Monday, October 3, 2016

Chhattish Gargh Refugees on indefinite Hunger Strike for the right to Mother Tongue. CM Raman Singh betrayed! Bhasha Andolan in East Bengal and Assam repeated in Chhattish Gargh! Palash Biswas


Chhattish Gargh Refugees on indefinite Hunger Strike for the right to Mother Tongue. CM Raman Singh betrayed!

Bhasha Andolan in East Bengal and Assam repeated in Chhattish Gargh!

Palash Biswas


Bengali refugees denied right to mother tongue in most of the states where they have been systematically scattered to kill the Adivasi Kissan Bahujan Majority uprising continued until the partition of India.


In Assam,Bengalies launched Bhasha Andolan and police killed the leadership with the fire power of the State Power.In undivided Uttar Pradesh,specifically in Dineshpur,now in Uttarakhand the refugee students continued the fight.the movement began in sixties by the students of Zila Parishad Higher Secondary School Dineshpur.In 1970, I was reading in class eight in the school and my father was very close with District board Chairman Shyam Lal Varma.I had to lead the students in indefinite strike with senior students.


We could not mobilize mass support as Bengali refugees were quite insecure in adverse condition and they could not organize themselves.My father thought I was responsible for the unwanted encounter which could desettle the vulnerable refugee colonies all over in Uttar Pradesh.


We were protesting against printing of printing of Bengali question paper in Devnagari in school exams.My father and others thought they could have solved the issue without the stirke.The insisted to end the strike as powerful leaders like ND Tiwari and KC Pant intervened.


My father publicly disowned me as he disowned me yet again during emergency while I was leading students in Uttarakhand and Bengali refugees supported Mrs Gandhi.


This was  a great crisis faced by Bengali refugees all over India until MarichJhanpi movement in seventies which began in refugee camps of Madhy Pradesh and turminated in Genocide whent the refugees tried to get home yet again in West Bengal


We could not hold on because the refugees settled in Uttar Pradesh felt themselves vulnerable and tended to compromise.I was spared but my seniors were restricted and they lost their career.I was sure that they spared me just because  to manage the Bengali leadership in the resettlement colonies.

Though I passed the class eight board exams in second division with 88 percent marks in Bengali, I had no ineteres to continue my studies.


Hence,I was sent to Shaktifarm Government High School so that I may continue my studies there.I passed class Nine from there and the principal of Dineshpur Highschool Mr.Dalakoti convinced my father to get back me there as they wanted me to appear in UP board exam from the school.


In Kachhar,Bengali refugees always had been united.But it was not the same in other states.


I stand with NIKHIL BHARAT Bengali Udvastu Samanyay Samiti because it has organized Bengali refugees in twenty two states where they have been resetttle irespective of my ideology and opinion.I appeal to all refugees including Bengali,Sikh,Tamil,Tibetan,Burmese,Bhutanese to stand together with our differences to ensure the civic and human rights and citizenship without any discrimination.

Nikhil Bharat has organized Bengali refugees in Dandkarny in complete Solidrity.

Lacs of refugees earlier gheraoed CG Assembly t o press their demands and CM Raman Singh assured them to solve their problems.It was not to happen.

Hence,Bengali refugees have launched indefinite hunger strike and right to mother tongue is their prime demand.



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क्या नरसंहारी सियासती मजहब पर हम खुले संवाद के लिए तैयार हैं? महिषासुर का पक्ष दुर्गोत्सव के मौके पर रखने के लिए कोलकाता आ रही हैं सुषमा असुर! पलाश विश्वास

क्या नरसंहारी सियासती मजहब पर हम खुले संवाद के लिए तैयार हैं?

महिषासुर का पक्ष दुर्गोत्सव के मौके पर रखने के लिए कोलकाता आ रही हैं सुषमा असुर!

पलाश विश्वास

सुषमा असुर का नाम अब हिंदी समाज के लिए अनजाना नहीं है।सुषमा असुर पिछले अनेक वर्षों से महिषासुर वध महोत्सव बंद करने की अपील करती रही है।वह झारखंड और बंगाल में महिषासुर के वंशजों का प्रतिनिधित्व करती है।अब देश भर में जारी महिषासुर विमर्श में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है।वही सुषमा असुर कोलकाता में सार्वजनीन दुर्गोत्सव के पंडाल का उद्घाटन करने आ रही है।बांग्ला दैनिक एई समय ने इस बारे में ब्यौरेवार समाचार पहल पृष्ठ पर छापा है और उस समाचार में सुषमा असुर का एक अन्य वक्तव्य भी प्रकाशित किया है।

महिषासुर वध का विरोध छोड़कर वे कोलकाता के दुर्गोत्सव में महिषमर्दिनी की पूजा के लिए नहीं आ रही है,बल्कि कोलकाता और बंगाल को महिषासुर का पक्ष बताने आ रही हैं।भारतभर के आदिवासियों के हक में असुरों की कथा व्यथो को लेकर बहुसंख्य हिंदू जनता से संवाद शुरु करने आ रही हैं।इस वक्त जेएनयू और गोंडवाना समेत देश के दूसरे हिस्सों में महिषासुर और रावण के वंशजों के खिलाफ जो नरसंहार अभियान के तहत फासीवादी हमले जारी हैं,जिसके तहत बंगाल में भी पुलिस महषासुर उत्सव रोक रही है,सुषमा असुर की यह पहल बहुत महत्वपूर्ण है।

कोलकाता में भारत विभाजन से पहले मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन और इसके साथ पूर्वी बंगाल के नौआखाली दंगों के दौरान कोलकाता में अमनचैन के लिए सत्ता की छिनाझपटी की नई दिल्ली से दूर जिस बेलेघाटा में आकर कोी मोहनदास कर्मचंद गांधी आकर ठहरे थे,जहां से वे नोआखाली गये थे और फिर दंगा और  भारत विभाजन रोक पाने में विफल होकर सोदपुर पानीहाटी के गांधी आश्रम में ठहरे थे,उसी बेलेघाटा के बहुत पास फूलबागान पूर्व कोलकाता सार्वजनीन दुर्गोत्सव समिति ने महापंचमी पर दुर्गा पूजा के उद्घाटन के लिए सुषमा असुर को न्यौता है और सुषमा असुर इसके लिए राजी भी हो गयी है।इस संवाद से बाकी देश के लोग कोई सबक सीखें तो हमारी बहुत सी मुश्किलें आसान हो सकती हैं।फूलबागान के लोगों को महिषासुर के वंशंजों को इसतरह आत्मीय जन बना लेने के लिए बधाई।

सुषमा असुर ने कहा कि हमारे समुदाय के बच्चे जब स्कूल कालेज में जाते हैं तब उन्हें राक्षस कहकर उनका उत्पीड़न और बहिस्कार होता है।हम कोई राक्षस दैत्य वगैरह नहीं ,हम भी दूसरों की तरह मनुष्य हैं, हम कोलकाता और बंगाल को यह बताने के लिए यहां आ रहे हैं। गौरतलब है कि गोंडवाना में भी आदिवासी खुद को असुर मानते हैं और वहां भैंसासुर की पूजा व्यापक पैमाने पर होती है,जहां दुर्गापूजा का चलन कभी नहीं रहा है।

हम पहले लिख चुके हैं कि दुर्गाभक्तों का एक हिस्सा आदिवासियों और महिषासुर एवम् रावण के वंशजों की कथा व्यथा से अनजान नहीं है और उनमें से एक बहुत बड़ा हिस्सा उनके हक हकूक की लड़ाई का कमोबेश समर्थन भी करते हैं।वे दुर्गा के मिथक में महिषासुर प्रकरण के तहत दुर्गापूजा की पद्धति में संशोधन के पक्षधर हैं।सुषमा असुर भी यह बार बार कहती रही हैं कि महिषासुर वध के बिना अपनी आस्था के मुताबिक कोई दुर्गापूजा करें तो असुर के वंशजोंको इसपर आपत्ति नहीं होगी।

उदार दुर्गाभक्तों का एक हिस्सा सुषमा असुर की इसी अपील के मुताबिक दुर्गापूजा में महिषासुर वध रोकने के पक्ष में है।लेकिन इस पर कोई सार्वजनिक संवाद अभीतक शुरु हुआ नहीं है।सुषमा असुर यह संवाद शुरु करने जा रही हैं।

यह संवाद कोलकाता में दुर्गोत्सव के मौके पर शुरु करने की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।इसके सकारात्मक परिणाम निकल सकते हैं।बशर्ते की हम नरबलि की परंपरा को सतीदाह की तरह खत्म करने के लिए तैयार हो और नरसंहार संस्कृति की वैदिकी पररंपरा के पुलरूत्थान के आशय को समझने के लिए तैयार हों। ऐसा हुआ तो भारत की एकता और अखंडता और मजबूत होगी जिसे हम अपने धतकरम से चकनाचूर करते जा रहे हैं।

भारतीय सभ्यता की विकास यात्रा आर्य अनार्य संस्कृति के एकीकरण के तहत हुआ है।सती कथा के तहत तमाम अनार्य देव देवियों को चंडी और भैरव बनाकर एकीकरण की प्रक्रिया कामाख्या और कालीघाट जैसे अनार्य शाक्त धर्मस्थलों को भी सती पीठ में शामिल करने के तहत हुआ है।

गोंडवाना से लेकर पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में करीब एक लाख साल पहले मनुष्यों की पाषाणकालीन सभ्यता के पुरावशेष मिले हैं।मोहनजोदोडो़ और हड़प्पा की सिंधु सभ्यता का विंध्य और अरावली पर्वतों तक विस्तार हुआ है।खास तौर पर बिहार, झारखंड,बंगाल और ओड़ीशा में वैदिकी और ब्राह्मण काल  के बाद बौद्ध और जैन धर्म का बहुत असर रहा है।जो अब तक खत्म हुआ नहीं है।गोंडवाना के अंतःस्थल में जाये बिना हम भारत की एकात्मकता को समझ नहीं सकते।सांस्कृतिक एकता के तहत अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के बिना समता और न्याय की दिशा खुल नहीं सकती और समरसता के पाखंड के बावजूद भारत कानिर्माण हो नहीं सकता तो हिंदू राष्ट्र का एजंडा भी हिंदूधर्म के सर्वनाश का कारण बना रहेगा।यही फासिज्म है।

बिहार और बंगाल में असुर आदिवासी दुर्गोत्सव और रावण दहन के दौरान महिषासुर और रावण के लिए शोक मनाते हैं और घरों से भी नहीं निकलते हैं।इसके साथ ही महायान बौद्धधर्म के असर में तंत्र के आाधार में जंगल महल में झारखंड औऱ बंगाल में आसिनी वासिनी सर्वमंगला आदि बौद्ध देवियों की पूजा प्रचलित है और मेदिनीपुर में दामाोदर पार दुर्गोत्सव उन जनसमूहों के लिए निषिद्ध है जो असुर नहीं है लेकिन इन तमाम देवियों की पूजा करते हैं।इसीतरह बंगाल बिहार झारखंड और ओड़ीशा में शिव की मूर्तियों के साथ बौद्ध और जैन मूर्तियों की भी पूजा होती है।

वैसे भी बहुसंख्य भारतीय तथागत गौतम बुद्ध और पार्शनाथ भगवान और सभी जैन तीर्थाकंरों की उपासना अपने देव देवियों के साथ उसीतरह करते हैं जैसे अविभाजित पंजाब में हिंदुओं और सिखों के साथ मुसलमानों के लिए भी गुरद्वारा तीर्थ स्थल रहा है और अंखड भारत में तो क्या खंड खंड भारत में अजमेर शरीफ में गरीबनवाज  या फतेहपुर सीकरी की शरण में जाने वाले किसी मजहब के पाबंद जैसे नहीं होते वैसे ही तमाम सीमाओं के आर पार अब भी पीरों फकीरों की मजार पर गैरमुसलमान भी खूब चादर चढ़ाते हैं।हमारे ही देश में हजारों साल से अइलग अलग मजहब के लोग एक ही परिसर में मंदिर मस्जिद में पूजा और नमाज पढ़ते रहे हैं बिना किसी झगड़े और फसाद के।

आजादी के बाद अयोध्या ,खाशी और वृंदावन को लेकर मजहबी सियासत ने जो फसाद खड़े कर दिये,वे हजारों साल से हुए रहते तो भारतीय सभ्यता और संस्कृति की हाल यूनान और रोम,मेसोपोटामिया का जैसा होता।जाहिर है कि पीढ़ियों से भारतीय की सरजमीं को हमारे पुरखों ने जो अमन चैन का बसेरा बनाया है,हमने उस उजाड़ने का चाकचौबंद इंतजाम कर लिया है।नफरत की यह आंधी हमने ही सिरज ली है।

झारखंड में जैनों का महातीर्थ पार्श्वनाथ का तीर्थस्थल पारसनाथ गोमो जंक्सन के बाद है तो बंगाल के बांकुड़ा से लेकर ओड़ीशा और मेदिनीपुर के प्राचीन बंदरगाह ताम्रलिप्त तक जैन मूर्तियों,स्तूपों और मंदिरों के अवशेष सर्वत्र है तो बौद्ध धर्म का भी असर सर्वत्र हैं।

मगध,पाटलिपुत्र,राजगीर और बोधगया से झारखंड के रास्ते ताम्रलिप्त होकर विदेश यात्राएं तब होती थीं।सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा इसी रास्ते से ताम्रलिप्त होकर श्रीलंका पहुंची थी तो चीनी पर्यटक व्हेन साङ के चरण चिन्ह भी इसी रास्ते पर हैं।झारखंड के असुर एक लाख साल से पाषाणकालीन युग से पत्थरों के हथियारों से लेकर मुगल शासकों के हथियार तक बनाने में अत्यत दक्ष कारीगर रहे हैं और उनमें से ज्यादार लोग लुहार हैं।

हम इस इतिहास के मद्देनजर बीसवी संदी की जमींदारी के जल जंगल जमीन पर कब्जे के जश्न के तहत नरबलि की प्रथा महिषासुर वध के मार्फत जारी रखे हुए हैं तो इस जितनी जल्दी हम समझ लें उतना ही बेहतर है।जल जमीन जंगल के दावेदार इस सत्ताव्रक के नजरिये से राक्षस, दैत्य, दानव, असुर, किन्नर, गंधर्व,वानर वगैरह वगैरह है और नरबलि की प्रथा उनकी ह्त्या को वैदिकी वध परंपरा में परिभाषित करने की आस्था है जो अब दुर्गोत्सव में महिषासुर वध है या रामलीला के बाद रावण दहन है और रावण को तीर मारकर जलाने वाले सत्ता शिखर के सर्वोच्च लोग हैं जो रमालीला मैदान पर इस नरसंहार को महोत्सव मनाते हैं।

गौरतलब है कि गोंडवाना से लेकर पूर्व और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी भूगोल में आदिवासियों के टोटेम और शरणा धर्म के साथ साथ जैन और बौद्ध धर्म और हिंदुत्व की मिली जुली संस्कृति हजारों साल से जारी है,जिसमें दुर्गोत्सव में महिषासुर वध और रावण दहन की ब्रिटिश हुकूमत के दौरान सार्वजनीन आस्था उत्सवों की वजह से भारी उथल पुथल मची है।

दुर्गोत्सव बीसवीं सदी से पहले जमींदारों और राजाओं की निजी उत्सव रहा है और उसमें प्रजाजनों की हिस्सेदारी नहीं रही है।दुर्गोत्सव नरबलि से शुरु हुआ और जाहिर है कि इस नरबलि के शिकार प्रजाजन ही रहे हैं,जिसके प्रतीक अब महिषासुर हैं।जाहिर है कि अलग अलग उपासनापद्धति,आस्था और धर्म के बावजूद आम जनता के दिलो दिमाग में कोई दीवार भारत के इतिहास में बीसंवी सदी से पहले नहीं थी।भा्रत विबाजनके सात दिलोदिमाग का यह बंटवारा सियासत के मजहबी बना दिये जाने से हुआ है और सत्ता की इस सियासत से हमेशा मजहब और मजहबू जनता को सबसे बड़ा नुकसान होता रहा है।

दूसरी तरफ, गोस्वामी तुलसीदास के लिख रामायण से ही मर्यादा पुरुषोत्तम की सर्व भारतीय छवि  मुगलिया सल्तनत के खिलाफ आम जनता के हक हकूक की लड़ाई को संगठित करने और संत फकीर पीर बाउल बौद्ध सिख जैन आदिवासी किसान आंदोलनों की परंपरा के तहत दैवीसत्ता का मानवीयकरण के नवजागरण की तहत बनी।

विडंबना यह है कि सत्ता और सामंतवाद के खिलाफ तैयार गोस्वामी तुलसीदास के अवधी मर्यादा पुरुषोत्तम राम अब रावण दहन के मार्फत देश के बहुजनों के खिलाफ जारी वैदिकी मुक्तबाजारी फासिस्ट नरसंहार अभियान का प्रतीक बन गये हैं।यही नहीं, राम के इस कायाकल्प से युद्धोन्मादी धर्मोन्माद अब हमारी राष्ट्रीयता है।

दक्षिण पूर्व एशियाई देशों तक में बोली समझी जानेवाली तमिल भाषा हमें आती नहीं है,जिसके तहत हम कम से कम आठ हजार साल का संपूर्ण भारतीय इतिहास जान सकते हैं।हम इसलिए द्रवि़ड़, आर्य, अनार्य, शक,  कुषाण, मुगल, पठान, जैन, बौद्ध, आदिवासी संस्कृतियों के विलय से बने भारत तीर्थ को समझते ही नहीं है तो दूसरी तरफ भारत की किसी भी भाषा के मुकाबले ज्यादा लोगों की भाषा,समूचे मध्य भारत के गोंडवाना की गोंड भाषा को जानने का प्रयत्न नहीं किया है।

तमिल भाषा  तमिलनाडु की अस्मिता से जुड़कर अपनी पहचान बनाये हुए है बाकी भारत से अलगाव के बावजूद।लेकिन गोंडवाना और दंडकारण्य के आदिलवासियों की गोंड भाषा के साथ साथ मुंडारी, कुड़मी, संथाल,हो जैसी आदिवासी भाषाओ के साथ साथ हमने भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, ब्रज, बुंदेलखंडी, मालवी,कुमांयूनी और गढ़वाली और बंगाल समेत इस देश की सारी जनपद भाषाओं के विकास और  संरक्षणके बदले उन्हें तिलांजलि दी है।

जो वीरखंभा अल्मोड़ा में है,वहीं वीरस्तंभ फिर पुरुलिया और बांकुड़ा में है और वहीं,मणिपुर और नगालैंड के सारे नगा जनपदों के हर गांव में मोनोलिथ है।संस्कृति और भारतीयता की नाभि नाल के इन रक्त संबंधों को जानने के लिए जैसे तमिल जानना द्रविड़ जड़ों को समझने के लिए अनिवार्य है वैसे ही सिंधु सभ्यता के समय से आर्यावर्त के भूगोल के आर पार हिमालयी क्षेत्रों और विंध्य अरावली के पार बाकी भारत के इतिहास की निरंतरता जानने के लिए आदिवासी भाषाओं के साथ साथ तमाम जनपदों भाषाओं का जानना समझना अनिवार्य है।गोंड भाषा में ही इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझ सकती है मसलन सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद वहां के शरणार्थियों का स्थानांतरण और पुन्रवास कहां कहां किस तरह हुआ है।इन भाषाओं को जानने के लिए संस्कृति नहीं,पाली भाषा जानना ज्यादा जरुरी है।

हिमालयी क्षेत्र में मुगल पठानकाल में पराजित जातियों का प्रवास हुआ है और वे अपनी मौलिक पहचान भूल चुके है।इसी तरह भारत विभाजन के बाद इस देश में विभिन्न जनसमूहों के शरणार्थियों का जैसे स्थानातंरण और पुनर्वास हुआ,वैसा मध्य एशिया के शक,आर्य,तुर्कमंगोल आबादियों के साथ पांच हजार सालों से होता रहा है तो उससे भी पहले सिॆंधु घाटी से निकलकर द्रविड़ भूमध्य सागर के आर पार मध्यएशिया से लेकर सोवियात संघ,पूर्व और पश्चिम  यूरोप तक और उससे भी आगे डेनमार्क स्वीडन और फिनलैंड तक फैलते रहे हैं।जैसे तमिल जनसमूह दक्षिण पूव एशिया में सर्वत्र फैले गये हैं और विभाजन के बाद बंगाल और पंजाबी के लिए सारी दुनिया अपना घर संसार बन गया है।पांच हजार साल तो क्या पांच सौ साल तक उनकी पहचान वैसे ही खत्म हो जायेगी जैसे हिमालय से उतरने वाले कुंमायूनि गढवाली गोरखा डोगरी लोगों की हो जाती है।वे न अइपनी भाषा बोल सकते हैं और न पीछे छूट गये हिमालय को याद करने की फुरसत उन्हें है।हममें से कोई नहीं कह सकता कि पांच हजार साल पहले हमारे पुरखे कौन थे और कौन नहीं।डीएनए टेस्ट से भी नहीं।

जाहिर है कि विविधताओं और बहुलताओं का जैसा विलय भारत में हुआ है ,विश्वभर में वैसा कहीं नहीं हुआ है और इसी वजह से विश्व की तमाम प्राचीन सभ्यताओं इंका, माया, मिस्र, रोम,यूनान,मंगोल,मेसापोटामिया,चीन की सभ्यताओं के अवसान के विपरीत हमारी पवित्र गंगा यमुना और नर्मदा नदी की धाराओं की तरह अबाध और निरंतर है।रंग नस्ल,जाति,धर्म निर्विशेष हमारे पुरखों ने विविधताओं और बहुलताओं से जिस भारत तीर्थ का निर्माण किया है,हम अंग्रेजी हुकूमत में जमींदारों और राजारजवाड़ों की जनविरोधी नरसंहारी रस्मों को सार्वजिनक उत्सव बनाकर उस भारत तीर्थ को तहस नहस करने में लगे हैं।धर्म का लोकतंत्र को खत्म करके ङम फासिज्म के राजकाज की वानरसेना बन रहे हैं।

अगर नर बलि से लेकर पशुबलि तक की वीभत्स पंरपराओं का अंत करने के बावजूद धर्म और आस्था की निरंतरता में असर नहीं हुआ है तो समूचे देश को और खासतौर पर अनार्य असुर द्रविड़ जनसमूहों और इस देश के आदिवासियों को बहुसंख्य जनगण में विविधता और बहुलता की भारतीय संस्कृति के मुताबिक शामिल करने के लिए महिषासुर वध और रावण दहन पर पुनर्विचार और संवाद की जरुरत है।

खुशी की बात यह है कि सुषमा असुर दुर्गोत्सव के दौरान महिषासुर उत्सवों के मध्य महिषासुर वध की पुनरावृ्त्ति कर रहे बहुसंख्य जनता को सीधे संबोधित कर रही हैं।

Sunday, October 2, 2016

मेघनाथ काव्य रचनेवाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त को हम क्यों याद करेंगे? पलाश विश्वास


महिषासुर को लेकर इतना हंगामा,राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ काव्य रचनेवाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त को हम क्यों याद करेंगे?

पलाश विश्वास

Meghnad Badh Kabya | Naye Natua | Goutam Halder | মেঘনাদবধ কাব্য | Trailer

https://www.youtube.com/watch?v=PwBWXwJgUns

बांग्ला रंगमच में विश्वविख्यात रंगकर्मी गौतम हाल्दार ने मेघनाथ वध का का आधुलिकतम पाठ मंचस्थ किया है।

Meghnad Badh - Some Portion : Debamitra Sengupta

https://www.youtube.com/watch?v=SDIJnutmLUA

Michael Madhusudan Dutt's House at Jessore

https://www.youtube.com/watch?v=IUJlVyJ4nT8

Meghnad Badh | Mythological Bengali Film

https://www.youtube.com/watch?v=LK1XIDVyPu0

मेघनाथ वध काव्य पर बनी इस बांग्ला फिल्म तेलुगु फिल्म का भाषांतर है और इस फिल्म में रावण की भूमिका एनटी रामाराव ने निभाई है।


माइकल मधुसूदन दत्त

माइकल मधुसूदन दत्त

पूरा नाम

माइकल मधुसूदन दत्त

जन्म

25 जनवरी, 1824

जन्म भूमि

जैसोर, भारत (अब बांग्लादेश में)

मृत्यु

29 जून, 1873

मृत्यु स्थान

कलकत्ता

अभिभावक

राजनारायण दत्त, जाह्नवी देवी

कर्म भूमि

भारत

मुख्य रचनाएँ

'शर्मिष्ठा', 'पद्मावती', 'कृष्ण कुमारी', 'तिलोत्तमा', 'मेघनाद वध', 'व्रजांगना', 'वीरांगना' आदि।

भाषा

हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी

प्रसिद्धि

कवि, साहित्यकार, नाटककार

नागरिकता

भारतीय

अन्य जानकारी

माइकल मधुसूदन दत्त ने मद्रास में कुछ पत्रों के सम्पादकीय विभागों में काम किया था। इनकी पहली कविता अंग्रेज़ी भाषा में 1849 ई. प्रकाशित हुई।

इन्हें भी देखें

कवि सूची, साहित्यकार सूची



भारतभर के आदिवासी अपने को असुर मानते हैं और भारतभर में हिंदू अपनी आस्था और उपासना को महिषासुर वध से जोड़ते हैं जो पूर्वी भारत में अखंड दुर्गोत्सव है और मिथकीय इस दुर्गा को आदिवासी अपने राजा की हत्यारी मानते हैं।इस विवाद से परे असुर भारतीय संविधान के मुताबिक अनुसूचित जनजातियों में शामिल हैं।असुर वध अगर हारा सांस्कृतिक उत्सव है तो असुरों को अपने पूर्वज महिषासुर को याद करने का लोकतांत्रिक अधिकार होना चाहिए।धर्मसत्ता में निष्णात राजसत्ता ने मनुस्मृति के पक्ष में जेएनयू को खत्म करने के मुहिम में संसद से सड़क तक जो दुर्गा स्तुति की और जैसे महिषासुर महोत्सव का विरोध किया,उस सिलसिले में कल रांची में छह असुरों के वध के साथ झारखंड में हिंदुओं की नवरात्री शुरु हो गयी तो बंगाल में उत्र 24 परगना में बारासात के पास बीड़ा में पुलिस ने महिषासुर महोत्सव को रोक दिया।पूरे बंगाल में महिषासुर महोत्सव जारी है और उसे सिरे से रोक देने की कोशिशें तेज हो रही हैंषपुरुलिया में मुख्य समारोह का आयोजन भी बाधित है।

तो समझ लीजिये कि हम माइकेल मधूसूदन दत्त को क्यों याद नहीं करते।

महिसासुर को लेकर इतना हंगामा,राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ काव्य रचनेवाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त को हम क्यों याद करेंगे?

माइकेल मधुसूदन दत्त ने इस देश में पहली बार मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मिथक तोड़कर रावण के पक्ष में मेघनाथ काव्य लिखकर साहित्य और समाज में नवजागरण दौर में खलबली मचा दी,लेकिन नवजागरण के संदर्भ में उनकी कोई चर्चा नहीं होती।बंगाल में उन्हें शरत चंद्र और ऋत्विक घटक की तरह दारुकुट्टा और आराजक आवारा के रुप में जाना जाता है और हाल में भारत के लड़ाकू टेनिस स्टार लिएंडर पेस के पुरखे के बतौर पेस की उपलब्धियों के सिलसिले में उनकी चर्चा होती है।बाकी दोस यह भी नहीं जानता।

भारत में छंद और व्याकरण तोड़कर देशज संस्कृति के समन्वय और दैवी,राजकीय पात्रों के बजाय राधा कृष्ण को आम मनुष्य के प्रेम में निष्णात करने वाले जयदेव के गीत गोविंदम् से संस्कृत काव्यधारा का अंत हो गया,लेकिन निराला से पहले तक हिंदी में वहीं छंदबद्ध काव्यधारा का सिलसिला बीसवीं सदी में आजाद भारत में भी खूब चला हालांकि बंगाल में रवींद्र नाथ के काव्यसंसार में बीसवी संदी की शुरुआत में मुक्तक छंद का प्रचलन हो गया था। इस हिसाब से 1857 की क्रांति से पहले मेघनाद वध काव्य में भाषा,छंद औरव्याकरण के अनुशासन को तहस नहस करके रावण के समर्थन में राम के खिलाफ लिखा मेघनाद वध काव्य की प्रासंगिकता के बारे में बंगाल में भी कोई चर्चा कायदे से शुरु नहीं हुई।

 नवजागरण में हिंदू धर्म सत्ता और मनुस्मृति अनुशासन की जमीन तोड़ने में मेघनाथ वध के कवि माइकेल मधुसूदन दत्त की भूमिका उसी तरह है जैसे महात्मा ज्योतिबा फूले या बाबासाहेब अंबेडकर का हिंदू धर्म ग्रंथों और मिथकों का खंडन मंडन,मनुस्मृति दहगन की है।लेकिन इस देश के बहुजन समाज को माइकेल मधुसूदन दत्त का नाम भी मालूम नहीं है।रवींद्र को जानते हैं लेकिन उनकी अस्पृश्याता के बारे में ,उनके भारत तीर्त के बारे में बहुसंख्य भारतीय जनता को कुछ भी मालूम नहीं है।

धर्मसत्ता से टकराने के कारण ईश्वर चंद्र विद्यासागर लगभग सामाजिक बहिस्कार का शिकार होकर हिंदू समाज से बाहर आदिवासी गांव में शरणली और वहां उन्होंने आखिरी सांस ली।तो राजा राममोहन राय की बहुत कारुणिक मृत्यु लंदन में हुई। भरतीय समाज,धर्म और संस्कृति के आधुनिकीकरण की उस महाक्रांति के सिलसिले में राजा राममोहन राय के बारे में समूचा देश कमोबेश जानता है और लोग शायद ईश्वर चंद्र विद्यासागर के बारे में भी कुछ कुछ जानते होंगे।लेकिन इस क्रांति में महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त की भी एक बड़ी भूमिका है जिन्होंने हिंदुत्व का अनुशासन तोड़ने के लिए ईसाई धर्म अपनाया महज अठारह साल की उम्र में।फिर रावण के पक्ष में मेघनाद को महानायक बनाकर मेघनाद वध काव्य लिखकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मिथक तोड़ा।उनके बारे में हम कुछ खास जनाते नहीं हैं।

आज महिषासुर उत्सव का संसद और संसद के बाहर जैसा विरोध हो रहा है,रामलीला के बजाय रावण लीला का आयोजन बहुजन करने लगे तो कितनी प्रतिक्रिया होगी,इसको समझें तो सतीदाह,विधवा उत्पीड़न, स्त्री को गुलाम यौन दासी बनाकर रखने, स्त्री और शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखने,उन्हें नागरिकऔर मानवाधिकार से वंचित रखने, संपत्ति,संसादन और अवसरों से वंचित रखने, बाल विवाह, बहुविवाह, मरणासण्णके साथ शिशुकन्या के विवाह और पति के सात उनकी अतंरजलि यात्रा  के समर्थक हिंदू समाज में राम को खलनायक बनाने की क्या सद्गति रही होगी,अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।वही प्रेमचंद लिखित सद्गति बंगाली भद्र समाज ने माइकेल मदुसूदन दत्त की कर दी है और उनकी कोई स्मृति इस भारत देश के हिंदू राष्ट्र में बची नहीं है।

वैसे बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर ने भी हिंदू धर्मग्रंथों का खंडन किया,मिथक तोड़े,हिंदुत्व छोड़कर हिंदुओं के मुताबिक विष्णु के अवतार तथागत गौतम बुद्ध की शरण में जाकर बोधिसत्व बने,लेकिन बहुजन समाज का वोट हासिल करन के लिए अंबेडकर सत्तावर्ग की मजबूरी है।

माइकेल मधुसूदन दत्त के नाम पर वोट नहीं मिल सकते,जैसे शरतचंद्र, प्रेमचंद,मुक्तिबोध या ऋत्विक घटक या कबीर दास के नाम पर वोट नहीं मिल सकते।जब वोट इतना निर्णायक है तो हम वोट राजनीति के खिलाफ जाकर अपने पुरखों को याद कैसे कर सकते हैं?

माइकेल मधुसूदन दत्त जैशोर जिले के सागरदाढ़ी गांव से थे और बांग्लादेश ने उनके प्रियकवि की स्मृति सहेजकर रखी है।जैशोर में माइकेल के नाम संग्रहालय से लिकर विश्वविद्यालय तक हैं और उन पर सारा शोध बांग्लादेश में हो रहा है।कोलकाता में मरने के बाद उनकी सड़ती हुई लाश के लिए न ईसाइयों के कब्रगाह में कोई जगह थी और न हिंदुओं के श्मशान घाट में।चौबीस घंटे बाद उन्हें आखिरकार ईसाइयों के एक कब्रगाह में दफनाया गया।हिंदू समाज में तब से लेकर आज तक अस्वीकृत माइकेल की एकमात्र स्मृति उन्हींका बांग्ला में लिखा् एक एपिटाफ है,जिसका स्मृति फलक कोलकता के सबसे बड़े श्माशानघाट केवड़ातल्ला में है,जहां उनकी अंत्येषिटि हुई ही नहीं।

राजसत्ता के खिलाफ बगावत से जान बच सकती है लेकिन धर्म सत्ता हारने के बावजूद विद्रोह को कुचल सकें या न सकें,विद्रोहियों का वजूद मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ता।भारत में बंगाल के नवजागरण के मसीहावृंद ने ब्राह्मण धर्म की सत्ता की चुनौती दी थी और वे ईस्ट इंडिया कंपनी से नहीं टकराये।उन्होंने बंगाल और पूर्वी भारत में जारी किसान आदिवासी विद्रोहों का समर्थन नहीं किया और न वे 1857 में क्रांति के लिए पहली गोली कोलकाता से करीब तीस किमी दूर बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय की बंदूक से चलने के बाद कंपनी राज के बारे में कुछ अच्छा बुरा कहा।बिरसा मुंडा के मुंडा विद्रोह और सिधु कान्हो के संथाल विद्रोह के बार में भी वे कुछ बोले नहीं।

राजसत्ता के समर्थन से धर्म सत्ता की बर्बर असभ्यता को खत्म करना उनका मिशन था।सतीदाह प्रथा को बंद करना कितना कठिन था,आजाद भारत में भी रुपकुंवर सतीदाह प्रकरण से साफ जाहिर है।आज भी आजाद भारत में हिंदुओं में विधवा विवाह कानूनन जायज होने के बावजूद इस्लाम या ईसाई अनुयायियों की तरह आम नहीं है।बाल विवाह अब भी धड़ल्ले से हो रहे हैं।बेमेल विवाह भी हो रहे हैं।सिर्फ बहुविवाह पर रोक पूरी तरह लग गयी है,ऐसा कहा जा सकता है।

समझा जा सकता है कि मनुस्मृति अनुशासन के मुताबिक हिंदू समाज की आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप न करने की मुगलिया नीति पर चल रही कंपनी की हुकूमत को हिंदू समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए बंगाल के कट्टर ब्राह्मण समाज से टकराने के लिए कतंपनी के राज काज के खिलाप उन्हें क्यों चुप हो जाना पड़ा।क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत नवजागरण आंदोलन के वे सामाजिक सुधार कानून लागू न होते तो आज ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के अंध राष्ट्रवाद के दौर में हम उस मध्ययुगीन बर्बर असभ्य अंधकार समय से शायद ही निकल पाते।

विद्रोह चाहे किसी धर्म के खिलाफ हो,विद्रोही के साथ कोई धर्म खड़ा नहीं होता।उसकी स्थिति में धर्मांतरणसे कोई फर्क नहीं पड़ता।जैसे तसलिमा नसरीन नास्तिक है और वह धर्म को दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और स्त्रियों के मौलिक अधिकारों के लिए सबसे बड़ी बाधा मानती हैं।उनका विरोध और टकराव इसल्म के मौलवीतंत्र से है।लेकिन किसी भी धर्म सत्ता से उसे कोई समर्थन मिलने वाला नहीं है और कहीं और किसी धर्म में उन्हें शरण नहीं मिलने वाली है।

माइकेल मधुसूदन दत्त ने हिंदुत्व से मुक्ति के लिए ईसाई धर्म अपनाया।ईसाई धर्म अपनाने की उनकी पहली शर्त यह थी कि उन्हें पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया जाये।फोर्ट विलियम में ईस्ट इंटिया कंपनी के संरक्षण में उनका धर्मांतरण हुआ,लेकिन शर्त के मुताबिक उन्हें इंग्लैड भेजा नहीं जा सका।वे साहेब बनना चाहते थे शेक्सपीअर और मलिटन से बड़ा कवि अंग्रेजी में लिखकर बनाना चाहते थे।लेकिन धर्मांतरण के बाद आजीविका के लिए उन्हें चेन्नई भागना पड़ा।

माइकेल इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर भी बने तो वह धर्म सत्ता की मदद से नहीं,नवजागरण के मसीहा ईश्वर चंद्र की लगातार आर्थिक मदद से वे बैरिस्टर लंदन में रहकर बन पाये।भारत में कोलकाता लौट आये तो शुरुआत में ही अंग्रेजी में लिखना छोड़कर बांग्ला काव्य और नाटक के माध्यम से मिथकों को तोड़ते हुए मनुस्मृति शासन से कोलकाता को जो उन्होंने हिलाकर रख दिया,उसके नतीजतन ईसाई धर्म में भी उन्हें शरण नहीं मिली।ईसाइयों ने कोलकाता में उन्हें दफनाने के लिए दो गज जमीन भी नहीं दी।जबकि उनकी दूसरी पत्नी हेनेरिटा की तीन दिन पहले 26 जून को मौत हो गयी तो उन्हें ईसाइयों के कब्रगाह में दफना दिया गया।माइकेल की देह सड़ने लगी तो आखिरकार ऐंगलिकन चर्च के रेवरेंड पीटर जान जार्बो कीपहल पर उन्हें हेनेरिया के बगल में मृत्यु के 24 घंयेबाद लोअर सर्कुलर रोड के कब्रिसतान में दफनाया गया।

पिता राजनाराय़ण दत्त कोलकाता के बहुत बड़े वकील और हिंदू समाज के नेता थे।इसलिए यह धर्मांतरण गुपचुप फोर्ट विलियम में हुआ।माइकेल ने शेक्सपीअर और मिल्टन का अनुसरण करते हुए सानेट लिखा और संस्कृत कालेज में एक ब्राह्मणविधवा के बेटे को दाखिला देने के खिलाफ कोलकता के ब्राह्मण समाज ने जो हिंदू कालेज शुरु किया,उससे बहिस्कृत होने के बाद बिशप कालेज में दाखिले के बावजूद कहीं किसी तरह की प्रतिष्ठा और आजीविका से वंचित होने की वजह से 18 जनवरी,1848 को चेन्नई जाकर एक ईसाई अनाथ कालेज में शिक्षक की नौकरी कर ली और उसी अनाथालय की अंग्रेज किशोरी रेबेका से विवाह किया।

चेन्नई में रहते हुए मद्रास सर्कुलर पत्रिका के लिए उन्होंने अंग्रेजी में कैप्टिव लेडी सीर्ष क कव्या लिखा और कर्ज लेकर इस पुस्तकाकार प्रकाशित किया तो सिर्फ अठारह प्रतियां ही बिक सकीं।कोलकाता में उनके लिखे की धज्जियां उड़ा दी गयीं।बेथून साहेब ने लिक दिया कि माइकेल को अंग्रेजी शिक्षा से उनकी रुचि और मेधा का जो परिस्कार हुआ है,उससे वे अपनी मातृभाषा को समृद्ध करें तो बेहतर।

पिता कीमृत्यु के बाद पत्नी रेबेका को चन्नई में छोड़कर प्रेमिका हेनेरिटा को लेकर कोलकता लौटे माइकेल तो साहित्य और समाज में आग लगा दी उनके मेघनाथ वध काव्य ने।इसी दौर में महज पांच साल में  उन्होंने लिखा-शर्मिष्ठा,पद्मावती,कष्णकुमारीस मायाकानन,बूढ़ों शालिकेर घाड़ेरों जैसे नाटक और तिलोत्तमा काव्य,ब्रजांगना काव्य,वीरांगना काव्य।

राजसत्ता और राष्ट्र के विरुद्ध विद्रोह का नतीजा दमन और नरसंहार है तो अक्सर अग्निपाखी की तरह किसी मृत्यु उपत्यका में बार बार स्वतंत्रता और लोकतंत्र भी उसी विद्रोह का परिणाम होता है।विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं।लेकिन धर्मसत्ता के खिलाफ विद्रोह का नतीजा नागरिक जीवन के लिए कितना भयंकर है ,उसका जीती जागती उदाहरण तसलिमा नसरीन है,जिसका किसी राष्ट्र या राष्ट्र सत्ता से कोई खास विरोध नहीं है।उन्होने धर्म सत्ता को भारी चुनौती दी है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने धर्म का अनुशासन नहीं माना है।राष्ट्र उन्हें धर्मसत्ता के खिलाफ जाकर अपनी शरण में नहीं ले सकता।बंगाल के वाम शासन के दरम्यान प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष विचारधारा ने अंततः धर्मसत्ता के साथ खड़ा होकर बांग्लादेश की तरह बंगाल से भी तसलिमा को निर्वासित कर दिया और धार्मिक राष्ट्रवाद की सत्ता नई दिल्ली में होने के बावजूद अधार्मिक,नास्तिक ,धर्मद्रोही तसलिमा को भारत सरकार नागरिकता नहीं दे सकती,वही भारत सरकार जिसके समर्थन में तसलिमा अक्सर कुछ नकुछ लिकती रहती है।

धर्मसत्ता के खिलाफ यह विद्रोह लेकिन सभ्यता,स्वतंत्रता,गणतंत्र,मनुष्यों के मौलिक नागरिक और मानवाधिकार के लिए अनिवार्य है।यूरोप से बहुत पहले पांच हजार साल पहले सिंधु घाटी, चीन, मिस्र,  मेसोपोटामिया, इंका और माया की सभ्यताएं बहुत विकसित रही है।

बौद्धमय भारत के अवसान के बाद भी समूचे यूरोप में बर्बर असभ्य अंधकार युग की निरंतरता रही है।आम जनता दोहरे राजकाज और राजस्व वसूली के शिकंजे में थीं।राजसत्ता समूचे यूरोप में रोम की धर्मसत्ता से नियंत्रित थी।इंग्लैंड और जरमनी के किसानों की अगुवाई में धर्मसत्ता के खिलाफ यूरोप में महाविद्रोह के बाद रेनेशां के असर में वहां पहली बार सभ्यता का विकास होने लगा और औद्योगिक क्रांति की वजह से यूरोप बाकी दुनिया के मुकाबले विकसित हुआ।अमेरिका और आस्ट्रेलिया तो बहुत बाद का किस्सा है।

मनुष्यता का बुनियादी चरित्र बाकी जीवित प्राणियों से एकदम अलग है।बाकी प्राणी अपनी इंद्रियों की क्रिया प्रतिक्रिया की सीमा नहीं तोड़ सकते या हाथी,मधुमक्की और डाल्फिन जैसे कुछ जीव जंतु सामूहिक जीवन के अभ्यास में मनुष्य से बेहतर चेतना का परिचये तो दे सकते हैं किंतु अपनी ही इंद्रियों को काबू में करने का संयम मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है और वह अपने विवेक से सही गलत का चुनाव करके क्रिया प्रतिक्रिया को नियंत्रत कर सकता है और स्वभाव से वह प्रतिक्रियावादी नहीं होता।

मुक्तबाजार में लेकिन हम अनंत भोग के लिए अपनी इंद्रियों को वश में करने का संयम खो रहे हैं और विवेक या प्रज्ञा के बदले हमारी जीवन चर्या निष्क्रियता के बावजूद प्रतिक्रियाओं की घनघटा है।

सोशल मीडिया और मीडिया में पल दर पल वहीं प्रतिक्रियाएं हमारे मौजूदा समाज का आइना है,हमारा वह चेहरा है,जिसे हम ठीक से पहचानते भी नहीं है।सामूहिक सामाजिक जीवन के मामले में मनुष्यों की तुलना में हाथी,मधुमक्खी,भेड़िये और डाल्फिन जैसे असंख्य जीव जंतु हमसे अब बेहतर हैं और हम सिर्फ जैविक जीवन में जंतु बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।इसीलिए यह अभूतपूर्व हिंसा, गृहयुद्ध,युद्ध और आतंकवाद का सिलसिला तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी चमत्कार के बावजूद हमें विध्वंस की कगार पर खड़ा करने लगा है और हम अब भी निष्क्रिय प्रतिक्रियावादी हैं।

सबकुछ हासिल कर लेने की अंधी दौड़ में हम सभ्यता के विनाश पर तुल गये हैं और जैविकी जीवनयापन में हम फिर असभ्य बर्बर अंधकार युग की यात्रा पर हैं और आगे ब्लैक होल के सिवाय कुछ नहीं है।हमने मनुष्यता के विध्वंस के लिए परमाणु धमाकों का अनंत सिलसिला सुनिश्चित कर लिया है।इसी को हम विकास कहते और जानते हैं,जिसमें विवेकहीन इंद्रिय वर्चस्व के भोग के सिवाय मनुष्यता की कोई बुनियादी सत्ता नहीं है।

माइकल मधुसुदन दत्त

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माइकल मधुसुदन दत्त

माइकल मधुसुदन दत्त (बांग्ला: মাইকেল মধুসূদন দত্ত माइकेल मॉधुसूदॉन दॉत्तॉ) (1824-29 जून,1873) जन्म से मधुसुदन दत्त, बंगला भाषा के प्रख्यात कवि और नाटककार थे। नाटक रचना के क्षेत्र मे वे प्रमुख अगुआई थे। उनकी प्रमुख रचनाओ मे मेघनादबध काव्य प्रमुख है।

जीवनी[संपादित करें]

मधुसुदन दत्त का जन्म बंगाल के जेस्सोर जिले के सागादरी नाम के गाँव मे हुआ था। अब यह जगह बांग्लादेश मे है। इनके पिता राजनारायण दत्त कलकत्ते के प्रसिद्ध वकील थे। 1837 ई0 में हिंदू कालेज में प्रवेश किया। मधुसूदन दत्त अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे। एक ईसाई युवती के प्रेमपाश में बंधकर उन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिये 1843 ई0 में हिंदू कालेज छोड़ दिया। कालेज जीवन में माइकेल मधुसूदन दत्त ने काव्यरचना आरंभ कर दी थी। हिंदू कालेज छोड़ने के पश्चात् वे बिशप कालेज में प्रविष्ट हुए। इस समय उन्होंने कुछ फारसी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। आर्थिक कठिनाईयों के कारण 1848 में उन्हें बिशप कालेज भी छोड़ना पड़ा। तत्पश्चात् वे मद्रास चले गए जहाँ उन्हें गंभीर साहित्यसाधना का अवसर मिला। पिता की मृत्यु के पश्चात् 1855 में वे कलकत्ता लौट आए। उन्होंने अपनी प्रथम पत्नी को तलाक देकर एक फ्रांसीसी महिला से विवाह किया। 1862 ई0 में वे कानून के अध्ययन के लिये इंग्लैंड गए और 1866 में वे वापस आए। तत्पश्चात् उन्होंने कलकत्ता के न्यायालय मे नौकरी कर ली।

19वीं शती का उत्तरार्ध बँगला साहित्य में प्राय: मधुसूदन-बंकिम युग कहा जाता है। माइकेल मधुसूदन दत्त बंगाल में अपनी पीढ़ी के उन युवकों के प्रतिनिधि थे, जो तत्कालीन हिंदू समाज के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन से क्षुब्ध थे और जो पश्चिम की चकाचौंधपूर्ण जीवन पद्धति में आत्मभिव्यक्ति और आत्मविकास की संभावनाएँ देखते थे। माइकेल अतिशय भावुक थे। यह भावुकता उनकी आरंभ की अंग्रेजी रचनाओं तथा बाद की बँगला रचनाओं में व्याप्त है। बँगला रचनाओं को भाषा, भाव और शैली की दृष्टि से अधिक समृद्धि प्रदान करने के लिये उन्होनें अँगरेजी के साथ-साथ अनेक यूरोपीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया। संस्कृत तथा तेलुगु पर भी उनका अच्छा अधिकार था।

मधुसूदन दत्त ने अपने काव्य में सदैव भारतीय आख्यानों को चुना किंतु निर्वाह में यूरोपीय जामा पहनाया, जैसा "मेघनाद वध" काव्य (1861) से स्पष्ट है। "वीरांगना काव्य" लैटिन कवि ओविड के हीरोइदीज की शैली में रचित अनूठी काव्यकृति है। "ब्रजांगना काव्य" में उन्होंने वैष्णव कवियों की शैली का अनुसरण किया। उन्होंने अंग्रेजी के मुक्तछंद और इतावली सॉनेट का बंगला में प्रयोग किया। चतुर्दशपदी कवितावली उनके सानेटों का संग्रह है। "हेक्टर वध" बँगला गद्य साहित्य में उनका उल्लेखनीय योगदान है।


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Saturday, October 1, 2016

निष्णात हम भारतीय नागरिक परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है। नवजागरण की जमीन पश्चिम की रेनेशां कतई नहीं है! यह सिंधु घाटी और बौद्धमय भारत,चार्वाक दर्शन,संत फकीर पीर बाउल,किसान आदिवासी आंदोलनों की निरंतरता है! पलाश विश्वास

कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है।

नवजागरण की जमीन पश्चिम की रेनेशां कतई नहीं है!

यह सिंधु घाटी और बौद्धमय भारत,चार्वाक दर्शन,संत फकीर पीर बाउल,किसान आदिवासी आंदोलनों की निरंतरता है!

पलाश विश्वास

ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज के खिलाफ पलाशी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजदौल्ला की हार के बाद लार्ड क्लाइव के भारत भाग्यविधाता बन जाने के बारे में बहुत ज्यादा चर्चा होती रही है।लेकिन 1757 से बंगाल बिहार और मध्य भारत के जंगल महल में चुआड़ विद्रोह से पहले शुरु आदिवासी किसान विद्रोह के अनंत सिलसिले के बारे में हम बहुत कम जानते हैं।हम चुआड़ विद्रोह के बारे में भी खास कुछ नहीं जानते और कंपनी राज के खिलाफ साधु, संत, पीर, बाउल फकीरों की अगवाई में बिहार और नेपाल से लेकर समूचे बंगाल में हुए हिंदू मुसलमान बौद्ध आदिवासी किसानों के आंदोलन को हम ऋषि बंकिम चंद्र के आनंदमठ और वंदे मातरम के मार्फत सन्यासी विद्रोह कहकर भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्र को इसकी विविधता और बहुलता को सिरे से खारिज करते हुए हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र का निर्माण करते हुए बहुसंख्य जनता के हक हकूक खत्म करने पर आमादा हैं।

बौद्धमय भारत के धम्म के बदले हम वैदिकी कबाइली युद्धोन्माद का अपना राष्ट्रवाद मान रहे हैं।जिसका नतीजा परमाणु युद्ध, जल युद्ध जो भी हो,सीमा के आर पार हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो के नगर अवशेषों  की जगह अंसख्य हिरोशिमा और नागासाकी का निर्माण होगा और करोड़ों लोग इस परमाणु युद्ध में शहीद होंगे तो जलयुद्ध के नतीजतन इस महादेश में फिर बंगाल और चीन की भुखमरी का आलम होगा।भारत विभाजन के आधे अधूरे जनसंख्या स्थानांतरण की हिंसा की निरतंरता से बड़ा संकट हम मुक्त बाजार के विदेशी हित में रचने लगे हैं। सीमाओं के आर पार ज्यादातर आबादी शरणार्थी होगी और हमारी अगली तमाम पीढिंया न सिर्फ विकलांग होंगी,बल्कि उन्हें एक बूंद दूध या एक दाना अनाज का नसीब नहीं होगा।अभी से बढ़ गयी बेतहाशा महंगाई और लाल निशान पर घूम फिर रहे अर्थव्यवस्था के तमाम संकेतों को नजर अंदाज करके कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक आत्म ध्वंस परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है।

गौरतलब है कि किसान आदिवासी आंदोलनों के हिंदुत्वकरण की तरह जैसे उन्हें हम ब्राह्मणवादी समाजशास्त्रियों के आयातित विमर्श के तहत सबअल्टर्न कहकर उसे मुख्यधारा मानेन से इंकार करते हुए सत्तावर्ग का एकाधिकार हर क्षेत्र में स्थापित करने की साजिश में जाने अनजाने शामिल है,उसीतरह  बंगाल के नवजागरण को हम यूरोप के नवजागरण का सबअल्टर्न विमर्श में तबादील करने से नहीं चुकते और नवजागरण के पीछे कवि जयदेव के बाउल दर्शन,चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव आंदोलन के साथ साथ संत कबीर दास के साथ शुरु सामंतवाद और दिव्यता के विरुद्ध मनुष्यता की धर्मनरपेक्ष चेतना और इन सबमें तथागत गौतम बु्द्ध की सामाजिक क्रांति की निरंतरता के इतिहास बोध से हम एकदम अलग हटकर इस वैदिकी और ब्राह्मणी कर्मकांड के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन को पश्चिम की जुगाली साबित करने से चुकते नहीं है।

इसी तरह मतुआ आंदोलन की पृष्ठभूमि 1857 की क्रांति से पहले कंपनी राज के खिलाफ किसानों के ऐतिहासिक विद्रोह नील विद्रोह से तैयार हुई और इस आंदोलन के नेता हरिचांद ठाकुर नें बंगाल बिहार में हुए मुंडा विद्रोह के महानायक बिरसा मुंडा की तर्ज पर सत्ता वर्ग के धर्म कर्म का जो मतुआ विकल्प प्रस्तुत किया,उसके बारे में हम अभी संवाद शुरु ही नहीं कर सके हैं।यह तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को बंगाल में तेरहवीं सदी से आयातित ब्राह्मणधर्म के खिलाफ फिर बौद्धमय बगाल बनाने के उपक्रम बतौर हमने अभीतक देखा नहीं  है और विद्वतजन इस भी सबअल्टर्न घोषित कर चुके हैं और मुख्यधारा से बंगाल के जाति धर्म निर्विशेष बहुसंख्य आम जनता, किसानों और आदिवासियों को अस्पृश्यता की हद तक काट दिया है और इसी साजिस के तहत बंगाली दलित शरणार्थियों को बंगाल से खदेड़कर उन्हें विदेशी तक करार देनें में बंगाल की राजनीति में सर्वदलीय सहमति है।

बंगाल में मतुआ आंदोलन भारत और बंगाल में ब्राह्मण धर्म और वैदिकी कर्मकांड के विरुद्ध समता और न्याय की तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति की निरंतरता रही हैऔर जैसे गौतम बुद्ध को आत्मसात करने के लिए विष्णु का आविस्कार हुआ वैसे ही हरिचांद ठाकुर को भी विष्ण का अवतार मैथिली ब्राह्मण बाकी बहुसंख्य जनता की अस्पृश्यता बहाल रखने की गहरी साजिश है जिसके तहत मतुआ आंदोलन अब महज सत्ता वर्ग का खिलौना वोट बंके में तब्दील है।यह महसूस न कर पाने की वजह से हम मतुआ आंदोलन का ब्राह्मणीकरण रोक नहीं सके हैं और इसी तरह दक्षिण भारत में सामाजिक क्रांति की पहल जो लिंगायत आंदोलन ने की,ब्राह्मणधर्म विरोधी सामंतवाद विरोधी अस्पृश्यता विरोधी उस आंदोलन का हिंदुत्वकरण भी हम रोक नहीं सके हैं।

इसीलिए बंगाल में मतुआ आंदोलन के हाशिये पर चले जाने के बाद कर्नाटक में भी जीवन के हर क्षेत्र में लिंगायत अनुयायियों का वर्चस्व होने के बावजूद वहां केसरिया एजंडा गुजरात की तरह धूम धड़के से लागू हो रहा है।वहीं,महात्मा ज्योतिबा फूले और अंबेडकर की कर्मभूमि में शिवशक्ति और भीमशक्ति का महागठबंधन वहां के बहुजनों का केसरियाकरण करके उनका काम तमाम करने लगा है और बहुजनों के तमाम राम अब हनुमान है तो अश्वमेधी नरसंहार अभियान में बहुजन उनकी वानरसेना है।

दक्षिण भारत में पेरियार और नारायण गुरु ,अय्यंकाली सिनेमाई ग्लेमर में निष्णात है और उसकी कोई गूंज न वहां है और न बाकी भारत में।पंजाब में सिखों के सामाजिक क्रांतिकारी आंदोलन भी हिंदुत्व की पिछलग्गू राजनीति के शिकंजे में है और अस्सी के दशक में हिंदुत्व के झंडेवरदारों ने उनका जो कत्लेआम किया,उसके मुकाबले गुजरात नरसंहार की भी तुलना नहीं हो सकती।लेकिन सिखों को अपने जख्म चाटते रहने की नियति से निकलने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में बतायी दिशा नजर नहीं आ रही है।तमिल द्रविड़ विरासत से अलगाव,सिंधु सभ्यता के विभाजन के ये चमत्कार हैं।

सिंधु घाटी के नगरों में पांच हजार साल पहले बंगाल बिहार की विवाहित स्त्रियों की तरह स्त्रियां शंख के गहने का इस्तेमाल करती थींं,हड़प्पा और मोहंजोदोड़़ो के पुरात्तव अवशेष में वे गहने भी शामिल हैं।लेकिन गौतम बुद्ध के बाद अवैदिकी विष्णु को वैदिकी कर्मकांड का अधिष्ठाता बनाकर तथागत गौतम बुद्ध को उनका अवतार बनाने का जैसे उपक्रम हुआ,वैसे ही भारत में बौद्धकाल और उससे पहले मिली मूर्तियों को,यहां तक की गौतम बुद्ध की मूर्तियों को भी विष्णु की मूर्ति बताने में पुरतत्व और इतिहास के विशेषज्ञों को शर्म नहीं आती।

सिंधु सभ्यता का अवसान भारत में वैदिकी युग का आरंभ है तो बुद्धमय भारत में वैदिकी काल का अवसान है।फिर बौद्धमय भारत का अवसान आजादी के सत्तर साल बाद भी खंडित अखंड भारत में मनुस्मृति के सामांती बर्बर असभ्य फासिस्ट रंगभेदी मनुष्यता विरोधी नरसंहारी राजनीति राजकाज है।मुक्तबाजार है।युद्धोन्माद यही है।

इस बीच आर्यावर्त की राजनीति पूरे भारत के भूगोल पर कब्जा करने के लिए फासिस्ट सत्तावर्ग यहूदियों की तरह अनार्य जनसमूहों आज के बंगाली, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, तिब्बती, भूटिया,आदिवासी, तमिल शरणार्थियों की तरह भारतभर में बहुजनों का सफाया आखेट अभियान जारी है।क्योकि वे अपनी पितृभूमि से उखाड़ दिये गये बेनागरिक खानाबदोश जमात में तब्दील हैं। जिनके कोई नागरिक और मानवाधिकार नहीं हैं तो जल जंगल जमीन आजीविकता के हरक हकूक भी नहीं हैं।मातृभाषा के अधिकार से भी वे वंचित हैं।भारत विभाजन का असल एजंडा इसी नरसंहार को अंजाम देने का रहा है,जिससे आजादी या जम्हूरियता का कोई नाता नहीं है। सत्ता वर्ग की सारी कोशिशें उन्हें एकसाथ होकर वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते मोर्चबंद होने से रोकने की है और इसीलिये यह मिथ्या राष्ट्रवाद है,अखंड धर्मोन्मादी युद्ध परिस्थितियां हैं।

भारत से बाहर रेशम पथ के स्वर्णकाल से भी पहले सिंधु सभय्ता के समय से करीब पांच हजार साल पहले मध्यएशिया के शक आर्य खानाबदोश साम्राज्यों के आर पार हमारी संस्कृति और रक्तधाराएं डेन मार्क,फिनलैंड,स्वीडन से लेकर सोवियात संघ और पूर्वी एशिया के स्लाव जनसमूहों के साथ घुल मिल गयी हैं और वहीं प्रक्रिया करीब पांच हजार साल तक भारत में जारी रही हैं।जो विविधता और बहुलता का आधार है,जिससे भारत भारततीर्थ है।यही असल में भारतीयता का वैश्वीकरण की मुख्यधारा है और फासिज्म का राजकाज इस इतिहास और भूगोल को खत्म करने पर तुला है।

पांच हजार साल से भारतीय साझा संस्कृति और विरासत का जो वैश्वीकरण होता रहा है,उसे सिरे से खारिज करके युद्धोन्मादी सत्तावर्ग बहुसंख्य जनता का नामोनिशान मिटाने पर तुला ब्राह्णधर्म की मनुस्मृति लागू करने पर आमादा है और व्यापक पैमाने पर युद्ध और विध्वंस उनका एजंडा है, उनका अखंड भारत के विभाजन का एजंडा भी रहा है ताकि सत्ता,जल जंगल जमीन के दावेदारों का सफाया किय जा सकें, और अब उनका एजंडा यही है कि मुक्तबाजार में हम अपने लिए सैकड़ों हिरोशिमा और नागासाकी इस फर्जी नवउदारवाद,फर्जी वैश्वीकरण के भारत विरोधी हिंदू विरोधी,धम्म विरोधी,मनुष्यता और प्रकृति विरोधी अमेरिकी उपनिवेश में सत्ता वर्ग के अपराजेय आधिपात्य के लिए अंध राष्ट्रवाद के तहत परमाणु विध्वंस चुन लें।यही राजनीति है।यही राजकाज है और यही राजनय भी है।यह युद्धोन्माद दरअसल राजसूय यज्ञ का आयोजन है और अश्वमेधी घोड़े सीमाओं के आर पार जनपदों को रौंदते चले जा रहे हैं।हम कारपोरेट आंखों से वह नजारा देख कर भी देख नहीं सकते।

मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी के शंख के गहने अब बंगाल बिहार और पूर्वी भारत की स्त्रियां पहनती हैं।पश्चिम भारत और उत्तर भारत की स्त्रियां नहीं। इसीतरह सिंधु सभ्यता में अनिवार्य कालचक्र इस देश के आदिवासी भूगोल में हम घर में उपलब्ध है।हम इतिहास और भूगोल में सिंधु सभ्यता की इस निरंतरता को जैसे नजरअंदाज करते हैं वैसे ही धर्म और संस्कृति में एकीकरण और विलय के मार्फत मनुष्यता की विविध बहुल धाराओं की एकता और अखंड़ता को नामंजूर करके भारतीय राष्ट्रवाद को सत्ता वर्ग का राष्ट्रवाद बनाये हुए हैं और भारत राष्ट्र में बहुजनों का कोई हिस्सा मंजूर करने को तैयार नहीं है।इसलिए संविधान को खारिज करके मनुस्मृति को लागू करने का यह युद्ध और युद्धोन्माद है।

इसीतरह सिंदु सभ्यता से लेकर भारत में साधु,संत,पीर,फकीर ,बाउल, आदिवासी, किसान विरासत की जमीन पर शुरु नवजागरण को हम देशज सामंतवाद विरोधी,दैवीसत्ता धर्मसत्ताविरोधी,पुरोहित तंत्र विरोधी  मनुष्यता के हक हकूक के लिए सामाजिक क्रांति के बतौर देखने को अभ्यस्त नहीं है। मतुआ, लिंगायत, सिख, बौद्ध, जैन आंदोलनों की तरह यह नवजागरण सामंती मनुस्मृति व्यवस्था,वैदिकी कर्म कांड और पुरोहित तंत्र के ब्राह्मण धर्म के खिलाफ महाविद्रोह है,जिसने भारत में असभ्य बर्बर अमानवीय सतीदाह,बाल विवाह,बेमेल विवाह जैसी कुप्रथाओं का अंत ही नहीं किया,निरीश्वरवाद की चार्वाकीय लोकायत और नास्तिक दर्शन को सामाजिक क्रांति का दर्शन बना दिया।जिसकी जमीन फिर वेदांत और सर्वेश्वरवाद है।या सीधे ब्रह्मसमाज का निरीश्वरवाद।वहीं रवींद्रकाव्य का दर्शन है।

नवजागरण के तहत शूद्र दासी देवदासी देह दासी  स्त्री को अंदर महल की कैद से मुक्ति मिली तो विधवाओं के उत्पीड़न का सिलसिला बंद होकर खुली हवा में सांस लेने की उन्हें आजादी मिली।सिर्फ साड़ी में लिपटी भारतीय स्त्री के ब्लाउज से लेकर समूचे अंतर्वस्त्र का प्रचलन ब्रह्मसमाज आंदोलन का केंद्र बने रवींद्र नाथ की ठाकुर बाड़ी से शुरु हुआ तो नवजागरण के समसामयिक मतुआ आंदोलन का मुख्य विमर्श ब्राह्मण धर्म और वैदिकी कर्मकांड के खिलाफ तथागत गौतम बुद्ध का धम्म प्रवर्तन था तो इसीके साथ नवजागरण,मतुआ आंदोलन,लिंगायत आंदोलन से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले और माता सावित्री बाई फूले के शिक्षा आंदोलन का सबसे अहम एजंडा शिक्षा आंदोलन के तहत स्त्री मुक्ति का रहा है।

मतुआ आंदोलन का ज्यादा मह्तव यह है कि इसके संस्थापक हरिचांद ठाकुर न सिर्फ नील विद्रोह में किसानों का नेतृत्व कर रहे थे,बल्कि उनके मतुआ आंदोलन का सबसे अहम एजंडा भूमि सुधार का था।जो फजलुल हक की प्रजा समाज पार्टी का मुख्य एजंडा रहा है और फजलुल हक को हरिचांद ठाकुर के पुत्र गुरुचांद ठाकुर और उनके अनुयायियों जोगेंद्र नाथ मंडल  का पूरी समर्थन था।इसी भूमि सुधार एजंडे के तहत बंगाल में 35  साल तक वाम शासन था और 1901 में ढाका में मुस्लिम लीग बन जाने के बावजूद मुस्लिम लाग और हिंदू महासभा के ब्राह्मण धर्म का बंगाल में कोई जमीन या कोई समर्थन नहीं मिला।इन्हीं जोगेंद्र नाथ मंडल ने भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान का संविधान लिखा तो विभाजन से पहले बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक के साथ बंगाल से अंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचाया।बाद में 1977 का चुनाव जीत कर बंगाल में वाममोर्चा ने भूमि सुधार लागू करने की पहल की।बहुजन समाज की इस भारतव्यापी मोर्चे को तोड़ने के लिए ही बार बार विभाजन और युद्ध के उपक्रम हैं।

ऐसा पश्चिमी नवजागरण में नहीं हुआ। नवजागरण के नतीजतन फ्रांसीसी क्रांति,इंग्लैंड की क्रांति या अमेरिका की क्रांति में स्त्री अस्मिता या स्त्री मुक्ति का सवाल कहीं नहीं था और न ही भूमि सुधार कोई मुद्दा था।भारत के स्वतंत्रता संग्राम में किसानों और आदिवासियों के आंदोलन की विचारधारा और दर्शन के स्तर पर जर्मनी और इंग्लैंड से लेकर समूचे यूरोप में धर्म सत्ता और राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह से हालांकि तुलना की जा सकती है,जो अभी तक हम कर नहीं पाये हैं।

इसलिए नवजागरण की सामाजिक क्रांति के धम्म के बदले राजसत्ता और धर्मसत्ता में एकाकार ब्राह्मण धर्म के हम शिकंजे में फंस रहे है।इससे बच निकलने की हर दिशा अब बंद है।रोशनदान भी कोई खुला नजर नहीं आ रहा है।

नवजागरण आंदोलन और भारतीय साहित्य में माइकेल मधुसूदन ने जो मेघनाथ वध लिखकर लोकप्रिय आस्था के विरुद्ध राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ वध काव्य लिखा और आर्यावर्त के रंगभेदी वर्चस्व के मिथक को चकनाचूर कर दिया, नवजागरण के सिलसिले में उनकी कोई चर्चा नहीं होती और अंबेडकर से बहुत पहले वैदिकी,महाकाव्यीय मनुस्मृति समर्थक मिथकों को तोड़ने में उनकी क्रांतिकारी भूमिका के बारे में बाकी भारत तो अनजान है है,बंगाल में भी उनकी कोई खास चर्चा छंदबद्धता तोड़क मुक्तक में कविता लिखने की शुरुआत करने के अलावा होती नही है।

हम अपने अगले आलेख में उन्हीं माइकेल मधुसूदन दत्त और उनके मेघनाथ वध पर विस्तार से चर्चा करेंगे।अभी नई दिहाड़ी मिली नहीं है,तो इस मोहलत में हम भूले बिसरे पुरखों की यादें ताजा कर सकते हैं।तब तक कृपया इंतजार करें।



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