Monday, May 25, 2015

मलेथा का मतलब गाँव से लड़ाई की शुरुआत …. लेखक : सुभाष तराण

मलेथा का मतलब गाँव से लड़ाई की शुरुआत ….

लेखक : सुभाष तराण


hill-mail-subhashखनन माफिया के खिलाफ जनता की जीत के अवसर पर 2 व तीन मई को दौरान मलेथा के ग्रामीणों द्वारा पहाड़ में 'विकास का स्वरूप- चर्चा एवं संघर्ष' विषय पर आयोजित सम्मेलन में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 'हिमालय बचाओ आन्दोलन' के सान्निध्य में दो दिन तक चले इस जलसे की खास बात यह रही कि इसका आयोजन किसी आधुनिक सेमिनार की तरह नहीं, बल्कि ठेठ पारंपारिक पहाड़ी पाल की तर्ज पर आयोजित किया गया था। चाहे दूर दराज से पधारे आगंतुकों के रहने-ठहरने तथा भोजन-पानी की व्यवस्था हो या विचारों के आदान प्रदान का दौर, मलेथा के ग्रामीण इस जनोत्सव के प्रबन्धन में पूरी तरह से खरे उतरे। कैसे पहाड़ की ये स्थानीय सभ्यताएँ चिरकाल से राजे-रजवाड़ों और वर्तमान की लोकतांत्रिक सरकारों द्वारा स्वहित हेतु पैदा की गयी बाधाओं के बावजूद भी ग्राम गणराज्य की चली आ रही व्यवस्था के सहारे सामाजिक ढाँचे को सुदृढ़ रखने में कामयाब रहती आयी है, इसका जीवन्त उदाहरण यहाँ देखा और सीखा जा सकता था।

मलेथा के अतीत की बजाय मैं मलेथा के वर्तमान की बात करना चाहूँगा। जहाँ तक मुझे जानकारी है अलकनन्दा घाटी में इस तरह का सिंचित चक और कहीं नहीं है। विशेष बात यह है कि मलेथा गाँव के किसी भी घर के बाहर खड़े होकर आपको यहाँ सीढीदार खेतों की पंक्तिबद्ध और अनुशासित श्रंखला आँख भर देखने को मिलती है, जो कि स्थानिकों को हर साल भरी पूरी फसल प्रदान करती है। यह बात दीगर है कि जमीन और उस पर होने वाली पैदावार चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, मलेथा में भी देश के अन्य ग्रामीण परिवेश की तरह बेहतर रहन-सहन और रसूख के लिए गैर कृषि व्यवसाय का होना अत्यंत आवश्यक है। आध्यात्म और आधुनिकता का ढोल पीटने वाले नेताओं से भरपूर इस देश के अन्य गाँवों की तरह आज दिनांक तक मलेथा की खेती बाड़ी भी पूरी तरह से पारंपारिक तौर तरीकों पर ही निर्भर है।

अपने-अपने स्तर पर जन सरोकारों से संबंध रखने वाले सामाजिक, राजनैतिक और पर्यावरण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का मलेथा में जुटना इस बात का स्पष्ट संकेत था कि मलेथा के ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं ने इस जन आन्दोलन के द्वारा राजनैतिक क्षत्रपों के सान्निध्य में पनप रहे स्टोन क्रशर माफियाओं का प्रतिरोध कर उन्हे वहाँ से निकाल बाहर खदेड़ने के प्रयास मे जो भूमिका निभायी है, वह जनतात्रिक लिहाज से अभूतपूर्व है। आगंतुकों में से अधिकतर लोग तो यहाँ आये भी इसलिए थे कि वे उन ग्रामीणों को साक्षात देख सकें तथा जन सरोकारों से जुडी इस सफल मुहिम पर उन्हें धन्यवाद दे सकें, जिन्होंने इस बात को साबित कर दिया है कि लोकतंत्र में डर सरकार और नौकरशाही का नहीं बल्कि जनता का होता है।

आधुनिक जीवन शैली तकनीक की गुलाम है और तकनीक के पार्श्व प्रभाव आए दिन दखे और सुने जा सकते हैं। तकनीक के चलते आने वाली प्राकृतिक आपदाएँ अब कई गुना मारक साबित हो गई हैं। जापान में आये भूकंप और उससे हुई जनहानि का ज्वलंत उदहारण सामने है। नेपाल में एक के बाद एक आने वाले भूकंपों के बाद भी हम देश के पहाड़ी भूभाग के मिजाज की नहीं समझना चाहते। पहाड़ों के सीने में सूराख कर बनाई जा रही सुरंगे, पहाड़ी राज्यों की निर्बाध बहने वाली नदियों को घेर कर बनाए जा रहे बाँध, खनिजों के व्यवसायीकरण के लिए उघाड़ी जा रही जमीन, विकास की दुहाई दे कर की जा रही पेड़ों की कटाई से सरकार तथा उसमें शामिल नेताओं की खाल ओढ़े कॉर्पोरेट मोटे मुनाफे के लालच में शहरों को बिजली, पानी तथा अन्य संसाधनों की खेप मुहैया करवाने में जुटे पड़े हैं। इसमे संसाधनों के असली मालिक इन ग्रामीणों के लिए क्या व्यवस्था है, कोई नहीं बता सकता। देश के लगभग सभी शहर पशुरहित हैं। ऐसे में दूध तथा माँस के उत्पादों के लिए भी शहर पूरी तरह से ग्रामीण क्षेत्र पर ही निर्भर है। प्रकृति ने संसाधनों का बँटवारा भौगोलिक आधार पर किया है। ऐसे में स्मार्ट सिटी की परिकल्पना संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन कर प्रबंधन के नाम पर कुछ एक लोगों के हवाले करना सरकार की नीयत पर शक पैदा करता है। संसाधनों के नाम पर शहरों के पास अपना कुछ नहीं है। संसाधन के मालिक ग्रामीणों के साथ सरकार के द्वारा सौतेला व्यवहार और परजीवी शहरों के प्रति अथाह प्रेम समझ से परे की बात लगता है। पहाड़ में जल, जंगल और जमीन को लेकर आदिकाल से प्रत्येक गाँव के अपने हक हकूक और उसकी अपनी एक सरहद रहती आयी है। यदि मानव विकास की श्रृंखला पर गौर किया जाये तो विश्व के वर्तमान परिदृश्य में देश, प्रदेश तथा शहरों के अस्तित्व गाँव और उसकी सीमाओं का विकसित और बृहद रूप है। ऐसे में व्यक्तिगत लोभ और लाभ के चलते पता नहीं हमारी सरकारें यह क्यों भूल जाती है कि यदि गाँवों का अस्तित्व नहीं रहा तो शहर, प्रदेश और देश की क्या स्थिति होगी। मानव सभ्यताओं के स्रोत इन गाँवों का हमारे देश में यह आलम है कि राजनैतिक दल इन्हें मात्र वोट बैंक और सत्ता में आने के बाद, अपने परोक्ष प्रयासों से इनके स्थानीय संसाधनों को अपने राजनैतिक तथा व्यापारिक हितैषियों को चुनावों के दौरान दिए गये मत तथा धन दान के एवज में उपहार स्वरुप दे डालते हैं। पलायनपरस्त शिक्षा प्रणाली, राजनैतिक उदासीनता और हाशिए पर पड़ी कृषि व्यवस्था के चलते उत्तराखण्ड में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में ग्रामीण परिवेश का यही हाल है। मलेथा जन आन्दोलन व्यवस्था के स्थानीय संसाधनों पर अवैध हस्तक्षेप का परिणाम है। सरकारें यह कहते नहीं अघातीं कि वो जो कर रही हैं वो जनता के लिए कर रही हैं, लेकिन उनसे यह कोई नहीं पूछता कि वो यह सब कहाँ की जनता के लिए कर रही है ? वो जब नीतियाँ बनाती है तो किन लोगों के हितों को सर्वोपरि रख कर नीतियाँ बनाती है ?

इसी सिलसिले में अगले शनिवार को एन.डी.टी.वी. के समाचार संपादक सुशील बहुगुणा के आमंत्रण पर कांस्टीट्यूशन क्लब में 'हिल मेल' (पहाड़ की चिट्ठी) तथा निम (राष्ट्रीय पर्वतारोहण संस्थान) के सौजन्य से आयोजित सेमिनार 'केदारनाथ मे पुनर्निर्माण और उत्तराखंड का नवनिर्माण' में जाना हुआ। उत्तराखण्ड का हित चाहने वाले प्रबुद्ध आयोजकों का यह एक सराहनीय प्रयास था, जहाँ सरकार के साथ-साथ उपस्थित लोगों को भी अपनी बात कहने की व्यवस्था थी। समारोह की शुरूआत वर्तमान उत्तराखण्ड के नीति निर्माण में मुख्य भूमिका निभाने वाले चर्चित नौकरशाह राकेश शर्मा वक्ता के रूप में स्वयं को आपदा प्रबंधन का स्वयंभू साबित करने के लिए पानी की तरह बहाए गये पैसे की एवज में उँगलियों पर गिनायी जा सकने वाली उपलब्धियों की आत्मश्लाघा लगभग आधे घंटे तक बाँचते रहे। इस कार्यक्रम की खास बात यह भी थी कि आयोजकों ने वक्ताओ से श्रोता-दीर्घा में बैठे लोगों से सवाल जवाब को भी महत्व दिया, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऐसे मौकों पर हमारे लोग सवालों से ज्यादा सुझाव देना पसन्द करते है और सरकारी प्रतिनिधि सर हिलाकर अपनी जवाबदेही से बच जाता है।

लगभग घंटा भर की देरी के बाद सेमिनार में पहुँच पाये मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने भाषण के दौरान आपदा के बाद पुनर्वास तथा पुनर्निर्माण के लिए किए गये प्रयासो के साथ-साथ पहाड़ी क्षेत्र में जैविक खेती, चारा पत्ती, फलदार पेड़ों, पर्यटन तथा गाँव स्तर पर स्थानीय निवासियों द्वारा व्यक्तिगत लागत लगा कर किसी भी जन सरोकारों से जुड़ी संस्था हेतु भवन निर्माण कार्य में निवेश कर उस पर 12 प्रतिशत ब्याज पाने जैसी योजनाओं से श्रोताओं को अवगत करवाया। समय की कमी के चलते छोटे से प्रश्नोत्तर काल के दौरान आयोजक मण्डल ने बराय मेहरबानी मुझे भी माननीय मुख्यमंत्री जी से सवाल करने का मौका दिया। मेरा सवाल था कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में तो आपकी सरकार और राकेश शर्मा जी का योगदान और तैयारी सराहनीय है, किन्तु जो आये दिन खनन माफिया आम जन पर आपदाओं की तरह टूट पड़ते हंै, उसके लिए आपके पास क्या तैयारी है ? मुख्यमंत्री का जवाब यह था कि खनन के लिए उनकी सरकार बहुत जल्दी नयी नीतियाँ बना रही है और उनकी व्यक्तिगत राय यह है कि नदियों की हर साल सफाई होनी चाहिए। मैंने आगे कहा कि वह तो ठीक है, लेकिन नदियों से ऊपर पहाड़ों की तरफ का रुख करते खनन के लिए जानलेवा तथा हिंसक गतिविधियों में लिप्त माफियाओं के खिलाफ क्यों कार्यवाही नही की जाती ? वे इसका जवाब देते, उससे पहले सुशील ने इस सवाल में एक और बात जोड़ दी कि यदि कोई ग्रामीण व्यक्तिगत उपयोग हेतु कहीं थोड़ा बहुत खुदाई करता है तो वह सरकार की नजर मे अवैध खनन होता है, लेकिन यदि वहीं से ट्रालियाँ और ट्रक भर-भर कर जाते हैं तो वह नदियों की सफाई मानी जाती है। ''व्यक्तिगत राय तो मेरी भी यह है कि यदि नदियों-गदेरों के द्वारा पहाड़ों से उतर आया मलवा, जो अपने आप में अकूत संपदा होता है, को वापिस पहाड़ को ही लौटाया जाता तो बेहतर होता।''

कार्यक्रम में सबकुछ ठीक था लेकिन इस अंतिम सवाल का जवाब संतोषजनक नही था। हाँ, एक बात फिलहाल के लिए उन्होंने जरूर संतोषजनक कही कि यदि किसी के पास कोई और सवाल हो तो वो 'हिल मेल' के मानद संयोजक और 'आज तक' के वरिष्ठ संवाददाता मंजीत नेगी के माध्यम से हमे लिख भेजें, हम उन सवालों का यथासंभव जवाब देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

सवाल तो और भी थे। किन्तु माननीय मुख्यमंत्री जी को जल्दी जाना था। सवाल तो यह भी था कि राज्य में सरकारी महकमे आपदाओं और जन सरोकारों से जुड़ी योजनाओं को उत्सव की तरह क्यो देखते हैं ? सवाल उत्तराखंड के जन प्रतिनिधियों के नाकारापन के चलते तराई के शहर होते कस्बों से लेकर पहाड़ों में स्थित सुदूर गाँवो के हर घर में मुँह बाये खड़े सवालों को लेकर भी था। सवाल बहुत से हैं लेकिन सवाल के जवाब सरकार और उसके नुमायंदो की तरह व्यस्त ही मिलते हैं। तभी तो मलेथा जैसे जन आन्दोलनो की प्रासंगिकता बरकरार है।

http://www.nainitalsamachar.com/maletha-movement-and-governments-hipocracy/

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