Friday, August 21, 2015

हर एक के अपने छत्रपति शिवाजी महाराज -राम पुनियानी

19 अगस्त 2015

हर एक के अपने छत्रपति शिवाजी महाराज

-राम पुनियानी


कुछ नागरिकों ने गत 17 अगस्त 2015 को एक जनहित याचिका दायर कर यह मांग की है कि महाराष्ट्र सरकार का सर्वोच्च सम्मान ''महाराष्ट्र भूषण'', बाबासाहेब पुरन्द्रे को दिए जाने के सरकार के निर्णय पर रोक लगाई जाए। बाबासाहेब पुरन्द्रे अपनी रचना ''राजा शिवाजी छत्रपति'' और नाटक ''जानता राजा'' (सर्वज्ञानी शासक) के लिए जाने जाते हैं। यह पहली बार नहीं है कि पुरन्द्रे विवादों के घेरे में हैं। कुछ साल पहले, महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें उस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था, जिसे अरब महासागर में शिवाजी की मूर्ति स्थापित करने की योजना को अमली जामा पहनाना था। मराठा महासंघ ने इस निर्णय का यह कहकर विरोध किया था कि जहां शिवाजी मराठा थे, वहीं पुरन्द्रे ब्राह्मण हैं। पुरन्द्रे ने शिवाजी को ब्राह्मणों और गाय के प्रति समर्पित (गो ब्राह्मण प्रितपालक), एक ऐसे राजा के रूप में प्रस्तुत किया था जो मुसलमानों का सख्त विरोधी था। शिवाजी के चरित्र की इस व्याख्या का इस्तेमाल, संकीर्ण सोच वाले राजनैतिक समूह करते आए हैं। ये समूह यह प्रचारित करते हैं कि शिवाजी ऊँची जातियों के वर्चस्व के हामी थे और मुस्लिम राजाओं से घृणा करते थे।

महाराष्ट्र में समय-समय पर शिवाजी को लेकर अनेक विवाद उठते रहे हैं। कुछ वर्ष पहले, पुणे के भंडारकर इंस्टीट्यूट पर हमला हुआ था। मुद्दा यह था कि इस इंस्टीट्यूट ने पश्चिमी लेखक जेम्स लैन की ''शिवाजी: हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया'' नामक पुस्तक लिखने में मदद की थी। इस पुस्तक में कुछ अफवाहों के हवाले से शिवाजी की मां के चरित्र पर छींटाकशी की गई थी। इस विवाद की जड़ में मराठा-ब्राह्मण प्रतिद्वंद्विता थी। भंडारकर इंस्टीट्यूट को ब्राह्मणवादी संस्थान माना जाता है। सन् 2009 में, धुलिया-सांगली इलाके में चुनाव के ठीक पहले, एक पोस्टर को लेकर विवाद खड़ा हो गया था। पोस्टर में शिवाजी को चाकू से अफज़ल खान को मारते हुए दिखाया गया था। इस विवाद ने सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया जिसमें एक व्यक्ति मारा गया और पूरा इलाका लंबे समय तक तनाव की गिरफ्त में रहा। पोस्टर लगाने वालों का उद्देश्य ही शायद यह था कि शिवाजी को हिंदुओं और अफज़ल खान को मुसलमानों का प्रतीक समझा जाए। उनका लक्ष्य पूरा भी हुआ। इलाके में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया और सांप्रदायिक दलों की चुनाव में जीत हुई।

शिवाजी पर केंद्रित एक अन्य विवाद भी याद आता है। मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने स्कूली अध्यापकों के लिए इतिहास की एक हैंडबुक तैयार की थी, जिसमें महाराष्ट्र के ब्राह्मणों द्वारा शिवाजी का राजतिलक करने से इंकार करने की घटना का विवरण दिया गया था। जब स्थानीय ब्राह्मणों ने शिवाजी के शूद्र होने के कारण उनका राजतिलक करने से मना कर दिया तब काशी से पंडित गागा भट्ट को बुलवाया गया। उन्होंने शिवाजी का राजतिलक तो किया परंतु उन्हें अपने बाएं पैर की छोटी उंगली से तिलक लगाया, क्योंकि ब्राह्मणवादी ग्रंथों के अनुसार, शरीर के अंगों में इसका दर्जा सबसे नीचा है।

स्थानीय शिव सैनिकों ने इस हैंडबुक पर यह कहकर आपत्ति उठाई की कोई शिवाजी को शूद्र बताने की हिम्मत कैसे कर सकता है। इतिहास के अपने सच होते हैं और भावनाएं एक दूसरे स्तर पर काम करती हैं। सच यह है कि शिवाजी एक ऐसे राजा थे, जिन्होंने गरीब किसानों पर लगान का बोझ घटाया और इसीने उन्हें लोकप्रियता दी। इसके अतिरिक्त, यह किंवदंती कि शिवाजी ने अपनी सेना की सुरक्षा में कल्याण के मुस्लिम नवाब की बहू को उसके घर वापस पहुंचवाया, ने भी उन्हें महाराष्ट्र के लोगों की श्रद्धा का पात्र बनाया है। रैय्यत (किसानों) के प्रति उनकी नीतियों ने उन्हें महाराष्ट्र में एक महापुरूष का दर्जा दिया।

आधुनिक काल में लोकमान्य तिलक ने पहली बार शिवाजी उत्सव की परंपरा शुरू कर, शिवाजी की याद को ताज़ा किया। तिलक ने उन्हें ब्राह्मणों और गाय के रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। उसके बाद से शिवाजी सामूहिक सामाजिक सोच का एक बार फिर हिस्सा बन गए परंतु उच्च जातियों के संरक्षक के रूप में। सांप्रदायिक ताकतों ने शिवाजी के औरंगजे़ब और अफज़ल खान से हुए युद्धों को हिंदुओं व मुसलमानों के बीच संघर्ष के रूप में प्रचारित किया। शिवाजी ने ये युद्ध अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए लड़े थे। जहां शिवाजी के इन दोनों मुस्लिम राजाओं के साथ हुए युद्धों को बहुत प्रचारित किया गया वहीं हिंदू राजाओं से उनकी लड़ाइयों को या तो भुला दिया गया या उन्हें कम महत्व दिया गया। शिवाजी के विरूद्ध युद्ध में औरंगजे़ब की सेना का नेतृत्व राजा जयसिंह कर रहे थे जो औरंगजे़ब के दरबार में महत्वपूर्ण पद पर थे। उसी तरह, शिवाजी के अंगरक्षक रूस्तमे ज़मा ने ही उन्हें यह सलाह दी थी कि जब वे अफज़ल खान से मिलने जाएं तो अपने साथ लोहे के पंजे ले जाएं। और अफज़ल खान के विश्वासपात्र सचिव थे कृष्णाजी भास्कर कुलकर्णी। इस सबसे यह स्पष्ट है कि इन लड़ाइयों का धर्म से कोई लेनादेना नहीं था और ये केवल और केवल सत्ता हासिल करने के लिए लड़ी गई थीं।

आज शिवाजी का उपयोग हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने के लिए तो किया ही जा रहा है, ब्राह्मणों और मराठों के बीच भी विद्वेष पैदा करने के लिए किया जा रहा है।

शिवाजी के असली चरित्र की शानदार व्याख्या दिवंगत कामरेड गोविंद पंसारे ने अपनी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ''शिवाजी कोन होता'' (शिवाजी कौन थे) में की है। कामरेड पंसारे का यू-ट्यूब वीडियो ''जनतेचा राजा शिवाजी'' भी देखने लायक है। हमें यह समझना होगा कि शिवाजी के मुद्दे पर जो नूराकुश्ती चल रही है, वह सांप्रदायिक राजनीति और जातिगत प्रतिद्वंद्विता का नतीजा है। हमें असली शिवाजी को समझना होगा ताकि हम विघटनकारी शक्तियों के जाल से निकल सकें। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)



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