Tuesday, September 14, 2010

परिसीमन से सबसे ज्यादा फायदा लालू यादव को :शशांक शेखर

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पटना, 14 सितंबर- बिहार में राजनीति के समीकरण कुछ और कह रहे है और परिसीमन के बाद का गणित कुछ और कह रहा है। इसी परिसीमन की वजह से भारतीय जनता पार्टी को एक तिहाई से ज्यादा विधायकाें के टिकट काटने पड़ रहे है और यह भी उसके असली मुसीबत है। परिसीमन का असली असर भाजपा और जनता दल यू पर पड़ा है। वामपंथियों का वैसे भी कोई खास वजूद है नहीं और राष्ट्रीय जनता दल यादव बहुल इलाकों से डरता है इसलिए उसे फर्क नहीं पड़ने वाला फिर भी गणित तो गणित है।


पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण में बिहार की कुल 40 लोकसभा सीटों में से 13 सीटों दृ गोपालगंज (सुरक्षित), सीवान, महाराजगंज, सारण, आरा, बक्सर, सासाराम, काराकाठ, जहानाबाद, औरंगाबाद, गया, नवादा, जमुई (सुरक्षित) पर 16 अप्रैल 2009 को चुनाव होना है। नए परिसीमन के बाद लगभग सभी लोकसभा सीटों का रूप-रंग व प्रकृति बदल गई है।

इनमें काराकाठ, सारण व जमुई नए नामों से लोकसभा क्षेत्र बनाए गए हैं। गोपालगंज, जो पहले सामान्य था, अब सुरिक्षत और नवादा जो पहले सुरिक्षत था, अब सामान्य सीट हो गई है। नई बनाई गई लोकसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरिक्षत है। इस प्रकार बिहार में होने वाले पहले चरण के चुनाव में कुल 13 में से 3 सीटें सुरक्षित और 10 सीटें सामान्य हैं।

चुनाव के ठीक पहले कई पार्टी के नेताओं द्वारा अचानक पाला बदलने, आम मतदाताओं के खामोश रहने और इस बार के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहने के कारण जहां एक ओर चुनावी मुकाबलों में प्रमुख दलों को अपने ही दल के भितरघातियों का मुकाबला करना पड़ेगा, इसीलिए अभी चुनावी संभावनाओं की तस्वीर धुंधली लग रही है।

वाम दलों द्बारा तीसरे मोर्चे के गठन के बाद लालू-रामिवलास गठजोड़ और अब मुलायम सिंह यादव के साथ मिल कर चौथे मोर्चे का गठन, बहुजन समाज पार्टी एवं कांग्रेस द्वारा लगभग सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने, टिकट बंटवारे के नाम पर हुई खींचतान सबों के चुनावी खेल बिगाड़ सकती है। इन्हीं सब उधेड़बुन के बीच अब तक की जो तस्वीर सामने उभरकर आ रही है, डालते हैं उन पर एक नजर -

गोपालगंज लोकसभा सीट जो पूर्व में सामान्य थी, नए परिसीमन के बाद उसे सुरिक्षत कर दिया गया। यहीं से जीजा-साले के मेल-फेल हो गए। 2004 के चुनाव में राजद से अनिरुध्द प्रसाद उर्फ साधु यादव ने जद यू के प्रभुदयाल सिंह को 1,92,919 मतों से पराजित किया था, लेकिन इस बार इस क्षेत्र के सुरक्षित होने से साधु यादव का पत्ताा साफ हो गया। गोपालगंज जिले से बिहार के तीन भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों का जुड़ाव रहा है। अब्दुल गफूर, लालू प्रसाद एवं राबड़ी देवी। यहां से पूर्व में काली प्रसाद पांडे, नगीना राय, अब्दुल गफूर, रघुनाथ झा जैसे दिग्गज उम्मीदवार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं।


इस बार 'लालू प्रसाद के शंकराचार्य' राजद के भगोड़े विधायक रमई राम कांग्रेस, पूर्व राज्यसभा व वर्तमान में भोरे (सुरक्षित) क्षेत्र के राजद विधायक अनिल कुमार (राजद), पूर्णमासी राम (जदयू), सत्यदेव राम (सीपीआईएमएल) और जनक चमार (बसपा) के बीच चौतरफा मुकाबले की प्रबल संभावना है। पार्टी में आपसी कलह से बड़े नेताओं में घोर मायूसी है। ऐसे में गोपालगंज सीट से माले के सत्यदेव राम बाजी मार लें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। इस बार यहां के कुल 13, 23, 106 मतदाता उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे।

सीवान लोकसभा क्षेत्र, जो कभी डॉ राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, मौलाना मजहरूल हक, महामाया प्रसाद सिंह का कार्यक्षेत्र रहा है। अब बाहूबली राजद के शहाबुद्दीन का गढ़ माना जाता है। 2004 के चुनाव में राजद के शहाबुद्दीन ने जदयू के ओमप्रकाश यादव को 1, 03, 578 मतों के भारी अंतर से हराया था। पूर्व में छात्र नेता चंद्रशेखर की हत्या के बाद यहां की राजनीति में उबाल आया।

इस बार जेल में बंद शहाबुद्दीन की पहली पत्नी हीना सहाब राजद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मौसेरे भाई व बिहार सरकार के ग्रामीण कार्य मंत्री वृषन पटेल जदयू, अमरनाथ यादव सीपीआईएमएल और पारसनाथ पाठक बसपा के मुख्य उम्मीदवार हैं। वृषन पटेल और हीना सहाब की प्रतिद्वंद्विता में माले के अमरनाथ यादव चुनाव जीत सकते हैं। चंद्रशेखर की हत्या के वर्षों बाद भी उनके प्रति लोगों की हमदर्दी अमरनाथ यादव के साथ होगी। यहां राजद के एम-वाई समीकरण दम तोड़ चुका है। यहां के कुल 11, 85, 494 मतदाता उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे।

महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र से 2004 में जदयू के प्रभुनाथ सिंह ने राजद के जीतेंद्र स्वामी को 46,465 मतों के अंतर से मात दी थी। इस बार वर्तमान सांसद प्रभुनाथ सिंह जदयू, तारकेश्वर सिंह कांग्रेस और उमाशंकर सिंह राजद के बीच मुख्य मुकाबला है। तीनों राजपूत जाति के उम्मीदवार हैं। त्रिकोणीय संघर्ष में पहले प्रभुनाथ सिंह का पलड़ा भारी दिखता था, लेकिन अब कांग्रेस के तारकेश्वर सिंह आगे दिखते हैं। क्षेत्र का भूमिहार वोट प्रभुनाथ सिंह को मात देने के लिए तारकेश्वर सिंह की ओर पड़ने के पूरे आसार हैं। यहां के कुल 12, 36, 894 मतदाता उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे।

सारण, भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर का बेबस कुतुबपुर गांव यहीं है, जहां से रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव राजद, राजीव प्रताप रूढ़ी भाजपा के प्रमुख उम्मीदवार हैं। 2004 में लालू प्रसाद यादव ने भाजपा के राजीव प्रताप रूढ़ी को 60,429 मतों से पराजित किया था।

उस वक्त इसका नाम छपरा लोकसभा क्षेत्र था। इस बार लालू यादव के मन में हारने का भय पहले से व्याप्त है और वे पाटलिपुत्र लाकसभा से भी उम्मीदवार हैं। ऐसे में राजीव प्रताप रूढ़ी का पलड़ा भारी दिखता है। यहां मतदाताओं की कुल संख्या 12, 06, 729 है। यहां चुनाव परिणाम रोचक होगा, रोमांचकारी होगा और बिहार एवं केंद्र की सरकार का भविष्य तय करेगा।

आरा लोकसभा क्षेत्र बाबू जगजीवन राम व डाक्टर राम सुभग सिंह, बलिराम भगत, राम लखन सिंह यादव, कांति सिंह, रामेश्वर प्रसाद का कार्यक्षेत्र रहा है। बिहार में चुनावी हिंसा की शुरुआत यहीं से हुई। 2004 में राजद की कांति सिंह ने सीपीआईएमएल के रामनरेश राम को 1,49,743 मतों के भारी अंतर से शिकस्त दी थी। सरदार हरिहर सिंह, बलिराम भगत, राम प्रसाद कुशवाहा यहां का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस बार मीना सिंह जदयू, रीता सिंह बसपा, बाहूबली रामा किशोर सिंह लोजपा एवं काराकाठ विधायक अरुण सिंह माले के प्रमुख उम्मीदवार हैं। बाहूबिलयों एवं धनाढयों की लड़ाई में माले के अरुण सिंह दूसरे उम्मीदवारों से भारी दिखते हैं। कुल 15, 25, 403 मतदाता इनके भाग्य का फैसला करेंगे।

बक्सर लोकसभा सीट उत्तार प्रदेश का पड़ोसी है। 2004 में भाजपा के लालमुनि चौबे ने ललन सिंह को 54, 866 मतों से मात दी थी। रामानंद तिवारी, केके तिवारी कांग्रेस, बक्सर विधायक श्यामलाल कुशवाहा बसपा के साथ ललन पहलवान भी चुनावी अखाड़े में हैं। दबंग जगदानंद सिंह और फक्कड़ स्वभाव के लालमुनि चौबे भभुआ निवासी हैं। कारण कि जगतानंद सिंह के वोटों की कटाई ललन पहलवान और चौबे की तिवारी करेंगे। उत्तार प्रदेश की सीमा से सटे होने के कारण बक्सर में बहन जी का हाथी दूसरों पर भारी पड़ सकता है। यहां मतदाताओं की संख्या 1297469 है।

सुरक्षित सासाराम, राजनीति के बाबू जी कहे जाने वाले जगजीवन राम का लोकसभा क्षेत्र, जहां से 1962 से 1984 तक वे सांसद रहे। 2004 में जगजीवन राम की बेटी कांग्रेस की मीरा कुमार ने भाजपा के मुनिलाल को 2,58,262 के बड़े अंतर से मात दी थी। इस बार मीरा कुमार कांग्रेस, ललन पासवान राजद, मुनिलाल भाजपा के अलावा गांधी आजाद बसपा के मुख्य उम्मीदवार हैं। बसपा के गांधी आजाद इस बार सासाराम से कोई नया गुल खिला सकते हैं। मीरा कुमार मुनिलाल और गांधी आजाद के बीच त्रिकोणीय संघर्ष में गांधी संगठन व पैसों के बल पर दोनों पर भारी पड़ेंगे। कुल 13, 49, 699 मतदाता इनके भाग्य का फैसला करेंगे।

काराकाठ को इस बार नए परिसीमन में नया लोकसभा क्षेत्र बनाया गया है। 2004 में विक्रमगंज लोकसभा क्षेत्र से जदयू के अजीत कुमार सिंह ने राजद के राम प्रसाद सिंह को 58,801 मतों से हराया था। अजीत कुमार सिंह की दुर्घटना में मृत्यु के बाद उनकी पत्नी मीना सिंह ने चुनाव जीता। इस बार कांति सिंह राजद, अवधेश सिंह कांग्रेस, महाबली सिंह जदयू, रमाधार सिंह बसपा, राजाराम सीपीआईएमएल के प्रमुख उम्मीदवार हैं।

नया लोकसभा क्षेत्र होने से यहां सभी ताल ठोंक रहे हैं। लेकिन अंततरू मुकाबला माले के राजाराम की कांति सिंह के बीच होने की प्रबल संभावना है। सेंधमारी के चलते दोनों को परेशानी हो सकती है। तीसरे मोर्चे की एकता माले के राजाराम सिंह को जीत दिला सकता है। यहां मतदाताओं की कुल संख्या 13, 60, 891 है।

जहानाबाद संसदीय क्षेत्र जातीय हिंसा की आग में जलता रहा है। 2004 में राजद के गणेश प्रसाद यादव ने जदयू के अरुण कुमार सिंह को 46,438 मतों से हराया था। इस बार यहां से सुरेश यादव राजद, जगदीश शर्मा जदयू, अरुण कुमार सिंह कांग्रेस व महानंद सीपीआईएमएल के मुख्य उम्मीदवार हैं। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का राजद को सर्मथन, वहीं दूसरी ओर अरुण कुमार सिंह का जदयू होते लोजपा छोड़ कर कांग्रेसी प्रत्याशी बन जाने से जहां जदयू के जगदीश शर्मा कमजोर पड़े हैं, वहीं सुरेंद्र प्रसाद यादव की जीत का रास्ता साफ दिखता है। माले प्रत्याशी महानंद अपनी ताकत का एहसास करा सकते हैं। यहां मतदाताओं की संख्या 12,40,491 है।

औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र कभी चित्ताौड़गढ़ के नाम से जाना जाता था। नए परिसीमन के बाद चित्ताौड़गढ़ पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। यह कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह व सत्येंद्र नारायण सिंह का पुराना क्षेत्र रहा है। 2004 में सत्येंद्र नारायण सिंह के पुत्र निखिल कुमार ने जदयू के सुशील कुमार सिंह को 7460 मतों के मामूली अंतर से हराया था।

इस चुनाव में निखिल कुमार कांग्रेस, सुशील कुमार सिंह जदयू, शकील अहमद खां राजद और अर्चना यादव बसपा के मुख्य उम्मीदवार हैं। दो राजपूतों की लड़ाई में राजद के शकील अहमद खां जो गुरुआ विधानसभा के विधायक भी हैं, को फायदा पहुंच सकता है, लेकिन बसपा की अर्चना यादव ने जो यादवों के वोट में सेंध लगा दी, तो मुकाबला दिलचस्प हो सकता है। अभी शकील अहमद खां अन्य दूसरों से आगे दिखते हैं। यहां कुल 1332096 मतदाता हैं।

गया लोकसभा क्षेत्र से 2004 में राजद के राजेश कुमार मांझी ने भाजपा के बलबीर चांद को 1,02,934 के भारी अंतर से हराया था। इस बार रामजी मांझी राजद, हरि मांझी भाजपा, संजीव कुमार टोनी कांग्रेस, निरंजन कुमार माले, कलावती देवी बसपा की उम्मीदवार हैं। मुख्य मुकाबला राजद और भाजपा के बीच है। टोनी ने मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है, लेकिन हवा भाजपा के पूर्व सांसद और इस बार राजद के उम्मीदवार रामजी मांझी की ओर बहती दिखती है। गया लोकसभा में मतदाताओं की संख्या 12,83,125 है।

नवादा लोकसभा क्षेत्र पूर्व में आरिक्षत था, लेकिन इस बार सामान्य हो जाने से बाहूबली के साथ धनाढय उम्मीदवारों की बाढ़ आ गई है। 2004 में राजद के वीरचंद पासवान ने भाजपा के संजय पासवान को 56006 मतों से पराजित किया था। इस बार बाहुबली लोजपा सांसद सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा सिंह लोजपा, भोला सिंह भाजपा, राजो सिंह की पुत्रवधू सुनीला सिंह कांग्रेस, गणेश शंकर विघार्थी सीपीएम, मसीहउद्दीन बसपा के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से अखिलेश सिंह, राजवल्लभ यादव, कौशल यादव या उनकी पत्नी पूर्णिमा यादव उम्मीदवार हो रहे हैं।

बाहूबल और धनबल के बीच यहां कांटे की टक्कर वर्षों बाद देखने को मिल सकती है। भूमिहार यादव जाति के उम्मीदवारों की संख्या अधिक होने से एवं भितरघात से त्रस्त होने के कारण क्षेत्रीय उम्मीदवार बसपा के मसीहउद्दीन इस बार चुनाव में बाजी मार लें, तो यह आश्चर्य नहीं होगा। नवादा में कुल मतदाताओं की संख्या 13,67,742 है।

जमुई नए परिसीमन के बाद बना नया लोकसभा क्षेत्र है। यह बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह एवं श्यामा प्रसाद सिंह के प्रभाव का क्षेत्र रहा है। यहां से इस बार श्याम रजक राजद, भूदेव चौधरी जदयू, अशोक चौधरी कांग्रेस एवं अर्जुन रविदास बसपा के उम्मीदवार हैं। दो चौधरी की लड़ाई एवं नामांकन के समय अर्जुन रविदास की गिरफ्तारी के बाद लालू यादव के सबसे प्रिय नेता श्याम रजक की गोटी लाल दिखती है। यहां मतदाताओं की कुल संख्या 13, 83, 290 है।

नीतिश ने जंगल की एक इंच जमीन नहीं बांटी :आलोक तोमर

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नई दिल्ली, 13 सितंबर- विकास के नाम पर वोट मांग रहे नीतिश कुमार ने वायदा किया था कि वे जंगल की जमीन आदिवासियों के नाम कर देंगे। पूरे पांच साल बिहार में विकास का डंका बजता रहा। नीतिश कुमार को देश और विदेश से प्रमाण पत्र मिलते रहे मगर वन अधिकार कानून के तहत नीतिश कुमार ने एक भी आदिवासी को एक भी इंच जमीन आवंटित नहीं की। इस झूठ का जवाब और कारण क्या हो सकता है?


अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी - वनाधिकार मान्यता कानून 2006 की सबसे नई प्रगति रिपोर्ट में कहा गया है बिहार में किसी भी आदिवासी को कोई जमीन नहीं मिली। जो हजारों दावे आए थे उनमें से सिर्फ तेरह पर विचार किया गया और दस पर फैसला हुआ कि जमीन दी जाएगी मगर जमीन किसी को नहीं दी गई। माओवादी इसे बहुत बड़ा मुद्दा बना रहे है।

यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बिहार उन कई राज्यों में से एक हैं जहां माओवादी वनवासियों के अधिकारों के बहाने ही अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। वन अधिकार कानून का पालन नहीं कर के नीतिश कुमार असल में माओवादियों की ही मदद कर रहे हैं और वैसे भी उन्हें बहुत वीर होने के लिए जाना नहीं जाता। बिहार में वन अधिकार कानून लागू नहीं होने का कारण स्थानीय अधिकारी यह बताते हैं कि वनवासियों को कानून का पता ही नहीं है। इन जड़ मूर्ख अधिकारियों को कौन बताए कि वनवासी तो खैर अनपढ़ हैं मगर आप लोग तो पढ़ कर, इम्तिहान दे कर या रिश्वत खिला कर नौकरी में आए हो, आपको कानून पता क्यों नहीं हैं और उसे लागू क्यों नहीं करते?

बिहार में पूरी आबादी में सिर्फ एक प्रतिशत आदिवासी हैं। वनवासी एक लाख हैं और वे भी आबादी का एक प्रतिशत के आस पास होते हैं। ज्यादातर वनवासी पश्चिमी चंपारण, कैमूर, रोहतास, बांका, नवादा, औरंगाबाद, गया, जमुई, मुंगेर और नालंदा में रहते हैं। बिहार में जिम्मेदारियां टालने का खेल हो रहा है। वन विभाग कहता है कि यह कल्याण विभाग का काम है। वन मंत्री भाजपा के हैं और कल्याण मंत्री जनता दल यूनाईटेड के। वन विभाग का कहना है कि कल्याण विभाग के पास एक हजार से ज्यादा आवेदन पिछले साल पड़े हुए थे और इस साल की संख्या और बढ़ गई है।

उधर विपक्ष को एक चुनावी मुद्दा मिल गया है। राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रामकृपाल यादव ने तो पूरी आंकड़ेबाजी दे कर बताया है कि पिछले दो वर्षों में कितनी बड़ी संख्या में आदिवासी और वनवासी माओवादियों के साथ चले गए हैं। झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ में वन अधिकार कानून का भरपूर पालन किया गया है और इसमें छत्तीसगढ़ सबसे आगे आता है।

नीतिश कुमार दरअसल विकास के मनमोहन सिंह वाले जाल में फंस गए। उन्हें निवेश, सकल घरेलू उत्पादन निर्यात और संसाधनाें के विकास यानी रईसों के सारे कामों में दिलचस्पी है। जंगलों की तरफ वे मुड़ कर भी नहीं देखते। जिन विभागों का बजट सबसे कम हैं उनमें से वन विभाग सबसे नीचे आता है। वनवासियों के लिए अस्पताल तक नहीं खुले। गरीबों के लिए बांटा जाने वाला अनाज या तो वहां तक पहुंचा ही नहीं या चावल खाने वाले आदिवासियों को गेहूं और चने भेज दिए गए जो उन्होंने जानवरों को खिला दिए। नीतिश कुमार जातियों के समीकरण पर चाहे जितना भरोसा कर रहे है, सच यह है कि विकास का उनका मुहावरा बुरी तरह पिट गया है।

लालू-पासवान का मुख्यमंत्री हो मुसलमान!

पंकज कुमार युवा पत्रकार और पिछले पांच सालों से हिंदी पत्रकारिता जगत से जुड़े हैं। दूरर्शन के जागो ग्राहक जागो के लिए असिस्टेंट प्रोड्यूसर, विराट वैभव में संवाददाता, एमएच वन न्यूज में असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर काम कर चुके हैं। राष्ट्रीय पाक्षिक अखबार शिल्पकार टाइम्स में (जुलाई 2010 से) असिस्टेंट एडिटर के पद पर कार्यरत।



बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है लेकिन उससे पहले पाटलिपुत्र के युद्ध में हर दल या मोर्चा-दूसरे मोर्चे की राजनीतिक जमीन अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटा है। राजनीति के इस खेल में कौन किस पर भारी पड़ेगा, इसकी कुंजी तो जनता जनार्दन के पास है। लेकिन उससे पहले नेता वोट की राजनीति को जात-पात, सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द केंद्रित करने की कोशिश में जुटे हैं। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में मात खाए लालू यादव और रामविलास पासवान ने राजनीतिक इच्छा व्यक्त की है कि राज्य में एक मुस्लिम उपमुख्यमंत्री हो?

इसका सीधा मतलब हुआ कि अगर विधानसभा चुनाव के बाद लालू-पासवान के गठजोड़ वाली सरकार बनी तो राज्य में मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री भी होंगे। लेकिन लालू-पासवान की इस मंशा पर शक और सवाल उठना लाजिमी है। सबसे अहम सवाल कि सत्ता में आने पर मुस्लिम उपमुख्यमंत्री ही क्यों, मुख्यमंत्री क्यों नहीं? दूसरा सवाल क्या यह मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति नहीं है? तीसरा सवाल क्या यह जनभावना है? चौथा सवाल जब संयुक्त तौर पर सीट और कुर्सी का बंटवारा हुआ उस वक्त घोषणा क्यों नहीं की गई? पांचवा सवाल सामाजिक ध्रुवीकरण के बदले विकास के मुद्दे चुनावी एजेंडा क्यों नहीं?

ऐसे कई सवाल है जो लालू-पासवान की टीम द्वारा मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की वकालत को कटघरे में खड़े करते हैं। सवाल यह भी है कि किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री पद पर आसीन करने के मुद्दे पर फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद लालू यादव और रामविलास पासवान आपस में भिड़ गए और इस प्रकरण के बाद पासवान ने समर्थन देने से मना कर दिया। आखिर 2010 विधानसभा चुनाव आते-आते पासवान का मुस्लिम प्रेम पीछे क्यों छूट गया? यह लालू-पासवान की राजनीतिक अवसरवादिता नहीं तो और क्या है? फरवरी 2005 में लालू यादव अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, जबकि रामविलास पासवान किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाने पर अड़े थे। नाक की इस लड़ाई की वजह से राज्य को राष्ट्रपति शासन और साल के भीतर दूसरी बार चुनाव का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि पांच साल पहले पासवान ने ही मुस्लिम मुख्यमंत्री का नारा दिया। लेकिन इस बार जब भावी मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी का मौका आया तो लालू के नाम पर सहमति दे दी। इतना ही नहीं उपमुख्यमंत्री पद पर अपने छोटे भाई पशुपति पारस की दावेदारी करने में जरा भी देरी नहीं की। इस ऐलान पर जब खलबली मची तब जाकर पासवान ने गठबंधन सरकार बनने पर मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दिया।

2005 में बिहार विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री किसी मुस्लिम को बनाने को लेकर कई दिनों तक सियासी ड्रामा चलता रहा, उसके पीछे भी लालू-पासवान की वोट बैंक की सियासत ही थी। रामविलास पासवान मुस्लिम मुख्यमंत्री का पाशा फेंककर लालू प्रसाद यादव के मुस्लिम वोट पर काबिज होना चाहते थे। उनकी मंशा बिहार में लालू प्रसाद यादव से बड़े जनाधार वाला नेता के तौर पर उभरने की थी। इतना ही नहीं वह अपनी छवि दलित नेता तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। 2005 मंे लोजपा प्रमुख का गुप्त एजेंडा यह था कि मुस्लिम-दलित समीकरण के जरिए राज्य के करीब 32 फीसदी वोट पर सेंध लगा सके। लेकिन लालू यादव ने रामविलास पासवान के इस राजनीतिक दांव को कामयाब नहीं होने दिया। उन्होंने एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को बनाए रखने के लिए सरकार नहीं बनाना ही बेहतर समझा और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।

दोनों दलों के प्रमुखों का यह ऐलान उनके आत्मविश्वास में कमी, कमजोर पड़ती सियासत और चुनाव पूर्व हार के डर को भी दिखाता है। 1980 में लालू यादव ने जब बिहार की सत्ता संभाली तो उस वक्त मुस्लिमों ने भागलपुर दंगों की वजह से कांग्रेस से दूरी बनाई और जनता दल को वोट दिया। 1997 में लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का गठन किया और अल्पसंख्यकों को बीजेपी के संाप्रदायिक चेहरे का डर दिखाकर वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे। लेकिन 2005 विधानसभा चुनाव में एनडीए ने जेडीयू नेता नीतीश कुमार का सेक्युलर चेहरा पेश किया, तो आरजेडी का एमवाई (मुस्लिम-यादव) तिलिस्म टूट गया। लालू से मोहभंग हो चुके अल्पसंख्यकों ने न सिर्फ आरजेडी से बल्कि एलजेपी से भी किनारा कर लिया। पिछले पांच साल में नीतीश सरकार की कार्यशैली से अल्पसंख्यक समाज में रोजगारोन्मुख, भयमुक्त और गैर संप्रदायवाद का संदेश गया है। मुस्लिम वोटरों के इस रूख से लालू-पासवान की परेशानी बढ़ना लाजिमी है। यही वजह है कि दोनों नेता एमवाईडी (मुस्लिम-यादव-दलित) समीकरण का हथकंडा अपना रहे हैं। राजनीति के माहिर दोनों नेता जातीय समीकरण की बदौलत करीब 11 फीसदी यादव, 16 फीसदी दलित और राज्य की आबादी के करीब 16 फीसदी मुस्लिम वोटरों को गोलबंद कर सत्ता का सुख भोगना चाहते हैं। इस पूरी आबादी को जोड़ा जाए तो यह कुल आबादी का 43 फीसदी है। मुस्लिम उपमुख्यमंत्री का शिगूफा इसी कड़ी का एक हिस्सा भर है। आरजेडी-एलजेपी का कहना है कि राज्य में दो-दो उपमुख्यमंत्री का होना कोई नई बात नहीं है। अगर दोनों नेताओं को लगता है कि इस समीकरण से मुस्लिम-यादव-दलित मतदाता एक हो जाएंगे, और उनका गठबंधन जीत जाएगा, तो वह इस तरह के दर्जनों उपमुख्यमंत्रियों की घोषणा कर सकते हैं।

आरजेडी प्रमुख लालू यादव की पार्टी ने बिहार में लगातार 15 साल तक एमवाई, (माइ) यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के भरोसे शासन किया, पिछड़े समुदाय के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदाय ने भी लालू यादव का पूरा साथ दिया। जातीय-धार्मिक भावना उभारकर आरजेडी लगातार तीन बार सत्ता में बनी रही और इस बार भी रोजी-रोटी, सामाजिक बराबरी के बदले जज्बाती सवालों पर गोलबंदी की जा रही है। अच्छा तो यह होता कि लालू-पासवान जनभावनाओं को ख्याल में रख कर रोजी-रोटी, गरीबी, बिजली, सड़क, पानी, भ्रष्टाचार, सूखा, लालफीताशाही को मुद्दा बनाते और बिहार की जनता के सामने बेहतर विकल्प पेश करते। इसमें कोई शक नहीं कि विधानसभा चुनाव में जाति का प्रभाव रहेगा ही।

दोनों नेता भले ही अक्टूबर 2005 विधानसभा चुनाव की हार को आरजेडी-एलजेपी गठबंधन का टूटना और लोगों में भ्रम की स्थिति को कारण बता रहे हो। लेकिन सच यह है कि बिहार की जनता तुच्छ राजनीति से तंग आ चुके थे और उन्हें जनता से जुड़े सरोकार वाली सरकार चाहिए। यही वजह है कि अक्टूबर में विधानसभा चुनाव के बाद हुए लोकसभा चुनाव में आरजेडी चार सीटों पर सिमट गई, जबकि रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा का सूपड़ा साफ हो गया। राज्य में इसके बाद हुए उपचुनाव में भी एनडीए गठबंधन को बड़ी जीत मिली। इस बीच यह जरूर हुआ कि सितंबर 2009 में बिहार विधानसभा के 18 क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में एनडीए गठबंधन 13 सीटों पर हार गया। बटाईदारी विवाद से उत्पन्न विशेष उन्मादपूर्ण परिस्थिति में वे उपचुनाव हुए थे। तब से अब तक राज्य की राजनीतिक परिस्थिति व मनःस्थिति बदल गई लगती है।

लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने राजनीति के गुर समाजवादी जननेता जय प्रकाश नारायण और लोहिया जी से भले ही सीखे हो, लेकिन सत्ता सुख के लालच ने दोनों नेताओं को अपने सिद्धांतों से भटका दिया है। मौजूदा राजनीति को देखकर लगता है कि आरजेडी प्रमुख लालू यादव और लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान सामाजिक सरोकारों के मुद्दों से दूर होते जा रहे है। लालू-पासवान की जोड़ी जब से राज्य और केंद्र की सत्ता से दूर हुई है तब से दोनों कदमताल मिलाते चल रहे है। उन्हें पता है कि जब तक उनके पास संख्या बल नहीं होगा, तब तक दिल्ली और पटना में उन्हें पूछनेवाला कोई नहीं। लेकिन संख्या बल जन समर्थन से जीता जाता है जिसको पाने के लिए जातिगत फॉर्मूला हर चुनाव में फिट बैठे यह जरूरी नहीं। होना तो यह चाहिए था कि 2005 विधानसभा चुनाव में हार से सबक सीखते और अपने राजनीतिक नजरिए पर पुनर्विचार कर बिहार की जनता के विश्वास को दोबारा हासिल करते। लेकिन चुनावी दस्तक के साथ ही लालू- पासवान जाति-धार्मिक समीकरण के बलबूते विकासीय जरूरतों को पटखनी देकर चुनाव जीतना चाहते हैं। फैसला बिहार की जनता को करना है कि वह राज्य की तकदीर अगले पांच साल तक किसके हाथों में सौंपना चाहती है?

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Monday, September 13, 2010

Another showdown between top allies in Bihar?

http://www.asianage.com/india/another-showdown-between-top-allies-bihar-757

Increasing possibilities of the BJP inviting Gujarat chief minister Narendra Modi to campaign for it for the Assembly polls in Bihar have heightened the JD(U)’s worries and set the stage for yet another showdown between Bihar’s two ruling allies.

BJP national vice-president Mukhtar Abbas Naqvi’s statement in Delhi on Monday that Mr Modi would be among top BJP leaders campaigning in Bihar failed to evoke any direct response from Bihar chief minister and JD(U) leader Nitish Kumar. Known for his steadfast opposition to any suggestion for getting Mr Modi to campaign for the NDA in Bihar, Mr Kumar laughed enigmatically when asked about Mr Naqvi’s statement, which the BJP leader later retracted.

“I do not know about it (Naqvi’s statement). Why do you ask fictitious questions? You are asking because you may be knowing, but I do not know,” said Mr Kumar to reporters pressing him for a comment. But JD(U) sources said soon after news of Mr Naqvi’s statement reached him, Mr Kumar frowned and contacted JD(U) chief Sharad Yadav, who had a meeting with top BJP leaders earlier in the day to streamline a joint strategy for the Assembly polls.

Bihar BJP president C.P. Thakur also said he had no idea about Mr Modi’s coming to Bihar. Unlike some other BJP leaders in Bihar, Mr Thakur, however, has never enthusiastically spoken in favour of the Gujarat chief minister’s need for campaigning in Bihar.

According to JD(U) leaders, the BJP’s insistence on getting Mr Modi to campaign in Bihar could harm the NDA’s chances in the October-November polls.


Vinod Paswan inducted into Congress in Bihar

http://www.dnaindia.com/india/report_vinod-paswan-inducted-into-congress-in-bihar_1437511

Vinod Paswan, a close associate of incarcerated former MP Anand Mohan, was today inducted into the Congress in the presence of Mukul Wasnik, union minister and AICC general secretary as well as in-charge Bihar affairs.

Paswan, who got an opportunity to address the gathering at S K Memorial in Patna today to welcome the return of former union minister Nagamani to the Congress fold, expressed his desire to contest from Sonebersa (SC) constituency and criticised LJP chief Ram Vilas Paswan for dividing the society on caste lines.

Mohan's wife, Lovely Anand, a former MP was also present on the occasion.

Anand Mohan is behind bars for his alleged involvement in the killing of Gopalganj district magistrate G Krishnaiah in 1994.


Ramai Ram to contest elections

Bihar SC commission chairman resigns to contest polls

PTI | 04:09 PM,Sep 13,2010

Patna, Sep 13 (PTI) Bihar Scheduled Caste Commission Chairman Ramai Ram today resigned and announced to contest the elections from Bochaha assembly constituency in Bihar's Muzaffarpur district on a ruling JD-U ticket.Ram went to Chief Minister Nitish Kumar's official residence this morning to submit resignation.Later, talking to reporters, Ram said he would throw his hat into the ring from Bochaha assembly seat which he had represented for five times in a row.Ram, who was a senior minister in Lalu Prasad and Rabri Devi cabinets, had resigned from RJD shortly before the LS poll and switched over to Congress which rewarded him a party ticket to contest LS elections from Gopalganj.After facing a humiliating defeat from Gopalganj, Ram switched over to the ruling JD-U, but had lost the 1999 bye-elections to the Bochaha assembly seat.Chief minister had a few months ago appointed Ram as chairman of the commission.

Bihar polls a litmus test for Rahul: Indian Express

http://www.indianexpress.com/news/bihar-polls-a-litmus-test-for-rahul/680644/

After tasting success in Uttar Pradesh, the poll-bound Bihar is going to be a litmus test for Rahul Gandhi, who is actively involved in the party affairs in the state.

The General Secretary in-charge of Indian Youth Congress (IYC) and NSUI started his forays in Bihar earlier this year with a series of meetings to prepare the ground for the organisational elections in the Indian Youth Congress.

Earlier this month, he again held meetings in the state and raised a number of issues and focussed on development to mobilise the youth, farmers and other sections of the society.

Organisational elections for IYC have been successfully completed in the state and a cadre of youth Congress is there in every panchayat of the state where Congress has politically been on the sidelines for the last 20 years.

In every panchayat, the lowest unit of elections, there are two elected representatives of the IYC.

Similarly, at the level of Assembly segment and Lok Sabha segment, there are two representatives each who are the torch-bearers of the party in the state where the organisation has suffered over the years as the party has been out of power

for two decades at a stretch after the Mandal politics.

At the state level too, there are a set of office-bearers who are working to improve the graph of the party.

Party sources said several of these IYC elected members would be given party nomination, even if they are not in a position to win, so that they gain experience in electoral politics in the long run.

In the last Lok Sabha election, Gandhi had actively lobbied for party nomination for the youth so that they get valuable experience. Several of them won bringing in a new dynamism in the party affairs.

Though the poll itinerary of Gandhi in Bihar is yet to be prepared, party leaders said he is slated to address a series of rallies to enthuse the workers and the cadres and bring back the old glory of the party in the state.

Like Uttar Pradesh, where Gandhi was instrumental in initiating a policy of going it alone, in Bihar too the party will fight on its own without any alliance. Congress is hoping that Gandhi's "right medicine" will help resuscitate the party in Bihar.

"We were ill there (Bihar). We got a good doctor, who gave us the right medicine. There is a change of mindset in Bihar after Rahul Gandhi's visit there. We will reach our destination under his leadership," senior party leader and Minority Affairs Minister Salman Khurshid has said.

The state, where six-phase elections are being held beginning October 20, has seen Congress on crutches of RJD and the LJP in the past.

In the 243-member assembly, Congress has only 10 members. The party won two out of the 40 Lok Sabha seats in general elections last year though it considerably improved its vote share.

Eyeing a larger pie this time round, Congress has already done the spadework with the visit of over a dozen Union Ministers in the state in the last two months. More ministers are slated to go to the state for electioneering, particularly when the polls have been announced.

The Gandhi 'magic' was in full flow in Uttar Pradesh, where the party won an impressive 22 seats in the 2009 Lok Sabha election, its best performance in 20 years.

Congress leaders are hoping for the repetition of this in Bihar as well.