जून १६, प्रातः ४:००, उत्तराखंड.
कल बिहार और झारखण्ड की तमाम जेलों में हज़ारों बंदियों ने दिन भर खाना नहीं खाया. एक साथ दो प्रदेशों के कारागारों में हुआ यह एक-दिवसीय अनशन पुलिस और न्यायालयों के हद से ज्यादा अन्यायपूर्ण बर्ताव के विरुद्ध था.
गत मई में बिहार के औरंगाबाद जिले में थाना बारूल के अंतर्गत मदन यादव नामक एक युवक की हिरासत में ह्त्या हुई थी. मदन को माओवादी आन्दोलन में सक्रीय भूमिका निभाने के आरोप में हिरासत में लिया गया था. मामले का स्थानीय पैमाने पर विरोध होने के पश्चात बिहार सरकार ने जांच का आश्वासन देकर मामले को रफा-दफा करना चाहा था. मदन की मौत से खफा उनके सगे साथियों के साथ जेल के असंख्य कैदियों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हुए शासन से मांग की कि दोषी पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त कर उब पर मुकदमा चलाया जाए और मदन के परिजनों की हर तरीके से क्षतिपूर्ति की जाये.
जेल बंदियों के इस अनशन का दूसरा अहम् मुद्दा पत्रकार कामरेड सीमा आज़ाद और उनके सामाजिक कार्यकर्ता पति विश्वविजय को इलाहाबाद सत्र न्यायालय द्वारा सज़ा सुनाया जाना था. अदालत के इस फैसले के विरुद्ध दिन भर भूखे रह कर अपना रोष ज़ाहिर करने वालों में भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) के कम से कम 8 केंद्रीय कमेटी सदसयों (जिनमें से 4 पोलितब्यूरो सदस्य भी रहे) समेत उस पार्टी के विभिन्न स्तर के कम से कम ४,००० नेता, कार्यकर्ता और समर्थक अगुआ भूमिका में थे. जेल मे बंद हज़ारो-हज़ार "अराजनीतिक बंदियों" के भारी समर्थन से जेलों को इस दौरान क्रांतिकारी जनवादी राजनीति के पाठशाला बनाये जाने के संकेत हैं.
प्रत्येक जेल से अनशन की रिपोर्ट विस्तारपूर्वक तो नहीं मिल पायी, मगर सूत्रों ने बताया कि इस एक-दिवसीय अनशन को कई जगह प्रशासन की ओर से प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा. लोभ-लालच और डराने-धमकाने से लेकर तरह-तरह से सज़ा देना तक इसमें शामिल है. फिर भी प्रशासन इस बात से हैरान है कि सीमा-विश्वविजय और मदन यादव के मामले में अभी बाहरी दुनिया में इतना सशक्त विरोध नहीं हो पाया है, बंदियों के बीच इतनी घनी एकजुटता कैसे कायम हुई?
इसके पीछे क़ानून के शिकंजे में फंसने वालों में स्वतः ही बढ़ने वाली व्यवस्था-विरोधी कडवाहट है या अनशन के संगठनकर्ताओं की कारगरता? यह हमारे लिए भी सोचने की बात है. सीमा आजाद-विश्वविजय की सज़ा और मदन यादव की हिरासत में हत्या जैसी घटनाओं के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों में जब इस अपराध-संबंधी न्याय प्रणाली (क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) के असली भुक्तभोगी ही अगुआ हो जाते हैं, तो समझ लीजिए कि बाहर के असंख्य राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और जन समुदाय के जनवादी हिस्सों के उठ खडा होने का वक़्त आ गया है.
प्रशान्त राही
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