संगे - बुनियाद -2
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ये हैं धर्मा नन्द नौटियाल उर्फ़ संत जी । टिहरी गढवाल ( उत्तराखंड ) के एक सुदूर लेकिन सुरम्य स्थल बूढ़ा केदार में पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में कभी संत जी का जन्म हुआ । उनके पिता अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण साहूकार थे । पिता के बाद जब व्यवसाय की कमान संत जी के हाथ में आई , तो उन्होंने सारे देनदारों का कर्ज़ माफ़ कर दिया और पुश्तैनी दूकान भी बंद कर दी । स्वाधीनता संग्राम के दिनों वह कांग्रेसी पृष्ठ भूमि के थे , पर आजादी के बाद गांधी - विनोबा के रास्ते चल पड़े । भूदान में अपनी भूमि भी दान दी । प्रसिद्द बूढ़ा केदार मन्दिर में दलितों का प्रवेश कराया तो सवर्णों ने जूतों का प्रसाद दिया । संत जी यहीं नहीं रुके । उन्होंने गाँव के एक दलित भरपूरु लाल और एक राज पूत बहादुर सिंह के साथ संयुक्त परिवार की परम्परा शुरू की । एक खानदानी ब्राह्मण की इस कार्रवाई पर रिश्तेदारों में कोलाहल मच गया । एक दलित , राजपूत और पुरोहित की रसोई इकट्ठा पकती थी । खेत साझा थे । आज से 50 वर्ष पूर्व यह एक विरल घटना थी । संत जी ता उम्र सत्ता के मोह से दूर अपने गाँव में रह कर खेती और 500 रूपये प्रतिमाह पर गुज़ारा करते रहे और खुश रहे । यह वजीफा उन्हें हरिजन सेवक संघ से मिलता था ।उत्तरा खंड के हर आन्दोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी रही । उन्हें सब लोग आदर से संत जी कहते थे । अभी 2 वर्ष पूर्व उन्होंने अपने गाँव में अंतिम सांस ली । जीवन भर खादी पहनते रहे । दहेज दावत वाली शादियों में नही जाते थे
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ये हैं धर्मा नन्द नौटियाल उर्फ़ संत जी । टिहरी गढवाल ( उत्तराखंड ) के एक सुदूर लेकिन सुरम्य स्थल बूढ़ा केदार में पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में कभी संत जी का जन्म हुआ । उनके पिता अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण साहूकार थे । पिता के बाद जब व्यवसाय की कमान संत जी के हाथ में आई , तो उन्होंने सारे देनदारों का कर्ज़ माफ़ कर दिया और पुश्तैनी दूकान भी बंद कर दी । स्वाधीनता संग्राम के दिनों वह कांग्रेसी पृष्ठ भूमि के थे , पर आजादी के बाद गांधी - विनोबा के रास्ते चल पड़े । भूदान में अपनी भूमि भी दान दी । प्रसिद्द बूढ़ा केदार मन्दिर में दलितों का प्रवेश कराया तो सवर्णों ने जूतों का प्रसाद दिया । संत जी यहीं नहीं रुके । उन्होंने गाँव के एक दलित भरपूरु लाल और एक राज पूत बहादुर सिंह के साथ संयुक्त परिवार की परम्परा शुरू की । एक खानदानी ब्राह्मण की इस कार्रवाई पर रिश्तेदारों में कोलाहल मच गया । एक दलित , राजपूत और पुरोहित की रसोई इकट्ठा पकती थी । खेत साझा थे । आज से 50 वर्ष पूर्व यह एक विरल घटना थी । संत जी ता उम्र सत्ता के मोह से दूर अपने गाँव में रह कर खेती और 500 रूपये प्रतिमाह पर गुज़ारा करते रहे और खुश रहे । यह वजीफा उन्हें हरिजन सेवक संघ से मिलता था ।उत्तरा खंड के हर आन्दोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी रही । उन्हें सब लोग आदर से संत जी कहते थे । अभी 2 वर्ष पूर्व उन्होंने अपने गाँव में अंतिम सांस ली । जीवन भर खादी पहनते रहे । दहेज दावत वाली शादियों में नही जाते थे
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