Sunday, July 7, 2013

नागरिक की निजता पर सबसे बड़ा डाका

नागरिक की निजता पर सबसे बड़ा डाका

ऐसे वक्त में जब अमेरिका में निजता और गोपनीयता के साथ की जा रही चोरी और सीनाजोरी दुनियाभर की मीडिया के लिए मुद्दा बना हुआ है, तब ठीक उसी वक्त में भारत में नंदन नीलकेणी का जिक्र करना जरूरी हो जाता है। भारत के महत्वाकांक्षी आधार परियोजना के सर्वेसर्वा ने सफलतापूर्वक अपने दफ्तर में चार साल पूरे कर लिये हैं। उस दफ्तर में जो नागरिकों की निजता की नष्ट करनेवाली दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना को संचालित कर रही है। उस परियोजना को आधार कार्ड परियोजना कहा जा रहा है और उस परियोजना को संचालित करनेवाली संस्था का नाम है यूनिक आइडेन्टीफिकेशन अथारिटी आफ इंडिया। अपने नाम के अनुसार ही यह संस्था नागरिकों की निजता और गोपनीयता को भंग करनेवाली निहायत यूनिक परियोजना को बहुत ही यूनिक तरीके से संचालित कर रही है।

चार साल पहले जब इस यूनिक अथारिटी का गठन किया गया था तब भी सब धुंधला धुंधला ही था। भारत की योजना बनानेवाले योजना आयोग ने 2 जुलाई 2009 को एक सरकारी सूचना जारी करके देश को बताया था कि देश में यूनिक आइडेन्टिफेकशन आफ इंडिया का गठन कर दिया गया है और इसके चेयरमैन श्रीमान नंदन नीलकेणी होंगे जो कि उस वक्त तक देश की सबसे चर्चित आईटी कंपनी इन्फोसिस के सह अध्यक्ष और संचालक थे। योजा आयोग ने सरकारी सूचना दी थी उसका आधार मंत्रिमंडल सभा की वह बैठक थी जिसमें यह निर्णय लिया गया था कि देश में हर नागरिक की एक यूनिक पहचान होना जरूरी है। आजादी के साठ बासठ साल बाद भी इंसान होना कोई पहचान नहीं, भारत गणराज्य का नागरिक होना भी कोई पहचान नहीं, दर्जनों प्रकार के अलग अलग लाइसेन्स और पहचानपत्र भी एक भारतीय के लिए पहचान का ठोस आधार विकसित नहीं कर पाये थे। लिहाजा मंत्रिमंडल सभा ने निर्णय लिया कि हर नागरिक को एक बारह अंकों की पहचान दी जाएगी, ताकि उसकी पहचान यूनिक हो सके।

एक आम भारतीय नागरिक को बारह अंकों के कोड में तब्दील करने की यह योजना वैसे तो ऊपर ऊपर बहुत लाभ वाला सौदा समझाया जाता रहा है लेकिन भीतर भीतर भारत के नागरिकों की निजता को नष्ट करने की सारी कवायद को अंजाम दिया जा रहा है। उस वक्त भी जब नीलकेणी इस सरकारी महकमें में आये थे तो सवाल उठा था कि आखिर इतनी बड़ी कंपनी का मालिक मुख्तार इतने छोटे से सरकारी डिपार्टमेन्ट का मुखिया बनने के लिए क्यों चला आ रहा है? नीलकेणी भी इतने अक्लमंद तो हैं ही वे लाभ हानि का गुणा गणित करने के बाद ही उन्होने कोई निर्णय लिया होगा। और लाभ हानि के इस गुणा गणित में नीलकेणी तो व्यक्तिगत रूप से फायदे में हैं ही, लेकिन इस परियोजना को संचालित करते हुए वे दुनिया के उन कारपोरेट घरानों के लिए फायदे का एक ऐसा डाटाबेस भी तैयार कर रहे हैं जो नागरिक को पहचान का आधार दे या न दे उनके व्यापार को बड़ा मजबूत आधार दे देगा।

लेकिन अभी अपने लिए मुद्दा कारपोरेट घरानों का व्यापार नहीं बल्कि वह आधार है जो नागरिकों को उनकी पहचान के नाम पर दिया जा रहा है। सबसे पहला और बड़ा सवाल यही है कि नागरिकों को पहचान देनेवाला यह आधार नंबर अगर इतना ही महत्व का है तो क्या महत्वपूर्ण लोगों ने इस कार्ड पर अपना चेहरा चिपकाया है या नहीं? अगर आपको याद हो तो कोई बात नहीं, न याद हो तो याद करने की कोशिश करिए जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक महिला को पहला आधार नंबर जारी करते हुए इसकी ऐतिहासिकता का बखान किया था। हो सकता है, हमारे प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं वह सही हो लेकिन क्या कारण है कि खुद प्रधानमंत्री ने अब तक अपना आधार नंबर नहीं लिया है? जो सोनिया गांधी उस कार्यक्रम में मौजूद थीं, उन सोनिया गांधी ने भी अपना आधार नंबर क्यों नहीं बनवाया है? सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह तो आला में आला लोग हैं। जिस प्लानिंग कमीशन ने नोटिफिकेशन जारी करके 2009 में यूनिक अथारिटी के गठन की घोषणा की थी उस प्लानिंग कमीशन के उपाध्यक्ष मोन्टेक सिंह अहलूवालिया का आधार नंबर तैयार हो चुका है क्या? खुद नंदन नीलकेणी ने प्रतीक के रूप में ही सही, अपना आधार नंबर निकलवाया है कि नहीं? इतने सारे सवालों का जवाब है कि इनमें से किसी ने भी अपना आधार नहीं बनवाया है। क्योंकि सरकार इस बारे में कुछ भी बताना नहीं चाहती है। आखिर क्या कारण है कि सूचना का अधिकार देकर नागरिकों को मालिक बनानेवाली सरकार यह छोटी सी सूचना भी नहीं देना चाहती है कि देश सबसे आला लोगों ने अपना आधार बनवाया है या नहीं? अगर बनवाया होता तो सरकार प्रचार करने से पीछे भला क्यों रहती?

लेकिन गोपनीयता का यह गड़बड़झाला सिर्फ आला लोगों के आधार नंबर देने पर ही नहीं है। यह पूरी की पूरी परियोजना अपने आप में ही एक गोपनीय गड़बड़झाला है। चार साल पूरे हो जाने के बाद आज तक यह नहीं पता चल पाया है कि इस पूरी परियोजना का बजट कितना है। चरणबद्ध तरीके से होनेवाले खर्चों का विवरण तो सामने रख दिया जाता है कि इस परियोजना के इस चरण पर इतना रूपये खर्च होगा या फिर खर्च हो गया। लेकिन आज तक यह नहीं बताया गया कि पूरी परियोजना कितने रूपये की है? क्या भारतीय लोकतंत्र ने अपने सारे संवैधानिक नियम कायदे कानून इस परियोजना के लिए ताक पर रख दिये हैं? भारत सरकार के अधीन अगर कोई भी प्राधिकरण या विभाग संचालित किया जाता है तो उसका बजट निर्धारित किया जाता है। यह एकमात्र ऐसी परियोजना है जिसका कोई निश्चित बजट नहीं है। योजना आयोग आज भी इस परियोजना का बजट निर्धारित नहीं कर पाया है। अगर किया भी होगा तो वह बताने को तैयार नहीं है। पूछने पर सिर्फ इतना बताया जाता है कि जनवरी 2013 तक इस परियोजना पर 2369 करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है।

आमतौर पर खुफिया एजंसियों को लेकर ही ऐसा होता है कि उनका बजट कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता है और कई बार उनके असल खर्चों को भी गोपनीय रखा जाता है। तो क्या यह परियोजना भी कोई ऐसी गुप्त परियोजना है जिसका बजट सरकार सार्वजनिक नहीं करना चाहती है? जिस तरह की कंपनियां इस परियोजना के पीछे काम करने में लगी हैं उसे देखकर तो यही शक ज्यादा पुख्ता होता है कि यह नागरिकों का डाटाबेस तैयार करनेवाली यह सबसे गोपनीय सार्वजनिक परियोजना है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उन सारी परियोजनाओं को आधार के अधीन क्यों जोड़ा जा रहा है जो अलग अलग स्तर पर नागरिकों की गतिविधियों पर नजर रखती हैं? इस पूरी परियोजना में ऐसी संदिग्ध कंपनियों को जगह कैसे मिल गई है जो घोषित तौर पर अमेरिकी खुफिया एजंसियों के लिए काम करती रही हैं?

नागरिक को यूनिक पहचान देने के नाम पर उनके आंख की पुतलियों और हाथ की अंगुलियों की छाप लेकर उनको पहचान देना कहीं से भी स्वीकार्य कदम नहीं माना जा सकता है। आंख की पुतलियों और हाथ की अंगुलियों के निशान अपराधियों के इकट्ठे किये जाते हैं और सख्त कानूनी हिदायत होती है कि अपराधी की सजा खत्म होने के साथ ही वे निशान भी मिटा दिये जाते हैं। अगर कानूनन किसी व्यक्ति की जैव पहचान को किसी भी तरह से सरकार अपने पास नहीं रख सकती है तो आधार परियोजना के नाम पर हर नागरिक की जैव पहचान क्यों अंकित की जा रही है? सवाल बहुत गंभीर हैं और जवाब देनेवाला कोई नहीं है। वह सरकार भी नहीं जिससे ऐसे गंभीर मुद्दे पर किसी भी प्रकार की गोपनीयता की उम्मीद नहीं की जाती है। नागरिकों के सेवक सिर्फ नागरिकों के मालिक ही नहीं बन गये हैं बल्कि नागरिकों की निजता को खुलेआम बाजार में नीलाम भी कर रहे हैं।


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