Monday, August 15, 2011

गैर सरकारी संस्थानों से आज़ादी, गुलामी पहचान अंक और तीसरी बात आम जन लोकपाल की


गैर सरकारी संस्थानों से आज़ादी, गुलामी पहचान अंक और तीसरी बात आम जन लोकपाल की


आज के दिन आमजन लोकपाल के अलावा संसद और राज्य के विधान सभाओ से यह मांग कर रहा है की देश को गैर सरकारी संस्थानों के जनमदाता १८६० के और १९२७ के ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानून से आज़ाद किया जाए. अधिकतर गैर सरकारी संसथान की ऐतिहासिक और राजनितिक समझ का अनदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है की उन्होंने यूनिक आइडेन्टटी नंबर/आधार संख्या/नेशनल पोपुलेसन रजिस्टर जैसी गुलामी की बेडी को देश के हुक्मरानों और कंपनियो के आश्वासन पर इमानदारी की जादुई ताबीज मान लिया है. अभी-अभी विकिलिकस से पता चला है की मिश्र के पूर्व तानाशाह होस्नी मुबारक ने अपने देशवासियों का यूनिक आइडेन्टटी (पहचान) पत्र का संग्रह (डेटाबेस), संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की गुप्तचर संस्था फेडेरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन को सौप दिया था. जून २९, २०११ को मनमोहन सिंह ने ६ संपादको से बातचित मे 'लोकपाल' के बजाये यूनिक आइडेन्टटी नंबर/आधार संख्या से भ्रस्टाचार मिटाने की बात की है. हैरानी की बात है की गैर सरकारी संस्थानों को यह नजर क्यों नहीं आया.

सत्ता परिवर्तन के बजाये अगर व्यवस्था परिवर्तन अगर लक्ष्य है तो केवल लोकपाल से तो ये होने से रहा. आपातकाल के दौरान हुए आन्दोलन से जुड़े अधिकतर लोग अपनी-अपनी गैर सरकारी संस्थान की दूकान खोल कर क्यों बैठ गए. इससे पहले की वे सन्यास ले ले या विस्मृति के गर्त मे चले जाये हमे जबाब चाहिए. उन्होंने अपने आन्दोलन को विश्व इतिहास के सन्दर्भ मे क्यों नहीं खंगाला और 'संपूर्ण क्रांति' शब्द को क्यों अर्थहीन किया. अब वो और उनसे जुड़े लोग बताये की क्या लोकपाल से 'संपूर्ण क्रांति' होगी.

इसमें भी एक बात तो सरकारी लोकपाल की है. दूसरी अन्ना जी की सदारत में जन लोकपाल की है. तीसरी बात है आम जन लोकपाल की.

इन तीनो में शायद एक बात की सहमती है की देश की राजनितिक और प्रशासनिक व्यवस्था में जहर घोल दिया है कम्पनी के मालिको ने. और अब बड़ी चालाकी से इन तीनो को आमने-सामने कर दिया है. इन तीनो में मेरी सहमती आम जन लोकपाल से है. अभी पिछले दिनों संसद के पुस्तकालय में मेरी नज़र ९ मई १९६८ के 'लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक पर पड़ी जिसे तत्कालीन गृह मंत्री Yashwantrao Balwantrao चवन ने लोक सभा में पेश किया था. उसी के पास लोकपाल विधेयक, १९७७ भी रखा हुआ था जिसे राजनितिक बदलाव के बाद तत्कालीन गृह मंत्री चरण सिंह ने पेश किया था जब शांति भूषण कानून मंत्री हुआ करते थे. सन १९७१ में भी 'लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक तत्कालीन गृह राज्य मंत्री राम निवास मिर्धा ने लोक सभा में पेश किया था. लोकपाल विधेयक को १९८५ में कानून मंत्री अशोक कुमार सेन ने, १९८९ में कानून मंत्री दिनेश गोव्स्वामी ने, १९९६ में कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेनसन राज्य मंत्री S R बलासुब्रमानियन ने , १९९८ में कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेनसन राज्य मंत्री Kadambur M R जनार्थानन ने और 2001 में कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेनसन राज्य मंत्री वसुंधरा राजे ने लोक सभा में पेश किया था. इस सम्बन्ध मे संसदीय समिति गृह मंत्रालय ने १९९६, १९९८ और २००१ मे अपनी report भी संसद मे रखी थी. एक बार फिर चालीस पन्नो वाली लोकपाल विधेयक, २०११ को ४ अगस्त, २०११ को लोक सभा मे कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेनसन राज्य मंत्री V. नारायणसामी ने पेश कर दिया गया है. अगस्त ८ को पीटीआई की एक खबर से पता चला की राज्य सभा के सभापति और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी इस बिधेयक को कांग्रेस प्रवक्ता और राज्य सभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेनसन को सौप दिया है. जिस सरकार ने इसे पेश किया है उसमे और जो संसदीय समिति इसकी पड़ताल करेगी 'संपूर्ण क्रांति' की बात करने वाले लोग भी शामिल है. इस संसदीय समिति मे ६ और सांसदों की भर्ती होना बाकी है. आनेवाले दिनों मे इसमें किस-किस की भर्ती होती है वह राजनितिक रूप से दिलचस्प होगा.

संसद मे और संसद के बहार क्या कोई है जो बतायेगा की ऐसा क्यों हुआ की १९६८ से १९७७ तक लोकपाल का मामला गृह मंत्रालय के तहत आता था, वह १९८५ मे कानून मंत्रालय मे चला गया और फिर कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेनसन मंत्रालय के पास. समय के साथ सरकार की लोकपाल के सम्बन्ध मे तत्परता मे प्राथमिकता कम होती जा रही है. ऐसा क्यों है की जब यह स्पष्ट हो गया है की लोक सभा इस बिधेयक को पारित करने मे १९६८ से २००१ तक नाकामयाब रही है फिर भी विधेयक को लोक सभा मे ही क्यों पेश किया गया. ऐसे ऐतिहासिक और भरी भरकम विधेयक का बोझ लोक सभा के कंधे पे डाल कर येही साबित किया गया है की आम जन लोकपाल, जन लोकपाल की तो छोडिये, सरकार अपने विधेयक को लेकर भी थोड़ी सी भी गंभीर नहीं है अन्यथा इसे राज्य सभा मे पेश किया जाता जैसे की महिला आरक्षण विधेयक के सम्बन्ध मे किया गया. सरकार चाहती है की इस विधेयक का अंजाम भी वही हो जो अतीत मे पेश किये गए विधेयको का हुआ. सभी दल इस सरकार मे रहे है और उन्होंने बहुत कड़ी मेहनत की है. मगर उनमे इच्छा शक्ति इतनी नहीं थी की वह 'सरकारी लोकपाल' विधेयक संसद से पारित करा पाते.

राजनितिक दलों मे इच्छा शक्ति राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण विधेयक, २०१० को खंगालने की भी नहीं है जो की सरकार का आम नागरिक समाज के खिलाफ असली हथियार है जबकि बिना विधेयक के पारित हुए बिना ही १ करोड़ ९० लाख यूनिक आइडेन्टटी नंबर/आधार संख्या बना लिए गए है जो की नेशनल पोपुलेसन रजिस्टर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) से जुदा हुआ है जिसे देशवासियों की आँखों की पुतलियो, उंगलियों के निशान और तस्वीर के आधार पर बनाया जा रही है जो की अमानवीय है.

राजनितिक दलों मे इच्छा शक्ति का अभाव कंपनी विधेयक, २००९ के सम्बन्ध मे भी दिख रहा है जिसे जे जे इरानी समिति की सिफारिसो पर बनाया गया है. इसके तहत केवल एक व्यक्ति भी कंपनी बना सकता है. भारत के Economic Census 2005 के अनुसार देश मे ४ करोड़ २० लाख लोग उद्योग धंधे मे है जबकि कमानियो की संख्या ३ लाख से भी कम है. इस कानून के जरिये ४ करोड़ २० लाख उद्योग धंधो का कम्पनीकरण किया जा रहा है मगर गैर सरकारी संस्थानों को इसे खंगालने की फुर्सत नहीं या नियत नहीं है. जबकि नए कानून मंत्री वीरप्पा मोइली इसे पारित करवाने को अपनी प्राथमिकता बता रहे है. कंपनी कानून को नजर अंदाज ऐसे देश मे किया जा रहा जो २३ जून को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने पराजित होने और शोषित होने का अपनी २५४वा वर्षगाठ मनाने से कतरा रहा है. इसी दिन की हार के कारण ब्रिटिश संसद को अवीभाजीत भारत के सम्बन्ध मे कानून बनाने का अधिकार मिला उसमे ब्रिटिश कम्पनी कानून भी शामिल है जिसे भारत ने बड़ी मासूमियत से अपना लिया. देश और सरकार का भी कम्पनीकरण किया जा रहा है. गैर सरकारी संस्थानों और कम्पनी आधारित अखबारों और चैनलों से यह उम्मीद करना की देश और सरकार के कम्पनीकरण को रोकेंगे कल्पना करने की क्षमता मे विकलांगता को दर्शाता है.

अन्ना जी की सदारत वाली जन लोकपाल 'सरकारी लोकपाल' को आइना दिखा रही है. आइना दिखाना तो ठीक है. मगर अन्ना जी गैर सरकारी संस्थानों के बड़े तबके और उन जनो की तरफ से बोल रहे है जो काले धन से तो पीड़ित है मगर काले धन पर आधारित राजनितिक और आर्थिक व्यवस्था को बदलने की पहल अब तक नहीं कर पाए है. गैर सरकारी संस्थानों का जनम १८६० के और १९२७ के ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानून से हुआ है. यह संस्थान, कानूनी तो है पर असल मे सामाजिक, लोकतान्त्रिक और शायद संवैधानिक भी नहीं है. उन्हें यह भी याद नहीं की महात्मा गाँधी ने असिअटिक रजिस्टरएशन एक्ट, १९०७ का विरोध इसलिए किया था क्योकि वह उंगलियों की निशानदेही पर आधारित था ठीक वैसे ही जैसा की यूनिक आइडेन्टटी नंबर/आधार संख्या और नेशनल पोपुलेसन रजिस्टर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) मे हो रहा है. ब्रिटिश सर्कार के इस कानून जिसके तहत एशिया और भारत के लोगो को पहचान पत्र दिए जा रहे थे उसे कला कानून कहा था और उसे सरे आम जला दिया था. उन्होंने शोध किया और कहा की उंगलियों की निशानदेही से सम्बंधित वो किताब जिसे एक पुलीस अफसर ने लिखा था उससे ये पता चलता है की "उंगलियों की निशानदेही की जरुरत केवल अपराधियों के लिए होती है." अन्ना जी की सदारत वाली जन लोकपाल टीम को भी अपने विचार और अभियान को महात्मा गाँधी के आईने मे देखना होगा.

सच यह है की कुछेक को छोड़ कर गैर सरकारी संस्थानों मे सब गमले मे उगे हुए बरगद है. उनके होने मात्र से ब्रिटिश संसद की १८५७ के पहले आज़ादी की लड़ाई के बाद की कारिस्तानियो की याद ताजा रहती है. गैर सरकारी संस्थानों आम जन का प्रतिनिधित्व नहीं करते है. कंपनियों की तानाशाही, उनके अपराधो और राजनितिक दल की फंडिंग के बारे मे अगर वो खुल कर बोलते है तो हम उनका सम्मान तो कर सकते है मगर ऐसा नहीं कह सकते की वे आम जन का प्रतिनिधित्व करते है. बिभाजित भारत मे २००९ के एक अनुमान के मुताबिक ३३ लाख गैर सरकारी संसथान है. इतने तो अपने बिभाजित देश मे स्कूल और अस्पताल भी नहीं है. यदि यह सारे अन्ना जी के साथ आ भी जाये तो भी ऐसा नहीं कह सकते की वे सारे आम जनो की तरफ से बोल रहे है..

अबिभाजित भारत (पाकिस्तान और बंगलादेश सहित) पर जो असर १८६० के और १९२७ के ब्रिटिश संसद द्वारा पारित गैर सरकारी संस्थानों के निर्माण के कानून का पड़ा है उसी का ये नतीजा है की इस इलाके मे आम जन त्राहि-त्राहि कर रहे है मगर कोई पुख्ता सचमुच का आन्दोलन खड़ा नहीं हो पा रहा है. आम जन लोकपाल की मांग है की गैर सरकारी संस्थानों से जुड़े कानूनों को निरस्त किया जाए. और १८६० से लेकर अब तक जितने गैर सरकारी संसथान बने है उनपर एक श्वेत पत्र लाया जाये. गैर सरकारी संस्थानों से अनेक भले लोग विकल्पहीनता के कारण भी जुड़े है.

जहा तक जन लोकपाल और आम जन लोकपाल की है उसमे संवाद की गुंजाईश है अगर १८६० के और १९२७ के ब्रिटिश संसद द्वारा पारित गैर सरकारी संस्थानों के निर्माण के कानून, कंपनी कानून और अनूठी पहचान/आधार संख्या के नागरिक विरोधी होने की बात पर सहमती बने और टुकड़े-टुकड़े मे बात करने के बजाये सचमुच का साझा, लोकतान्त्रिक मंच बनाये जिसमे नागरिक होना प्राथमिक हो न की व्यवसायी होना या व्यवसायीयो से जुड़े होना.

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