेता हैं। और कितना ही पहनो, ये साल दो साल चल जाते हैं। लेकिन सैकड़ों कारखाने दिन-रात कपड़ा ही उगलते रहेंगे तो क्या होगा ? लोग दस-बारह कमीजें, पैंट-कोट एक साथ पहनना तो शुरू नहीं कर देंगे। तो इतना कपड़ा उत्पादन क्यों ? यही हाल बिस्कुट कारखानों का है। भारत का आदमी दो समय दाल-रोटी, सब्जी खाता है। दर्जनों बड़ी कंपनियाँ बिस्कुट बनाने में लगी हुई हैं। इनका उत्पादित आधा माल दूकानों में पड़ा सड़ रहा है। नतीजा अति उत्पादन के कारण उद्योग को घाटा या बाजार में मंदी। इसका प्रत्यक्ष उदारहण उत्तराखण्ड का सिडकुल है। यहाँ की तराई की जरखेज जमीनें मिट्टी के मोल उद्योगपतियों को दे दी गईं। सरकारी रियायतें पचाकर, मजदूरों का शोषण कर उद्योगपतियों ने कम से कम पाँच साल मुनाफा कमाया। अब रियायतें खत्म हो रही हैं। लेकिन उद्योगबंद होने के कगार पर हैं। पूर्णकालिक मजदूर अंशकालिक बन गए है। महीने में तीन या दो सप्ताह कारखाने चलते हैं। संपादकज्यू क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि हम कपड़ा, बिस्कुट और अन्य साधारण चीजें बनाने का लाइसेंस बडे़ उद्यमियों को देते ही नहीं ? ये काम तो हमारे राज्य के हैंडलूम्स और बेकर्स पचासों साल से करते आए हैं। उन्हीं को करने देते। बड़े उद्योगपति करते रहते अपने बड़े-बड़े काम।
इधर बड़ी कम्पनियों ने माल बेचने का एक नया टोटका निकाला है। दस या बीस परसेंट माल फ्री वाला। आप चिप्स, बिस्कुट, तेल और अनेक डिब्बाबंद आइटमों में फ्री का यह ऑफर पढ़ सकते हैं। चाहे जरूरत न हो तो कर्ज लेकर भी बीस परसेंट फ्री वाला आइटम खरीद डालिए। माल ए-मुफ्त दिले बेरहम। चाहे उस फ्री में जहर ही क्यों न मिला हो। संपादकज्यू यह है अर्थशास्त्र की भाषा में 'पूर्ति' का 'माँग' की चुई पर सवार होकर ट्विस्ट करना।
संपादकज्यू मीडिया द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार पिछले साल तीस से पैंतीस हजार करोड़ रुपए खर्च कर और 'अच्छे दिन आयेंगे' का नारा देकर पूर्ण बहुमत के साथ मोदी जी की सरकार दिल्ली की सत्ता पर बैठ गई है। मैं तभी से आँखें कताड़-कताड़ कर रोज चारों ओर अच्छे दिनों को ढूँढ रहा हूँ। कम्बख्त कहीं दिखते ही नहीं। रेलवे का प्लेटफार्म टिकट 5 से 10 रुपये हो गया। गैस पर सब्सिडी खत्म करने का अभियान चल रहा है। अनाज, दूध, दालों और तेल के भावों में कोई कमी नहीं है। बिजली पानी की दरें बढ़ रही हैं तो मकानों की लागत और किराए भी। गाँवों, शहरों में मजदूरों, रिक्शा चालकों, खोखे-ठेली वालों और बसों के ड्राइवर-कंडक्टरों का जीवन कठिनतर होता जा रहा है। दस्तकारों और किसानों की हालत खस्ता है। किसानों की आत्महत्या की खबरें आप पढ़ते ही होंगे। हर साल शीत-लहर और लू में मरने वालों की तादाद बढ़ रही है। क्या मुझे इन सब को न देख कर गांधी जी के एक बंदर की तरह आँखें बंद कर लेनी चाहिए ?
संपादकज्यू, मैं बनारस से संस्कृत पढ़ कर आया कोई शास्त्री टाइप आदमी कतई नहीं हूँ, जो संस्कृत में निहित पुराने शानदार साहित्य और ज्ञान को परे ढकेल कर उसे केवल कर्मकाण्ड का जरिया बना लेता है। मैं तो मीडिया चैनलों पर एक्सपर्ट कमेंट देने वाला राजनीति शास्त्री या अर्थ शास्त्री भी नहीं ठहरा। पर साधारण आदमी के रूप में अपने देश राज्य के हालात पर सोचता हूँ और अपने शासकों की सोच पर हैरान हो जाता हूँ। अब अपने मोदी साहब को ही लो। वे देश में बुलेट ट्रेन चलाना चाहते हैं। देश की सैकड़ों रेलों में साधारण डिब्बों में करोड़ों लोगों को भेड़-बकरी की तरह ठुंसकर यात्रा करते सब देख रहे हैं। क्या हमें उन्हीं रेलों के स्तर में कुछ सुधार कर साधारण डिब्बों की संख्या नहीं बढ़ानी चाहिए ? पर अपने प्रधानमंत्री जी के दिमाग में दौड़ रही बुलेट ट्रेन को कौन रोक सकता है ?
संपादकज्यू, 2013 में आई केदारनाथ आपदा के घाव अभी तक भरे नहीं हैं। आपदा राहत के लिए इस राज्य को देश दुनियाँ से मिली रकम का कोई हिसाब-किताब अभी तक सरकार ने जनता के सामने नहीं रखा हैं। उधर सूचना अधिकार के तहत आपदा राहत के धन से अफसरों कर्मचारियों के मटन- चिकन और शाही पनीर खाने की खबरें लोगों ने सुन-पढ़ ली हैं। अपने मुख्यमंत्री हरीश दाज्यू ने मटन-चिकन को स्वाभाविक भोजन बता दिया तो हम मान गए थे। वैसे ऐसे नाजुक मौके पर अफसर कर्मचारी दाल-रोटी से भी काम चला लेते तो क्या बिगड़ जाता ? इससे उनकी संवेदनशीलता ही पता चलती। लेकिन संसार के दो नए आश्चर्यों की खोज इसी राहत के गडबड़ झाले में हुई है। एक, आपदा आने से पहले ही राहत मिल जाना। दो, राहत कार्य खत्म पहले हो जाना और शुरू बाद में होना। मेरी अक्ल बुरी तरह चकराई हुई है। मैं यह नायाब तरीका सीखना चाहता हूँ, जिसमें काम शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया जाता है। उत्तराखण्ड के अफसर-कर्मचारी शायद अल्बर्ट आइंस्टीन की टाइम और स्पेस थ्योरी से आगे की कोई खोज कर लाए हैं या फिर उन्होंने प्रसिद्ध लेखक एच. जी. वेल्स के उपन्यास 'टाइम मशीन' की टाइम मशीन खोज ली है, जिस पर बैठ कर वे वर्तमान से भूत काल और वहाँ से फौरन भविष्य काल में चले जाते हैं। इसके लिए राज्य सरकार को उन्हें प्राइज देना चाहिए।
हमारी राज्य सरकार इस बात पर प्रमुदित है कि उसने चारधाम यात्रा शुरू करा दी। चलो धार्मिक पर्यटन अखंड बना रह गया। लेकिन मेरी तुच्छ अक्ल कहती है कि धार्मिक पर्यटन उत्तराखण्ड जैसे संवेदनशील पर्वतीय राज्य में स्थाई इकोनॉमी का जरिया नहीं बन सकता। यह कुछ ऐसा ही फंडा है जैसा कि भारत को आर्यावर्त और महान अतीत वाला देश और अध्यात्म में जगद्गुरु बता कर उसके भीतर मौजूद शोषण, लूट, भ्रष्टाचार, धूर्तता, अकालमृत्युओं और गाँवों-शहरों में बजबजाती गंदगी पर परदा डाल दिया जाए और जनता के मन में आत्मदंभ का यह विशाल गुब्बारा फुला कर गंभीर सामाजिक आर्थिक समस्याओं से उसका ध्यान हटाया जाए। इस गुब्बारे की आड़ में हमारे शासक आजादी के बाद 68 सालों की असफलताओं की गठरी समेटे पतली गली से निकल लेते हैं।
भारत को आर्यावर्त घोषित करने की ही तर्ज पर उत्तराखण्ड को भी देवभूमि घोषित किया जाता है। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि हमारा उत्तराखण्ड देवभूमि है या नहीं ? मैं देश की सर्वाधिक सम्मानित नदी गंगा के उत्तराखण्ड से निकलने पर गर्व करता हूँ लेकिन आपकी गवाही में उससे आज कुछ सवाल भी पूछना चाहता हूँ। ''माँ गंगे, उत्तराखण्ड का जो पर्वतीय भाग तुम्हारा मातृ-पितृ प्रदेश है, उसके अंचल में तुमने ऐसे कितने मैदान बिछाए हैं जिनमें कम से कम इतना अनाज होता कि तटवर्ती निवासी सालभर खा सकते ? माँ गंगे तुम पहाड़ का मिट्टी-पानी तो मैदानों को सार ही ले गई, तुम पर बनी विद्युत परियोजनाओं का भी फायदा नोएडा, दादरी, गाजियाबाद के उद्योगपतियों को ज्यादा मिला। तुम्हारे किनारे ऋषिकेश, हरिद्वार के आश्रम तो जरूर फले-फूले, तुम्हारी नहरें मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की, लक्सर के किसानों को पानी दे र्पाइं (हमें उनसे कोई ईर्ष्या नहीं), लेकिन तुम्हारा अमृत जल दुर्गम पर्वतों के खेतों पर भी किसी विधि से पहुँच जाता तो वे भी शस्य श्यामल हो उठते। तुमने अपने सुपुत्र शासकों के दिमाग में ऐसी कोई युक्ति क्यों नहीं भरी ? अभावग्रस्त उत्तराखण्डी 'हर हर गंगे' तथा 'देवभूमि-देवभूमि' के जाप से कब तक काम चलाते रहेंगे ?
हमारे देश व राज्य के कर्णधारों ने विकास के कुछ खास फार्मूले सैट कर रखे हैं। इनमें हैं- बुलेट ट्रेन, बड़े नगर, बड़े शापिंग मॉल, लग्जरी अपार्टमैंट, चौड़ी सड़कें और उन पर जाम लगाती कारें, बडे़-बड़े बाँध, बडे़ अखबार, मनोरंजन चैनल, सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ वगैरह वगैरह। इनमें हैं कमीशन, शान शौकत, अरबपतियों से निकटता, चुनाव खर्च और चंदा वगैरह वगैरह। इनमें साधारण और छोटा आदमी कहाँ आता है ? आता भी है तो आधे अधूरे मन से चलाई जा रही कुछ सरकारी योजनाओं में, बस। एक बार को मान लिया कि हमने भरपूर औद्योगिक विकास किया। पर प्राप्त आय के उचित वितरण में फेल क्यों हुए ? हमने प्रचुर अन्न उगाया, पर अपने बीजों की दर्जनों किस्में कैसे खो दीं ?
ओ हो संपादकज्यू, जैवविविधता की बात पर मुझे अपना बचपन याद आ गया। क्या पता हमारे अनुभवों की थाती से निकलीं नसीहतों की कुछ रणक हमारे भाग्यविधाताओं के कानों में पड़ ही जाये। मैंने स्कूल जीवन के छः साल अपने माकोट (अल्मोड़ा जिले की सिलोर पटटी के बिसौणा गाँव) में बिताए़ और देवलीखेत इंटर कालेज से इंटर पास किया। मगर स्कूल में जितना पढ़ा, उससे ज्यादा ज्ञान हमें घर के भीतर हासिल हुआ। हम राते (सफेद) या लाल गेहूँ या मडुए की रोटियाँ, लासण के लूण के साथ, लाल धान उर्फ डनसाव, उर्फ जंगली धान या झंगोरे- कौणी का भात, झोई, चुरकाणी, गहत, पहाड़ी सोयाबीन या मास की दाल या डुबके के साथ, छँछिया, राँजड़, गाँजड़, भटिया बनाते और खाते थे। छर्या (छोटे) आलू का सैंछिकल (छिलकायुक्त) साग, लोहोट (बाहर गेहूँ व भीतर मँडुए का आटा) अथवा लेसुआ (गेहूँ मँडुआ मिक्स्ड) रोटी के साथ खाने में षट्रस व्यंजन का मजा देता था। यही तासीर पहाडी मूली के थेचुए के साथ रोटी की होती थी। न तो हम हर घड़ी किताब चाटते रहने वाली दीमक थे और न अंगे्रजी माध्यम स्कूलों के पप्पू। हम पढ़ने के साथ सारे कामों में घर और गाँव वालों का हाथ बँटाते थे।
सम्पादकज्यू, मेरे माकोटी उपाध्याय छोटी धोती वाले मेहनती बामण थे। मेरे बूढ़े नाना और दो छोटे मामा हल चलाते थे, पर मेरी प्रबल इच्छा के बावजूद उन्होंने मुझे हल में हाथ नहीं लगाने दिया। तब मैंने उनकी नजर बचाकर अपने हलिया हरदा को गुरु बना कर जोव (पाटा) और दनेला लगाना सीख लिया। मैंने पिनालू गोड़ा, आलू बोया और खोदा, गेंहूँ का बीज बोया, घास और पउवा (बाँज की कोमल पत्तियाँ) काटे, लूटा लगाया, गोरू-भैंस चराए, लकडि़याँ बीनीं, काटीं और फाड़ीं। हम बच्चे बैल जोड़ कर दैं लगाते, लट्ठ से अनाज चूटते, उसे ओसाते और भकार में भरते थे। मैंने लीसा खोपने में भी हाथ आजमाया, दूध-भाती के फूल टीप कर सुखाए, बेचे और 'पाकिटमनी' कमाया। मेरे मामा लोग कुछ तिल भी उगाते थे। मेरी मामियाँ जब तिल को उखोव (ओखली) में कूट कर लुग्दी बना लेतीं तो उससे तेल निकालने का काम मेरी और ममेरी बहिनों का होता। ईनाम में हमें तिल का पीठा खाने को मिलता। पानी कम होने के बावजूद हम लोग घर की बाडि़यों में मिर्च मडुआ, चिचंडा, तोरई, कददू, छिमी आदि उगा लेते। सब्जियों की सिंचाई और पशुओं व परिवार के लिए इतना पानी सारा (ढोया) कि मेरी चुई में आज भी बाल कम हैं। बीमार पिता को साथ ले कर माँ भी माकोट आ गई तो बुबू ने हमें एक मकान और थोड़ी जमीन दे दी। तब मैंने मुर्गीपालना, गाय दुहना और खाना पकाना सीखा। चकला-बेलन से गैस के चूल्हे पर रोटी पकाना मुझे आज भी अटपटा लगता है।
मेरे नाना गाड़ीवान थे- बैलगाड़ी के ड्राइवर और मालिक। मेरे जन्म से पहले वे अन्य परिवारों के साथ जत्थों में बैलगाड़ी पर बैठ कर करीब चार महीनों के लिए रामनगर के जंगलों में किसी खत्ते पर चले जाते। गर्मियों में वापस पहाड़। उन्होंने मुझे जानवरों के स्वभाव और घास की किस्मों के बारे में बताया। आमा ने अपना वारिस समझ कर एक बार मुझे बिखुड़े (बिदके) गाय-भैंसों की हाक मंतरना सिखाया, रौंखाई (नजर उतारने का मंत्र) भी सिखाई। पर उन्हें कागज पर उतारने के बावजूद मैं इस काम में नालायक सिद्ध हुआ। हाक का एक भी मंतर या रौंखाई की एक भी 'कानी' मुझे पूरी याद नहीं हुई। आज सिर्फ पहली कानी के कुछ जुमले, ''उन नमो, काँवर दिशा, काँवर दिशा की कमंछा देवी, जहाँ बसै अस्मैल जोगी, अस्मैल जोगी ने बोई बाटी, जहाँ एक फूल चुऐ नौना चहुँमारी…'' आदि ही मुझे याद रह गये हैं। मैंने चैत के पूरे महीने झोडे़ सुने और गाये हैं। महेन्द्र कपूर जैसी कोमल, गहरी और ऊँची रेंज की आवाज रखने वाले इलाके में मशहूर जगरिया शेरराम जी की गैली (ग्वेल की जागर) सुनी है। ''सलाम, सलाम, सलाम तेरी घोड़ी की खुटी… गाते हुए जब उनका हुड़का थाली पर सिणुकों की चोट के साथ ग्वेल देवता का आह्वान करता तो मन-प्राण जाग उठते। ये तंत्र-मंत्र हमारे पर्वतीय जीवन में आए कहाँ से ? जिन पहाड़ों पर केवल दुर्गमता के कारण बीमार लोग कष्ट पाते हुए मरने को विवश हों, वहाँ लोगों से ये अंधविश्वास छुड़ा लिए जाएँ तो जीवन से उनकी आस्था ही मिटने का खतरा है।
चालीस साल पहले घर-गाँव के उत्पादक कामों में भाग लेते हुए हम बच्चे, मिट्टी, अनाज, वन्य उत्पादों, कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, वस्तुओं और मनुष्य की आपसी निर्भरता और कलाओं का ज्ञान हासिल करते थे। यह कहने में कष्ट हो रहा है सम्पादक ज्यू कि हमारे समाज की ये जो विविधताएँ हमारी ताकत बन सकती थीं, हमारे विकास के दावेदारों की नजर में कभी नहीं रहीं। वरना वे इनके सकारात्मक पक्षों को समझ कर इन्हें संरक्षित और विकसित करते। इन्हें अपनी आर्थिकी अथवा शैक्षिक पाठ्यचर्या का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाते। मगर वे तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय बनने की होड़ में पूरी तरह भूल गए कि स्वस्थ तरीके से स्थानीय हुए बिना आप कुछ भी नहीं हो सकते। उन्होंने हमेशा पूंँजी सुविधाओं व संसाधनों का प्रवाह पहाड़ से ज्यादा मैदानों, गाँव से ज्यादा शहरों और गरीबों से ज्यादा अमीरों पर केन्द्रित किया। उन्होंने प्रोपर्टी डीलिंग, रीयल एस्टेट कारोबार, दलाली, ठेकेदारी और घटिया मनोरंजन को बढ़ावा दिया। ऐसे में लोग पहाडों से मैंदानों को और गाॅवों से शहरों को नहीं भागेंगे तो क्या करेंगे ?
ओ हो संपादकज्यू, एक हरेले की चिठ्ठी ने मुझे कहाँ से कहाँ भटका दिया। चिट्ठी लंबी हो रही है, लेकिन मन का उमाव थम नहीं रहा है। कोई समझेगा कि रिटायरमेंट के बाद यह बौली जैसा गया है करके। अब तो हरेले की यह छूत उत्तराखंड सरकार को भी लग गई है बलि। सुना है कि हरेले को राज्य भर में हरेला अभियान के तौर पर मनाया जायेगा और कुछ ईनाम-सिनाम भी दिया जायेगा करके। कहीं घर-घर में श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाने वाला यह लोकपर्व स्कूलों के रिजल्ट की तरह फर्स्ट, सेकिन्ड, थर्ड आने की होड़ाहोड़ी में नहीं फँस जायेगा सम्पादकज्यू ? जल, जंगल और जमीन के सवालों पर कोई मुकम्मिल जनहितकारी पॉलिसी बनाए बिना यह एक अनुष्ठान भर ही तो रह जायेगा।
संपादकज्यू, वैसे संसाधनों की अपने देश राज्य में कोई कमी नहीं ठैरी। अपने उत्तराखण्ड को ही ले लो। मेरी कमअकल कहती है कि उत्तराखण्ड के एक डांडे के पत्थर ही ढंग से बेचे जाएँ तो सरकार को बड़ी से बड़ी योजना चलाने के लिए भरपूर पैसा मिल सकता है। हम सारे उत्तर भारत को पानी देते हैं और हमारे गाँव सूखे और प्यासे रह जाते हैं। हमारे वनों में सर्वाधिक वानस्पतिक विविधता है, पर हम हर साल वनाग्नि बुझाने वाले बजट पर नजर गड़ाए रखते हैं और उसे खर्च करने से ज्यादा खास कुछ नहीं कर पाते। वन विभाग रास्ता चलते मुसाफिरों से कहता है- ''जाग मुसाफिर जाग, रोक वनों की आग।''। मेरा कहना है भाइयो, मुसाफिर तो सदा का जागा हुआ है तभी वह रास्ते पर चल रहा है। सोये हुए शायद आप हैं, अपने दफ्तरों की कुर्सियों पर। आप जागें तो कुछ बात बने। मुसाफिर तो साथ आ ही जाएगा। क्या राज्य का वन विभाग देहरादून के एफ.आर.आई. और पंतनगर विश्वविद्यालय को साथ लेकर उत्तराखण्ड को 'हर्बल हब' और 'हार्टीकल्चर हब' बनाने जैसी कोई योजना प्रस्तुत नहीं कर सकता, जिसमें यहाँ के लोक और सामान्यजन की संपूर्ण भागीदारी हो ? छोटी-छोटी योजनाएँ, छोटी-छोटी पूँजी, छोटे साधारण लोगों की भागीदारी और नियंत्रण, सहयोग और अंतिम नियंत्रण सरकार का। नीति बनाने से अमल तक पारदर्शिता हो, इरादे साफ हों तो क्या नहीं किया जा सकता ?
संपादकज्यू, सुना है गैरसैण या उसके आसपास अपने उत्तराखण्ड का विधानसभा भवन बनने जा रहा है। कैसा होगा यह ? कितना होगा इसका बजट ? क्या यह ए.सी., लग्जरी फर्नीचर और माईक वगैरह के तामझाम से मुक्त एक आरामदेह पर साधारण हालनुमा भवन नहीं हो सकता, जिसमें बैठकर जनप्रतिनिधि नीतियाँ बनाएँ। जब ग्रामसभा की सामान्य बैठक में बैठकर साठ-सत्तर आदमी एक दूसरे की आवाज सुन सकते और फैसले ले सकते हैं तो हमारे विधायक मंत्री और अफसर क्यों नहीं ? भवन के भीतर नीतिगत निर्णय हों और भवन के रोशनदानों पर घिनौड़े, घुघुती, सिटौले घोंसले बना सकें, अण्डे दें और बच्चे पाल सकें। उन्हें इसकी छूट हो। ऐसी साधारण विधानसभा ही इस साधारण लोगों के राज्य के लिए सफलतापूर्वक काम कर सकती है यह सारे देश के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करेगी। अपने मुख्यमंत्री हरीश दाज्यू इस बाबत क्या सोचते हैं, नहीं मालूम।
संपादकज्यू बहुत लिख गया। खूब भड़ाँस निकाली। अब चिठ्टी समाप्त भी करनी चाहिए। अपनी सेहत का ध्यान रखिएगा। हरेले की तरह आप, आपके संपादक मंडल के सब सदस्य, नैनीताल समाचार के पाठक, संवाददाता, शुभचिंतक, इस देश-समाज और राज्य का भला सोचने वाले सब जन हरे-भरे रहें। सबको मेरी ओर से कुमाउनी में हरेले की यह आशीष स्वीकार हो-
जी रया, जागि रया, दिष्टिया, पनपिया, दुबै कसि जड़ है जौ, अकास जस उच्च कपाव है जौ, स्याव जसि बुद्धि है जो; पर चालाक झन बणिया, हाथि जस बलवान है जया,स्यों जस स्फूर्तिवान बणिया। सब सदा सुखी रया।
इस आषीश के साथ सबको नमन। भूलचूक माफ कीजिएगा।
आपका एक पुराना दगडि़या
मदन मोहन पाण्डे
जबरन राजधानी बना दिये गये देहरादून से
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