Thursday, August 20, 2015

हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें! हकीकत स्याह सफेद यादें स्याह सफेद ख्वाब भी स्याह सफेद दिलों की दांस्तां स्याह सफेद सरहदें स्याह सफेद कायनात स्याह सफेद रब का खजाना स्याह सफेद बाकी रंग झूट्ठ्यो बंकी रंग विशुध तिजारत चाहे पतझड़ या फिर बहार हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें! देर रात को कैंपस में भले छापे मार लो। सारी बागी आवाजों को कैद कर लो। कैद कर लो ख्वाब तमाम। हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है। फिर भी कलरव है दस दिगंत,जान लो। फिर भी कोई सूरत नहीं है कि लब फिर आजाद ने हों। पलाश विश्वास


हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें!

हकीकत स्याह सफेद

यादें स्याह सफेद

ख्वाब भी स्याह सफेद

दिलों की दांस्तां स्याह सफेद

सरहदें स्याह सफेद

कायनात स्याह सफेद

रब का खजाना स्याह सफेद

बाकी रंग झूट्ठ्यो

बंकी रंग विशुध तिजारत

चाहे पतझड़ या फिर बहार

हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें!

देर रात को कैंपस में भले छापे मार लो।

सारी बागी आवाजों को कैद कर लो।

कैद कर लो ख्वाब तमाम।

हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।

फिर भी कलरव है दस दिगंत,जान लो।

फिर भी कोई सूरत नहीं है कि लब फिर आजाद ने हों।


पलाश विश्वास


बचपन में मेरी मां को मुझसे कोई खास मतलब न था चूंकि घर कचहरी जितना बड़ा था,हालांकि छप्परों का कच्चा कच्चा बांस के ढांचे पर मिट्टी की बुनियाद और गोबर माटी की दीवालों पर बना साझे चूल्हे का झुरमुट था वह छूटा हुआ घर।


घर छोड़ने के बाद फिर कोई घर नहीं देखा है।

इमारतें देखी है बेइंतहा,जिसके किसी तहखाने में हम यदा कदा चस्पां हो जाया करते हैं।


मैं खास तौर पर अपनी ताई का बेटा रहा हूं और मेरी सारी जिम्मेदारी मेरी चाची की जिम्मे थी।


उस घर की तमाम औरतें,यहां तक कि बसंतीपुर की तमाम बच्ची से लेकर बूढ़ी औंरतों को मेरे दिल पर रहम आता था कि किसी न किसी बात पर उनके तमाम एहतियात के बावजूद मेरा दिल रोये चला जाता था और जब दिल काबू में न हो,तब मैं गुस्से में नागराज जैसे फन काढ़ लेता था।


फिर उनको मालूम थी कि दुनिया की अब कोई खैर नहीं।


शादी के तैंतीस साल बाद सविता बाबू को भी घबड़हट होने लगी है कि मेरे लिखे से खून महमहाता है इतना जियादा कि उसका घर में अब जी घबड़ाने लगा है।


वरना मेरे मुकाबले वे बेहद मजबूत कलेजे की है।जबसे उसे दिल का आपरेशन हुआ है,वह हर जख्मी दिल को सहेजने के फिराक में रहती है और अस्पताल से श्मशानघाट तक दौड़ने से घबड़ाती भी नहीं है। वैसे शादी के बाद उसने मुझे कोलफील्ड्स के माफिया जुद्ध की क्रास फायरिंग से गुजरते हुए या बंद कोयलाखानों में उतरते हुए भी देख चुकी है।


हालात इतने खराब है,इतने संगीन है कि मजबूत दिलवाली सविता बाबू भी डरने लगी है।


कल जब मैं अंग्रेजी में मातृभूमि का किस्सा लिखने लगा तो बोली,पता नहीं,पंगा लेते रहने से कब बाज आओगे।


दो दिनो के बाद शंकरी जब आयी,तब उसे मेरे उस दिन का लिका समझ आया।शंकरी हमारी कामवाली है नई नवेली।


उसका पति बीमार है और बेटी बैरकपुर की सबसे अच्छे स्कूल की सबसे जहीन बच्ची है जो बारहवीं दर्जे में ख्वाब जी रही है।

उसकी मां उसके ख्वाबों के पीछे भाग रही है।


सविता इन दिनों बीमार रहती है खूब।अभी एंटी अलर्जी पर है और सोये चलती है।


उसके गुस्से में ठहराव से पहले शंकरी ने अपने जख्मी पांव दिखाये जो खड़दह तकट्रेन से पहुंचकर मातृभूमि महाभारत की वजह से कुरुक्षेत्र में मची भगदड़ से लगे हैं और वह दो दिनों तक घर बैठी रही।


जिस प्यारी बिटिया के ख्वाबों के खातिर वे शहर शहर बर्तन मांजती है,झाढ़ू बुहार करती है,उसकी जान फिलहाल सलामत है वरना ट्यूशन पढ़कर टीचर के घर से निकली ही थी कि रेल गेट पर उसके साथ चल रही सहेली को ईंट माथे पर लगी है,आंख बची है कि नहीं,अभी कहना मुश्किल है।


अभी अस्पताल में वह जिंदगी के लिए जूझ रही है।किसी न किसी की वह प्यारी सी गुड़िया,जो हममें से किसी की शायद कुछ नहीं है।



शंकरी की बेटी और दूसरी बच्चियां मारे डर के हलवाई की बंद हो रही दुकान में दौड़कर पनाह ली तो खैरियत है कि खाली कड़ाही में दाखिला हो गया।


गनीमत है कि दोपहर को मिठाइयां खौलती नहीं है।


मजहबी सियासत लेकिन रात दिन खौल रही है।

न जाने कहां कहां कौन कौन जिंदा जलाया जा रहा है।


न जाने कहां कहां गोलियां चल रही हैं और न जाने किसका कौन अपना कहां बेमौत मारा जा रहा है ,सियासतें वसंत बहार है।



मेरे बचपन का फलक इतना इतना बड़ा रहा है कि हजारों साल की तन्हाइयों का वह बाकायदा जवाब है।शायद धरती पर कहीं भी सरहदों के आर पार  हर इंसान का बचपन इतना ही बड़ा होता है।


हर कोई शेयर तो करता नहीं यकीनन।


मेरे उस बचपन में जितना मोहनजोदोड़ो है उतना ही हड़प्पा है।


मेरे उस बचपन में जितना हिंदुस्तान  है उससे कहीं ज्यादा सारा जहां है।इनका और माया है।बाकी विभाजन है और विभाजन है।


मेरा बचपन मुकम्मल कोई शरणार्थी शिविर है ,जहां सारे के सारे जख्मी लोग,चेहरे जिनके झुलसे हुए।


यातना शिविर हो या न हो,कंटीले तारों की चुभन से बुलबुलों के दिल तार तार।


संगीत फिर हो न हो,संगीतबद्ध कुछ भी न हो,तो क्या,वे चीखें अब भी जिंदा हैं।


उन्हीं चीखों का मुकम्मल वजूद हूं फलक की तरह सारा जहां।


हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें!


हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें!




तमाम राक्षस,असुर,दैत्य,दानव,भूत प्रेत,यक्ष,किन्नर,ड्राकुला जो हैं सो हैं।सारे मारे गये रेड इंडियन अमेरिकाओं के हैं।वे भी हैं।


सारे के साऱे अश्वेत गुलाम हैं।

सारे के सारे अछूत और सारे के सारे शरणार्थी रंगबिरंगे हैं।

सारे के सारे महाकाव्य और सारे के सारे धर्मग्रंथ हैं।


उस बचपन में यूं तो कुछ भी रईस न था।न कोई पक्का मकान था अपने देहात में,न कोई पक्की सड़कें थीं अपने देहात में।


दिलों का हाईवे हर दिशा में खुला खुला था।जिधर मर्जी चल पड़ो,फिर मुहब्बतों की बेशुमार बौछार।


तन्हाई का कोई मौका न था कहीं,यारों।


फिर भी मैं मसलन की छत पर अकेला,मसलन कि भैंस की पीठ पर,मसलन कि अपनी नन्ही सी नदी के बीचोंबीच,मसलन कि जंगल की वीरानगी में कहीं या किसी खंडहर में या फिर श्मशान या कब्रिस्तान में इकलौता अमूंमन आंखें बंद करके दिलो दिमाग के सारे के सारे दरवाजों और खिड़कियों को खोलकर रंगों के आखेट में यूं निकल जाता था।


इंद्रधनुष अक्सर दिखते थे,खासकर तब जब छिटपुट बारिशों के दरम्यान धूप हो जाती खिली खिली,तभी तो इंद्रधनुष के आखेट का खुल्ला मौका था।


पढ़ाई करते हुए बीच में चिराग बुझाकर रसोई की तरफ जाते हुए चारों तरफ बेशुमार जहरीले सांपं से बेपरवाह जो लम्हे होते थे सुनहले उस अंधेरों के तारों में उलझे हुए,उस इंद्रधनुषी सुनहली के सारे रंग अपने खजाने में जमा करने का मैं बेहद शौकीन रहा हूं।


अब बूढ़ा हो गया हूं।वक्त रेत की तरह फिसलने लगा है बेहद तेज।

बैठे ठाले ख्वाब आखेट की मोहलत न देगा कोई।

न सन्नाटों में दर्ज लहूलुहान चीखें हमें चैन से सोने देंगी।


उस वक्त जिंदगी जितनी लंबी चौड़ी लगती थी और सावन के अंधे गदहे की तरह सारा चारागाह चरने की जो फिक्र थी,वह सबकुछ अब कोई ठहरी हुई मरी हुई झील है स्याह सफेद।जिसकी लहरें खामोश।


बाकी दुनिया मलबे में ढकी ढकी सी मलरोड की जिंदगी है।

बाकी किस्सा या तो छूटा हुआ बसंतीपुर है।

या फिर छूटा हुआ नैनीताल।


उस किस्से के किरदार भी सारे जिंदा नहीं हैं।


जैसे बसंतीपुर की मरखप गयी पीढ़ियां है।वैसे ही वीरान होने लगी है आहिस्ते आहिस्ते दोस्तियों की तमाम बस्तियां भी बहुत तेज।


सलवा जुड़म है भी और नहीं भी है सलवा जुड़ुम।

अपना गिराबल्लभ,सबका गिरदा है भी,और नहीं भी है गिरदा।


देर रात को कैंपस में भले छापे मार लो।

सारी बागी आवाजों को कैद कर लो।

कैद कर लो ख्वाब तमाम।


फिर भी कलरव है दस दिगंत,जानलो।

फिर भी कोई सूरत नहीं है कि लब फिर आजाद ने हों।


फिर आफसा हो न हो

सलवा जुड़म है भी और नहीं भी है सलवा जुड़ुम।

अपना गिराबल्लभ,सबका गिरदा है भी,और नहीं भी है गिरदा।


सलवा जुड़म है भी और नहीं भी है सलवा जुड़ुम।

अपना गिराबल्लभ,सबका गिरदा है भी,और नहीं भी है गिरदा।



यह अलग बात है कि लबों पर बोल के मरने जीने वाला जिगर आखेर हर किसी का नहीं होता।चूंकि हकीकत आखेर स्याह सफेद चीखों का बेइंतहा कैनवास कोई पिकासो कहीं चीख रहा।


दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं है इनदिनों।

न तमाम दुनियायों का झुरमुट कोई बहुत बड़ी चीज है इन दिनों।

सिर्फ डैनों की कमी है,वरना कहां कहां न उड़कर चला जाता।


लब भी आजाद है।सरासर वे झूठ बोलते हैं जिन्हें शहादत का शौक है और झूठ की बुनियाद पर जिनके शीशे के महल हैं।


हुकूमत की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें।

हुकूमत की औकात क्या कि चीखों को आवाज बनने से रोक दें।


खून की नदियां जब लहलहाती फसल हो,आसमान में जब बेइंतहा सूराख हो,कौन रोक सके हैं मानसून को कहीं इस कायनात में।


हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें!

हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें!



मजा तो तब है जब पहरेदारों की ऐसी की तैसी करके बात चलें तो चलती ही रहें और दूर तलक चले हैं।ऐसी तरकीब कोई निकाले बिना हल्ला असली मसलों के बजाय मस्सों पर जो करै है,समझो हनुमान वह अगला राम बनने चला है।


सीना जो चीरकर दिल का जलवा बिखेर दें,वह बजरंगवली का कलेजा हौवे तो वह भी स्याह सफेद।


ऐसा अमूमन क्यों होता है कि दोस्ती,दुशमनी,मुहब्बत की असलियत जो स्याह सफेद है,जिंदगीभर वे बेहद रंगारंग और असलियत जब सहर होती है और आखिरी पहर जब अपने घर की दीवारों में बुने सन्नाटा कि सुनने लगें तो आखिरी वक्त होता है।


यूं तो मिजाज पुर्सी से फुरसत नहीं,मिजाज समझते न समझते जिंदगी बेड़ागर्क टपक चल दी कि झपक खत्म दिलों की जुबां।


जिस जुबां में दिलों का कारोबार न चले.उस जुबां से बेहतर बेजुबां

कि परिंदो के गुफ्तगूं पर भी गौर करें कि दिलों में गर हो मुहब्बत तो परिंदों की जुबां भी अपनी जुबां लगे हैं,इंसानियत की बात क्या।


अभिव्यक्ति के खतरे हैं तो खतरे उठाने होंगे।

तमाम किले,मठ,गढ़ और तिलिस्म ढहाने होंगे।


हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें!

हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें!



होंगे उनके मंत्र तंत्र यंत्र ताबीज वशीकरण चिला वगैरह।

उन सबका काट जो निकालों तो समझें बोलते हो या लिखते हो।


वरना हगता मूतता इंसान क्या हगना मूतना, हर जानवर.कीड़े मकोड़े की वह  फितरत है।


पहरा है तो पहरे को तोड़ो।

अलगाव है तो जोड़ो।


बे,सबसे पहले किरचियों में बिखरी इंसानियत को जोड़के दिखा

बे,पुरस्कार,सम्मान,हैसियत से कोई बड़ा होता नहीं है बे।


इतना बड़ा बन कि पांवों तले रौद चलें झूठ का कारोबार सारा।

झूठ के तामजाम का हर मुलम्मा उतारके फिर आ मैदान में।



बे,सबसे पहले किरचियों में बिखरी इंसानियत को जोड़के दिखा

बे,पुरस्कार,सम्मान,हैसियत से कोई बड़ा होता नहीं है बे।


फैनों के फन से नहीं बदलते हैं हालात।

बदलाव किसी रब के बस में भी नहीं।

बदलाव तभी,जब जागे इंसानियत।


सन्नाटा है तो, है तो है

तोड़ो सबसे पहले वो सन्नाटा।


हुकूमतों का बहाना बुजदिली है या फिर सियासती कोई बाजीगरी है।

हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें!

हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें!


हकीकत स्याह सफेद

यादें स्याह सफेद

ख्वाब भी स्याह सफेद

दिलों की दांस्तां स्याह सफेद

सरहदें स्याह सफेद

कायनात स्याह सफेद

रब का खजाना स्याह सफेद

बाकी रंग झूट्ठ्यो

बंकी रंग विशुध तिजारत

चाहे पतझड़ या फिर बहार


यूं न समझें कि रंगों का दुश्मन हुं कोई और रंग मुझे सुहाते न हों।

यूं भी न समझें कोई कि रंगों की तहजीब नहीं है या फिर कोई पतझड़ों का कारोबार है।


बंगाल के किसी बड़े कवि ने लिख मारा,धूसर पांडुलिपि।

मैं न कवि हूं और न शायर मैं।न पिद्दी न पिद्दी का शोरबा।


वनलता सेन भी मेरे लिए स्याह सफेद है तो मधुबाला, नर्गिस, मीनाकुमारी, वैजयंती.सुचित्रा सेन से लेकर डा.जिवागो,ला मिजरेबल्स,वार एंड पीस और दुनियाभर का क्लासिक मेरे लिए या स्याह सफेद हकीकत है,या यादें स्याह सफेद


ख्वाब भी स्याह सफेद

दिलों की दास्तां स्याह सफेद

सरहदें स्याह सफेद

कायनात स्याह सफेद

रब का खजाना स्याह सफेद


और मुहब्बतें बहार हों न हों,फूल बरसायें या न बरसायें,दिलोदिमाग के कारोबार में यकीनन स्याह सफेद हैं।


बल्कि यूं समझें,फरेब से बेहतर रंगीन कुछो ना है।

नफरत के रंग जैसे गुजराती रंगारंग रंगीन सुनामियां।जैसे स्पीलवर्ग के ख्वाब या फिर संजयलीला भंसाली के जलवे।


स्याह सफेद दिलोदिमाग पाया है तो बेहद तकलीफ होती है कि रंगों के तिलिस्म में गिरफ्तारियों का सिलसिला बेइंतहा है।


बल्कि यूं समझे झूठ का कारोबार,नफरत का कारोबार,फासीवाद का राजकाज सबकुछ रंगारंग वसंतबहार है।

इन दिनों सियासत भी रंगारंग वसंतबहार है।

हुकूमतों की औकात क्या कि लबों को हरकतों से रोक दें!

हकीकत स्याह सफेद

यादें स्याह सफेद

ख्वाब भी स्याह सफेद

दिलों की दांस्तां स्याह सफेद

सरहदें स्याह सफेद

कायनात स्याह सफेद

रब का खजाना स्याह सफेद

बाकी रंग झूट्ठ्यो

बंकी रंग विशुध तिजारत

चाहे पतझड़ या फिर बहार

हुकूमतों की औकात क्या कि चीखों का बेइंतहा कारवां सिलसिला रोक दें!

देर रात को कैंपस में भले छापे मार लो।

सारी बागी आवाजों को कैद कर लो।

कैद कर लो ख्वाब तमाम।

फिर भी कलरव है दस दिगंत,जान लो।

फिर भी कोई सूरत नहीं है कि लब फिर आजाद ने हों।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हमने नैनीताल क्लब को 28 नवंबर, 1978 को कुछ ही मिनटों मे जलकर राख होते देखा है।हुकूमत को खाक होते भी देखा है।हुड़के की मीठी थाप में बादलों को गरजते बरसते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


तेरी तो ऐसी की तैसी,गिराबल्लभ

बनारस के गंगाघाट पर राजीव की फिल्म बनते देखी है।


पिंजड़े में बंद तोते के उड़ान से इंकार के बाबत अपने प्यारे गिराबल्लभ को लहूलुहान होते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हमने सर्द पहाड़ों को हिमपात दौरान जलते हुए देखा है।


बरतानिया हुकूमत में जहां गोलियां नहीं चली,वनों की नीलामी के खिलाफ हुड़के की थाप के खिलाफ उस नैनीताल में गोलियां बरसते देखा है।


हमने पहाड़ों में दावानल भी देखा है।


फिर वही दावानल छत्तीसगढ़, झारखंड.दंडकारण्य और मणिपुर में भी बहकते महकते देखा है।


और हमने डल झील,चिनारवन और गुलमर्ग,झेलम से लेकर गंगा यमुना और ब्रह्मपुत्र की धार तलक में गिरदा को बनारस बनते देखा है।



हमने शौचालय की पीठ पर शमशेर दाज्यू के भाषण के दौरान पहाड़ को जागते देखा है।


हमने हुड़के की थाप पर हिमालय के उत्तुंग शिखरों को पिघलते देखा है।


हिमपात के मौसम में बहारों को घाटियों में फूल बरसाते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


शून्य डिग्री तापमान पर छुट्टी के बाद सीआरएसटी के नन्हे बच्चों पर जल तोप चलाती पुलिस के खिलाफ नैनी झील की गहराइयों से उबलते ज्वालामुखी को देखा है।


हमने हुड़के की थाप पर पहाड़ पहाड़ इजाओं,भूलियों,बैणियों का जाग जाग देखा है।


हमने गिरदा के कमरे के साझे लिहाफ में सविता के साथ सर्द पहाड़ों में अपना हानीमून भी देखा है।

हमने सविता बाबू के बोल में हुड़के की थाप महकते देखा है।


हमने अमलेंदु,अभिषेक और रंजीत वर्मा की हरकतों में भी गिरदा का चेहरा चस्पां होते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


उसी लिहाफ में हमने गिरदा के बेटे अपने पिरमा का बचपन पकते हुए हमने देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


शेखर,गिर्दा और हमारी बहस में उलझती सुलझती उमा भाभी की आंखों में प्यार और उसमें फिर वहीं हुड़के की गूंज दूर आसमान की गहराइयों तलक बजते हुए हमने देखा है।


हमने उमा भाभी के हाथों में भर भरकर गिलास चा के साथ गुड़ की डलियों में हुड़के की थाप देखी है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


जबभी राजीव नयन बहुगुणा की टीप आती है कहीं गहराइयों से तो हमने चिरकुट पर लिखी गिर्दा की कविताओं और गीतों में फिर हुड़के को गरजते देखा है।


हमने राजा बहुगुणा की गिरदा बनने की जुगत भी देखी है और डीएसबी में उसे पिटते हुए देखन के बाद गिरदा की संगत में भी देखा है।


हमने उत्तरा और पहाड़ के हर पन्ने पर गिरदा का चेहरा देखा है।


हमने रामचंद्र गुहा के लिखे में गिरदा के हुड़के को बोलते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है


हमने हरुआ दाढ़ी और पवन राकेश को गिरदा के साथ हमें लपेटकर गरियाते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हमने अपने ब्रह्मराक्षस गुरुजी के साथ हुड़के की थाप में एकाकार गिरदा को गडड्मड्ड गड्डमड्ड और अपने प्यारे मोहन की खामोशी में पहाड़ को समाधिस्थ देखा है।


हमने विपिनचचा की जेल डायरी में गिरदा की हुड़के को बोलते देखा है।


हमने धार पर गिरते हर पेड़ की पुकार में हुड़के की थाप अनंत चीख में तब्दील होते भी देखा है।


हमने तमाम ताल बेताल होते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हमने आखरों से अलख जगाते गिराबल्लभ,अपने प्यारे गिराबल्लभ को देखा है।


हमने हुड़के की थाप में चंद्रेश शास्त्री के अर्थशास्त्र को देखा है।

हमने गिराबल्लभ की मेहरबानी से नैनीताल समाचार की ट्रेडिलमशीन को आफसेट में बदलकर रंग बरसाते देखा है।


हमने हुड़के की थाप की संगत करते बाबा कारंथ का संगीत देखा है और हमने युगमंच पर गिर्दा के साथ जहूर का जलवा देखा है।डीके को डीके होते देखा है।हमने बचपन से इदरीश को देखा है।पहाड़ के सारे रंगकर्मियों के चेहरे पर गिर्दा का चेहरा चस्पां होते भी हमने देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हमने कमलाराम नौटियाल ,पहाड़ी और बचीराम कौसंवाल की आवाज में हुड़के की थाप को महकते हुए देखा है।


हमने कमल जोशी की हर क्लिक पर गिरदा के हुड़के को फिर जिंदा होते देखा है।


हमने नैनीताल समाचार की पर पाती में गिरदा के हुड़के की थाप को महकते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हमने देखा है प्यार भी बेइंतहा गिराबल्लभ का।उबले अंडे और अशोक जलपानगृह के बन मक्खन से गुजारा उनका देखा है।


हमने देखा है गिरदा का इंतजार भी।उनकी बेचैनी देखी है और हमने देखी है उनकी मस्ती भी।बस्तियों को जगाते देखा है हमने उस हुड़के को।


एक कप चाय या एक कप चा में साझा चूल्हा को आग और धुआं उगले देखा है हमने


गिरदा के हुड़के की थाप पर हमने मंगलेश और वीरेनदा की कविताओं को बहकते देखा है और मुक्तिबोध और गौर्दा को एकमुश्त जिंदा होते देखा है


हमने आनंद स्वरुप वर्मा को मालरोड पर गिरदा के साथ टहलते देखा है।हमने विकल्प मीडिया का लेआउट बनते बिगड़ते देखा है।


हम हरेला उगा ही रहे थे जनसुनवाई का अखबार बनाने के लिए।हमने हुड़के की थाप पर मुक्त बाजार को ढहते हुए भी देखा है।


हमने हुड़के की थाप पर समकालीन तीसरी दुनिया,समयांतर,मजदूर बिगुल,संघर्षसंवाद और हस्तक्षेप को छपते देखा है।


हमने डीएम के मुंह पर थूकते हुए गिरदा को तब भी देखा, जब भागीरथी बंध गयी थी गोमुख में भूस्खलन से और उत्तरकाशी बगने लगा था,सारा भारत डूब में शामिल होने लगा था।


हमने होलियार गिरदा की हुड़के से जी रौ सौ बरीस बरसते देखा है

हमने नैनीझील और मालरोड को एकमुश्त हुलसते देखा है।


हमने अपने हिमालय को तपिश और दहन में झुलसते देखा है।


हमेने हीरा भाभी की आंखों में उमड़ते प्यार में गिरदा की हुड़के की थाप बरसते देखा है।


प्यारे गिराबल्लभ को घेरकर दोस्तों,तमाम नैनीतालियों को एकजुट होते देखा है हमने।


हमने फ्लैटस के शरदोत्सव में गिराबल्लभ को मानसूनकी तरह बरसते देखा है।हुड़के की थाप को मानसून में तब्दील होते देखा है।


हमने हुड़के की थाप पर खामोश नगाड़ों को फिर झूम झूमकर बोलते देखा है।


हमने माल रोड पर अंधेर नगरी,भारत दुर्दशा देखी है और हमने देखा है जुलूस अंतहीन और त्रिशंकु के साथ एवं इंद्रजीत के दरम्यान युगमंच के रंगकर्मियों को आग के गोलों में तब्दील होते हुए देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।


हिमपात के दर्मयान,भूस्खलन के दर्मयान,बाढ़ के दर्मयान,भूकंप के दर्मयान,हर आपदा के दर्मान हमने गिरदा के हुड़के की थाप को घाटी घाटी पहाड़ में और मैदानों में भी,पहाड़ में और तराई में भी मानव बंधन में तब्दील होते देखा है।


हमने पीसी तिवारी, जल्योटी, काशी,रौतेला से लेकर पाहाड़ के हर कालेज के छात्र नेता को गिर्दा की हुड़के की थाप में संगत करते देखा है।


हमने लेनिन पंत,मोहन उप्रेती और ब्रजमोहन साह को गिरदा के हुड़के के साथ देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है


हमने हुड़के की थाप पर मालरोड को बीच हिमपात पिघलते देखा है

हमने अपने शेरदाज्यू और राजीवदाज्यू के शांत चेहरे में गुस्से की आग में गिरदा के हुड़के को बोलते देखा है।


हमने निर्मल जोशी के थैंक्यू मिस्टर ग्लाड और उसपर हाफ पैंटियों की लाठी की वार पर हुड़के की थाप में पहाड़ को बोलते देखा है।


हमने हुड़के की थाप पर अल्मोड़ा के लाला  बाजार को महकते देखा है

हमने हुड़के की थाप पर डूब में शामिल टिहरी को जागते देखा है।


हमने सुंदर लाल बहुगुणा की आंखों से पहाड़ को रेगिस्तान में बदलते देखा है तो हुड़के की थाप फिर जिंदा होते देखा है।


हमारे प्यारे गिराबल्लभज्यू,तेरे हुड़के की थाप बेहद सताती है।

Rajiv Lochan Sah's photo.

Rajiv Lochan Sah

अब गिरदा को याद करने की तैयारी.....

वैसे तो गिरदा हम से अलग ही कब हुआ था ? उसका "यार बब्बा, जब तक प्राण बचे हैं, एक टोक्याल तो छोड़नी ही हुई," कहना ही तो हमें अब भी आगे धकेल रहा है।

मगर 22 अगस्त को उसकी पांचवीं पुण्यतिथि पर उसे याद करने के लिये नैनीताल के रंगकर्मी उत्साह से जुटे हैं। कार्यक्रम दो दिनों का है, मगर ब्रजमोहन जोशी और अनिल कार्की की टीम कल से ही अपना स्लाइड शो लेकर स्कूलों का चक्कर लगाना शुरू कर देंगे।

पता नहीं अन्यत्र क्या तैयारी है।

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace

Image result for war and peace


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments: