केजरीवाल मोदी के 'कार्पोरेट जाल' में फंस गए. जब-तक वो कांग्रेस
पर हमला कर रहे थे, 'कार्पोरेट मीडिया' उनके साथ थी, जैसे ही उन्होंने मोदी
पर हाथ डाला, मीडिया को 'केजरीवाल' में ढेरों नुख्स नजर आने लगे, क्यों?
वो मोदी के खिलाफ अब जो कर रहे है, वो 'बहुत देर से और बहुत कम है'.
इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के दौर
में बाबा से लेकर श्री-श्री और अन्ना सब अरविन्द केजरीवाल के साथ थे;
क्योंकि, कार्पोरेट फ़ोर्स यह चाहती थी. वो जानती थी, मोदी को लाना है, तो
पहले कांग्रेस को भ्रष्ट्राचार के मामले में अलग-थलग करना होगा.
इसलिए
जिस 'कार्पोरेट मीडिया' ने नक्सलीयों को आतंकवादी बता दिया था, और
सलवा-जुडूम पर मौन थी, तो देश के सारे जन-आन्दोलन को नाकारा हुआ था, वहीं
'भष्ट्राचार' के खिलाफ इस
आन्दोलन को दूसरी-आजादी का आन्दोलन बताते नहीं थकी.
उस समय आर एस एस से
लेकर भाजप चुप रहे . केजरीवाल भी न जाने क्यों. भाजप के भष्ट्राचार पर चुप
रहे; जैसे: गुजरात में 'लोकायुक्त' तक ना बनने , अडानी आदि के मुद्दे पर
'मौन' रहे!
इसके बाद जब 'आप' बनी तो उसने भी कांग्रेस को 'भ्रष्ट्राचार'
के मामले में 'सिंगल आउट' किया. क्योंकि, तब उनकी सोच देश की नहीं थी, वो
सोच रहे थे, अगर दिल्ली में
चुनाव जीतना है, तो कांग्रेस और शीला दीक्षित को टारगेट करो, और यहीं वो
फंस गए.
अब, अगर अरविन्द केजरीवाल यह सोच रहे है, कि वो दो दिन का गुजरात
दौरा कर या वाराणसी में चुनाव लड़ मोदी को मत देंगे , तो वो 'बचकाना' होगा.
उनके कांग्रेस के खिलाफ दो साल लम्बे प्रचार से ना सिर्फ कांग्रेस का वोट
बैंक हिला, बल्कि उन्होंने जो कांग्रेस का वोट बैंक अपने तरफ खीचा है, वो
कम से कम २५% सीटों पर
मोदी के लिए फायदेमंद होगा.
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