सरकार या ईवेंट मैनेजमेंट? – रवीश कुमार
- सौजन्य – एनडीटीवी इंडिया
देश काम से चलता है, लेकिन पिछले कई सालों से सरकारें आंकड़ों से काम चला रही हैं। इन आंकड़ों में एक और आंकड़ा शामिल करना चाहिए, बयानों का आंकड़ा। आंकड़े कि कब, किसने, कहां पर और किस तरह का बयान दिया, आपत्तिजनक बयान कौन से थे, किन बयानों का सबने स्वागत किया, किन बयानों पर विवाद हुआ, कौन से बयान वापस लिए गए, किन बयानों पर चुनाव लड़े गए, कौन से बयान थे जिन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, किन बयानों को नहीं दिया जाना चाहिए था और कौन से बयान थे जो कभी दिए ही नहीं गए। रवीश कुमार का यह आलेख, मोदी सरकार की बात करते हुए, बयानों की राजनीति पर भी बात करता है और आंकड़ों की विश्वसनीयता पर भी। इसे कल के लाल किले से भाषण और उसको लेकर इस बार कम हो चुके उत्साह से जोड़ कर पढ़ें और प्रतिक्रिया दें…
- मॉडरेटर
हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी है, कब कौन कैसे उठेगा ये कोई नहीं बता सकता। 'आनंद' फिल्म के इस डायलॉग को हम कितने आनंद से सुनते सुनाते हैं लेकिन हमारी राजनीति ड्रामेबाज़ी शब्द को लेकर बिदक गई है। सही है कि ड्रामेबाज़ी लफ्ज़ का इस्तमाल नकारात्मक रूप में भी होता है मगर हमारे दल नुक्कड़ नाटक तो कराते ही हैं।
इस आलीशान से कार से उतरते हुए सोनिया गांधी ने कह दिया कि सुषमा स्वराज मास्टर ऑफ थियेट्रिक्स हैं। नौटंकी मास्टर हैं। जवाब लेकर रविशंकर प्रसाद सीन में एंटर करते हैं और कहते हैं कि सोनिया गांधी को अपने शब्दों के चयन पर थोड़ा ध्यान देना चाहिए। क्या एक महिला नेत्री दूसरी महिला नेत्री के बारे में ऐसे शब्दों का प्रयोग कर सकती हैं? हमसे उनका विरोध हो सकता है लेकिन उसे नाटक की संज्ञा देना, ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
रविशंकर प्रसाद के बयान से ख्याल आया कि मैंने तो जेंडर के एंगल से सोचा ही नहीं था, ड्रामेबाज़ी का इस्तमाल महिला के लिए नहीं हो सकता है। वैसे सोनिया का बयान था तो हल्का। राहुल गांधी का भी कहना कि सुषमा स्वराज ने पैसे लिये हैं, गैर ज़िम्मेदार सा लगा। लिहाजा सुषमा के बयान का कम नाट्यशास्त्र का विश्लेषण ज़्यादा हो गया।
प्राइम टाइम में वक्ता बनकर आने वाले अभय दुबे ने एक एन्साइक्लोपीडिया संपादित की है जिसमें लिखा है कि ब्रह्मा के आदेश पर भरतमुनि ने ऋग्वेद से पाठ, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से रस लेकर नाट्यरचना की। जिसे पांचवा वेद कहा गया है क्योंकि अन्य वेदों के विपरित यह सभी वर्णों के लिए था। प्राइम टाइम भारत में नाटक के उदगम और विकास यात्रा पर नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर है। लोकसभा चुनावों के दौरान गुजरात दंगों की आलोचना भी मुख्यमंत्री के तौर पर नतीजा देने वाले नेतृत्व की छवि के आगे कमज़ोर पड़ गई थी। इस छवि का असर कुछ ऐसा था कि मोदी सरकार के एक साल पूरे होने तक कोई खुल कर सवाल नहीं कर पा रहा था। हेडलाइन में तारीफ होती थी और फुटनोट में सवाल। जब से ख़बर आई है कि सरकार भूमि अधिग्रहण बिल में लाए अपने संशोधनों से पीछे हट रही है प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत नेतृत्व की सीधे तौर पर आलोचना होने लगी है। वो लोग कर रहे हैं जो उनकी तारीफ करते रहे हैं, जिनका अभी भी उनमें भरोसा बरकरार है।
लोकसभा चुनावों के समय से तारीफ करने वाले उद्योगपति और राज्यसभा सांसद राहुल बजाज हमारे सहयोगी श्रीनिवासन जैन से बात करते हुए मोदी सरकार को लेकर काफी तल्ख हो गए। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक जीत के साथ सत्ता में आने वाली एनडीए सरकार अपनी चमक खोती जा रही है।
राहुल बजाज ने कहा कि मई 2014 में हमें एक शहंशाह मिला था और पिछले 20-30 सालों में दुनिया के किसी भी देश में, किसी को भी ऐसी सफलता नहीं मिली थी। मैं इस सरकार के विरोध में आज भी नहीं हूं लेकिन सच्चाई यही है कि अब इस सरकार की चमक फीकी पड़ती जा रही है। राहुल बजाज ने कहा कि वे वही कह रहे हैं जो बाकी लोग कह रहे हैं। बजाज ने कहा कि ये नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं है।
शुक्रवार के इंडियन एक्सप्रेस में राजनीतिक चिन्तक प्रताप भानु मेहता के लेख में कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी का एक्शन उन्हें लेकर बने मिथकों से ठीक उल्टा नज़र आ रहा है। प्रताप ने लिखा है कि प्रधानमंत्री में साहस की जगह दब्बूपन नज़र आ रहा है। सरकार ने एक भी ऐसा नीतिगत फैसला नहीं लिया है जिसे बोल्ड कहा जा सके। लगे कि वे राजनैतिक जोखिम उठाकर भी फैसला ले रहे हैं। भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार ने जो भी कहा अब उसी से पीछे हट रही है। इस प्रधानमंत्री की तो सारी दावेदारी काम कर दिखाने की थी। उनकी कोई भी योजना ठोस रूप से लागू होती नज़र नहीं आ रही है। स्वच्छ भारत हो या नीति आयोग। संसद में उनका राजनैतिक नेतृत्व नहीं दिख रहा है। विपक्ष के खिलाफ पब्लिक में जाकर नहीं लड़ रहे हैं। बेचारगी का भाव ही सामने आ रहा है। संवाद की जगह चुप्पी नज़र आ रही है। मुख्य मुद्दों पर बोल नहीं रहे हैं। व्यापमं और क्रिकेट को लेकर हितों के टकराव ने सरकार को चुप करा दिया है।
प्रताप भानु मेहता कहते हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए कि भारत को एक और ऐसा प्रधानमंत्री देखने को मिल जाए तो दिखते हैं मगर गुमशुदा हैं। प्रताप भानु मेहता से पहले 5 अगस्त को इकोनॉमिक टाइम्स में स्वामीनाथन एस अंक्लेसरिया अय्यर का लेख मुझे कुछ जगहों पर अतिरेक और नाहक सख़्ती का शिकार लगा। उन्होंने लिखा कि उन मिथकों को भूल जाइये कि नरेंद्र मोदी एक तानाशाह, एकाधिकारवादी नेता हैं। भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार के पलटने से लगता है कि वे एक डरे हुए और लड़ने की बजाय पीछे हटने वाले नेता लगते हैं। प्रधानमंत्री ने एक तरह से आत्म समपर्ण कर दिया। लगता है कि वे स्लोगन बनाने में ज़्यादा खुश हैं, बजाए अपने फैसलों को लागू करने में। इन्हीं स्वामीनाथन अय्यर ने मोदी सरकार के साल पूरा होने पर लिखा था कि मोदी ने भ्रष्टाचार खत्म कर दिया है। क्योंकि मोदी ने उन सब बिजनैस मैन से दूरी बनाई है जो अब बैंक चेयरमैन की नियुक्ति से लेकर अधिकारियों के तबादले के लिए प्रधानमंत्री को प्रभावित नहीं कर सकते हैं।
मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे तो कहा जाता था कि पॉलिटिकल पीएम नहीं हैं। देश को मोदी जैसा पॉलिटिकल पीएम चाहिए। शुक्रवार को प्रधानमंत्री चेन्नई में थे। राष्ट्रीय हैंडलूम दिवस के मौके पर। उन्होंने अपने निजी अकाउंट से एक वीडियो ट्वीट किया है वणक्कम चेन्नई कहते हुए।
इस वीडियो में उनके स्वागत में आए लोगों का प्यार तो दिख ही रहा है साथ ही आप प्रधानमंत्री की नज़र से भी लोगों को देख सकते हैं। हमारे पूर्व सहयोगी बृजमोहन सिंह ने ट्वीट किया कि तभी पीएम को रिपोर्टर की ज़रूरत नहीं पड़ती है। हमारी राजनीति वाकई बदल गई है। आज ही दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने खबर दी है कि राष्ट्रपति 4 सितंबर को दिल्ली के एक स्कूल में शिक्षक के रूप में पेश होंगे। पिछले साल प्रधानमंत्री ने शिक्षक दिवस की पूरी परिपाटी ही बदल दी थी। कहीं शिक्षक दिवस ईवेंट मैनेजरों के लिए मुकाबले में न बदल जाए।
चेन्नई में प्रधानमंत्री ने शुक्रवार कहा कि पिछले साल 2 अक्टूबर को खादी खरीदने की अपील का असर हुआ है। अब मुझे बताया गया है कि पिछले साल की तुलना में 2 अक्टूबर से अब तक खादी की बिक्री 60 प्रतिशत बढ़ गई है। 60 प्रतिशत की वृद्धि सामान्य घटना नहीं है। प्रेस इंफॉरमेशन ब्यूरो की साइट पर लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय की एक प्रेस रीलिज़ मिली। 23 जुलाई 2015 की। इसके अनुसार खादी ग्रामोद्योग भवन ने अप्रैल, मई और जून 2014 की तिमाही में 57 करोड़ की बिक्री की थी। जबकि 2015 की इसी तिमाही में बिक्री करीब 70 करोड़ तक जा पहुंची। यानी 2014 की तिमाही की तुलना में 23 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
पीआईबी पर मौजूद मंत्रालय की प्रेस रिलीज के अनुसार 2013-14 में खादी की सेल 1081 करोड़ की थी। 2014-15 में 1144 करोड़ की हो गई। ये छह प्रतिशत है या साठ प्रतिशत। 7 मई 2015 के प्रेस रिलीज में कहा गया है कि प्रधानमंत्री के मन की बात की अपील के बाद लघु एवं मध्यम उद्योग के मंत्री कलराज मिश्र के नेतृत्व में खादी ग्रामोद्योग भवन ने दिल्ली में कुर्ता पाजामा प्रदर्शनी लगी थी। 13 से 28 अप्रैल तक लगी प्रदर्शनी में पिछले साल के मुकाबले 60 प्रतिशत की रिकॉर्ड बिक्री हुई है। रेडिमेड गारमेंट की सेल तो 86 परसेंट बढ़ गई है।
हमारा आंकड़ा पूरा नहीं है क्योंकि हम 2 अक्टूबर से अब तक कोई समग्र डेटा नहीं जुटा सके। खादी के उत्पाद भी अलग-अलग श्रेणी के होते हैं। 16 जून को केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र ने भी 60 प्रतिशत की वृद्धि का बयान दिया था और 23 जुलाई को कहा कि खादी का सेल डबल हो गया है। खादी का सेल 60 प्रतिशत बढ़ जाए सामान्य घटना नहीं हो सकती। अगर ये बात सही है तो क्या आलोचकों को प्रधानमंत्री के नेतृत्व की ये सब खूबियां नहीं दिखती हैं। तो क्या वाकई मोदी सरकार की चमक फीकी पड़ने लगी है। क्या आलोचक उनके साथ नाइंसाफी कर रहे हैं या वाकई ऐसा कुछ हो रहा है जिस पर प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिए।
रवीश कुमार वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं, सम्प्रति एनडीटीवी इंडिया में प्राइम टाइम के एंकर के रूप में देश भर में लोकप्रिय हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और अपनी बात को अपनी तरह से कहने में संकोच न करने के लिए पसंद किए जाते हैं।
मूल लेख के लिए इस लिंक पर जाएं….
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