महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 182 में नदी, पहाड़ और समुद्र का प्रसंग आया है.गौर तलब है कि संयुक्त राष्ट्र की जलवायु संधि-पेरिस समझौता- में “पृथ्वी माँ” का जिक्र किया गया है. युधिष्ठिर के प्रश्न के उत्तर में भीष्म ने इस विषय में भरद्वाज मुनि-महर्षि भृगु संवाद का उल्लेख किया. महर्षि भृगु बोले- नदियां अव्यक्त तत्व की नसें और धमनियां हैं. प्राचीनतम समय से विश्व के लगभग सभी संस्कृतियों में पृथ्वी और नदी को "माँ" माना गया है.
नदियां बात करती है. नदियों का स्मृति कोष, सरकारों, संस्थाओं, कंपनियों और मनुष्यों के स्मृति कोष से बड़ी और गहरी है. नदियां पानी का पाइपलाइन नहीं हैं. 45 साल में पहली बार 18 जुलाई को यमुना के पानी ने ताज महल की दीवारों को छुआ. जुलाई के दूसरे सप्ताह में नदी ने अपने प्राकृतिक बाढ़ क्षेत्र को पुनः प्राप्त कर लिया. नदी दिल्ली की सड़कों से बहते हुए लाल किले की दीवारों तक पहुँच गई.
नदी को अपना पुराना रास्ता याद आ गया मगर सरकार को अभी तक राष्ट्रीय बाढ़ आयोग,1980 की सिफारिशें,राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग,1999, 1980 के आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए बनायी गयी विशेषज्ञ समिति, 2003 की सिफारिशें, प्रबंधन/कटाव नियंत्रण पर प्रधान मंत्री की टास्क फोर्स, 2004 की सिफारिशें और जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना, 2008 के तहत बने राष्ट्रीय जल मिशन व हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को कायम रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन की सिफारिशों की याद नहीं आयी है. राष्ट्रीय जल नीति, 2002 में बाढ़ मैदान इलाकों में गैर-संरचनात्मक उपायों को अपनाने की मांग की गई थी मगर सरकार असफल उपायों की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पा रही है.
दिल्ली के मामले में, एक के बाद एक बेपरवाह सरकारों ने यमुना के बाढ़ क्षेत्र को शहर का पिछवाड़ा मान मान लिया हैं. इससे प्रणालीगत अतिक्रमण, अनियोजित विकास और अदूरदर्शी शहरीकरण को बढ़ावा दिया गया है. जिससे नदी अवरुद्ध हो गई है और इसके बाढ़ के मैदानों पर अनुचित दबाव पड़ रहा है, जो किसी भी नदी पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं दिल्ली की बाढ़ कार्ययोजना लगातार गलत रही है.
भारत अभी मानसून के बीच में है. हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली उन राज्यों में से हैं, जहां रिकॉर्ड बारिश हुई है. भारत मौसम विज्ञान विभाग की शब्दावली में, दिल्ली में 3-10 जुलाई तक आठ में से पांच दिनों में 'अत्यधिक' और 'बहुत अधिक' बारिश हुई. 9 जुलाई को, 221.4 मिमी बारिश दर्ज की गई, जो पूरे जुलाई के औसत 209.7 मिमी से अधिक है. उत्तर भारत में आई विनाशकारी बाढ़ ने पर्यावरणीय संकट, शहरीकरण और भारत के बड़े शहरों को प्रभावित करने वाली बुनियादी ढांचागत खामियों को उजागर कर दिया है. पहाड़ी राज्यों की स्थलाकृति को देखते हुए लंबे समय तक बारिश, भूस्खलन का कारण बनेगी और जीवन और संपत्ति के लिए अत्यधिक खतरा पैदा करेगी. लेकिन परम्परागत तौर पर सरकारें, सरकारी और गैर सरकारी संस्थान निर्मित बाढ़ और जल-निकासी की समस्या और मानवीय त्रासदी के लिए किसी को उत्तरदायी और जवाबदेह बनाने से इनकार करती रही हैं. मरम्मत कार्यों और राहत कार्यों के लिए वार्षिक वित्तीय प्रवाह पर एक राजनीतिक सर्वसम्मति सी रही है.जब तक कि दोषी अधिकारी और संस्था को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता, तब तक न केवल अतीत की मूर्खता दोहराई जाएगी.
जुलाई की बाढ़ को नदी घाटी के सन्दर्भ में देखे बिना समग्र आकलन नहीं किया जा सकता है. संपूर्ण नदी घाटी की आवश्यकताओं, संसाधनों और प्राथमिकताओं को शामिल करने में ये सरकारी और गैर सरकारी संस्थान विफल रहे हैं.सरकार ने भूजल को रिचार्ज करने और बाढ़ को कम करने के लिए निष्क्रिय बोरवेल, उपेक्षित बावड़ियों और अन्य उथले जलभृतों को पुनर्जीवित करने की योजना बना रखा है. मगर ये काफी नहीं है. दिल्ली के 100 से अधिक बावड़ियों में से केवल 30 ही बचे हैं. दिल्ली के मास्टर प्लान 2041 में 3,600 हेक्टेयर बाढ़ के मैदानों को एक ऐसे क्षेत्र में रखने का प्रस्ताव है जहां विनियमित निर्माण की अनुमति होगी. ये वे क्षेत्र हैं जहां जल संचयन तंत्र दिल्ली के वर्तमान के साथ-साथ इसके भविष्य की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं- अल्पावधि में, यह बाढ़ को कम कर सकता है; दीर्घावधि में, यह शहर को पानी उपलब्ध करा सकता है. बाढ़ के मैदानों में भीड़ कम करना समय की मांग है. बाढ़ के मैदानों के किनारे निर्माण से भूजल का पुनर्भरण नहीं हो पाता है, जो बाढ़ को कम करने की सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक प्रक्रिया है.
इस बाढ़ को अतीत के पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है.ऐतिहासिक रूप से, यमुना को आर्थिक प्रगति के नाम पर अपने स्रोत यमुनोत्री से वज़ीराबाद तक कई हस्तक्षेपों का सामना करना पड़ा है. यमुना में सबसे पहला हस्तक्षेप 14वीं शताब्दी में फ़िरोज़ शाह तुगलक ने किया था जब उसने यमुनानगर में ताजेवाला नहर बनवाई थी. फिर 1830 में वहां ताजेवाला बैराज का निर्माण किया गया और बाद में एक बांध भी बनाया गया। यमुना में मानवीय हस्तक्षेप को 600 वर्ष से अधिक समय हो गया है, लेकिन हम अभी तक नदी को नहीं समझ पाए हैं.
हमारी नदियों व नदी घाटियों का परस्पर जुड़ाव है. गंगा और यमुना नदी का चालीस प्रतिशत हिस्सा साझा है. इसलिए यमुना पर कोई भी बात अनिवार्य रूप से गंगा घाटी के संदर्भ में की जानी चाहिए. कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां हमें यमुना में अधिक और गंगा में कम पानी मिलता है. इसलिए, गंगा जलग्रहण क्षेत्र के संदर्भ में यमुना को देखना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों के बीच कोई सीमा रेखा नहीं है.
हिमालय की नदियों को अभी पूरी तरह से समझा जाना बाकी है. विशिष्ट भू-आकृति विज्ञान संबंधी विशेषताओं और जटिल जलवैज्ञानिक विशेषताओं को देखते हुए,हिमालयी नदियों की पहेली के इंजीनियरिंग समाधान के लिए क्रांतिकारी और बहुस्तरीय कदम उठाने की जरूरत है.यमुना को यमुनोत्री ग्लेशियर से पानी मिलता है. इस ग्लेशियर के पिघलने की दर बढ़ गई है. इससे भारत के पूरे उत्तरी मैदानी इलाकों में नदियों में अतिरिक्त जल प्रवाह और बाढ़ का दौर शुरू हो जाएगा- मनाली में बाढ़ ने 100 से अधिक लोगों की जान ले ली है इसका एक उदाहरण है.
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने यमुना के लिए एक सिफारिश की है जो गंगा सहित हर नदी पर लागू होती है: नदी में कम से कम 23 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड पानी प्रवाहित होना चाहिए ताकि यह परिभाषा के अनुसार एक नदी बनी रहे. यमुना में यह पानी हथिनी कुंड बैराज से छोड़ा जाता है. हमारी सरकारें नदियों को पक्षपातपूर्ण नजरिए से देखने की आदी हैं. सरकारें नदियों को पाइपलाइन के रूप में देखती हैं.
1952 में तैयार की गई पहली पंचवर्षीय योजना में एक साहसिक बयान दिया गया था कि “बाढ़ के पानी को संग्रहित करने के लिए बड़े बांधों का निर्माण बाढ़ से होने वाली क्षति को रोकने का सबसे प्रभावी तरीका है.” इस नीति वक्तव्य के अनुसरण में, तत्कालीन केंद्रीय योजना और सिंचाई मंत्री ने 3 सितंबर, 1954 को संसद में दिए गए बयान में कहा,“मैं निष्कर्ष में यह विश्वास व्यक्त कर सकता हूं कि देश में बाढ़ को रोका और प्रबंधित किया जा सकता है”. दो साल के भीतर ही “विश्वास” ने “संदेह” के लिए जगह दे दी. मंत्री ने 27 जुलाई, 1956 को संसद को सूचित किया कि “अनेक प्राकृतिक शक्तियों के कारण अभूतपूर्व अनिश्चित स्थिति उत्पन्न होती है. अप्रत्याशितता के कारण बाढ़ से पूर्ण प्रतिरक्षा सुदूर भविष्य में भी संभव नहीं हैं. एक हद तक बाढ़ के साथ जीना सीखना होगा.”“बाढ़ नियंत्रण और बाढ़ प्रबंधन” के मुद्दे पर राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग दोहराता है कि “कोई सार्वभौमिक समाधान नहीं हैं, जो बाढ़ से पूरी सुरक्षा प्रदान कर सके” और भूवैज्ञानिक, भूकंपीय और जटिल समस्याओं के सन्दर्भ में “गैर संरचनात्मक नियंत्रण एवं बाढ़ प्रबंधन” की रणनीतिक तैयारी, प्रतिक्रिया योजना और बाढ़ पूर्वानुमान और चेतावनी की सिफारिश करता है.इन सिफारिशों के आलोक में जरुरी कदम नहीं उठाये गए. एकीकृत बाढ़ प्रबंधन दृष्टिकोण और भूमि उपयोग योजना, जल निकासी और बाढ़ के संबंध में सभी 11-12 पंचवर्षीय योजनाएँ की सिफ़ारिशों को अपनाने में विफलता ने एक सरकारी और गैर सरकारी संस्थान निर्मित आपदा और विस्थापन की स्थिति पैदा कर दी है.
बाढ़ नियंत्रण कार्य पर किए गए व्यय को उचित ठहराने के लिए 'बाढ़ संरक्षित क्षेत्र' के सामाजिक-आर्थिक विकास पर उनके प्रभाव का आज तक कोई मूल्यांकन नहीं किया गया है.सेंट्रल वाटर कमीशन ने अपने वार्षिक रिपोर्टों में यह स्वीकार किया है की समितियों की सिफारिशों को लागु करने में कोई खास प्रगति नहीं हुई है.
शहरी बाढ़ की आवर्ती घटना को रोकने के लिए हाइड्रोक्रेसी को विश्वसनीय विकल्पों के साथ आना होगा. वर्तमान जल-निकासी समस्या में हाईड्रोक्रेसी का भी योगदान हैं. राइन और म्युज़ नदियों को नियंत्रित करने में विफल रहने के बाद,नीदरलैंड्स की हाइड्रोक्रेसी इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि तकनीकी-बुनियादी ढांचे के उपायों के माध्यम से बाढ़ से पूर्ण सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती है.पारंपरिक तंत्र कथित 'तर्कसंगत' और विशेषज्ञ ज्ञान के आधार पर नीति-निर्माण निर्विवाद नहीं है.
जल निकासी समस्या और मानवीय त्रासदी पर एक श्वेत पत्र लाना चाहिए जो वर्तमान नीतियां द्वारा निर्मित संकट व दुष्परिणामों का निदान व समाधान करे और ऐसे समाधान को चिन्हित करे जिनसे बाढ़ प्रवण क्षेत्र में भारी वृद्धि हुई है.ऐसे समाधान ने नदियों द्वारा 'भूमि निर्माण' की प्राकृतिक प्रक्रिया को रोक दिया है.अतीत की सरकारों की शुतुरमुर्ग नीति अपनाने से बचने के लिए संसद की लोक लेखा समिति को अनुशंसा करनी चाहिए कि भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक बाढ़ नियंत्रण कार्य पर किए गए व्यय और समितियों की सिफारिशों को लागु करने में हुए प्रगति का मूल्यांकन करे और सरकार बाध्यकारी कदम उठाये.
हिमालयी देशों के जल ग्रहण क्षेत्र में हो रहे अदूरदर्शी हस्तक्षेप ने एक व्यापक हिमालय केंद्रित बहुदेशीय दृष्टिकोण को अपनाने की तार्किक बाध्यता पैदा कर दी हैं. भारत के स्तर पर गंगा नदी घाटी केंद्रित मास्टर प्लान के मसौदे की अनदेखी अक्षम्य है. जब जयराम रमेश केंद्रीय पर्यावरण मंत्री थे, तब गंगा नदी घाटी मास्टरप्लान तैयार किया था. इस संयुक्त अध्ययन में गंगा नदी घाटी के केवल 79 प्रतिशत हिस्से को संबोधित किया गया था. नदी से जुड़े समस्या का एकमात्र समाधान हमारी सभी नीतियां को- भूमि नीति, जल नीति, कृषि नीति, ऊर्जा नीति, परिवहन नीति, शहरी नीति, औद्योगिक नीति- नदी घाटी को केंद्र में रखकर बनाना है. जब तक आप नदी घाटी को केंद्रीय नीति निर्धारण के केंद्र में नहीं रखेंगे तब तक कुछ भी हल नहीं हो सकता.
भारत और चीन की संस्कृति में पृथ्वी और नदी को हमेशा से माता माना गया है. देर से ही सही अब जबकि धरती माता को एक अंतर्राष्ट्रीय कानून में मान्यता दी गई है, जरुरत इस बात की है कि हिमालय जल ग्रहण क्षेत्र कानून व व्यापक गंगा नदी घाटी कानून हिमालय और गंगा के नैसर्गिक अधिकार को पहचानें. समूचे हिमालय क्षेत्र को लेकर एक पर्यावरणीय अंतराष्ट्रीय कानून और पालिसी बने और गंगा के समूचे 100 प्रतिशत गंगा नदी घाटी क्षेत्र पर मास्टर प्लान बनाया जाय और सभी नीतियों और सभी योजनाओ व परियोजनाओं को हिमालय जल ग्रहण क्षेत्र कानून व व्यापक गंगा नदी घाटी मास्टर प्लान के सन्दर्भ में समग्र पर्यावरणीय और सामाजिक आकलन के आलोक में अपनाये और लागु करे.
नदियों के सन्दर्भ में डोनाल्ड रे विलियम्स, एक अमेरिकी देशी संगीत गायक व गीतकार के एक गीत को संशोधित कर कह सकते है कि "नदियाँ लगातार बोलती हैं, लेकिन, जैसा कि यह पता चला है, हाइड्रोक्रेसी बहरी पाई जाती है". नदियों को सुने बिना शहरी जल-निकासी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है.
गोपाल कृष्ण
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Saturday, July 15, 2023
जल-निकासी या बाढ़ समस्या?
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