हाल ही में 
एक बुजुर्ग पत्रकार मित्र ने मशहूर शायर मीर की लखनऊ यात्रा पर एक किस्सा 
सुनाया था। हुआ यों कि मीर चारबाग स्टेशन पर उतरे, तो उन्हें पान की तलब 
हुई। वे एक ठीहे पर गये। बोले “जरा एक पान लगाइएगा।” पनवाड़ी ने उन्हें 
ऊपर से नीचे तक गौर से देखा, फिर बोला, “हमारे यहां तो जूते लगाये जाते हैं
 हुजूर।” दरअसल, यह बोलचाल की भाषा का फर्क था। लखनऊ में पान बनाया जाता 
है। लगाने और बनाने के इस फर्क को समझे बगैर दिल्ली से आया मीर जैसा अदीब 
भी गच्चा खा जाता है। गालिब, जो इस फर्क को बखूबी समझते थे, बावजूद खुद 
दिल्ली में ही अपनी आबरू का सबब पूछते रहे। दिल्ली और दिल्ली के बाहर के
 पानी का यही फर्क है, जिसे समझे बगैर गयासुद्दीन तुगलक से दिल्ली हमेशा 
के लिए दूर हो गयी। गर्ज ये, कि इतिहास के चलन को जाने-समझे बगैर दिल्ली 
में कदम रखना या दिल्ली से बाहर जाना, दोनों ही खतरनाक हो सकता है। क्या 
नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात कोई जाकर समझा सकता है? चौंकिए मत, 
समझाता हूं…
अगर आपने 
राजनीतिक जनसभाएं देखी हैं, तो जरा आज की संज्ञाओं का भारीपन तौलिए और 
मीडिया के जिमिजिप कैमरों के दिखाये टीवी दृश्यों से मुक्त होकर जरा ठहर 
कर सोचिए : जगह दिल्ली, मौका राजधानी में विपक्षी पार्टी भाजपा की पहली 
चुनावी जनसभा और वक्ता इस देश के अगले प्रधानमंत्री का इकलौता घोषित 
प्रत्याशी नरेंद्र मोदी। सब कुछ बड़ा-बड़ा। कटआउट तक सौ फुट ऊंचा। दावा भी
 पांच लाख लोगों के आने का। छोटे-छोटे शहरों में रैली होती है, तो रात से 
ही कार्यकर्ता जमे रहते हैं और घोषित समय पर तो पहुंचने की सोचना ही 
मूर्खता होती है। मुख्य सड़कें जाम हो जाती हैं, प्रवेश द्वार पर 
धक्का-मुक्की तो आम बात होती है। दिल्ली में आज ऐसा कुछ नहीं हुआ। न कोई
 सड़क जाम, न ही कोई झड़प, न अव्यवस्था। क्या इसका श्रेय जापानी पार्क 
में मौजूद करीब तीन हजार दिल्ली पुलिसबल, हजार एसआईएस निजी सिक्योरिटी और
 हजार के आसपास आरएएफ के बलों को दिया जाए, जिन्होंने कथित तौर पर पांच 
लाख सुनने आने वालों को अनुशासित रखा? दो शून्य का फर्क बहुत होता है। अगर
 हम भाजपा कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों, मीडिया को अलग रख दें तो भी सौ 
श्रोताओं पर एक सुरक्षाबल का हिसाब पड़ता है। जाहिर है, पांच लाख की दाल 
में कुछ काला जरूर है।
आयोजन स्थल 
पर जो कोई भी सवेरे से मौजूद रहा होगा, वह इस काले को नंगी आंखों से देख 
सकता था। मोदी की जनसभा का घोषित समय दस बजे सवेरे था, जबकि वक्ता की 
लोकप्रियता और रैली में अपेक्षित भीड़ को देखते हुए मैं सवेरे सवा सात बजे 
जापानी पार्क पहुंच चुका था। उस वक्त ईएसआई अस्पताल के बगल वाले रोहिणी 
थाने के बाहर पुलिसवालों की हाजिरी लग रही थी। सभी प्रवेश द्वार बंद थे। न 
नेता थे, न कार्यकर्ता और न ही कोई जनता। रोहिणी पश्चिम मेट्रो स्टेशन 
वाली सड़क से पहले तक अंदाजा ही नहीं लगता था कि कुछ होने वाला है। अचानक 
मेट्रो स्टेशन वाली सड़क पर बैनर-पोस्टर एक लाइन से लगे दिखे, जिससे रात 
भर की तैयारी का अंदाजा हुआ। बहरहाल, आठ बजे के आसपास निजी सुरक्षा एजेंसी 
एसआईएस के करीब हजार जवान पहुंचे और उनकी हाजिरी हुई। नौ बजे तक ट्रैक सूट 
पहने कुछ कार्यकर्ता आने शुरू हुए। गेट नंबर 11, जहां से मीडिया को प्रवेश 
करना था, वहां नौ बजे तक काफी पत्रकार पहुंच चुके थे। गेट नंबर 1 से 4 तक 
अभी बंद ही थे। सबसे ज्यादा चहल-पहल मीडिया वाले प्रवेश द्वार पर ही थी। 
दिलचस्प यह था कि तीन स्तरों के सुरक्षा घेरे का प्रत्यक्ष दायित्व तो 
दिल्ली पुलिस के पास था, लेकिन कोई मामला फंसने पर उसे भाजपा के 
कार्यकर्ता को भेज दिया जा रहा था। तीसरे स्तर के सुरक्षा द्वार पर भी 
भाजपा की कार्यकर्त्री और एक स्थानीय नेतानुमा शख्स दिल्ली पुलिस को 
निर्देशित कर रहे थे।
यह अजीब था, 
लेकिन दिलचस्प। साढ़े नौ बजे पंडाल में बज रहे फिल्मी गीत “आरंभ है 
प्रचंड” (गुलाल) और “अब तो हमरी बारी रे” (चक्रव्यूह) अनुराग कश्यप व 
प्रकाश झा ब्रांड बॉलीवुड को उसका अक्स दिखा रहे थे। इसके बाद “महंगाई 
डायन” (पीपली लाइव) की बारी आयी और भाजपा के सांस्कृतिक पिंजड़े में आमिर 
खान की आत्मा तड़पने लगी। जनता हालांकि यह सब सुनने के लिए नदारद थी। 
सिर्फ मीडिया के जिमीजिप कैमरे हवा में टंगे घूम रहे थे। अचानक मिठाई और 
नाश्ते के डिब्बे बंटने शुरू हुए। कुछ कार्यकर्ता मीडिया वालों का 
नाम-पता जाने किस काम से नोट कर रहे थे। फिर पौने दस बजे के करीब अचानक एक 
परिचित चेहरा दर्शक दीर्घा में दिखाई दिया। यह अधिवक्ता प्रशांत भूषण को 
चैंबर में घुसकर पीटने वाली भगत सिंह क्रांति सेना का सरदार नेता था। उसकी 
पूरी टीम ने कुछ ही देर में अपना प्रचार कार्य शुरू कर दिया। “नमो नम:” 
लिखी हुई लाल रंग की टोपियां और टीशर्ट बांटे जाने लगे। कुछ ताऊनुमा बूढ़े 
लोगों को केसरिया पगड़ी बांधी जा रही थी। कुछ लड़के भाजपा का मफलर बांट रहे
 थे। जनसभा के घोषित समय दस बजे के आसपास पंडाल में भाजपा कार्यकर्ताओं, 
स्वयंसेवकों और मीडिया की चहल-पहल बढ़ गयी। सारी कुर्सियां और दरी अब भी 
जनता की बाट जोह रही थीं और टीवी वाले जाने कौन सी जानकारी देने के लिए 
पीटीसी मारे जा रहे थे।
सवा दस बजे 
एक पत्रकार मित्र के माध्यम से सूचना आयी कि नरेंद्र मोदी 15 मिनट पहले 
फ्लाइट से दिल्ली के लिए चले हैं। यह पारंपरिक आईएसटी (इंडियन स्ट्रेचेबल
 टाइम) के अनुकूल था, लेकिन आम लोगों का अब तक रैली में नहीं पहुंचना कुछ 
सवाल खड़े कर रहा था। साढ़े दस बजे के आसपास माइक से एक महिला की आवाज़ 
निकली। उसने सबका स्वागत किया और एक कवि को मंच पर बुलाया। “भारत माता की 
जय” के साथ कवि की बेढ़ंगी कविता शुरू हुई। फिर एक और कवि आया, जिसने 
छंदबद्ध गाना शुरू किया। कराची और लाहौर को भारत में मिला लेने के आह्वान 
वाली पंक्तियों पर अपने पीछे लाइनें दुहराने की उसकी अपील नाकाम रही 
क्योंकि कार्यकर्ता अपने प्रचार कार्य में लगे थे और दुहराने वाली जनता अब
 भी नदारद थी।
पौने ग्यारह
 बजे की स्थिति यह थी कि आयोजन स्थल पर बमुश्किल दस से बारह हजार लोग 
मौजूद रहे होंगे। एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर ने (नाम लेने की जरूरत नहीं) 
बताया कि कुल सात हजार के आसपास सुरक्षाबल (सरकारी और निजी), 500 के आसपास 
मीडिया, तीन हजार के आसपास कार्यकर्ता और स्वयंसेवक व छिटपुट और लोग 
होंगे। “लोग नहीं आये अब तक?”, मैंने पूछा। वो मुस्कराकर बोला, “सरजी संडे
 है। हफ्ते भर नौकरी करने के बाद किसे पड़ी है। टीवी में देख रहे होंगे।” 
फिर उसने अपने दो सिपाहियों को चिल्ला कर कहा, “खा ले बिजेंदर, मैं तुम 
दोनों को भूखे नहीं मरने दूंगा।” ग्यारह बज चुके थे और पंडाल के भीतर 
तकरीबन सारे मीडिया वाले और पुलिसकर्मी भाजपा के दिये नाश्ते के डिब्बों 
को साफ करने में जुटे थे। मंच से कवि की आवाज आ रही थी, “मोदी मोदी मोदी 
मोदी”। उसने 14 बार मोदी कहा। मंच के नीचे पेडेस्टल पंखों और विशाल साउंड 
सिस्टम के दिल दहलाने वाले मिश्रित शोर का शर्मनाक सन्नाटा पसरा था और 
हरी दरी के नीचे की दलदली जमीन कुछ और धसक चुकी थी।
कुछ देर बाद 
हम निराश होकर निकल लिये। मोदी सवा बारह के आसपास आये और दिल्ली में हो 
रही जोरदार बारिश के बीच एक बजे की लाइव घोषणा यह थी कि रैली में पांच लाख 
लोग जुट चुके हैं। मोदी ने कहा कि ऐसी रिकॉर्ड रैली आज तक दिल्ली में नहीं
 हुई। इस वक्त मोबाइल पर उनका लाइव भाषण देखते हुए हम बिना फंसे रिंग रोड 
पार कर चुके थे। पंजाबी बाग से रोहिणी के बीच रास्ते में गाजियाबाद से 
रैली में आती बैनर, पोस्टर और झंडा बांधे कुल 13 बसें दिखीं। अधिकतर एक ही
 टूर और ट्रैवल्स की सफेद बसें थीं। निजी वाहनों के बारे में कुछ नहीं कहा
 जा सकता। हरेक बस में औसतन 20-25 लोग थे। लाल बत्तियों पर लगी कतार को 
छोड़ दें तो पूरा रिंग रोड (जो हरियाणा को दिल्ली से जोड़ता है), रोहिणी 
से धौला कुआं वाला रोड (गुड़गांव वाला), कुतुब से बदरपुर की ओर जाती सड़क 
(जो फरीदाबाद को दिल्ली से जोड़ती है) और बाद में उत्तर प्रदेश से 
दिल्ली को जोड़ने वाला आउटर रिंग रोड खाली पड़ा हुआ था। और यह दिल्ली की 
बारिश में था, जबकि जाम एक सामान्य दृश्य होता है।
 रैली
 में आखिर लाखों लोग आये कहां से? क्या सिर्फ 26 मेट्रो से? बसों और निजी 
वाहनों से तो जाम लग जाता, जबकि गाजियाबाद से रोहिणी और वहां से वापस रिंग 
रोड, आउटर रिंग रोड व भीतर के पंजाबी बाग वाले रोड को कुल 125 किलोमीटर 
हमने पूरा नापा। गाजियाबाद का जिक्र इसलिए विशेष तौर पर किया जाना चाहिए, 
क्योंकि राजनाथ सिंह यहां से सांसद हैं और पिछले दो दिनों से बड़े पैमाने 
पर यहां रैली की तैयारियां चल रही थीं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि 
मोदी की जनसभा में जितने भी नेताओं के कटआउट आये थे, सब गाजियाबाद से आये 
थे, जिन्हें एक ही कंपनी “आजाद एड” ने बनाया था। सवेरे साढ़े आठ बजे तक ये
 कटआउट यहां ट्रकों में भर कर पहुंच चुके थे, हालांकि गाजियाबाद से श्रोता 
नहीं आये थे। वापस पहुंचने पर इंदिरापुरम, गाजियाबाद के स्थानीय भाजपा 
कार्यकर्ता टीवी पर मोदी का रिपीट भाषण सुनते मिले।
बहरहाल, मोदी
 जब बोल चुके थे तो भाजपा कार्यालय के एक प्रतिनिधि ने फोन पर बताया कि 
रैली में आने वालों की कुल संख्या 50,000 के आसपास थी। अगर हम इसे भी 
एकबारगी सही मान लें, तो याद होगा कि इतने ही लोगों की रैली पिछले साल 
फरवरी में दिल्ली में कुछ मजदूर संगठनों ने की थी और समूचा मीडिया यातायात
 व्यवस्था और जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाने की त्राहि-त्राहि मचाये हुए 
था। अजीब बात है कि बिना हेलमेट पहने और लाइसेंस के बतौर भारत का झंडा 
उठाये दर्जनों बाइकधारी नौजवानों के आज सड़क पर होने के बावजूद कुछ भी 
अस्तव्यस्त नहीं हुआ, लाखों लोग रोहिणी जैसी सुदूर जगह पर आ भी गये और 
चुपचाप चले भी गये। यह नरेंद्रभाई मोदी की रैली में ही हो सकता है। 
उत्तराखंड की बाढ़ में फंसे गुजरातियों को जिस तरह उन्होंने एक झटके में 
वहां से निकाल लिया था, हो सकता है कि ऐसा ही कोई जादू चलाकर उन्होंने 
दिल्ली की विकास रैली में लाखों लोगों को पैदा कर दिया हो। ऐसे चमत्कार 
आंखों से दिखते कहां हैं, बस हो जाते हैं।
ऐसे 
चमत्कारों का हालांकि खतरा बहुत होता है। उत्तराखंड वाले चमत्कार में 
ऐपको नाम की जनसंपर्क एजेंसी का भंडाफोड़ हो चुका है। दिल्ली में किस 
एजेंसी को भाजपा ने यह रैली आयोजित करने के लिए नियुक्त किया, यह नहीं 
पता। देर-सवेर पता चल ही जाएगा। मेरी चिंता हालांकि यह बिल्कुल नहीं है। 
मैं इस बात से चिंतित हूं कि मोदी जैसा कद्दावर शख्स दिल्ली में बोल गया 
और दिल्लीवाले नहीं आये। वजह क्या है? कहीं तुगलक जैसी कोई समस्या तो 
इसके पीछे नहीं छुपी है? मोदी दिल्लीवालों को न समझें न सही, क्या विजय 
गोयल आदि आयोजकों से भी कोई चूक हो गयी? ठीक है कि टीवी चैनलों के हवा में 
लटकते पचास फुटा कैमरों ने टीवी देख रहे लोगों को काम भर का भरमाया होगा, 
जैसा कि उसने अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के समय किया था। अन्ना से याद आया
 – वह भी तो रोहिणी जेल का ही मामला था जहां दो-चार हजार लोगों को कैमरों 
ने एकाध लाख में बदल दिया था। इत्तेफाक कहें या बदकिस्मती कि रोहिणी में 
ही इतिहास ने खुद को दुहराया है। मोदी चाहें तो किसी ज्योतिषी से रोहिणी 
पर शौक़ से शोध करवा सकते हैं। वैसे रोहिणी तो एक बहाना है, असल मामला 
दिल्ली के मिजाज का है जिसे भाजपा (प्रवृत्ति और विचार के स्तर पर इसे 
अन्ना आंदोलन भी पढ़ सकते हैं) समझ नहीं सकी है।
भाजपा और संघ
 के पैरोकार वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने आज तक एक ही बात ऐसी लिखी 
है जो याद रखने योग्य है। उन्होंने कभी लिखा था कि इस देश का दक्षिणपंथ 
जनता की चेतना से बहुत पीछे की भाषा बोलता है और इस देश का वामपंथ जनता की 
चेतना से बहुत आगे की भाषा बोलता है। इसीलिए इस देश में दोनों नाकाम हैं। 
कहीं मोदी समेत भाजपा की दिक्कत यही तो नहीं? कहीं वे भी तो शायर मीर की 
तरह “लगाने” और “बनाने” का फर्क नहीं समझते? मुझे वास्तव में लगने लगा है 
कि किसी को जाकर नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात गंभीरता से समझानी 
चाहिए कि 29 सितंबर, 2013 को दिल्ली के जापानी पार्क में उनकी “बनी” नहीं,
 “लग” गयी है। गालिब तो शेर कह के निकल लिये, इस “भारत मां के शेर” का संकट
 उनसे कहीं बड़ा है। दिल्लीवालों ने आज संडे को टीवी देखकर मोदी और भाजपा 
की आबरू का सरे दिल्ली में जनाजा ही निकाल दिया है।
अभिषेक श्रीवास्तव स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनसे guru.abhishek[at]gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
 
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