डा. गोपाल कृष्ण*
महाराष्ट्र में हुए कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी)चुनाव और कर्नाटक के नतीजों ने दिखा दिया कि INDIA गठबंधन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर के विरोध को कैसे अमल मे ला रही है। कर्नाटक ने कृषि मंडियों की बहाली कर NDA गठबंधन सरकार को सबक दे रही है। विपक्षी दलों के INDIA गठबंधन की मुंबई बैठक से पहले, महाराष्ट्र कृषि उपज विपणन (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1963 के तहत आयोजित चुनाव परिणाम INDIA के लिए अच्छी खबर लेकर आया। कृषि उपज बाजार समितियों (एपीएमसी)के हालिया चुनावों के नतीजों ने दिखाया कि INDIA गठबंधन कैसे एनडीए गठबंधन को झटका दे सकता है। इस चुनाव में मतदाता किसान थे। INDIA गठबंधन की तीसरी बैठक 31 अगस्त और एक सितबंर को आयोजित होगी. यह बैठक इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें गठबंधन संविधान परस्त सिद्धांत, वतन परस्त विचारधारा और“आर्थिक न्याय”के लिए गरीबी रेखा नहीं बल्कि अमीरी रेखा को लेकर भी फैसला किया जा सकता है। INDIA गठबंधन ऐसे सुधार करने का वायदा कर सकती है जो कृषि आधारित व्यवसायियों, उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के पक्ष में न होकर खेतिहरों के पक्ष में हो।
महाराष्ट्र में आठ डिवीजनों में फैले 305 एपीएमसी बाजार हैं, अधिकांश एपीएमसी INDIA गठबंधन के घटक दलों के नियंत्रण में हैं। वर्तमान में एपीएमसी अधिनियम केवल ग्राम पंचायतों, कृषि ऋण समितियों और बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियों के सदस्यों को एपीएमसी और एपीएमसी के तहत कार्य करने वाले विभिन्न बाजार पैनलों के सदस्यों का चुनाव करने की अनुमति देता है।
महाराष्ट्र में हुए कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) चुनावों में INDIA गठबंधन विजयी हुआ है। 2024 के चुनावों से पहले,एपीएमसी चुनावों को ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक मूड के एक महत्वपूर्ण संकेतक के रूप में देखा जाता है। एपीएमसी चुनावों को ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक मूड के एक महत्वपूर्ण संकेतक के रूप में देखा जाता है। ये समितियाँ राज्य में कृषि बाजारों के विनियमन के लिए जिम्मेदार हैं,और वे फसलों की कीमतें निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एपीएमसी राज्य सरकार के लिए राजस्व का एक प्रमुख स्रोत भी हैं, क्योंकि वे कृषि उपज की बिक्री पर बाजार शुल्क लगाते हैं। एपीएमसी चुनाव में 131 निकायों में से 76 पर INDIA गठबंधन के घटक दलों ने जीत हासिल की, जबकि सत्तारूढ़ गठबंधन ने 31 निकायों पर जीत हासिल की। एक एपीएमसी में लगभग 18 सीटें होती हैं। एपीएमसी चुनावों में राजनीतिक दल के प्रतीकों का उपयोग नहीं किया जाता है। पार्टियाँ चुनाव लड़ने के लिए एपीएमसी "पैनल" का समर्थन करती हैं। INDIA गठबंधन ने दावा किया है कि एपीएमसी चुनावों के नतीजे सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ लोगों का गुस्सा दिखा रहे हैं और यह अन्य चुनावों में भी दिखाई देगा।
5 जुलाई, 2023 को कर्नाटक कृषि उपज विपणन (विनियमन और विकास) (संशोधन) अधिनियम, 2023 की शुरूआत ने दिखाया कि INDIA गठबंधन के नेतृत्व वाली नई कर्नाटक सरकार तीन कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर के विरोध का जवाब कैसे दे रही है। कर्नाटक ने कृषि मंडियों की बहाली कर NDA गठबंधन सरकार सबक दे रही है।
खेती को सुधारने के लिए बिहार कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून 1960 (एपीएमसी एक्ट 1960) बनाया गया था, जिसे 2006 में खत्म कर दिया गया। इस कानून के ख़त्म होने से बाजार समितियां ख़त्म हो गईं जिससे बिहार के खेतिहरों से न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कृषि उत्पादों को खरीदना स्थानीय व्यापारियों के लिए ज्यादा आसान हो गया। इससे बिहार के खेतिहरों का आर्थिक शोषण और खेती का संकट भी बढ़ा। इस कानून को खत्म करने का फैसला सुसंगत सोच पर आधारित नहीं था। जब 2021 में पंजाब के किसानों ने अन्य कृषि कानूनों के साथ-साथ कृषि मंडियों को खत्म करने के केन्द्र सरकार के फैसले के खिलाफ ऐतिहासिक आन्दोलन किया तो बिहार सरकार के फैसले पर फिर से एक बार चर्चा शुरू हुई। अंततः केन्द्र सरकार को झुकना पड़ा और अन्य कानूनों के साथ कृषि मंडियों को खत्म करने का कानून वापस लेना पड़ा। कर्नाटक की तत्कालीन भाजपा सरकार ने हालांकि केंद्र की तर्ज पर मंडी बहाली का काम नहीं किया, यह तर्क देते हुए कि राज्य का कानून केंद्र के कानून से पहले का है। गैर-भाजपा सरकार होने के बावजूद बिहार की नीतीश सरकार ने अभी तक एपीएमसी एक्ट 1960 को बहाल करने के लिए कोई पहल नहीं की है। बिहार में राजद और खासतौर से वामपंथी पार्टियां कृषि मंडी कानूनों की बहाली की मांग करती रही हैं, लेकिन महागठबंधन (INDIA गठबंधन) की ताजपोशी के बाद ऐसा लगता है कि यह मांग उनकी कार्यसूची से गायब हो गई है।
अब, जबकि 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर विपक्षी दलों का एक राष्ट्रीय महागठबंधन बन गया है, एपीएमसी बहुत प्रासंगिक हो उठा है क्योंकि कर्नाटक की नवगठित कांग्रेस सरकार ने भाजपा की पिछली सरकार में एपीएमसी कानून में किए गए परिवर्तनों को रद्द करने का निर्णय लिया है। पिछले ही हफ्ते कृषि विपणन मंत्री शिवानंद पाटिल ने कर्नाटक कृषि उत्पाद विपणन संशोधन विधेयक 2023 को विधानसभा में पेश किया था। इसका उद्देश्य राज्य को वापस उस स्थिति में पहुंचाना है कि सभी कृषि उत्पादों की खरीद का काम मंडियो के माध्यम से हो, उसके बाहर न हो।
एपीएमसी कानून को रद्द करने वाला बिहार अकेला राज्य है। महज चुनावी एकता से आगे बढ़कर मुद्दों पर समझदारी की एकता इस समय की सबसे बड़ी मांग है। इस परिप्रेक्ष्य में बिहार की कृषि मंडियों के लिए महाराष्ट्र और कर्नाटक के एपीएमसी कानूनों की प्रासंगिकता स्पष्ट हैं।
कैसे खत्म की गईं मंडियां
बिहार में 1960 का कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमिटी एक्ट – एपीएमसी एक्ट 1960) दशकों पुराने किसान आंदोलनों का परिणाम था। 1855 से 1928 तक बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, उत्तर प्रदेश और गुजरात के चले किसान आंदोलनों की परिणति के रूप में 1928 में रॉयल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर ने अनुशंसा की कि खेतिहरों के विपणन संबंधी समस्याओं का समाधान यह है कि किसानों को बेहतर सूचनाएं मिलें और एक विनियमित विपणन प्रणाली स्थापित की जाय। इस दिशा में प्रयास के रूप में 1939 और पुनः 1944 में बिहार मार्केट डीलर्स बिल लाया गया किन्तु दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार के फंस जाने के कारण यह कानून नहीं बन सका। अंततः जब एपीएमसी एक्ट 1960 बना तो इसके प्रयोजन की चर्चा में यह लिखा गया कि कई राज्यों में यह कानून पहले ही बनाया जा चुका है और उन राज्यों में कृषि उत्पादों के विपणन में उल्लेखनीय सुधार आया है। यह कानून बिहार राज्य में कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री और बाजार निर्माण को बेहतर तरीके से नियंत्रित करेगा। इस कानून को स्वामी सहजानंद सरस्वती और सर छोटू राम के किसान आंदोलनों के परिणाम के रूप में भी देखा गया।
एपीएमसी कानून के लागू होने के पहले कृषि उत्पादों के मूल्य को लेकर किसानों में गलत सूचनाएं व्याप्त रहती थीं जिसका फायदा आढ़तिये उठाते थे। आढ़तियों और थोक क्रेताओं के बीच एक गुप्त समझौता था जिसके तहत किसानों को कृषि उत्पादों का सही मूल्य कभी नहीं मिलता था। एपीएमसी सही नियमन और सूचना उपलब्ध कराने के लिए बनाया गया था। क्रेता पर सेस लगाया जाता था जिसका उपयोग बाजार समितियों में स्टोरेज और अन्य सुविधाओं के निर्माण हेतु किया जाता था। एपीएमसी की प्रकृति लोकतांत्रिक और विकेन्द्रीकृत थी। नीलामी के द्वारा दर तय की जाती थी और व्यापारियों को लाइसेंस दिया जाता था जिससे भुगतान सुनिश्चित किया जा सकता था।
एपीएमसी 1960 कानून को बार-बार में कोर्ट में चुनौती दी गई थी। पटना हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने फैसला दिया था कि राज्य की विधानसभा को संवैधानिक अधिकार है कि वह कृषि उत्पादों के बाजार के विनियमन हेतु कानून बना सके, लेकिन 1960 के कानून को रद्द करने के लिए बिहार सरकार ने जो बिहार कृषि उत्पाद मार्केट (निरस्तीकरण) कानून, 2006 लाया उसे भी हाइ कोर्ट ने यह कहकर संवैधानिक करार दिया कि निरस्तीकरण का कानून राज्य सरकार ने किसानों से सीधे खरीद करने के लिए निजी और सहकारिता क्षेत्र को प्रोत्साहन देने हेतु बनाया है। कर्मचारियों द्वारा किए गए केस पर तो कोर्ट ने अपनी राय दी किन्तु किसानों के अनुरोध को कोर्ट ने टाल दिया। सुप्रीम कोर्ट में की गई अपील दस साल के बाद खारिज कर दी गई। किसानों की अपील, जो सच्चिदानंद कुंवर और कृष्णा नंद सिंह ने की थी, पर कोई खास सुनवाई नहीं की गई। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में इस महत्वपूर्ण तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया कि निरस्तीकरण कानून को पास करने के पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति नहीं ली गई जो बिलकुल असंवैधानिक है।
एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों- जिसके खिलाफ पंजाब और अन्य राज्यों के किसान आंदोलनरत थे- पर 12 जनवरी 2021 को रोक लगा दी जिसमें एक कानून बिहार कृषि उत्पाद मार्केट (निरस्तीकरण) कानून, 2006 के समकक्ष था। बिहार कृषि उत्पाद मार्केट (निरस्तीकरण) कानून, 2006 से कृषि क्षेत्र को कोई लाभ नहीं हुआ, न तो कोई पूंजी निवेश हुआ और न ही किसानों की आय बढ़ी। जब यह निरस्तीकरण कानून पास हुआ था तो इसका समर्थन करने वालों- जिनमें विश्व बैंक भी शामिल था- ने इसे बाजार आधारित कृषि क्रान्ति की शुरुआत कहा था। आगे के अनुभवों से ने इसे गलत साबित कर दिया। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकनोमिक रिसर्च ने 2019 में निरस्तीकरण कानून की आलोचना की।
अपने एक अध्ययन में काउंसिल ने बताया, “ऐसी परिस्थिति ने किसानों को मुनाफाखोर व्यापारियों के रहम पर छोड़ दिया है जो कृषि उत्पादों को बेहद कम दरों पर खरीदते हैं। बाजार सुविधाओं और संस्थागत व्यवस्थाओं की कमी के चलते किसानों को उत्पादों की सही दर नहीं मिल पाती है और दरों में अस्थिरता बनी रहती है।”
2020 में बिहार सरकार के कृषि विभाग ने भी भारत सरकार के कृषि मंत्रालय को लिखा कि बिहार में कृषि क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है। आगे चलकर बिहार सरकार ने इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए समय-समय पर कई संशोधन किए। बिहार सरकार कई आर्डिनेंस भी लाई। 1993 के संशोधन ने तो कानून के पालन में कोर्ट के हस्तक्षेप को भी सीमित कर दिया था। साल 2000 में नीतीश कुमार जब भारत सरकार में कृषि मंत्री थे तो विश्व बैंक की नीति के तहत कृषि उत्पादों की मार्केटिंग में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कृषि मंत्रालय ने विशेषज्ञ कमिटी बनाई जिसे कृषि उत्पादों के विपणन की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा की जिम्मेदारी दी गई। कमिटी ने कृषि उत्पादों के विपणन की व्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण को कम करने और निवेश की अनुशंसा की। आगे चलकर केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री हुकुमदेव नारायण यादव की अध्यक्षता में राज्यों के मंत्रियों की स्टैंडिंग कमिटी बनाई गई। कृषि उत्पादों के विपणन में प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए एक मॉडल कानून बनाया गया जिसे स्टेट एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) कानून, 2003 नाम दिया गया।
जब एपीएमसी कानून रद्द किया गया तो यह उम्मीद जताई गई थी कि निजी क्षेत्र का निवेश कृषि उत्पादों के विपणन संबंधी इन्फ्रास्ट्रक्चर में बढ़ेगा, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। एपीएमसी कानून के निरस्तीकरण के बाद किसानों को उपज का सही दाम मिलना कठिन हो गया है। निरस्तीकरण के समय बिहार में 95 मार्केटिंग यार्ड थे। उनमें 54 में गोदाम, कार्यालय, तौलसेतु, प्रोसेसिंग सामान आदि मौजूद थे। राज्य कृषि परिषद् ने 2004–05 में इन मार्केटिंग एरिया से 60 करोड़ रुपया का राजस्व कमाया था जिसमें 52 करोड़ खर्च किए गए जिनमें लगभग एक तिहाई इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च किए गए थे। बाजार समितियों की संख्या 129 थी जो एक झटके में ख़त्म हो गई। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एग्रीकल्चरल मार्केटिंग (एनआईएएम) ने 2012 के अक्टूबर में हुई अपनी आठवीं मीटिंग के मिनट में बिहार सरकार के कृषि विभाग के सचिव का बयान दर्ज किया है कि किसी नियामक प्रणाली के नहीं रहने के बावजूद किसानों को लाभकारी दाम मिल रहे हैं। किन्तु बिहार सरकार के सचिव द्वारा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के सलाहकार को 22 मई 2020 को लिखे पत्र से पता चलता है कि किसी नियामक प्रणाली के अभाव में राज्य के किसानों को लाभकारी मूल्य नहीं मिल रहे हैं।
एनआइएएम ने 2013 में संपन्न अपनी तेरहवीं मीटिंग, जिसमें बिहार के कृषि मंत्री समेत अन्य राज्यों के कृषि मंत्री शामिल रहते हैं, में इस बात को रेखांकित किया कि बिहार जैसे राज्य में कृषि विपणन में आधारभूत संरचना, सूचना संचरण, सामान्य रखरखाव तथा व्यवस्था का पूर्ण अभाव है जिसके चलते किसानों का विनिमय खर्च बहुत ज्यादा बढ़ गया है। एनआइएएम ने इस बात पर जोर दिया है कि बिहार में कृषि विपणन के नियमन के लिए और आधारभूत संरचना के विकास हेतु कानून बनाने और संस्थागत व्यवस्था करने की सख्त आवश्यकता है।
बिचौलिया पैक्स
जरूरत कमियों को दूर करने की थी किन्तु यहां तो पूरी व्यवस्था को ही खत्म कर दिया गया। बिहार में जहां नब्बे प्रतिशत सीमान्त और छोटे किसान हैं वहां एपीएमसी मंडियों की अत्यंत जरूरत है। आधारभूत संरचना और संस्थाओं को बर्बाद करना आसान है लेकिन खड़ा करना कठिन है। एपीएमसी के दिनों में भी किसानों को अपने उत्पाद मार्केटिंग यार्ड तक पहुंचाने में समस्या आती थी। तब उन तक बिचौलिए पहुंचते थे और औने-पौने दाम में उत्पाद खरीद लेते थे। जरूरत इस बात की थी कि सरकार किसानों को भरोसा दिलाती कि सरकार उनके उत्पादों को खरीदेगी किन्तु यहां तो कानून ही खत्म कर दिया गया। किसान लड़ाई को हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ले गए किन्तु संसाधनों और जागरूकता के अभाव में उनका प्रतिरोध पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों के जैसा नहीं हो सका।
एपीएमसी के निरस्तीकरण ने कृषि उत्पादों की खरीद पर सरकारी नियंत्रण को कमजोर कर दिया। एपीएमसी के दिनों में किसान अपने उत्पादों को नियत न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया या स्टेट फार्मिंग कारपोरेशन को बेच सकते थे। एपीएमसी के निरस्तीकरण के बाद पैक्स की स्थापना की गई। पैक्स किसानों और फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया/स्टेट फार्मिंग कारपोरेशन/निजी कंपनियों के बीच बिचौलिये का काम करता है। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकनोमिक रिसर्च का अध्ययन बताता है कि पैक्स से किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत कम दर मिलती है और भुगतान भी समय पर नहीं किया जाता है।
8 जून 2023 के भारत सरकार के एक विज्ञप्ति के अनुसार केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह की रसायन और उर्वरक मंत्री मनसुख एस मांडविया के साथ बैठक में महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। सरकार के अनुसार इन निर्णयों से प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पैक्स) के कार्य क्षेत्रों में विस्तार होगा, जिससे उनकी आय में वृद्धि होगी, साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के भी अवसर बढ़ेंगे और किसानों को उर्वरक, कीटनाशक, बीज तथा कृषि मशीनरी आदि स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो सकेगी। नव निर्मित सहकारिता (सहकारिता)मंत्रालय के गठन के बाद संविधान की अनुसूची 7 की प्रविष्टि 32 के तहत राज्य सूची के तहत गठित पैक्स जैसी राज्य सहकारी समितियों को इस तरह से संरचित किया जा रहा है जो सहकारी संघवाद के खिलाफ जाने की संभावना है।
आल इंडिया किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमिटी के पटना में 25 मार्च और 16 अप्रैल 2022 को आयोजित सत्रों में किसान नेताओं ने पैक्स की शिकायत करते हुए कहा कि पैक्स के पदाधिकारी किसानों को लूटते हैं, आर्द्रता के नाम पर वजन पांच किलो कम कर देते हैं और प्रति बोरा 25 रुपया वसूलते हैं, समय पर खरीद केन्द्र नहीं खोलते हैं और सहकारी समितियों के साथ मिलकर किसानों का हक मारते हैं। किसान हमेशा नकद की कमी से जूझते रहते हैं। ऐसे में वे खुले बाजार में व्यापारियों को कम दाम पर उपज बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। पैक्स पदाधिकारी फिर इन व्यापारियों से उपज खरीदते हैं। पैक्स पदाधिकारी, सरकारी पदाधिकारी और व्यापारी मिल जुलकर मुनाफे को बांट लेते हैं। यह दावा कि पैक्स भ्रष्ट एपीएमसी से बेहतर है, गलत है। पैक्स की स्थापना किसानों के हितों की रक्षा करने और उनकी आमद बढ़ाने के लिए की गई थी किन्तु निजी व्यापारियों, सरकारी एजेंसियों के द्वारा देर से भुगतान और बाध्यकर बिक्री के कारण किसानों को लाभकारी मूल्य से बहुत कम मिल रहा है।
एपीएमसी के दिनों में स्थानीय मंडी में जगह लेने के लिए किसानों को मामूली रकम चुकानी होती थी। स्थानीय मंडी को अठारह सदस्यों की समिति चलाती थी जिनमें निर्वाचित और सरकारी सदस्य होते थे। राज्य के स्तर पर बिहार एग्रीकल्चरल मार्केटिंग बोर्ड होता था जिसमें पांच सदस्य होते थे जो पूरे बिहार की मंडियों को चलाते थे। क्रेताओं को मंडी के साथ पंजीकृत होना पड़ता था जिससे न्यूनतम समर्थन मूल्य का भुगतान करना सुनिश्चित होता था। भुगतान उसी दिन होता था। जरूरत के मुताबिक़ स्थानीय मंडियों को उपनियम बनाने का अधिकार प्राप्त था।
विधायिका की जिम्मेदारी
2016 में बिहार में 9000 खरीद केन्द्र थे जो 2020 में घटकर 1619 हो गए। निरस्तीकरण कानून ने मंडियों की जमीन को सरकार के अधीन कर दिया। सरकार ने 2017 में बिहार एग्रीकल्चर मार्केट यार्ड लैंड ट्रान्सफर एक्ट लागू किया जिसके तहत सरकार इन जमीनों को पर्यटन विभाग को दे रही है। इसी कानून के तहत श्री गुरु गोविन्द सिंह जी के प्रकाश उत्सव पर पटना साहिब में दस एकड़ जमीन पर्यटन विभाग को दी गई।
खगड़िया और बेगूसराय जिले की रिपोर्ट बताती है कि किसान छोटे व्यापारियों को उपज बेचते हैं जो कमीशन एजेंट के रूप में काम करने वाले बड़े व्यापारियों को बेच डालते हैं। मिल मालिक या प्रोसेसर इन बड़े व्यापारियों से उपज खरीदते हैं जबकि निरस्तीकरण कानून में डायरेक्ट किसानों से खरीदने का प्रावधान है। निरस्तीकरण कानून लागू होने के बाद पूरे बिहार में केवल पुर्णिया जिला में गुलाबबाग मंडी निजी हाथों द्वारा चलाया जा रहा है, किन्तु यहां की हालत यह है कि निरस्तीकरण के पूर्व यहां प्रतिदिन तीन से चार रेक मालगाड़ियां मकई से भर कर जाती थीं किन्तु अब उसकी संख्या घटकर मात्र एक रह गई है। स्पष्ट है कि गुलाबबाग की मंडी का भी वही हाल होगा जो पटना साहिब की मंडी की जमीन का हुआ।
2018 के आर्थिक सर्वे ने स्थापित किया है कि एपीएमसी के निरस्तीकरण के कारण खेती में वास्तविक आय में कमी आई है। खेती का लागत मूल्य बढ़ता चला गया है किन्तु किसानों की आय जस की तस है। सांसद, विधायक, जज सभी की आय बढ़ी है लेकिन किसानों की आय नहीं बढ़ी है। उन्हें कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं है। वे लगातार हाशिये पर जा रहे हैं। नीति निर्माताओं को इससे कोई मतलब नहीं है कि इन्हीं किसानों ने देश को बार-बार भुखमरी से बचाया है। खेती अभी भी देश का सबसे बड़ा रोजगार उत्पादक है किन्तु नीति निर्माताओं की ओर से इस पर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है। दूसरी ओर कॉर्पोरेट सेक्टर को छूट पर छूट दी जा रही है जिसके चलते निर्धनता, दुर्गति और पलायन बढ़ता जा रहा है। यह विधायिका पर है कि कृषि संकट जो सभ्यता का संकट में बदलता जा रहा है, उसका वह कैसे समाधान करती है।
विधायिका को समझना होगा कि कृषि के लिए एपीएमसी उसी तरह है जिस तरह शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालय और स्वास्थ्य के लिए सरकारी अस्पताल है। सरकारी स्कूलों में ढेरों खामियां हैं किन्तु उसका समाधान उन खामियों को दूर करना है न कि उनको बंद कर देना और शिक्षा को निजी क्षेत्र में डाल देना। सरकारी स्कूल गरीब घरों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्ति का एकमात्र साधन हैं। उसी तरह कोविड की वैश्विक महामारी के दौरान सरकारी अस्पतालों का महत्व लोगों ने समझा था और यह बात सामने आई थी कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र का कोई विकल्प नहीं है। यही बात एपीएमसी के लिए भी लागू है। बिना सरकारी हस्तक्षेप के किसानों को उनके उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिल सकता है।
जनवरी 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय कृषि कानूनों पर रोक लगा दी थी जिसमें एपीएमसी निरस्तीकरण के समकक्ष कानून भी था। यदि बिहार के निरस्तीकरण कानून की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट जांचे तो इस कानून का भी वही हश्र होगा जो केन्द्रीय कानून का हुआ। अभी भी सुप्रीम कोर्ट के खारिज निर्णय पर पुनः अपील की जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट ने निरस्तीकरण कानून की संवैधानिकता पर किसानों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए विचार नहीं किया था।
उल्लेखनीय है कि प्रो.एम.एस.स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ)ने दिसंबर 2004-अक्टूबर 2006 की अवधि के दौरान पांच रिपोर्टें प्रस्तुत कीं। स्वामीनाथन आयोग ने भी राज्य कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियमों के निरंतर अस्तित्व के पक्ष में समर्थन और सिफारिशें की हैं। एपीएमसी अधिनियम कृषि उपज के विपणन, भंडारण और प्रसंस्करण से संबंधित हैं। किसानों के हित में INDIA गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी)को एपीएमसी अधिनियम सहित किसान आंदोलनों की सभी मांगों और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को अंगीकार करना चाहिए।
*लेखक वकील व कानून और लोकनीति विश्लेषक हैं
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