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Wednesday, November 17, 2021

मैंने गंगा को देखा एक लंबे सफ़र के बाद

मैंने गंगा को देखा 

एक लंबे सफ़र के बाद 

जब मेरी आँखें 

कुछ भी देखने को तरस रही थीं 

जब मेरे पास कोई काम नहीं था 

मैंने गंगा को देखा 

प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद 

जब एक शाम 

मुझे साहस और ताज़गी की 

बेहद ज़रूरत थी 

मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी 

डब-डब आँख में 

जहाँ जीने की अपार तरलता थी 

मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह 

रेती पर खड़ा था 

घर जाने को तैयार 

और मैंने देखा— 

बूढ़ा ख़ुश था 

वर्ष के उन सबसे उदास दिनों में भी 

मैं हैरान रह गया यह देखकर 

कि गंगा के जल में कितनी लंबी 

और शानदार लगती है 

एक बूढ़े आदमी के ख़ुश होने की परछाईं! 


जब बूढ़ा ज़रा हिला 

उसने अपना जाल उठाया 

कंधे पर रखा 

चलने से पहले 

एक बार फिर गंगा की ओर देखा 

और मुस्कुराया 

यह एक थके हुए बूढ़े मल्लाह की 

मुस्कान थी 

जिसमें कोई पछतावा नहीं था 

यदि थी तो एक सच्ची 

और गहरी कृतज्ञता 

बहते हुए चंचल जल के प्रति 

मानो उसकी आँखें कहती हों— 

‘अब हो गई शाम 

अच्छा भाई पानी 

राम! राम!’ 


-केदारनाथ सिंह